Sunday 27 November 2022

सालगिरह - 29वां


उनको छू कर,
किनारों से, गुजर रही है ये उमर!

बहाव सारे, बन गए किनारे,
ठहराव में हमारे,
रुक गया, ये कहकशां,
बनकर रह-गुजर!

उनको छू कर,
किनारों से, गुजर रही है ये उमर!

रश्क करता, मुझ पे दर्पण,
भर के आलिंगन,
निहारकर, पल दो पल, 
यूं जाता है ठहर!

उनको छू कर,
किनारों से, गुजर रही है ये उमर!

जज्बात में, इक साथ वो,
अनकही बात वो,
लिख दूं, कैसे, सार वो,
यूं ही कागजों पर!

उनको छू कर,
किनारों से, गुजर रही है ये उमर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)
At Kolkata....


Saturday 19 November 2022

जब-जब ढूंढ़ोगे


विश्रांतियों में, महसूस करोगे!
जब-जब ढूंढ़ोगे!

यूं तो, दो पल चैन कहां, लेने देगी,
यह जीवन, जां ही लेगी,
वन-वन, ये पतझड़ ही, ले जाएगी,
मरुवन सा, जीवन,
बिखरे पलों के रेत शिखर,
लख कर,
अंन्तःवन की,
विश्रांतियों में, महसूस करोगे!
जब-जब ढूंढ़ोगे!

ठहरा सा, गुजरा इक, वक्त भले हूं,
पर लम्हा, इक, जीवंत हूं,
पीछे मुड़कर देखो, तो राह अनंत हूं,
थकाएंगी, ये लम्हा,
पर, सहलाएंगी, वो लम्हा,
हर पग,
थक-थक कर,
विश्रांतियों में, महसूस करोगे!
जब-जब ढूंढ़ोगे!

यूं ना डूबो, उन अनंत रिक्तियों में,
झांको, उन विस्मृतियों में,
ले जाओ, खुद को उन्हीं स्मृतियों में,
वहीं, ठहरा हो कोई,
दो पलकें, यूं ही हों खोई,
जागी सी,
छू जाए शायद!
विश्रांतियों में, महसूस करोगे!
जब-जब ढूंढ़ोगे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday 16 November 2022

झरोखा काम का


वही इक झरोखा...
मेरे काम का!

उभर आती है जो, कितनी सायों के संग,
कभी संदली, कभी गोधूलि,
रातें कभी, बूंदों से धुली,
कहीं झांकती, कली कोई अधखुली,
हर रंग, जिंदगी के नाम का!

वही इक झरोखा...
मेरे काम का!

समेट कर, सिलवटों में, वक्त की करवटें,
यूं लपेटे, कोहरों की चादरें,
वो तो, बस पुकारा करे,
झांकते वो उधर, लिए पलकें खुली,
वो ही सहारा, इक शाम का!

वही इक झरोखा...
मेरे काम का!

वो तो, कैद कर गया, बस परिदृश्य सारे,
बे-आस से वो, दोनों किनारे,
उन, रिक्तियों में पुकारे,
क्षणभंगुर क्षण ये, जिधर थी ढ़ली,
बिखरा, वो सागर जाम का!

वही इक झरोखा...
मेरे काम का!

पर, वो करता कहां अंत की परिकल्पना,
जीवन्त सी, उसकी साधना,
अलकों में, नई अल्पना,
नित, फलक के, नव-रंगों में ढ़ली,
परवाह कहां, उसे शाम का!

वही इक झरोखा...
मेरे काम का!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday 8 November 2022

यह क्षण


इस क्षण में, उस क्षण की बातें क्या करना!
इस क्षण ही जीना, इस क्षण ही मरना।

पीकर जीवन-गरल, ढ़ल गए वो कल,
लूट चले जो सुख चैन, बीत चुके वो पल,
गूंज उसी कल की, क्या सुनना?

इस क्षण में, उस क्षण की बातें क्या करना!

वो बीता क्षण, दे जाए ना भीगा जीवन,
मंद कहीं पर जाए ना, इस क्षण की गुंजन,
उन चिथड़ों को, फिर क्या सीना?

इस क्षण में, उस क्षण की बातें क्या करना!

विदा कर, उस पल को, जो गम ही दे,
अलविदा कर दे उन यादों को, जो दुख दे,
बीते उस पल में, अब क्या जीना?

इस क्षण में, उस क्षण की बातें क्या करना!

कितनी प्यारी सी, इस क्षण की कंपन,
सपनों की क्यारी सी, लगती यह गुलशन,
उन कांटों को, अब क्या चुनना?

इस क्षण में, उस क्षण की बातें क्या करना!
इस क्षण ही जीना, इस क्षण ही मरना।

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday 7 November 2022

क्षणभंगुर


ऐ एकाकी मन, पाले क्यूं, उलझन!

पलकों में, बूटे उग आए थे,
शायद, मेरी ख्वाबों के, वो सरमाए थे!
और, नैन तले, छाए काले घन,
अंतः, मेघों सा गर्जन,
लिए अधीर मन!

ऐ एकाकी मन, पाले क्यूं, उलझन!

सोचे, अब, कैसे ये ख्वाब!
कैसा ये पागलपन, पाले क्यूं, उलझन!
टूट जाते, सावन में ही ये घन,
बिखर जाते हैं, तन,
क्यूं दीवानापन!

ऐ एकाकी मन, पाले क्यूं, उलझन!

क्षण-भंगुर, मेघों के साए,
क्षण भर ही, भाएंगी इनकी क्षणिकाएं,
मुड़ जाएंगे, जाने किस ओर,
ढूंढोगे, कल ये शोर,
फिरोगे, वन-वन!

ऐ एकाकी मन, पाले क्यूं, उलझन!

फिर से ये बूटे, ना उगने दो,
फिर, ख्वाबों के सरमाए, ना बनने दो,
नभ पर, घन आएं, बरस जाएं,
ना ही, ख्वाब दिखाएं,
ना ही अपनापन!

ऐ एकाकी मन, पाले क्यूं, उलझन!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)