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Sunday, 30 January 2022

कठिन जरा

दो पल, रुक कर, कर ले बात परस्पर,
तो, मिल जाए हल!

शायद, खुल जाए मन की गांठें,
कट पाए, चैन से वो रातें,
घनीभूत कर जाते, अक्सर, जो नैन,
पल-पल, भारी वो रैन,
संताप भरे, जब काली रात ढ़ले,
तो सुन लेना, वो स्वर!

दो पल, रुक कर, कर ले बात परस्पर,
तो, मिल जाए हल!

पर, कठिन जरा, धीर रख पाना,
बहते पल का, रुक जाना,
पल की हलचल में, घुल-मिल जाना,
कोलाहल में, सुन पाना,
बदले परिवेश, थम जाए आवेग,
तो सुन लेना, वो स्वर!

दो पल, रुक कर, कर ले बात परस्पर,
तो, मिल जाए हल!

यूं दुराग्रहों से, उबर पाया कौन?
कौन, जो सुन पाये मौन!
संताप ही भर जाते, आवेशित पल,
थम जाए, जब बादल,
बरस कर, ठहर जाए, जब पल,
तो सुन लेना, वो स्वर!

दो पल, रुक कर, कर ले बात परस्पर,
तो, मिल जाए हल!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 6 May 2020

प्याले

कल तलक, छलक ही जाते थे ये प्याले,
होठों तलक, यूँ आते-आते!
कोलाहल, वो कल के,
खन-खन वो, हल्के-हल्के से,
ठहाकों के गूंज, थे जो दो पल के,
विस्मित से, कर गए वो पल,
विस्तृत हुए ये अस्ताचल,
सिमटने लगे फलक!

चुप भी करो, बस यूँ ही, तसल्ली न दो,
हो चले हैं, खाली ये प्याले,
छलकेंगे, अब ये कैसे,
छू लूँ, तो खनक ही जाएंगे!
हैं गम से ये भरे, टूट ही जाएंगे,
थम जाने दो, ये कोलाहल,
पी चुके, हम, हलाहल,
सर्द आहें न भरो!

गर हो संभव, अतीत, वो ही लौटा दो,
मिटा दो, व्यतीत पलों को,
मोड़ दो, वक्त के रुख,
ये टुकड़े, हृदय के, जोड़ दो,
फिर से छलकाओ, वो ही प्याले,
ठहर जाएं, बहते ये पल,
आए ना, अस्ताचल,
गर हो ये संभव!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 1 April 2020

ओ री सरिता

तू चुप क्यूँ है, री सरिता?

तुझ संग, लहरों सा जीवन बीता,
कल-कल करते, कोलाहल,
ज्यूँ, छन-छन, बज ऊठते पायल,
कर्ण प्रिय, तेरी वो भाषा,
फिर बोल जरा सा!

तू चुप क्यूँ है, री सरिता?

पथ के काटों से, तू लड़ती आई,
हर बाधाओं से, तू टकराई,
संग बहे तेरे, पथ के लाखों कण,
लहरों में, तेरी है आशा,
फिर डोल जरा सा!

तू चुप क्यूँ है, री सरिता?

सावन था, जब बरसे थे बादल,
पतझड़ ने, धोए ये काजल!
मौसम के बदले से, रीते लम्हों में,
रंग सुनहरा, इंद्रधनुष सा,
फिर घोल जरा सा!

तू चुप क्यूँ है, री सरिता?

अल्हड़ सी, यौवन की चंचलता,
शीलत सी, मृदु उत्श्रृंखलता,
कल-कल धारा, बूँदें फिर से लाएंगी, 
छलका दे, मदिरा के पैमाने,
फिर बोल जरा सा!

तू चुप क्यूँ है, री सरिता?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 2 September 2018

वही है जीवन

है जीवन वही, जो मरण के क्षण को जीत ले...

झंकृत शब्दों से मौन को चीर दे,
ठहरे पलों को अशांत सागर का नीर दे,
टूटे मन को शांति का क्षीर दे,
है जीवन वही......

अचम्भित हूं मैं मौन जीवन पे,
कब ठहरा है जीवन मौन की प्राचीर पे,
मृत्यु के पल आते है मौन पे,
है जीवन वही......

मरण दाह है, लौ जीवन की ले,
ज्वलंत पलों से पल जीवन के छीन ले,
यूं जीते जी क्यूँ दाह में जले,
है जीवन वही......

इक गूंज गुंजित है ब्रम्हाण्ड में,
ओम् अहम् वही गुंजित है हर सांस में,
गूंज वही गूंजित कर मौन में,
है जीवन वही......

कोलाहल हो जब ये दीप जले,
हो किलकारी जब भी कोई फूल खिले,
मुखरित मन के संवाद चले,
है जीवन वही......

है जीवन वही, जो मरण के क्षण को जीत ले...

Thursday, 17 May 2018

कोलाहल

वो चुप था कितना, जीवन की इस कोलाहल में!

सागर कितने ही, उसकी आँचल में,
बादल कितने ही, उस कंटक से जंगल में,
हैं बूंदे कितनी ही, उस काले बादल में,
फिर क्यूं ये विचलन, ये संशय पल-पल में!

वो चुप था कितना, शोर भरे इस कोलाहल में!

खामोश रहा वो, सागर की तट पर,
चुप्पी तोड़ती, उन लहरों की दस्तक पर,
हाहाकार मचाती, उनकी आहट पर,
सहज-सौम्य, सागर की अकुलाहट पर!

वो चुप था कितना, लहरों की इस कोलाहल में!

सुलगते जंगल की, इस दावानल में,
कलकल बहते, दरिया की इस हलचल में,
दहकते आग सी, इस मरुस्थल में,
पल-पल पग-पग डसती, इस दलदल में!

वो चुप था कितना, कितने ही ऐसे कोलाहल में!

था इक कण मात्र, वो इस सॄष्टि में,
ये कोलाहल कुछ ना थे उसकी दृष्टि में,
भीगा आपादमस्तक, वो अतिवृष्टि में,
चुपचाप रहा वो, इस जीवन की संपुष्टि में!

वो चुप था कितना, सृष्टि की इस कोलाहल में!

Wednesday, 4 October 2017

कोलाहल

क्या सृष्टि के उस स्रष्टा की, है ये गगनभेदी हुंकार?
काँप उठी ये वसुन्धरा,
उठी है सागर में लहरें हजार,
चूर-चूर से हुए हैं, गगनचुम्बी पर्वत के अहंकार,
दुर्बल सा ये मानव,
कर जोरे, रचयिता का कर रहा मौन पुकार!

क्या सृष्टि के उस स्रष्टा की, है ये गगनभेदी हुंकार?
कोलाहल के है ये स्वर,
कण से कण अब रहे बिछर,
स्रष्टा ने तोड़ी खामोशी, टूट पड़े हैं मौन के ज्वर,
त्राहिमाम करते ये मानव,
तज अहंकार, ईश्वर का अब कर रहे पुकार!

क्या सृष्टि के उस स्रष्टा की, है ये गगनभेदी हुंकार?
या है छलनी उस रचयिता का हृदय!
या पाप की अस्त का, फिर से हुआ है उदय!
या है यह मानव का ही स्व-पराजय!
विजय तलाशते ये मानव,
हो पराश्त, नतमस्तक स्रष्टा को रहे पुकार!

क्या सृष्टि के उस स्रष्टा की, है ये गगनभेदी हुंकार?

Monday, 27 March 2017

हिस्से की जिंदगी

बहुत ही करीब से गुजर रही थी जिंदगी,
कितना कोलाहल था उस पल में,
मगर बेखबर हर कोलाहल से था वो पथिक,
धुन बस एक ही ! अपने मंजिल तक पहुचने की!

मुड़-मुड़कर उसे देखती रही थी जिन्दगी,
पर उसे साँस लेने तक की फुर्सत नहीं,
अनथक कदम अग्रसर थे बस उस मंजिल की ओर,
पल-पल जिंदगी से दूर होते गए उसके कदम।

निराश हतप्रभ अब हो चली थी जिंदगी,
कचनार हो गई हो जैसे सुगंधहीन,
गुलमोहर की कली ज्युँ सूखकर हुई हो कांतिहीन,
प्रगति के पथ पर जिन्दगी से दूर था वो पथिक।

मंजिलों पर वो अब तलाशता था जिंदगी,
हाथ आई सूखी हुई सी कुछ कली,
रंगहीन गंधहीन अध-खिली सहमी बिखरी डरी सी,
छलक पड़े थे नैनों में दो बूँद नीर की भटकी हुई।

बहुत ही करीब से गुजर चुकी थी उसके हिस्से की जिंदगी।

Tuesday, 12 April 2016

बिखरे सपने

मेरे सपनों की माला में, सजते कुछ ऐसे मोती,
खुशियाँ बिखरती चहुँ ओर, प्रारब्ध इक जैसी होती!

जीवन ऐसे भी धरा पर, बिखरे हैं जिनके सपने,
टूटी हैं लड़ियाँ माला की, बस टीस बची है मन में,
चुन चुनकर मोतियों को, सहेज रखे हैं उसनें,
सपने हसीन लम्हों के, पर उनके जीवन से बेगाने।

प्रारब्ध ही कुछ ऐसा, नियति ही कुछ ऐसी,
खुशियों के असंख्य पल बस हाथों को छूकर गुजरी,
बुनते रहे वो लड़ियाँ ही, मोतियाँ सब दामन से फिसली,
माला उस जीवन की खुद ही टूट-टूट कर बिखरी।

ऎसे भी जीवन जग में, साँसें चँद मिली हैं जिनको,
कैसे होते हैं सुख के पल, झलक भी मिल सकी न उनको,
उनके भी तो जीवन थे, फिर जन्म मिली क्युँ उनको?
किन कर्मों की सजा, उस विधाता नें दी है उनको।

मेरे सपनों की माला में सजते कुछ ऐसे ही मोती,
सपने पूरे कायनात की सजती बस इक जैसी,
हसते खेलते सभी जीवन में, कोलाहल क्रंदन ये कैसी?
खुशियाँ बिखरती धरा पर, प्रारब्ध सब की इक जैसी!

Monday, 28 December 2015

साथ मेरे तुम क्यूँ नही आए

कोलाहल मची है मन के अन्दर,
प्राणों के आवर्त मे भी लघु कंपन,
अपनी वाणी की कोमलता से,
कोलाहल क्युँ ना तुम हर जाते,
बोलो ! साथ मेरे तूम क्यूँ नही आए।

इक क्षण को तब मिटी थी पीड़ा,
साथ तुम्हारा मिला था क्षण भर,
कोलाहल तब मिटा था मन का,
तुमसंग जीवन जी गया मैं पल भर,
बोलो ! साथ मेरे तुम क्युँ नही आए।

अवसाद मिटाने तुम आ जाते,
जीवन संगीत सुनाने तुम आ जाते,
वीणा तार छेड़ने तुम आ जाते,
जीवन क्लेश मिटानें तुम आ जाते,
बोलो ! साथ मेरे तूम क्युँ नही आए।

Friday, 18 December 2015

मन पाए न विश्राम क्यूँ?


मन पाए न विश्राम क्युँ?
चातक बन चाहे उड़ जाऊँ,
खुले गगन की सैर करूँ,
आसमान को बाहों मे भर लाऊं

मन की चाह अति निराली,
गति इसकी लांघे व्योम,
बात कहे वो अजब अनोेखी,
पर विवेक करता इसके विलोम,

मन की बात सुनुं तो,
जग कहता, अपने मन की करता है
दूसरों की तो सुनता ही नही,
बावरा है यूं ही डग भरता रहता है

इन्सानों के मन आपस मे कब मिलते है,
यहां तो मन पे पहरे हैं
मन की निराली बातें रह जाती,
मन मे ही व्यथित, कुचलित,
मन की तो भावनाएं ही जग में
कही जाती "कुत्सित"

मन तू कर विश्राम जरा,
अपनी पीड़ा को दे आराम जरा,
जग की वर्जनाओं का तू रख ख्याल,
तुझे भी तो जीना है इसी कोलाहल में,
पूरी संजीदगी के साथ,

अपनी संवेदनाओं को ना तु और जगा,
मन कर तू विश्राम जरा, विश्राम जरा!