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Saturday, 10 February 2024

सरसों

सुस्मित सरसों, मधुमित-मुखरित सरसों!

मोहक लागे, मोहे वो बंधन, वो धागे,
पीत, आंचल संग,
बांध गई, बरसों पहले, 
जो सरसों!

सुस्मित सरसों, मधुमित-मुखरित सरसों!

धुंधलाती कोहरों में, कभी छुप जाए,
शर्माए, दुल्हन सी,
अनुरक्ति और बढ़ाए,
ये, सरसों!

सुस्मित सरसों, मधुमित-मुखरित सरसों!

यूं भटकाए राह, यूं पथिक उलझाए,
खैंच लाए, बर्बस,
हिय, हर्षित कर जाए,
वो सरसों!

सुस्मित सरसों, मधुमित-मुखरित सरसों!

हर्षाए धरा, झूम हरितिमा इठलाए,
झूमे, बिखरी घटा,
बिखेरे, स्वर्णिम छटा,
यूं, सरसों!

सुस्मित सरसों, मधुमित-मुखरित सरसों!

अरसों, दामन फैलाए देती निमंत्रण,
सिक्त, आंचल संग,
भीगो गई, बरसों पहले, 
वो सरसों!

सुस्मित सरसों, मधुमित-मुखरित सरसों!

Thursday, 13 June 2019

दूरियाँ

असह्य सी हैं, हर पल बढ़ती दूरियाँ!

दर्द ही दे गया, उनसे ये बिछड़न,
पीड़ कैसे सह सकेगा, नाजुक सा ये मन,
तोड़ कैसे पाएगा, उनसे ये बंधन,
जोड़ती है क्यूँ, रिश्ते दूरियाँ!

दुरूह सा है कितना, ये बिछड़न,
उभरते फासलों में, बढ़ता हुआ विचलन,
पल-पल, तेज होती एक धड़कन,
असह्य हैं, ये बढ़ती दूरियाँ!

तड़प, दर्द और उभरता विषाद,
अन्तर्द्वन्द्व, विछोह, जन्म लेता अवसाद,
मन से मन का, हर-पल इक विवाद,
रह-रह के, कुरेदती दूरियाँ!

रिश्तों की, ये नाजुक बारीकियाँ,
दूरियों में, पल-पल बढ़ती नजदीकियाँ,
हर पल ऊँघता, पनपता गठबंधन,
उत्पीड़न, देती हैं दूरियाँ!

क्यूँ न बन जाए, फिर अफसाने,
हुए जो बेगाने, जोड़ ले वो रिश्ते पुराने,
चल रे मन, चल नाप ले फासले,
चलो कर ले तय, दूरियाँ!

असह्य सी हैं, हर पल बढ़ती दूरियाँ!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Sunday, 2 June 2019

सौंधी मिट्टी

बरबस, लौट आते हैं परदेशी,
सौंधी सी खुश्बू, मिट्टी की अपनी पाकर!

सौंधी सी ये खुश्बू, है अपनेपन की,
अटूट संबंधो और बंधन की,
अब भस्म हो चुके जो, उस अस्थि की,
बिछड़े से, उस आलिंगन की,
खींच लाते हैं वो ही, फिर चौखट पर!

सौंधी सी ये खुशबू, है इस मिट्टी की,
धरोहर, है जिनमें उन पुरखों की,
निमंत्रण, उनको दे जाती हैं जो अक्सर,
बरबस, लौट आते हैं परदेशी,
सौंधी सी वो ही खुश्बू, मिट्टी की पाकर!

सौंधी सी ये खुश्बू, है संस्कारों की,
संबंधों के, उन शिष्टाचारों की,
छूट चुके हैं जो अब, उन गलियारों की,
बचपन के, नन्हें से यारों की,
पुकारते हैं जो, फिर रातों में आकर!

सौंधी सी खुश्बू, है उन उमंगों की,
तीन रंगों में रंगे, तिरंगों की,
स्वतंत्रता व स्वाभिमान, के जंगों की,
बासंती से, खिलते रंगों की,
लोहित वो मिट्टी, बुलाती है आकर!

बरबस, लौट आते हैं परदेशी,
सौंधी सी खुश्बू, मिट्टी की अपनी पाकर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Sunday, 21 October 2018

गठबंधन

नाजुक डोर से इक,
दो हृदय, आज जुड़ से गए...

बंध बंधते रहे,
तार मन के जुड़ते रहे,
डबडबाए नैन,
बांध तोड़ बहते रहे,
चुप थे दो लब,
चुपके से कुछ कह गए,
गांठ रिश्तों के,
इक नए से जुड़ गए....

नाजुक डोर से इक,
दो हृदय, आज जुड़ से गए...

खिल सी उठी,
मुरझाई सी इक कली,
आशाएं कई,
इक साथ पल्लवित हुई,
बांधने मन के,
इक नवीन बंधन वो चली,
नाम रिश्तों के,
इक नए से मिल गए.....

नाजुक डोर से इक,
दो हृदय, आज जुड़ से गए...

मुक्त आकाश ये,
छूने लगा मुदित हृदय,
बेसुरा कंठ भी,
गाने लगा नवीन लय,
मुखरित राह पर,
राही नए दो चल पड़े,
राह रिश्तों के,
इक नए से मिल गए.....

नाजुक डोर से इक,
दो हृदय, आज जुड़ से गए...

कोटि-कोटि कर,
आशीष देने को उठे,
कितने ही स्वर,
शंख नाद करने लगे,
ये सैकड़ों भ्रमर,
डाल पर मंडराने लगे,
डाल रिश्तों के,
इक नए से मिल गए.....

नाजुक डोर से इक,
दो हृदय, आज जुड़ से गए...

Friday, 22 June 2018

कोरा अनुबंध

कैसी ये संविदा? कैसा यह कोरा अनुबंध?

अनुबंधों से परे ये कैसा है बंधन!
हर पल इक बंधन में रहता है ये मन!
किन धागों से है बंधा ये बंधन!
दो साँसों का अनबुझ सा ये अनुबंध!

जज्बातों की इक जंजीर है कोई!
या कोरे मन पर खिंची लकीर है कोई!
मीठी-मीठी सी ये पीर है कोई!
दो भावों का अनबुझ सा ये अनुबंध!

या हवाओं में लिखे कुछ अल्फाज!
सदियों तक कानों में गूंजती आवाज!
बीते से पल में डूबा सा आज!
दो लम्हों का अनबुझ सा ये अनुबंध!

या विरह में व्याकुल होते ये प्राण!
बस जाती इक तोते में कैसे ये जान!
अंजाने को अपनाता इंसान!
दो प्राणों का अनबुझ सा ये अनुबंध!

कैसी ये संविदा? कैसा यह कोरा अनुबंध?

Thursday, 31 March 2016

क्या लोग कहेंगे

क्या लोग कहेंगे? यही सोचकर चुप रहता हूँ ?

झूठी गिरह मन की बंधन के,
बेवजह संकोच लिए फिरता हूँ मन में,
अनिर्णय की स्थिति है, असमंजस में बैठा हूँ,

क्या लोग कहेंगे? यही सोचकर चुप रहता हूँ ?

घुट चुकी है दम प्रतिभाओं की,
खुद को पूर्णतः कहाँ खोल सका हूँ,
पूर्णविराम लगी है, कपाल बंद किए सोया हूँ,

क्या लोग कहेंगे? यही सोचकर चुप रहता हूँ ?

सपने असंख्य पल रहे इस मन में,
शायद कवि महान बन जाता जीवन में,
शब्द घुमड़ रहे है पर, लेखनी बंद किए बैठा हूँ,

क्या लोग कहेंगे? यही सोचकर चुप रहता हूँ ?

ग्यान का कोष मानस में,
अभिव्यक्ति मूक किए बस सुनता हूँ,
विवेचना की शक्ति है, पर दंभ लिए फिरता हूँ,

क्या लोग कहेंगे? यही सोचकर चुप रहता हूँ ?

चाहत खुशियों की पल के जीवन में,
खुशियों की लम्हों में कुछ कहने से डरता हूँ,
जिन्दा हूँ लेकिन, जीवन की लम्हों को यूँ खोता हूँ,

क्या लोग कहेंगे? यही सोचकर चुप रहता हूँ ?

Saturday, 26 March 2016

संबंधों का कर्ज मोक्ष पर भारी

धागे ये संबंधों के जुड़े स्नेह की गांठो से,
कब कैसे जुड़ जाते ये बंधन साँसों की झंकारों से,
ममतामयी स्पर्श स्नेहिल मधुर इन गाँठों का,
धागे ये कच्चे पर बंधन अटूट ये जन्मों-जन्मों का।

अनगिनत संबंध जीवन के भूले बिसरे से,
जीवन की आपाधापी में तड़पते कुचले-मसले से,
विरह की टीस सी उठती फुर्सत के क्षण में,
गतिशीलता जीवन की भारी स्नेह, दुलार, ममता पे।

आधार स्तम्भ जीवन के, संबंधों के दायरे यही,
कितने ही स्नेहमयी गोदों में नवजात मुस्कुराते यहीं,
कर्ज भारी इन संबंधों का ढ़ोते जीवन भर यहीं,
क्या उरृण हो पाऊँगा इस कर्ज से, मैं सोचता यही?

कर्ज इस बंधन का शायद जीवन पर है भारी,
जन्मों का यह चक्र मानव के कर्ज चुकाने की तैयारी,
गरिमामयी संबंधों को फिर से जीने की यह बारी,
मोह संबंधों के स्नेहिल बंधन के मोक्ष पर है मेरी भारी।

Thursday, 10 March 2016

बाँध लूँ डोर जीवन की

तुझ संग बाँध लू मैं डोर कोई आज जीवन की!

मैं तम अंधियारा तू है दीपशिखा सी,
जल रहे है दीप कितने मन में चंचल सी,
धुआँ सा उठ रहा बादलों में जाने कैसी,
इन बादलों संग बाँध लू मैं डोर जीवन की।

आँचलो मे सज रहे हैं रंग जीवन के,
नयनो मे चिंगारियाँ जल रहे खुशियों के,
दीप आशा का जला लूँ मैं इस मन के,
इन आँचलों संग बाँध लू मैं डोर जीवन के।

आस दिल की है तुम्हारी राह में मेरी,
आँसुओं में ढ़ल रही जीवन की ये डोरी,
आँसुओं से मैं जलाऊँ दीप डेहरी की,
इन आँसुओं संग बाँध लू मैं डोर जीवन की।

झंकार सी हो रही मंद सांसों में अब,
घुँघरुओं सी बज रही इस फिजाओं में अब,
पायल कई बज उठे साथ मन मे अब,
इन झंकारों संग बाँध लू मैं डोर जीवन की।

तुझ संग बाँध लू मैं डोर कोई आज जीवन की!

Tuesday, 1 March 2016

मोह भंग

मोह भंग हो चुका, अब जीने की तैयारी!

मोहिनी सूरत वो, मोहती मन जो,
जंजाल माया का हर लेती मन वो,
अंजान बंधन से कर देती विवश वो,
पर टूटा है अब मोह का पिंजड़ा वो|

मायावी हिरनी सी मोहलीला उसकी,
मोहपाश के वश में करती प्राण सबकी,
सींखचे इस पिंजड़े की बड़ी शख्त सी,
मोह बंधनों से दूर पर अब मैं मुक्त सी|

अनुबंध मोह की जीवन पर भारी,
शर्तें अनुबंध की जैेसे मरने की तैयारी,
मोहनी इन शर्तों की सूरत है न्यारी,
टूटे हैं वो शर्त जो जीवन पर हैं भारी|

मोह भंग हो चुका, अब जीने की तैयारी!

Friday, 19 February 2016

मदहोश मन

ये दिलकश मदहोशियों के पल,
दायरों में दिल के मची है आज हलचल
सुरमई साँझ खिल रही आज मचल।

मदहोश हो रहा आज मेरा ये मन,
कौन से बंधन मे बंध रहा आज ये मन,
खींच रहा किस डोर से ये बंधन।

मदहोशियों की चादर फैली यहाँ,
बदले बदले से आज मौसमों की दास्ताँ,
महकी सी हर दिशा आज है यहाँ।

अन्जाना सा ये दिलकश बंधन,
अन्जान राहों पे जाने किधर चला ये मन,
मदहोश धड़क रहा आज ये मन।

Sunday, 14 February 2016

"अविनाशी बंधन"

(पूजनीय नाना नानी...की मोहक स्मृति में समर्पित)

स्मृति पटल पर अंकित वो बनकर एहसास,
अविनाशी मानस पटल मे जो, वो अविनाश,
विनाश न हो जग में जिसका, वो अविनाश,
बांधता "अविनाशी बंधन" में, वो अविनाश!

अभिमान वो हमारा उनसे कुल की पहचान,
अधिष्ठाता मर्यादा का, सत्कर्मो की वो खान,
निष्ठाकर्म, लग्नकर्म, अनुशासन का वो प्रेमी,
वो अविनाश, हम सब की आन, बान, शान।

कितने ही दूरदूर हों इनकी लड़ियों के मोती,
कसक एक दूजे की पल पल दिल में बढ़ती,
शरुआत हर सुबह उनकी यादों से ही होती,
उनकी स्मृति की क्षणों के संग शाम बीतती।

प्रार्थना करूँ हर पल उस अविनाशी ईश्वर से,
बढ़ता रहे कुलवृक्ष निकलती रहे नई कोपलें,
निरंतर बढ़ती रहे मानमर्यादा कुल की हमसे,
गौरवांवित हों हम महिमा-मंडित अविनाश।

Saturday, 13 February 2016

आँखों का भरम


जानता हूँ तुमको जनमों से, तुम जानो या न जानो।

कई जन्मो पहले तुम मिले थे मुझको,
हम बिछड़े, फिर मिले हम, दुनिया से गुजरे, 
युग बीते, जन्म बदले, शक्ल बदले,
लगती ये बात पर आजकल की ही मुझको।

जानता हूँ कई जनमों से तुम्हे, तुम मानो या न मानो।

डोर कैसी जो खीचती तेरी ओर मुझको,
बिछड़े जन्मों पहले, फिर मिले हो तुम मुझको
आँखों में ये भरम कैसी, जो शक्ल बदले?
जन्मों-जन्मो से मिलते रहे तुम युंही मुझको।

जनमों जनमों का ये बंधन, तुम मानो या न मानो।

Wednesday, 6 January 2016

मोह के बंधन

मोह पास के बन्धन मे बंधे फसे हम,
छोटी सी इस दुनिया में फिर मिले हम,
कौंध गयी फिर यादों की बिजलियां,
फिर एक बार मोह की जुड़ी लड़ियाँ।

पहचान उसी मोह में आज तेरी जुड़ी,
जो नित नयी जोड़े जिन्दगी की लड़ी,
पर देख इतिहास दुबारा घटित होता नहीं,
बिछुड़ेंगे फिर हम छोड़ बन्ध मोह के घड़ी?

Monday, 28 December 2015

क्या बीते वर्ष मिला मुझको

पथ पर ठहर मन ये सोचे,
क्या बीते वर्ष मिला है मुझको।

चिरबंथन का मधुर क्रंदन या
लघु मधुकण के मौन आँसू।

स्वच्छंद नीला विशाल आकाश या
अनंत नभमंडल पर अंकित तारे।

चिन्ता, जलन, पीड़ा सदियों का या,
दो चार बूँद प्यार की मधुमास।

अवसाद मे डूबा व्यथित मन या
निज जन के विछोह की अमिट पीड़ा।

मौन होकर ठहर फिर सोचता मन,
क्या बीते वर्ष मिला है मुझको।