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Saturday, 22 June 2019

प्रभा-लेखन

है यह, नव-प्रभात का स्पंदन!
या है यह, प्रकृति का, इक सर्वश्रेष्ठ लेखन!
या, खुद रचकर, इक नव-संस्करण,
प्रकृति, करती है विमोचन!

यूँ, रचती है प्रकृति, हर क्षण इक रचना,
सर्वश्रेष्ठ, सर्वदा देती है वो अपना,
थोड़ा सा आवर्तन, अप्रत्याशित सा परिवर्तन,
कर कोई, श्रृंगार अनुपम,
ले आती है नित्य, नव-प्रभात का संस्करण!

कलियों की आहट में, होती है इक लय,
डाली पर प्रस्फुट, होते हैं किसलय,
बूँदों पर ढ़लती किरणें, ले नए रंगों के गहने,
छम-छम करती, पायल,
उतरती है प्रभात, कितने आभूषण पहने!

किलकारी करती, भोर लेती है जन्म,
नर्तक भौंड़े, कर उठते हैं गुंजन,
कुहुकती कोयल, छुप-छुप करती है चारण,
संसृति के, हर स्पंदन से,
फूट पड़ती है, इसी प्रकृति का उच्चारण!

किरणों के घूँघट, ओढ़ आती है पर्वत,
लिख जाती है, पीत रंग में चाहत,
अलौकिक सी वो आभा, दे जाती है राहत,
मंत्रमुग्ध, हो उठता है मन,
बढ़ाता है प्रलोभन, भोर का संस्करण!

है यह, नव-प्रभात का स्पंदन!
या है यह, प्रकृति का, इक सर्वश्रेष्ठ लेखन!
या, खुद रचकर, इक नव-संस्करण,
प्रकृति, करती है विमोचन!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Friday, 19 April 2019

वादों का नया संस्करण

रुक गए थे जहाँ, पल भर को कदम,
ठहरी है वहीं, वो ठंढ़ी सी पवन,
और बिखरे हैं वहीं, रूठे से कई ख्वाब भी,
चलो मिल आएं हम,
फिर, ख्वाबों से, उन्ही पगडंडियों पर!

लहराए थे तुमने, कभी आँचल जहाँ,
सूना सा है, आजकल वो जहां,
रह रही हैं वहाँ, कुछ चुभन और तन्हाईयाँ,
चलो मिटा आएं हम,
फिर, ये तन्हाईयाँ, उन्हीं पगडंडियों पर!

रख दिए थे जहाँ, मन के सारे भरम,
कहीं होके जुदा, तुम और हम,
न जाने उनपर हुए, वक्त के कितने सितम,
चलो तोड़ आएं हम,
फिर वो भरम, उन्हीं पगडंडियों पर!

जहाँ वादों का था, इक नया संस्करण,
हुआ ख्वाबों का, पुनर्आगमण,
शायद बनने लगे, भ्रम के नए समीकरण,
चलो कर आएं हम,
फिर कुछ वादे, उन्हीं पगडंडियों पर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Monday, 6 August 2018

द्वितीय संस्करण

सम्भव होता गर जीवन का द्वितीय संस्करण,
समीक्षा कर लेता जीवन की भूलों का,
फिर जी लेता इक नव-संस्करित जीवन!

क्या मुमकिन है ये द्वितीय संस्करण?

नए सिरे से होता, तब रिश्तों का नवीकरण,
परिमार्जित कर लेता मैं अपनी भाषाएं,
बोली की कड़वाहट का होता शुद्धिकरण!

क्या मुमकिन है ये द्वितीय संस्करण?

संस्कारी प्रवृत्तियों का करता मैं नव-उद्बोधन,
समूल नष्ट कर देता असंस्कारी अवयव,
कर लेता उच्च मान्यताओं का मैं संवर्धन।

क्या मुमकिन है ये द्वितीय संस्करण?

विसंगतियों से पृथक होता ये जीवन-दर्शन!
कर्मणा-वाचसा न होते विभिन्न परस्पर,
वैचारिक त्रुटियों का कर लेता निराकरण!

क्या मुमकिन है ये द्वितीय संस्करण?

परन्तु, प्रथम और आखिरी है यही संस्करण,
द्वितीय संस्करण इक कोरी सी कल्पना ,
अपनी जिम्मेदारी है यही प्रथम संस्करण!

बस नामुमकिन है ये द्वितीय संस्करण?