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Sunday, 11 July 2021

प्रतीक्षा

युग बीता, न बीती इक प्रतीक्षा.....

निःसंकोच, अनवरत, बहा वक्त का दरिया,
पलों के दायरे, होते रहे विस्तृत!
समेटे इक आरजू, बांधे तेरी ही जुस्तजू,
रहूँ कब तक, मैं प्रतीक्षारत!

हो जाने दो, पलों को, कुछ और संकुचित,
ये विस्तार, क्यूँ हो और विस्तृत!
हो चुका आहत, बह चुका वक्त का रक्त,
रहूँ कब तक, मैं प्रतीक्षारत!

कब तक जिए, घायल सी, ये जिजीविषा!
वियावान सी, हो चली हर दिशा,
झांक कर गगन से, पूछता वो ध्रुव तारा,
रहूँ कब तक, मैं प्रतीक्षारत!

जलती रही आँच इक, सुलगती रही आग,
लकड़ियाँ जलीं, बन चली राख,
पड़ी हवनकुंड में, कह रही जिजीविषा,
रहूँ कब तक, मैं प्रतीक्षारत!

युग बीता, न बीती इक प्रतीक्षा.....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 21 January 2018

आवाज न देना

ऐ भूली सी यादें, आवाज न देना तुम कभी....
सदियों की नीरवता से, मैं लौटा हूँ अभी अभी ।

सदियों तक था तुझमें ही अनुरक्त मै,
पाया ही क्या, जब तुझसे ही रहा विरक्त मैं?
मिली बस पीड़ा और बेचैन घड़ी,
अंतहीन प्रतीक्षा और यादों की लड़ी,
उस वीहड़ घाटी से मैं लौटा हूँ अभी अभी...

ऐ भूली सी यादें, आवाज न देना तुम कभी....

डूबा था मैं क्षितिज की नीरवता में,
तुम ही ले आए थे मुझको उस वीहड़ में!
असहनीय उदासीनता के क्षण में
पग-पग नीरवता के उस गहरे वन में,
उस निर्वात से बस मैं लौटा हूँ अभी अभी...

ऐ भूली सी यादें, आवाज न देना तुम कभी....

बिताई अरसों मैने इक प्रतीक्षा में,
तटस्थ रहा दुनिया से इक तेरी इच्छा में!
काटी तन्हा कितनी निर्जन रातें,
पाई है अंतहीन प्रतीक्षा की सौगातें,
उस प्रतीक्षा से बस मैं लौटा हूँ अभी-अभी....

ऐ भूली सी यादें, आवाज न देना तुम कभी....
सदियों की नीरवता से, मैं लौटा हूँ अभी अभी ।

Tuesday, 19 September 2017

निशिगंधा

घनघोर निशा, फिर महक रही क्युँ ये निशिगंधा?

निस्तब्ध हो चली निशा, खामोश हुई दिशाएँ,
अब सुनसान हो चली सब भरमाती राहें,
बागों के भँवरे भी भरते नहीं अब आहें,
महक उठी है,फिर क्युँ ये निशिगंधा?
प्रतीक्षा किसकी सजधज कर करती वो वहाँ?
मन कहता है जाकर देखूँ, महकी क्युँ ये निशिगंधा?

घनघोर निशा, फिर महक रही क्युँ ये निशिगंधा?

है कोई चाँद खिला, या है वो कोई रजनीचर?
या चातक है वो, या और कोई है सहचर!
क्युँ निस्तब्ध निशा में खुश्बू बन रही वो बिखर!
शायद ये हैं उसकी निमंत्रण के आस्वर!
क्या प्रतीक्षा के ये पल अब हो चले हैं दुष्कर?
मन कहता है जाकर देखूँ, बिखरी क्युँ ये निशिगंधा?

घनघोर निशा, फिर महक रही क्युँ ये निशिगंधा?

यूँ हर रोज बिखरती है टूटकर वो निशिगंधा?
जैसे कोई विरहन, महकती गीत विरह की हो गाती!
आशा के दीप प्राणों में खुश्बू संग जलाती,
सुबासित नित करती हो राहें उस निष्ठुर साजन की,
प्रतीक्षा में खुद को रोज ही वो सजाती....
मन कहता है जाकर देखूँ, सँवरी क्युँ ये निशिगंधा?

घनघोर निशा, फिर महक रही क्युँ ये निशिगंधा?

Monday, 6 March 2017

एकांत प्रतीक्षा

एकांत सदैव स्नेह भरा मेरा ये प्रतीक्षित मन,
ज्युँ एकांत सा है ये सागर,
किसी विवश प्रेमी की भाँति युगों से प्रतीक्षारत.....
प्रतीक्षा के मेरे ये युग तुम ले लो!
चैनो-सुकून के मेरे पल मुझको वापस दे दो!

एकांत मेरे स्वर में है क्रंदन सा स्नेह गायन,
ज्युँ दहाड़ता है ये सागर,
बार बार इन गीतों को जग कर गाता है ये मन.....
प्रतीक्षा के मेरे ये गीत तुम ले लो!
उनींदी नींदों के मेरे पल मुझको वापस दे दो!

एकांत साँसो में अवरोधित हैं प्राणों के घन,
ज्युँ शांत हुआ है ये सागर,
निष्प्राण हुई हैं साँसे, विरान बाहों का आलिंगन.....
प्रतीक्षित ये आलिंगन तुम मेरा ले लो!
अवरुद्ध सांसो के मेरे घन मुझको वापस दे दो!

प्रतीक्षा के इन एकांत पलों में तुम साथ मेरा दे दो.....

Friday, 30 December 2016

मधुक्षण ले फिर आओ तुम

प्रिये, तुम फिर से आओ मधु-क्षण लेकर इस पल में....
है सूना सा मेरे हृदय का आँगन ,
है आतुर यह चिन्हित करने को तेरा आगमन...
यह अनहद अनवरत प्रतीक्षा कब तक?
लघु जीवन यह, लंबा ....इंतजार...!
मधुक्षण ले तुम आ जाओं फिर एक बार !

क्युँ मुझको है एक हठीला सा विश्वास?
तुम्हारा निश्चय ही आने का ,
बेबस मन है क्युँ हर पल अकुलाहट में,
चू पड़ते हैं क्युँ इन आँख से आँसू .........
क्युँ तुमसे है मुझको अनहद प्यार....?
मधुक्षण ले तुम आ जाओं फिर एक बार !

तुम घन सी लहराओं एक बार !
आतुर हैं मेरी भावनाओं के बादल ..
माधूर्य बरसाने को तुम पर,
समर्पित हूँ मैं पूर्णतः तुमको साधिकार !
मधुक्षण ले तुम आ जाओं फिर एक बार !

हर आहट पर होता है मुझको ....
बस तुम्हारे आने का भ्रम,
खुली ये खिड़की, खुला ये आंगन,
और दो आँखें हैं नम...
बस शेष इतना ही  आभार.................!!!
मधुक्षण ले तुम आ जाओं फिर एक बार !

यदि कहूँ मैं तुम हो ...
मेरे मधुक्षण की माधूर्य मधुमिता,
अतिरेक न होगा ये तनिक भी, हो गर तुमको विश्वास,
तुम चाहो तो आकर ले लेना....
मेरी इन सिक्त बाहों का हार.......
मधुक्षण ले तुम आ जाओं फिर एक बार !

Wednesday, 18 May 2016

प्रतीक्षामय निस्तब्ध निशा

निशा स्तब्ध सी है आज फिर कैसी,
क्या फिर कोई मन प्रतीक्षा में बिखरा है यहाँ?

रजनी रो पड़ी है ज्यूँ ओस की बूँदों मे,
निमंत्रण यह कैसा अब इस सुनसान निशा में,
क्या फिर कोई मन पुकार रहा प्रतीक्षा में यहाँ?

तम सी सुरम्य काया खोई विरान निशा में,
रजनीगंधा भी भूली है खुश्बु इस स्तब्ध निशा में,
ये पल प्रतीक्षा के क्या हो चले हैं दुष्कर वहाँ?

मन कहता है जाकर देखूँ कैसी है यह निशा,
प्रतीक्षा के बोझिल पल वो खुद कैसे है गुजारता?
क्युँ कोई पढ़ नहीं पाता प्रतिक्षित मन की दुर्दशा?

प्रतीक्षा में बीतेगी कैसे यह निस्तब्ध सी निशा?
जा कह दे उस बैरी से कोई सूख चुकी रजनीगंधा,
छलक रहे नीर नयनों में पलक्षिण दुष्कर यहाँ!

निशा स्तब्ध सी है आज फिर कैसी,
क्या फिर कोई मन प्रतीक्षा में बिखरा है यहाँ?

Thursday, 21 April 2016

मन में प्रतीक्षा के ये पल

साँसे लेती रहें सदा, प्रतीक्षा के ये पल मन में!

सुन ओ मीत मेरी,
प्रतीक्षा की उन्मादित पल के,
गीत वही फिर गाता है मन,
तेरी कल्पित मधुर प्रतीक्षा के।

गीत गाती रहें सदा, प्रतीक्षा के ये पल मन में!

सिहरन बिजुरी सी,
कैसी प्रतीक्षा की इस क्षण में,
ये राग बज रहे विषम,
आस-निराश की उलझन में।

सुलगती रहें सदा, प्रतीक्षा के ये पल मन में!

प्रतीक्षा की ये घड़ियाँ,
होते मादक मिलन के पल से,
तरंग पल-पल उठते,
सिहरित आशा की आँगन में।

तरंगित होती रहें सदा, प्रतीक्षा के ये पल मन में!

ओ मेरे प्रतीक्षित मीत,
प्रतीक्षा की पल को तु कर दे विस्तृत,
धुन वही एक तेरी होती रहें तरंगित,
पलकें बिछ जाएँ बस इक तेरी आशा में।

साँसे लेती रहें सदा, प्रतीक्षा के ये पल मन में!

प्रतीक्षारत

स्नेह मन का प्रतीक्षारत, तुम प्रतीक्षा के ये पल ले लो!

मैं सागर प्रीत का एकांत स्नेह भरा,
सिहरता पल-पल प्रतीक्षा की नेह से भरा,
प्रतीक्षा की इल पल को स्नेहित कर दो,
नेह का तुम मुझसे इक अटूट आलिंगन ले लो।

गीत मन की प्रतीक्षारत, तुम गीत मेरे मन के ले लो!

सुन ऐ मेरे मन के चिर प्रतीक्षित मीत,
कहता है कोई, प्रतीक्षा तो स्वयं भी है एक गीत,
बार बार जिसको जग कर ये मन गाता है,
तुम मेरी प्रतीक्षा का चिर स्नेहित गीत ले लो।

युगों से मन प्रतीक्षारत, तुम प्रतीक्षा के ये युग ले लो!

प्रतीक्षा इस सागर की गहराती हर पल,
गीत वही इक धुन की चिर युगों से प्रतीक्षारत,
प्रतीक्षा के गीतों मे मैं जब-जब जागा हूँ,
कहता उस पल ये मन, हृदय तुम मेरा ले लो।

जागा हूँ मैं प्रतीक्षारत, नींद के पल मेरे मुझको दे दो!

Thursday, 25 February 2016

तुुम मैं होती, मैं तुम होता

कभी सोचता हूँ!
मैं मैं न होता, तेरा आईना होता!
तो क्या क्या होता इस मन में?
क्या गुजरती तुझपर मुझपर जीवन में?

तुम देखती मुझमें अक्श अपना,
हर पल होती समीक्षा जीवन की मेरी,
तेरे आँसूँ बहते मेरी इन आँखों से,
तुम हँसती संग मैं भी हँस लेता,
रूप तेरा देखकर कुछ निखर मैं भी जाता,
मेरा साँवला रंग थोड़ा गोरा हो जाता।

कभी सोचता हूँ!
तुम तुम न होती, मेरी प्रतीक्षा होती!
तो क्या क्या घटता उस पल में?
क्या गुजरती तुझपर मुझपर जीवन में?

द्वार खड़ी तुम देखती राह मेरी,
मैं दूर खड़ा दैेखता मुस्काता,
इन्तजार भरे उन पलों की दास्ताँ,
तेरी बोली में सुनता जाता,
खुश करने को तुम्हें वापस जल्दी आता,
मैं पल पल इंतजार के तौलता।

कभी सोचता हूँ! तुुम मैं होती, मैं तुम होता....