Showing posts with label झंझावात. Show all posts
Showing posts with label झंझावात. Show all posts

Monday, 19 April 2021

रक्तरंजित बिसात

वक्त की, ये रक्तरंजित बिसात,
शह दे या मात!

कौन जाने, क्या हो अगले पल!
समतल सी, इक प्रवाह हो, 
या सुनामी सी हलचल!
अप्रत्याशित सी, इसकी हर बात!

वक्त की, ये रक्तरंजित बिसात,
शह दे या मात!

प्राण फूंक दे या, ये हर ले प्राण!
ये राहें कितनी, हैं अंजान!
अति-रंजित सा दिवस,
या इक घात लगाए, बैठी ये रात!

वक्त की, ये रक्तरंजित बिसात,
शह दे या मात!

जाल बिछाए, वक्त के ये मोहरे,
कब धुंध छँटे, कब कोहरे,
कब तक हो, संग-संग,
कब संग ले उड़े, इक झंझावात!

वक्त की, ये रक्तरंजित बिसात,
शह दे या मात!

कोरोना, वक्त का धूमिल होना,
पल में, हाथों से खो देना,
हँसते-हँसते, रो देना,
रहस्यमयी दु:खदाई, ये हालात!

वक्त की, ये रक्तरंजित बिसात,
शह दे या मात!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 18 April 2020

वे लिख गए क्या

क्या लिख गए वो, मुझको सुना?
ऐ हवा, जरा तू गुनगुना!

कोई तो बात है, जो महकी सी ये रात है!
या कहीं, खिल रहा परिजात है!
नींद, नैनों से, हो गए गुम,
कुछ तो बता, लिख रही क्या रात है!

मुस्कुराए ये फूल क्यूँ, डोलते क्यूँ पात है?
शायद, कोई, दे गया सौगात है!
चैन, अब तो, हो गए गुम,
कुछ तो बता, कह रही क्या पात हैं!

क्यूँ बह रही पवन, कैसी ये, झंझावात है?
किसी से, कर रही क्या बात है?
हो रही, कैसी ये विचलन?
बता दे, क्यूँ झूमती ये झंझावात है?

कुछ है अधूरा, अधलिखा सा जज्बात हैं!
उलझाए मुझे, ये कैसी बात है!
झकझोर जाती है ये बातें,
तु मुझको बता, ये कैसे जज्बात हैं?

क्या लिख गए वो, मुझको सुना?
ऐ हवा, जरा तू गुनगुना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 6 March 2020

बरसों ढ़ले

बरसों ढ़ले, सांझ तले, तुम कौन मिले!

फिर पनपा, इक आस,
फिर जागे, सुसुप्त वही एहसास,
फिर जगने, नैनों में रैन चले!

बरसों ढ़ले, सांझ तले, तुम कौन मिले!

फिर पंकिल, नैन हुए,
फिर, कल-कल उमड़ी करुणा,
फिर स्नेह, परिधि पार चले!

बरसों ढ़ले, सांझ तले, तुम कौन मिले!

फिर मिली, वही व्यथा,
फिर, झंझावातों सी बहती सदा,
फिर एकाकी, दिन-रैन ढ़ले!

बरसों ढ़ले, सांझ तले, तुम कौन मिले!

फिर ढ़ली, उमर सारी,
सुसुप्त हुई, कल्पना की क्यारी,
इक दीपक, सा मौन जले!

बरसों ढ़ले, सांझ तले, तुम कौन मिले!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 23 May 2018

झ॔झावात

धुन में घुलते ये साज, बेसुरे हुए हैं क्यूं आज?

जीवन के ये झंझावात,
पल पल आँहों में, घिसते ये हालात,
अन्तर्मन में पिसती कोई बात,
धुन से भटकते ये साज.....
ऐसे में मन को कोई छू जाए,
दर्द दिलों के कम जाए,
धुन ऐसी ही कोई, सुना दे ना तू आज!

धुन में घुलते ये साज, बेसुरे हुए हैं क्यूं आज?

कोई अपनों से हो नाराज,
मीठे से रिश्तों में भर जाए खटास,
नदारद हो मिश्री की मिठास,
ये मन रहता हो उदास.....
ऐसे में गीत मधुर कोई गाए,
स्वर लहरी सी लहराए,
सुर ऐसी ही कोई, सुना दे ना तू आज!

धुन में घुलते ये साज, बेसुरे हुए हैं क्यूं आज?

सुरविहीन से ये अंधड़,
दिलों के अन्दर उतार गए ये खंजर,
सुख चैन कहाँ अब पल भर,
भावविहीन ये झंझावात....
ऐसे में स्पर्श कोई कर जाए,
भाव-प्रवण कर जाए,
गीत ऐसा ही कोई, सुना दे ना तू आज!

धुन में घुलते ये साज, बेसुरे हुए हैं क्यूं आज?

चिंतित करते ये लम्हात,
ये जीवन के भयंकर से झंझावात,
ना ही सर पर हो कोई हाथ,
बेकाबू से हों हालात......
ऐसे में हाथ कोई रख जाए,
रौशन राह दिखा जाए,
राग कोई ऐसी ही, सुना दे ना तू आज!

धुन में घुलते ये साज, बेसुरे हुए हैं क्यूं आज?

Wednesday, 17 February 2016

उम्मीद की शाख

नाउम्मीद कहाँ वो, उम्मीद की शाख पर बैठा अब भी वो।

एक उम्मीद लिए बैठा वो मन में,
दीदार-ए- तसव्वुर में न जाने किसके,
हसरतें हजार उस दिल की,
ख्वाहिशें सपने रंगीन सजाने की।

एक प्यासा उम्मीद पल रहा वहाँ,
तड़पते छलकते जज्बात हृदय में लिए,
नश्तर नासूर बने उस दिल की,
हसरतें पतंगों सी प्रीत निभाने की।

एक उम्मीद विवश बेचैन वहाँ,
झंझावात सी अनकही अनुभूतियाँ मन में लिए,
निःस्तब्ध पुकार दिल मे उसकी,
चाह सिसकी की प्रतिध्वनि सुनाने की।

नाउम्मीद कहाँ वो, एक उम्मीद लिए बैठा अब भी वो।

Friday, 22 January 2016

सांध्य झंझावात

झंझावात क्या डरा पाएंगे जीवन को?

सांध्य गगन में उड़ते नीड़ों को खग,
रवानियाँ करते झूमते हवाओं मे तब,
भूले रस्ता झंझा के झोंकों में पड़कर,
हठात् सोचते क्या  होगा आगे अब।

झंझावात क्या ले पाएंगे जीवन से?

पीड़ा पंखों की उठती चुभती दंश सी,
भेंट चढ गए मित्र-गण झंझावात की,
चिन्ता सताती नीर  व नन्हे चूजों की,
नन्ही जान अटक सी जाती खग की।

झंझावात कितना सताएंगे जीवन को?

सांध्य निष्ठुर कैसा जीवन का आँचल,
उपर गरजता प्रलय के काले बादल,
फुफकारता नाग सा सृष्टि का अंचल,
जीवन फिर भी रुकता नही प्रतिपल।

झंझावात क्या रोक पाएंगे जीवन को?

Friday, 25 December 2015

क्षण-क्षण मधु-स्मृतियाँ

धुँधली रेखायें, खोई मधु-स्मृतियों के क्षण की,
चमक उठें हैं फिर, विस्मृतियों के काले घन में,

घनघोर झंझावात सी उठती विस्मृतियों की,
प्रलय उन्माद लिए, उर मानस कम्पन में,

जाग उठी नींद असंख्य सोए क्षणों की,
हृदय प्राण डूब रहे, अब धीमी स्पन्दन में,

गहरी शिशिर-निशा में गूंजा जीवन का संगीत,
जीवन प्रात् चाहे फिर, अन्तहीन लय कण-कण में,

जीवन पार मृत्यु रेखा निश्चित और अटल सी,
प्राण अधीर प्रतिपल चाहे मधुर विस्मृति प्रांगण मे,

बीते क्षणों के स्पंदन में जीवन-मरण परस्पर साम्य,
मिले जीवन सौन्दर्य, मर्त्य दर्शन, प्रतिपल हर क्षण में,

धुँधली रेखाओं की उन खोई मधु-स्मृतियों संग,
कर सकूं मृत्यु के प्रति, प्राणों का आभार क्षण-क्षण में!