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Saturday, 7 August 2021

उड़ता आँचल

उड़ता सा, कोई आँचल हो तुम,
छल जाए, मन को, वो इक, बादल हो तुम!

कभी, किरणों संग, उतर कर, 
चली आई, जमीं पर,
झूल आई, कभी आसमां पर,
कभी, सितारों का इक,
कारवाँ हो तुम!

छल जाए, मन को...

सांझ सा, एक बहता किनारा,
कब, हो सका हमारा,
पर, गुजारे हैं, पल सारे यहीं,
रूठी हुई, उम्मीदों का,
सहारा हो तुम!

छल जाए, मन को...

भटका सा, कोई आवारा घटा,
चुरा ना ले, तेरी छटा,
स॔भाल दूँ, आ ये आँचल जरा,
एक अल्हड़ सी कोई,
रवानी हो तुम!

छल जाए, मन को...

जरा देख लूँ, तुझे निष्पलक,
निहार लूँ, अ-पलक,
बदलता, बहुरूपिया फलक,
आकाश में, घुली सी,
चाँदनी हो तुम!

उड़ता सा, कोई आँचल हो तुम,
छल जाए, मन को, वो इक बादल हो तुम!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 29 June 2021

फिर याद आए

फिर याद आए, वो सांझ के साए....

था कोई साया, जो चुपके से पास आया,
थी वही, कदमों की हल्की सी आहट,
मगन हो, झूमते पत्तियों की सरसराहट,
वो दूर, समेटे आँचल में नूर वो ही,
रुपहला गगन, मुझको रिझाए....

फिर याद आए, वो सांझ के साए....

हुआ एहसास, कि तुझसे मुक्त मैं न था,
था रिक्त जरा, मगर था यादों से भरा,
बेरहम तीर वक्त के, हो चले थे बेअसर,
ढ़ल चला था, इक, तेरे ही रंग मैं,
बेसबर, सांझ ने ही गीत गाए....

फिर याद आए, वो सांझ के साए....

ढ़लते गगन संग, तुम यूँ, ढ़लते हो कहाँ,
छोड़ जाते हो, कई यादों के कारवाँ,
टाँक कर गगन पर, अनगिनत से दीये,
झांकते हो, आसमां से जमीं पर,
वो ही रौशनी, मुझको जगाए....

फिर याद आए, वो सांझ के साए....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 14 April 2020

एक टुकड़ा

हजारों, गुजरते हुए पलों से,
एक टुकड़ा पल,
चाहा था,
मैंने,
आसमां नहीं,
एक टुकड़ा बादल!

अनभिज्ञ, था मैं कितना,
कब, ठहरा है बादल! कब, ठहरा है पल!
दरिया है, बहता है, कल-कल,
निर्बाध! निरंतर...
होता, आँखों से ओझल!

बस, ठहरा था, इक मैं ही,
और सामने, खुला नीलाभ सा, आसमां,
वियावान सा, इक नीला जंगल,
अगाध! अनंतर...
गहराता, शून्य सा आँचल!

निरंकुश, था वो कितना,
दे गईं, स्मृतियाँ! कर गईं, कुछ बोझिल!
हिस्से के, मेरे ही, वो कुछ पल,
संबाध! निरंतर...
बिखरे-बिखरे, वो बादल!

हजारों, गुजरते हुए पलों से,
एक टुकड़ा पल,
चाहा था,
मैंने,
आसमां नहीं,
एक टुकड़ा बादल!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 8 March 2020

रंग

ओ 
बेजार से रंग,
छलक 
जाओ!

बड़े 
बेरंग हैं, 
कई दामन,
बड़े 
बदरंग हैं 
कई
आँचल,
जाओ, 
रंग उनमें, 
जरा 
भर आओ!

हो 
उदासीन बड़े!
क्यूँ हो?
तुम,
दूर खड़े,
तुम तो,
खुद
बिसरे
कि
तुम 
हो रंग
बड़े,
कर दो
दंग,
जरा
बिखर जाओ,
हैं,
रंगहीन से,
कई
सपने,
सप्त-रंग सा,
उमर
जाओ!

तुम 
जो रूठे 
हो तो
रूठी 
है 
ये दुनियाँ,
सूनी
है 
मांग कई,
हुई 
फीकी
सी
नई 
चूड़ियाँ,
कोई
रंग,
बेरंग न हो,
बरस
जाओ!

ओ 
बेजार से रंग, 
छलक 
जाओ! 

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 9 February 2020

तुम जो गए

तुम जो गए, ख्वाब कैसे बो गए!

लेते गर सुधि,
ऐ, सखी,
सौंप देता, ये ख्वाब सारे,
सुध जो हारे,
बाँध देता, उन्हें आँचल तुम्हारे,
पल, वो सभी,
जो संग, तेरे गुजारे,
रुके हैं वहीं,
नदी के, वो ठहरे से धारे,
बहने दे जरा,
मन,
या
नयन,
सजल, सारे हो गए, 
तुम जो गए!

तुम जो गए, ख्वाब कैसे बो गए!

सदियों हो गए,
सोए कहाँ,
जागे हैं, वो ख्वाब सारे,
बे-सहारे,
अनमस्क, बेसुध से वो धारे,
ठहरे वहीं,
सदियों, जैसे लगे हों,
पहरे कहीं, 
मन के, दोनों ही किनारे,
ये कैसे इशारे, 
जीते,
या 
हारे,
पल, सारे खो गए, 
तुम जो गए!

तुम जो गए, ख्वाब कैसे बो गए!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 24 January 2020

और, मैं चुप सा

कितनी सारी, बातें करती हो तुम!
और, मैं चुप सा!

बज रही हो जैसे, कोई रागिनी,
गा उठी हो, कोयल,
बह चली हो, ठंढ़ी सी पवन,
बलखाती, निश्छल धार सी तुम!
और, मैं चुप सा!

गगन पर, जैसे लहराते बादल,
जैसे डोलते, पतंग,
धीरे से, ढ़लका हो आँचल, 
फुदकती, मगन मयूरी सी तुम!
और, मैं चुप सा!

कह गई हो, जैसे हजार बातें, 
मुग्ध सी, वो रातें,
आत्ममुग्ध, होता ये दिन,
गुन-गुनाती, हर क्षण हो तुम!
और, मैं चुप सा!

कितनी सारी, बातें करती हो तुम!
और, मैं चुप सा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday, 17 June 2019

बरसे न बदरा

बरसते नहीं, यहाँ अब वो बादल,
चल कहीं और चल....

बरसों हुए, अब-तक न भीगे!
रंग बारिशों के, है कैसे ये हमने न देखे?
कहते है, वो मेघ होते हैं पागल,
झमा-झम बरस जाएँ, न जाने ये किस पल!
पर भरोसे के, कब होते हैं बादल!
चल कहीं और चल....

बरसते नहीं, यहाँ अब वो बादल,
चल कहीं और चल....

आसमां पर, मेघों का छाना!
कल्पना है कोरी, या है ये कोई फ़साना!
सुना था, इठलाते हैं वो बादल,
यूँ कभी झूमकर, यूँ ही कहीं जाते हैं चल!
छोड़ कर पीछे, सूना सा आँचल!
चल कहीं और चल....

बरसते नहीं, यहाँ अब वो बादल,
चल कहीं और चल....

हैं अधूरे से, अपने सारे अरमाँ,
चल, ले आएं हम इक नया सा आसमां,
लहराना तुम, भींगा सा आँचल,
जरा भर लाना, नैनों में तुम, वो ही काजल!
इससे पहले, कि बिखर जाएँ हम!
चल कहीं और चल....

बरसते नहीं, यहाँ अब वो बादल,
चल कहीं और चल....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Thursday, 9 May 2019

वही पगडंडियाँ

है ये वही पगडंडियाँ ....
चल पड़े थे जहाँ, संग तेरे मेरे कदम,
ठहरी है वहीं, वो ठंढ़ी सी पवन,
और बिखरे हैं वहीं, टूटे से कई ख्वाब भी,
चलो मिल आएं, उन ख्वाबों से हम,
उन्ही पगडंडियों पर!

है ये वही पगडंडियाँ ....
हवाओं नें बिखराए, तेरे आँचल जहाँ,
सूना सा है, आजकल वो जहां,
रह रही हैं वहाँ, कुछ चुभन और तन्हाईयाँ,
चलो मिटा आएं, उनकी तन्हाईयाँ,
उन्हीं पगडंडियों पर!

है ये वही पगडंडियाँ ....
तोड़ डाले जहाँ, मन के सारे भरम,
हुए थे जुदा, तुम और हम,
और दिल ने सहे, वक्त के कितने सितम,
चलो जोड़ आएं, हम वो भरम,
उन्हीं पगडंडियों पर!

है ये वही पगडंडियाँ ....
जहाँ वादों का था, इक नया संस्करण,
हुआ ख्वाबों का, पुनर्आगमण,
शायद फिर बने, नए भ्रम के समीकरण,
चलो फिर से करें, नए वादे हम,
उन्हीं पगडंडियों पर!

(Reincarnation of "वादों का नया संस्करण")
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Friday, 19 April 2019

वादों का नया संस्करण

रुक गए थे जहाँ, पल भर को कदम,
ठहरी है वहीं, वो ठंढ़ी सी पवन,
और बिखरे हैं वहीं, रूठे से कई ख्वाब भी,
चलो मिल आएं हम,
फिर, ख्वाबों से, उन्ही पगडंडियों पर!

लहराए थे तुमने, कभी आँचल जहाँ,
सूना सा है, आजकल वो जहां,
रह रही हैं वहाँ, कुछ चुभन और तन्हाईयाँ,
चलो मिटा आएं हम,
फिर, ये तन्हाईयाँ, उन्हीं पगडंडियों पर!

रख दिए थे जहाँ, मन के सारे भरम,
कहीं होके जुदा, तुम और हम,
न जाने उनपर हुए, वक्त के कितने सितम,
चलो तोड़ आएं हम,
फिर वो भरम, उन्हीं पगडंडियों पर!

जहाँ वादों का था, इक नया संस्करण,
हुआ ख्वाबों का, पुनर्आगमण,
शायद बनने लगे, भ्रम के नए समीकरण,
चलो कर आएं हम,
फिर कुछ वादे, उन्हीं पगडंडियों पर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Monday, 14 January 2019

कैसे ना तारीफ करें

कह दे कोई! कैसे ना तारीफ करें....

बासंती रंग, हवाओं में बिखरे,
पीली सरसों, जब खेतों में निखरे,
कहीं पेड़ों पर, कोयल कूक भरे,
रिमझिम बूंदें, घटाओं से गिरे!

कह दे कोई! कैसे ना तारीफ करें....

मुस्काए कोई, हलके-हलके,
सर से उनके, जब आँचल ढ़लके,
बातें जैसे, कोई मदिरा छलके,
वो कदम रखें, बहके-बहके!

कह दे कोई! कैसे ना तारीफ करें....

तारीफ के हो, कोई काबिल,
लफ्जों में हो, किन्हीं के बिस्मिल,
आँखों मे हो , तारे झिलमिल,
बातों में हो, हरदम शामिल!

कह दे कोई! कैसे ना तारीफ करें....

Sunday, 25 February 2018

फागुन में तुम याद आए

क्षितिज के आँचल हुए जब लाल, तुम याद आए.....

तन सराबोर, हुआ इन रंगों से,
तन्हा दूर रहे, कैसे कोई अपनों से?
भीगे है मन कहाँ, फागुन के इन रंगों से,
तब भीगा वो तेरा स्पर्श, मुझे याद आए.....

क्षितिज के आँचल हुए जब लाल, तुम याद आए.....

घटाओं पे जब बिखरे है गुलाल,
हवाओं में लहराए है जब ये बाल,
फिजाओं के बहके है जब भी चाल,
तब सिंदूरी वो तेरे भाल, मुझे याद आए....

क्षितिज के आँचल हुए जब लाल, तुम याद आए.....

नभ पर रंग बिखेरती ये किरणें,
संसृति के आँचल, ये लगती है रंगने,
कलिकाएँ खिलकर लगती हैं विहँसने,
तब चमकते वो तेरे नैन, मुझे याद आए....

क्षितिज के आँचल हुए जब लाल, तुम याद आए.....

फागुनाहट की जब चले बयार,
रंगों से जब तन को हो जाए प्यार,
घटाओं से जब गुलाल की हो बौछार,
तब आँखें वो तेरी लाल, मुझे याद आए....

क्षितिज के आँचल हुए जब लाल, तुम याद आए.....

Tuesday, 4 July 2017

रिमझिम सावन

आँगन है रिमझिम सावन, सपने आँखों में बहते से...

बूदों की इन बौछारों में, मेरे सपने है भीगे से,
भीगा ये मन का आँगन, हृदय के पथ हैं कुछ गीले से,
कोई भीग रहा है मुझ बिन, कहीं पे हौले-हौले से....

भीगी सी ये हरीतिमा, टपके  हैं  बूदें पत्तों से,
घुला सा ये कजरे का रंग, धुले हैं काजल कुछ नैनों से,
बेरंग सी ये कलाई, मुझ बिन रंगे ना कोई मेहदी से....

भीगे से हैं ये ख्वाब, या बहते हैं सपने नैनों से,
हैं ख्वाब कई रंगों के, छलक रहे रिमझिम बादल से,
वो है जरा बेचैन, ना देखे मुझ बिन ख्वाब नैनों से....

भीगी सी है ये रुत, लिपटा है ये आँचल तन से,
कैसी है ये पुरवाई, डरता है मन भीगे से इस घन से,
चुप सा भीग रहा वो, मुझ बिन ना खेले सावन से......

बूँद-बूँद बिखरा ये सावन, कहता है कुछ मुझसे,
सपने जो सारे सूखे से है, भीगो ले तू इनको बूँदो से,
सावन के भीगे से किस्से, जा तू कह दे सजनी से....

आँगन है रिमझिम सावन, सपने आँखों में बहते से...

Monday, 18 July 2016

ओ मेरे साजन

फुहारें रिमझिम की लेकर आई फिर साजन की यादें..........

घटाओं ने आँचल को बिखेरे हैं यूँ झूम-झूमकर,
बिखरी हैं बूंदें सावन की तन पर टूट-टूटकर,
वो कहते हैं इसको, है यह सावन की पहली फुहार,
मन कहता है, साजन ने फिर आज बरसाया हैं मुझ पर प्यार।

साजन मेरा साँवला सा, है सावन का वो संगी,
साथ-साथ रहते हैं दोनो, उन घटाओं के उपर ही,
वो कहते है, बावला है प्रियतम तेरा बरसाता है फुहार,
मन कहता है, दीवाना है साजन मेरा करता वो मुझसे गुहार।

ओ काले बादल जाकर मेरे साजन से तुम ये कहना,
छुप-छुपकर बूँदों से मेरे तन को ना सहलाए,
कोरा आँचल भींगा-भीगा सा पहना है मैंने भी तन पर,
लहरा दे इनको भी प्यार से, छलका दे ऱिमझिम सी फुहार।

ओ मेरे नटखट साँवले से मधुप्रिय साजन,
तुम झिटको फिर से घटाओं का ये भींगा सा आँचल,
पड़ने तो फुहार ऱिमझिम की तन पर टूट-टूटकर,
भीगे ये काया, भीगे ये मन, भीग जाए मेरे आँगन की बहार।

Sunday, 12 June 2016

छवि तुम्हारी

छवि लिए कुछ तारों सी उर में तुम हो समाए,
पलकों में, प्राणों में स्मृति बन कर तुम हो आए.....

संचित कर लूँ मैं चंचलता इन नैनों की नैनों में,
महसूस करूँ मैं अरूणोदय तेरे चेहरे की आभा में,
देखूँ मैं रजनी की तम सी परछाई तेरे ही जूड़े में,

स्वप्नमय आभा लिए सपनों में तुम हो समाए,
नींदों मे, ख्वाबो में जागृति बन कर तुम्ही हो छाए ....

संचित कर लूँ मैं हाला तेरे अधरों की प्याली में,
महसूस करूँ मैं रंग जीवन के तेरे नैनों की लाली में,
देखूँ मैं ख्वाब सुनहरे तेरे आँचल की हरियाली में,

मधुर राग कोयल की सपनों मे तुमने ही गाए,
स्वर में, काया में विस्मित छाया सी तुम गहराए....,

Sunday, 27 March 2016

आँचल तले खग का नीड़

आँचल तले बना लेता नीड़, खग एक सुन्दर सा....!

आँचल की कोर बंधी प्रीत की डोर,
मन विह्ववल, चंचल चित, चितवन चितचोर,
लहराता आँचल जिया उठता हिलकोर,
उस ओर उड़ चला मन साजन रहता जिस ओर।

नीले पीले रंग बिरंगे आँचल सजनी के,
डोर डोर अति मन भावन उस गहरे आँचल के,
सुखद छाँव घनेरी उस पर तेरी जुल्फों के,
बंध रहा मन अाँचल में प्रीत के मधुर बंधन से।

हो तुम कौन? अंजान मैं अब तक तुमसे,
लिपटा है मन अब तक धूंध मे इस आँचल के,
लहराता मैं भी नभ में संग तेरे आँचल के,
प्रीत का आँचल लहरा देती तुम जो इस मन पे।

खग सा मेरा मन आँचल तेरा नभ सा,
लहराते नभ मे दोनो युगल हंसों के जोड़े सा,
घटा साँवली सी लहराती फिर आँचल सा,
आँचल तले बना लेता नीड़, खग एक सुन्दर सा।

Tuesday, 22 March 2016

एहसास एक गहराता हर पल

एहसास एक गहराता हर पल,
निर्जन तालाब में जैसे ठहरा शांत जल,
खामोशी टूटती तभी जब फेकता कोई कंकड़।

कभी कभी ये एहसास उठते मचल,
वियावान व्योम मे जैसे घुमरता मंडराता बादल,
खामोशी टूटती है तभी जब लहराता उसका आँचल।

एहसासों के पर कभी आते निकल,
तेज हवा के झौंकों मे जैसे पत्तियों के स्वर,
खामोशी टूटती है तभी जब छा जाता है पतझड़।

आशाएँ एहसास की कितनी विकल,
सपनों की नई दुनियाँ मे रोज ही आता निकल,
खामोशी टूटती है तभी जब बिखरते सपनों के शकल।

एहसास एक गहराता हर पल........,!

Wednesday, 6 January 2016

संचित प्रीत का आँचल

प्रीत तुझसे ही प्यास तुझसे ही!

संचित प्रीत का आँचल बन,
फैल जाओ तुम हृदय पर,
बेसुध धड़कनों को,
थोड़ा सहारा मिल जाए,
हृदय के अन्तस्थ की प्यास,
जरा सी तो बुझ जाए!

स्वर तुझसे ही एहसास तुझसे ही!

संगीत हृदय वीणा का बन,
मधुर तान तुम छेड़ो मन पर,
बेसुरे एहसासों को,
तार स्वर का मिल जाए,
जर्जर वीणा के सुर की प्यास,
थोड़ी सी तो बुझ जाए!

संचित प्रीत का आँचल तुझसे ही!