Saturday 29 October 2022

मैं चाहूँ

मैं चाहूँ....

ह्रदय पर तेरे, कोई प्रीत न हो अंकित,
कहीं, मेरे सिवा,
और, कोई गीत न हो अंकित!
बस, सुनती रहो तुम,
और मैं गांऊँ!

मैं चाहूँ....

नैन पटल पर, तेरे, उभरे ना रंग कोई,
मैं ही, उभरूं,
क्षितिज के, सिंदूरी अलकों से,
उतरूं, तेरी पलकों में,
यूं ही, संवरूं!

मैं चाहूँ....

कोई दूजी ना हो, और, कहीं कल्पना,
इक, मेरे सिवा,
उभरे ना, सिंदूरी कोई अल्पना,
बस, सजती रहो तुम,
और, मैं देखूं!

मैं चाहूँ....

मध्य कहीं, रह लो तुम व्यस्त क्षणों में,
छू जाओ तन,
मंद सलिल बन, सांझी वनों में,
दे जाओ, इक एहसास,
मन, रंग लूं!

मैं चाहूँ....

तेरी खुशबू, ले आए मंद बयार कोई,
बस, मुझ तक,
रुक जाए, वो महकी पुरवाई,
यूं, मंत्रमुग्ध करो तुम,
मैं खो जाऊं!

मैं चाहूँ....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday 24 October 2022

अतः शीघ्रता कर

रात भर, अंधियारों से लड़कर,
जरा सा, थक चला!
शीघ्रता कर, इक दीप और जला!

ताकि, दीप्त सा वो राह, प्रदीप्त रहे,
अंधियारा, संक्षिप्त रहे,
मुक्तकंठ पल हों, आशाओं के कल हों,
निराशा के क्षण, लुप्त रहें!

अतः शीघ्रता कर......

कदम डगे ना, रोभर उन, राहों पर,
तमस, हंसे ना तुझपर,
जलते से, नन्हें प्यालों में, संताप जले,
अधर-अधर, बस हास पले!

अतः शीघ्रता कर......

आलोकित कर, साधना का पथ,
तू साध जरा, यह रथ,
हों बाधा-विहीन, अग्रसर हों पग-पग,
मन-विहग, हर डाल मिले!

अतः शीघ्रता कर......

रात भर, अंधियारों से लड़कर,
जरा सा, थक चला!
शीघ्रता कर, इक दीप और जला!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday 22 October 2022

ले चला कौन

बड़ा ही मौन, मन का वो भीनापन,
ले चला कौन!
वो, अपनत्व और अपनापन!

शायद, बरस चुके हैं, बादल!
बिखर चले हैं, घन,
इक शून्य सा है, अन्दर,
ले चला कौन,
उन बादलों से, वो भीगापन!

यूं, शब्द सारे, हो चले हैं गूंगे!
क्यूं, लबों को ढूंढें?
हैं पुकार सारे, बेअसर,
ले चला कौन,
मुखर शब्दों से, वो पैनापन!

बेनूर, बेरंग सी मेरी परछाईं,
संग, बची है, बस,
वे हंस रही मुँह फेरकर,
ले चला कौन,
इस परछाईं से, मेरी लगन!

अब कहां, आती है वो सदा!
रंग, नैनों से जुदा,
राह, खुद गए हैं मुकर,
ले चला कौन,
सदाओं से, वो दिवानापन!

बड़ा ही मौन, मन का वो भीनापन,
ले चला कौन!
वो, अपनत्व और अपनापन!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday 15 October 2022

चुभते कांटे

अब अपने से लगते हैं वो चुभते कांटे...

हरेक अंतराल,
हर घड़ी, पूछते मेरा हाल,
दर्द भरे, वही सवाल,
बिन मलाल!

अब अपने से लगते हैं वो चुभते कांटे...

उनकी चुभन,
वही, अन्तहीन इक लगन,
हर पल, बिन थकन,
वही छुअन!

अब अपने से लगते हैं वो चुभते कांटे...

जो, वो न हो,
ये मौसम, ये बारिशें न हों,
सब्रो आलम तो हो,
हम न हों!

अब अपने से लगते हैं वो चुभते कांटे...

क्यूं, उन्हें बांटें,
मीठी, दर्द की ये सौगातें,
तन्हा डूबती ये रातें,
यूं क्यूं छांटें!

अब अपने से लगते हैं वो चुभते कांटे...

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)