Friday, 31 January 2020

चल कहीं-ऐ दिल

चल कहीं, ऐ दिल, भटक न तू यहाँ!

बहा गई, आँधियाँ,
रहा न शेष, कुछ भी अब यहाँ,
ना वो, इन्तजार है!
अब न कोई, बे-करार है!
रास्ते, वो खो चुके,
तेरे वास्ते, थोड़ा वो रो चुके!
है कौन? 
जिनके वास्ते, तू रुके!
ख्वाब, ना सुना!
न कर, तू ये नादानियाँ!

चल कहीं, ऐ दिल, भटक न तू यहाँ!

न देख, तू ये ख्वाब,
तेरी तरह, है प्यासा ये तालाब,
बचा न वो, आब है!
सूखा सा, अब चेनाब है!
पंक बनी, वो धार,
कहीं दूर, हो चली वो धार!
रिक्त अंक!
अंक-पाश, किसे भरे?
साहिल, ये सूना!
कर न, तू मनमानियाँ!

चल कहीं, ऐ दिल, भटक न तू यहाँ!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
 (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 30 January 2020

लम्हा

सामने, मेरे खड़ा,
होता है, हर पल, एक लम्हा मेरा,
खाली या भरा!

वो बहती, सी धारा,
डगमगाए, चंचल सी पतवार सा,
आए कभी, वो सामने,
बाँहें, मेरी थामने,
कभी, मुझको झुलाए,
उसी, मझधार में,
बहा ले जाए, कहीं, एक लम्हा मेरा,
खाली या भरा!

कितना, करीब वो,
है दूर उतना, बड़ा ही, अजीब वो,
न, बाहों में, वो समाए,
न, हाथों में आए,
रहे, यादों में ढ़लकर,
इसी, अवधार में, 
कहाँ ले जाए, वही, एक लम्हा मेरा,
खाली या भरा!

लम्हे, कल जो भूले,
ना वो फिर मिले, कहीं फिर गले,
कभी, वो अपना बनाए,
कभी, वो भुलाए,
करे, विस्मित ये लम्हे,
इसी, दोधार में, 
भूला है, हर पल, एक लम्हा मेरा,
खाली या भरा!

सामने, मेरे खड़ा,
होता है, हर पल, एक लम्हा मेरा,
खाली या भरा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
 (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 29 January 2020

अन्तिम शब्द तेरे

शब्द वो! 
अन्तिम थे तेरे....

कोई हर्फ, नहीं, 
गूंजती हुई, इक लम्बी सी चुप्पी,
कँपकपाते से अधर,
रूँधे हुए स्वर,
गहराता, इक सूनापन,
सांझ मद्धम,
डूबता सूरज,
दूर होती, परछाईं,
लौटते पंछी,
खुद को, खोता हुआ मैं,
नम सी, हुई पलकें,
फिर न, चलके,
कभी थी, वो सांझ आई,
वो हर्फ,
खोए थे, मेरे!

शब्द वो!
अन्तिम थे तेरे....

वही, संदर्भ,
शब्दविहीन, अन्तहीन वो संवाद,
सहमा सा, वो क्षण,
मन का रिसाव,
टीसता, वही इक घाव,
घुटती चीखें,
कैद स्वर,
न, मिल पाने का डर,
उठता सा धुआँ,
धुँध में, कहीं खोते तुम,
कहीं मुझमें होकर, 
गुजरे थे, तुम,
हर घड़ी, गूँजते हैं अब,
वो हर्फ, 
जेहन में, मेरे!

शब्द वो! 
अन्तिम थे तेरे....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 28 January 2020

धरोहर - इक चुनौती

ये सिरमौर मेरा, ये अभिमान हैं हमारे,
गर्व हैं इन पर हमें, ये हैं हमारे.... 

वर्षों पुरातन, सभ्यता हमारी,
आठ सौ नहीं, हजारों सदियाँ गुजारी,
नाज मुझे, मेरी संस्कृति पर,
कुचलने चले तुम, मेरे सारे धरोहर,
पर हैं जिन्दा, ये आज भी,
लिए गोद में, तेरी हर निशानी, 
ज़ुल्म की, तेरी हर कहानी,
और संजोये, नैनों में सपने सुनहरे,
कितनी ही, काँटों से गुजरे....

यूँ ही रहेंगे डटे, हमेशा ये सामने तेरे,
भले ये पथ, कंटकों से गुजरे...

जलती राह में, बिखरे अंगारे,
जलते रहे, भटके ना ये कदम हमारे,
विपत्तियों में, अंधेरों ने घेरे,
हर कदम, नए उलझनों के फेरे,
हर युग, चुनौतियों से गुजरे,
मिट ना सकी, संस्कृति हमारी,
जिन्दा है, ये धरोहर हमारी,
गर्व हमको, हैं यही अभिमान मेरे,
हम हर, अभिशाप से उबरे....

हिमगिरी सा, है खड़ा ये सामने तेरे,
भले ये पथ, कंटकों से गुजरे...

मिटाने चले थे, वो जो सभ्यता,
वो लूटेरा! भला क्या हमको लूटता,
कुछ लुटेरे, रह गए हैं देश में,
ये उनके वंशज, बदले से वेश में,
उगलते हैं, अब भी आग वो,
छेड़ जाते हैं, अलग ही राग वो,
जरा गर, लेते है साँस वो,
इक चुनौती, वही अब सामने घेरे,
चल हम, रूप अपना धरें....

ये सिरमौर मेरा, ये अभिमान हैं हमारे,
गर्व हैं इन पर हमें, ये हैं हमारे....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 25 January 2020

26 जनवरी : ऐ देश!

ऐ देश, तू अब जाग जरा,
देखे जो, स्वप्न तूने,
जा, पा उसे,
उनके पीछे, तू भाग जरा!

ऐ देश, तू वही लहू बन,
नस-नस, में दौर,
ना, ठहर,
जन-जन में, तू भाग जरा!

ऐ देश, तू लहर हर मन,
बन जा, तीन रंग,
संगीत, सा,
साँसों में भर, तू राग जरा!

ऐ देश, तू पीछे ना मुड़,
कर्म-पथ पर, चल,
आगे ही बढ़,
दे विश्व को, तू ज्ञान जरा!
प्रथम गणतंत्र समारोह में सम्मलित होने, घोड़े की बग्घी में, राजपथ पर जाते देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद।

आपको यह जानकर हैरानी होगी कि आजादी पूर्व 26 जनवरी 1930 से लेकर 26 जनवरी 1947 तक, हम देशवासी 26 जनवरी को स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाते रहे हैं।

वस्तुतः दिसम्बर 1929 के लाहौर अधिवेशन में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा प्रस्ताव पारित कर इस बात की घोषणा की गई कि अंग्रेज सरकार, 26 जनवरी 1930 तक, भारत को स्वायत्त-उपनिवेश (Dominion) का दर्जा प्रदान करे, नहीं तो, उस दिन से भारत की पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्ति तक, सक्रिय आंदोलन चलता रहेगा, और, 26 जनवरी 1930 से 1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति तक, भारत में, 26 जनवरी, स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाया जाता रहा।

इसके पश्चात, स्वतंत्रता प्राप्ति के वास्तविक दिन, अर्थात् 15 अगस्त, को भारत के स्वतंत्रता दिवस के रूप में स्वीकार किया गया।

भारत की आज़ाद के पश्चात्  संविधान सभा (Constituent Assembly) की घोषणा हुई। संविधान सभा के सदस्य, भारत के राज्यों की सभाओं के निर्वाचित सदस्यों द्वारा चुने गए। डॉ० भीमराव अम्बेडकर, डाॅ राजेन्द्र प्रसाद, सरदार वल्लभ भाई पटेल, जवाहर लाल नेहरू, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद आदि जैसे प्रमुख सहित, कुल मिलाकर 308 सदस्य थे।

संविधान निर्माण में कुल 22 समितियाँ थी जिसमें  प्रारूप समिति (Drafting Committee) सबसे प्रमुख एवं महत्त्वपूर्ण समिति थी और इस समिति का कार्य संपूर्ण ‘संविधान लिखना’ या ‘निर्माण करना’ था।इसके अध्यक्ष, विधिवेत्ता डॉ० भीमराव अम्बेडकर थे। प्रारूप समिति नें, 2 वर्ष, 11 माह, 18 दिन में भारतीय संविधान का निर्माण पूर्ण किया और इसे, संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को, 26 नवम्बर 1949 को सुपूर्द किया, इसलिए 26 नवम्बर को भारत में संविधान दिवस के रूप में मनाया जाता है।

संविधान सभा ने, संविधान निर्माण के समय, कुल 114 बैठकें की। इन बैठकों में प्रेस और जनता को भाग लेने की स्वतन्त्रता थी। अनेक सुधारों और बदलावों के बाद सभा के 308 सदस्यों ने 24 जनवरी 1950 को, संविधान की दो हस्तलिखित कॉपियों पर हस्ताक्षर किये, और इसके दो दिन पश्चात्,अर्थात् 26 जनवरी को, भारतीय संविधान, देश भर में लागू हो गया।

इसी दिन, सन् 1950 को भारत सरकार अधिनियम (एक्ट) (1935) को हटाकर भारत का संविधान लागू किया गया।

26 जनवरी का महत्व बनाए रखने के लिए, इसी दिन संविधान निर्मात्री सभा (Constituent Assembly), द्वारा संविधान में, भारत के गणतंत्र स्वरूप को, मान्यता प्रदान की गई। 

तभी से, 26 जनवरी को, भारत में गणतंत्र दिवस (Republic Day) को राष्ट्रीय पर्व के रूप में, मनाया जाता है।
- सभी देशवासियों को गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ।

ऐ देश, तू अब जाग जरा,
देखे जो, स्वप्न तूने,
जा, पा उसे,
उनके पीछे, तू भाग जरा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

तन्हाई में कहीं

चलो ना, तन्हाई में कहीं, कुछ देर जरा....

मन को चीर रही, ये शोर, ये भीड़,
हो चले, कितने, ये लोग अधीर,
हर-क्षण है रार, ना मन को है करार, 
क्षण-भर न यहाँ, चैन जरा!

चलो ना, तन्हाई में कहीं, कुछ देर जरा....

सुई सी चुभे, कही-अनकही बातें,
मन में ही दबी, अनकही बातें,
कैसे, कर दूँ बयाँ, दर्द हैं जो हजार,
समझा, इस मन को जरा!

चलो ना, तन्हाई में कहीं, कुछ देर जरा....

वो छाँव कहाँ, मिले आराम जहाँ,
वो ठाँव कहाँ, है शुकून जहाँ,
नफ़रतों की, चली, कैसी ये बयार,
बहला, मेरे मन को जरा!

चलो ना, तन्हाई में कहीं, कुछ देर जरा....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 24 January 2020

और, मैं चुप सा

कितनी सारी, बातें करती हो तुम!
और, मैं चुप सा!

बज रही हो जैसे, कोई रागिनी,
गा उठी हो, कोयल,
बह चली हो, ठंढ़ी सी पवन,
बलखाती, निश्छल धार सी तुम!
और, मैं चुप सा!

गगन पर, जैसे लहराते बादल,
जैसे डोलते, पतंग,
धीरे से, ढ़लका हो आँचल, 
फुदकती, मगन मयूरी सी तुम!
और, मैं चुप सा!

कह गई हो, जैसे हजार बातें, 
मुग्ध सी, वो रातें,
आत्ममुग्ध, होता ये दिन,
गुन-गुनाती, हर क्षण हो तुम!
और, मैं चुप सा!

कितनी सारी, बातें करती हो तुम!
और, मैं चुप सा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 23 January 2020

दर्पण मेरा

अब नहीं पहचानता, मुझको ये दर्पण मेरा!
मेरा ही आईना, अब रहा ना मेरा!

पहले, कभी!
उभरती थी, एक अक्स,
दुबला, साँवला सा,
करता था, रक्स,
खुद पर,
सँवर लेता था, कभी मैं भी,
देख कर,
हँसीं वो, आईना,
पहले, कभी!

अब कभी देखता हूँ, जब कहीं मैं आईना!
सोच पड़ता हूँ मैं! ये मैं ही हूँ ना?

अब, जो हूँ!
बुत, इक, वही तो हूँ,
मगर, अंजाना सा,
हुआ है, अक्स,
बे-नूर,
वक्त की थपेडों, से चूर-चूर,
मजबूर,
कहीं, दर्पण से दूर,
अब, जो हूँ!

अब ना रहा, मैं आईने में, उस मैं की तरह!
हैरान है, ये आईना, मेरी ही तरह!

मुझ में ही!
बही, एक जीवन कहीं,
जीवंत, सरित सी,
वो, बह चला
सलिल,
बे-परवाह, अपनी ही राह,
मुझसे परे,
छोड़ अपने, निशां,
मुझ में ही!

हरेक झण, चुप-चुप रहा, सामने ये दर्पण!
मेरे अक्स, चुराता, मेरा ये दर्पण!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 22 January 2020

जीवन-उतने ही दिन

जीवन, उतने ही दिन मेरा!
जितने दिन, इन पलकों में बसे सवेरा!

आएंगे-जाएंगे, जीवन के ये लम्हे,
हम! लौट कहाँ पाएंगे?
जब तक हैं! हम उनकी यादों में हैं,
कल, विस्मृत हो जाएंगे!

रोज छाएगी, ये सुबह की लाली,
ये ना, हमें बुलाएंगी!
सांझ किरण, उपवन की हरियाली
ये भी, हमको भुलाएंगी!

पलकों में भर लूँ, मूंदने से पहले, 
कैद कर लूँ, सपने!
जोर लूँ, कुछ गांठें टूटने से पहले,
कल, फिर ना हो अपने!

जीवन, उतने ही दिन मेरा!
जितने दिन, इन पलकों में बसे सवेरा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 19 January 2020

यूँ बन्दगी में

यूँ बन्दगी में.....
जरा सा, सर झुका लेना, ऐ हवाओं,
गुजरना, जब मेरी गली से!

ऐ हवाओं! झूल जाती हैं पत्तियाँ,
शाखें, टूट जाते हैं यहाँ,
धूल, जम जाती हैं दरमियाँ,
बस, खता माफ करना,
भूल जाना, जफा,
याद रख लेना पता, सर झुका लेना!

यूँ बन्दगी में.....

ऐ हवाओं! जल न जाए चिंगारी,
बुझी है जो, आग सारी,
न टूट जाए, फिर ये खुमारी,
बस, जरा एहसास देना,
साँस, भर जाना, 
हौले से बह जाना, सर झुका लेना!

यूँ बन्दगी में.....

ऐ हवाओं! रुख ना तुम बदलना,
छुवन, ये सहेज रखना,
खल न जाए, कमी तुम्हारी,
बस, परवाह कर लेना,
प्रवाह, दे जाना,
ठहर जाना कभी, सर झुका लेना!

यूँ बन्दगी में.....
जरा सा, सर झुका लेना, ऐ हवाओं,
गुजरना, जब मेरी गली से!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

कवि-मन

श्रृंगार नही यह, किसी यौवन का,
बनिए का, व्यापार नही,
उद्गार है ये, इक कवि-उर का!
पीड़-प्रसव है, उमरते मनोभावों का,
तड़पता, होगा कवि!
जब भाव वही, लिखता होगा!

हर युग में, कवि-मन, भींगा होगा,
करे चीर हरन, दुस्साशन,
युगबाला का हो, सम्मान हनन,
सीता हर ले जाए, वो कपटी रावण,
विलखता, होगा कवि!
जब पीड़ कोई, लिखता होगा!

खुद, रूप निखरते होंगे शब्दों के,
शब्द, न वो गिनता होगा, 
खिलता होगा, सरसों सा मन,
बरसों पहर, जब, बंजर रीता होगा,
विहँसता, होगा कवि!
जब प्रीत वही, लिखता होगा!

क्या, मोल लगाएँ, कवि मन का,
देखो उसकी, निश्छलता,
अनमोल हैं उनका, हर लेखन,
लिख-लिख कर, सुख पाता होगा,
रचयिता, होगा कवि!
निःस्वार्थ वही, लिखता होगा!

किसी यौवन का, ये श्रृंगार नहीं,
बनिए का, व्यापार नही,
उद्गार है ये, इक कवि-उर का!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 18 January 2020

जलते रहना, ऐ आग!

जलते रहना, ऐ आग!
इक सम्मोहन सा है, तेरी लपटों में,
गजब सा आकर्षण है,   
जलाते हो,
पर खींच लाते हो, ध्यान!

जलते रहना, ऐ आग!
जलाते हो, प्रतीक चिर जीवन के,
कर स्वयं में समाहित,
ले अंकपाश,
आखिरी देते हो, सम्मान!

जलते रहना, ऐ आग!
जब तक, राख उठे लपटों से तेरी,
धुआँ-धुआँ, हो ये शमां,
जलना यहाँ,
या तू बन जाना, श्मशान!

जलते रहना, ऐ आग!
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रूखा-सूखा पहाड़ कोई नहीं देखने जाता। लेकिन, पहाड़ से उतरते झरनों को देखकर मन बरबस ही खिचा चला आता है। पहाड़  पर चढ़कर मनोरम व मनोहारी दृश्य देखना ही मन को भाता है।

कहीं आग लगे या लगाया जाय, तो सब मुड़-मुड़कर देखते हैं । अलाव या चिता जले तो सभी इकट्ठे होकर तापते या देखते हैं ।

मुझे लगता है कि, जरूरी नहीं है कि शब्द ज्यादा लिखे जाएँ, परन्तु जरूरी है कि शब्द की आत्मा यानि अन्तर्निहित भाव लिखी जाय, जो कि पल भर को झकझोर दे अन्तर्मन को।

अत:, शब्दों के पहाड़ से, कलकल करता कोई झरना बहे, पल-पल रिसता कोई भाव झरे तो बात ही कुछ और है। शब्द जले और आग या धुआँ ना उठे तो यह जलना व्यर्थ है।
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- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 17 January 2020

एक दर्द

चल पड़ी, बादलों से, बिछड़ कर,
चल ना सकी, वो इक पल सम्भल कर,
बूँदें कई, गिरी थी बदन पर,
गम ही सुना कर गई, बारिश का पानी!

छुपी बादलों में, रुकी काजलों में,
सिसकती सी रही, भीगे से आँचलों में,
रही कैद, मन में उतर कर,
वो भिगोती रही नैन, बारिश का पानी!

रही गीत गाती, कोई वो रात भर,
विरह सुनाती गई, अपनी वो रात भर,
गम में डूबे, भीगे वे स्वर,
कोई दर्द दे कर गई, बारिश का पानी!

प्यास कैसी, रह गई है अंजानी!
झूमकर, झमा-झम, बरसा ये बादल,
तरसा है, फिर भी ये मन,
यूँ गुजरा है छूकर, बारिश का पानी!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 15 January 2020

वो भोर नहीं

कुम्हलाए सूरज में, वो भोर नहीं अब,
अंधेरी रातों का, छोर नहीं अब!
नमीं आ जमीं, या पिघल रहा वो सूरज,
खिली सुबह का, दौर नहीं अब!

झुकते पर्वत पे, बादल और नहीं अब,
उड़ते बादल के, ठौर नहीं अब!
लदी बूँदों से घन, जली वो मन ही मन,
करता क्यूँ कोई, गौर नहीं अब!

चहकते चिड़ियों में, वो शोर नहीं अब,
भौंरे कलियों पे, और नहीं अब!
बदली है फ़िजा, बदल चुका वो सूरज,
बहते झरनों का, शोर नहीं अब!

धधकता ही नहीं, क्या आग सीने में!
राख ही बचा, क्या अब जीने में!
धूल-धूसरित या मुर्छित हुआ वो सूरज,
अंधेरी रातों का, अंत नहीं अब!

खोया भोर कहीं, उन्ही अंधियारों में!
सूरज वो खोया, शायद तारों में,
लपटें नहीं उठती, अब उन अंगारों में, 
चम-चमाता वो, भोर नहीं अब!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 14 January 2020

सत्य

हाथ रख, गीता या कुरान पर,
कर, शपथ,
बस, सत्य के नाम पर,
हो, एक पथ,
तू बाँच दे, क्या है सत्य!

अमिट है, मन के ही करीब है,
इक, अमूर्त्य,
पर, बोध है, यथार्थ का,
वो, एक पथ,
अविजेय है, वो है सत्य!

सत्य से विमुख, कैसे हम रहें?
एक, तथ्य,
असत्य, कैसे हम कहें?
है, वो सामने,
हृदय में है, वो है सत्य!

संस्कार है, सर्वदा निरंकार है!
टोकता है ये,
अधर्म से, रोकता है ये,
वो, निराकार,
अंतः छुपा, वो है सत्य!

गीता या कुरान, फिर से पढ़,
न असत्य गढ़,
रह, सत्य के राह पर,
वो, एक आँच,
तू बाँच दे, क्या है सत्य!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 12 January 2020

युग के युवा

युगद्रष्टा हो तुम, हो इस युग के तुम युवा,
तुम ही हो, इस युग के निर्णायक,
इक युग निर्माण के, तुम ही हो गवाह,
हो तुम, इस युग के युवा!

युगों की बली चढ़ी जब, जन्म तेरा हुआ,
हर युग में रावण, तूने ही संहारा,
युग की जिम्मेदारी का, कर तू निर्वाह,
हो तुम, इस युग के युवा!

हर युग में थी बाधाएं, तुमने ही पाई राहें,
तुमने ही दी, युग को नई दिशाएँ,
क्षण भर विचलित, तू ना कभी हुआ,
हो तुम, इस युग के युवा!

तुझ में प्रतिभा, तुझ में ही विलक्षणताएँ,
विवेकानन्द, तुम्ही तो कहलाए,
शून्य को तुमने ही, था व्योम बनाया,
हो तुम, इस युग के युवा!
हट के हो तुम, फिर क्यूँ भटके हो तुम?
अंजाने में, क्यूँ संशय में हो तुम,
युग लिखना है तुझे, तू कलम उठा,
हो तुम, इस युग के युवा!

राम तुम्हीं, कृष्ण तुम्हीं, युग तुमनें गढ़ा,
बाधा के, हर पर्वत पर तू चढ़ा,
संस्कारी ये भारत, तुझसे ही बना,
हो तुम, इस युग के युवा!

सारथी हो तुम, पौरुष और पुरुषार्थ के,
ध्वजवाहक, युग के सम्मान के,
हर युग तू जीवन, परमार्थ ही जिया,
हो तुम, इस युग के युवा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 11 January 2020

चोट

शतदल हजार छू के, टोक गए झौंके!

हुए बेजार, टूटे तार-तार!
टीस सी उठी, असह्य सी चोट लगी,
सर्द कोई, इक तीर सी चली,
मन ही, चीर चली,
गुजरे, वो जिधर हो के...

शतदल हजार छू के, टोक गए झौंके!

बार-बार, फिर वो बयार!
हिल उठी, जमीं, नींव ही ढ़ह चुकी,
खड़ी थी, वो वृक्ष भी गिरी,
बिखरे थे, पात-पात,
गुजरे, वो जिधर हो के...

शतदल हजार छू के, टोक गए झौंके!

टोके ना कोई, यूँ बेकार!
अपना ले, यूँ सपने तोड़े न हजार,
चोट यही, मन की न भली,
सूखी है, हर कली,
गुजरे, वो जिधर हो के...

शतदल हजार छू के, टोक गए झौंके!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 8 January 2020

जलता देश

सुलगाई चिंगारी, जलाया उसने ही देश मेरा!

ये तैमूर, बाबर, चंगेज, अंग्रेज,
लूटे थे, उसने ही देश,
ना फिर से हो, उनका प्रवेश,
हो नाकाम, वो ताकतें,
हों वो, निस्तेज!

संम्प्रभुत्व हैं हम, संम्प्रभुता ही शान मेरा,
रक्षा स्वाभिमान की, करेगा ये संविधान मेरा!

चाहे कौन? घर रहे दुश्मन,
सीमा का, उल्लंघन,
जिन्दा रहे, कोई दुस्साशन,
वो लूटे, अस्मतें देश की,
रहें, खामोश हम!

रहे सलामत देश, अधूरा है अरमान मेरा,
बचे कोई दरवेश, होगा चूर अभिमान मेरा!

जब भी बंद, रही ये आँखें,
टूटी, देश की शाखें,
जले देश-भक्त, उड़ी राखें,
रहे बस, मूरख ही हम,
बंगले ही, झांके!

भड़की फिर चिंगारी, जल उठा देश मेरा,
फिर ये मारामारी, सुलग रहा परिवेश मेरा!

शीत-लहरी, न काम आई,
ना ही, ठंढ़ी पुरवाई,
देते, समरसता की दुहाई,
सुलगते, भावनाओं की,
अंगीठी, सुलगाई!

क्यूँ नेता वो? कदमों में जिनके देश मेरा,
क्यूँ शब्द-वीर वो? क्यूँ है मेरा शब्द अधूरा?

सुलगाई चिंगारी, 
जलाया उसने ही देश मेरा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 5 January 2020

ओस

गोल-गोल, कुछ उजली-उजली,
पात-पात, पर थी फिसली,
अंग-अंग, प्रकृति संग लिपटी,
चढ़ दूब पर, इतराई,
ओस कण, मन को थी भरमाई!

शीतलता, समेट कर आँचल में,
बाँट डाले, कलियों में,
सराबोर, हुए दूब गलियों में,
आया, नव-जीवन,
मृत-प्राय हो चले, धमनियों मे!

अनमोल, ओस की उजली डली,
निःस्वार्थ, ही निकली,
लाई, मृत कणों में हरियाली,
क्षणिक, जीवन में,
दीर्घ आस, कण-कण में डाली!

देख उन्हें, ये मेरा मन ललचाया,
खुद को, मैं रोक न पाया,
स्वागत में, आ लिपटी पाँवों में,
हौले से, सहलाया,
वो कोमल मन, मैं भी छू आया!

कोमल वो लम्हे, दो ही पल थे,
विस्तृत, वो दो पल थे,
वो दो ही लम्हे, अर्थ भरे थे,
मिला, लघु जीवन,
जाते हर क्षण, जीवन्त बड़े थे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 4 January 2020

मंद समीर


मंद-मलय, सहलाते हैं जब रिश्तों को,
आशय, अर्थ कई मिल जाते हैं रिश्तों को,

जज़्बातों से बंधा इन्सान, बदलते दौर में,  खुद को नए ढ़ंग से तराशते हुए, जज़्बातों से जुड़ी हर चीज को सहेजना चाहता है। जरूरी है कि एक मंद-समीर हमेशा मन को छूकर, रिश्तों के रास्तों पर, हौले-हौले गुजरती रहे।

हौले-हौले सहलाते, गर रिश्तों को,
आश्रय, घर कई मिल जाते रिश्तों को,
ना ये लम्हे हावी होते, रिश्तों पर,
ना उठती पीर, रह-रह मन के पर्वत पर,
ना तिल-तिल कर, दरकते ये प्रस्तर,
ना चूर-चूर, होते ये पत्थर!

बदलावों के इस दौर में, इन्सान न बदले, ये संभव नहीं और इन चाहे-अनचाहे बदलावों से हमारे सामाजिक व मानवीय संबंध भी अछूते नही रह पाते । विकास की अंधी दौर में, कभी-कभी, हम संस्कारों से भी भटक जाते हैं ।

बदलाव, हर पल टीसता इक घाव,
काँटों सा चुभता, रिश्तों का रक्त-स्राव,
विघटित होते घन, बरसता ये मन,
बिखरते संबंध, सिक्कों की खन-खन,
चकाचौंध, अंतहीन सा पागलपन,
खोया सा इक, अपनापन!

ये बदलाव, जब हमारे सामाजिक और पारिवारिक सरोकारों से हमें दूर कर देते हैं तब विघटन की एक प्रक्रिया, एक अनचाहा बदलाव, उसी क्षण आरम्भ हो जाती है। जरूरत है, सोए हुए जज्बातों को जगाने की...

सोए हैं, जगाते रहिए हर जज़्बात,
खत्म हो चली, तो फिर से करिए बात,
मंद समीर, बह जाने दे इस द्वार,
है ये पवन अधीर, आ मना ले त्योहार,
डाल गले में, फिर बाहों के हार,
बसा ले, छोटा सा संसार!

संबंध, पर्व-त्योहार व सामाजिक सरोकार, किसी समाज के विकास का आईना होते हैं। ये आईना बोलते हैं और हमारा असली रूप हमारे सामने रखते हैं । ये हमारे संस्कारों को सहेजते हुए सतत् संस्कार-पथ पर आगे बढ़ने की प्रेरणा भी देते हैं ।

सूरत प्यारा, दिखलाएगा आईना,
जब संस्कार हमारा, दिखाएगा आईना,
समृद्ध होगी, हमसे ही संस्कृति,
दूर होंगें दुर्गण, खत्म होगी दुष्प्रवृति,
संस्कार जगेंगे, मिटेंगी कुरीति, 
चलती रहे, सदा यह रीति!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 3 January 2020

दुआ (बुजुर्ग)

दुआ उन्हीं की, ले आएगी पुरवाई!

हमारे बुजुर्ग, तन्हाई में खुद को समेटे, इन्तजार में पथराई आँखों  और टूटती साँसों के अन्तिम क्षणों में भी, अपने बच्चों के लिए लबों पर दुआ की कामना ही रखते हैं।

जीवन के बेशकीमती वक्त हमारे देख-रेख में गुजारते हुए वे भूल जाते हैं कि उनकी अगली पीढ़ी के पास, उन्हीं के लिए वक्त नहीं है। अपने रिक्त हाथों में दुआओं की असंख्य लकीरे लिए, वे हमारा ही इन्तजार करते बैठे होते हैं । ये युवा पीढ़ी पर निर्भर करता है कि वो इन बेशकीमती दुआओं को समेट कर अपना दामन भरे या रिक्तताओं से भरा एक भविष्य की वो भी बाट जोहें।

शायद एक पुरवाई बहे, इसी उम्मीद में,  प्रस्तुत है चंद पंक्तियाँ, एक रचना के स्वरूप में ....

दुआ उन्हीं की, ले आएगी पुरवाई!

जीर्ण हुए, उन हाथों में न थी ताकत,
दीर्घ रिक्तता थी, बची न थी जीने की चाहत,
पर उन आँखों में थी, नेक सी रहमत,
सर पर, हाथ उसी ने थी फिराई!

दुआ उन्हीं की, ले आएगी पुरवाई!

लम्हे शेष कहाँ थे, उनकी जीवन के,
जाते हर लम्हे, दे जाते इक दस्तक मृत्यु के,
शब्द-शब्द थे, उनकी बस करुणा के,
उस करुणा में, जैसे थी तरुणाई!

दुआ उन्हीं की, ले आएगी पुरवाई!

उस अन्तिम क्षण, पलकें थी पथराई,
वो दूर कहीं थे, जिन पर थी ममता बरसाई,
मन विह्वल थे, वो आँखें थी भर आई,
अन्त समय, होते कितने दुखदाई!

दुआ उन्हीं की, ले आएगी पुरवाई!

संग कहाँ है कोई, जीवन के उस पार,
मंद मलय बहती है, बस जीवन के इस पार,
बह चली ये मंद समीर, आज उस पार,
मन पर मलयनील, यह कैसी छाई!

दुआ उन्हीं की, ले आएगी पुरवाई!

आह न उनकी लेना, बस परवाह जरा उनकी कर लेना। कल ये बुजुर्ग, शायद, कभी हम में ही न लौट आएं, और कटु एक अनुभव, ऐसा ही, जीवन का ना दे जाएँ।

क्यूँ न, जीवन चढ़ते-चढ़ते, भविष्य की नई एक राह गढ़ते चलें । बुजुर्गों के हाथ उठे, तो बस एक खुशनुमा सा दुआ बनकर। दुआ उन्हीं की, ले आएगी पुरवाई!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)