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Monday, 12 October 2020

मिथक सत्य

इक राह अनन्त, है जाना,
उलझे इन राहों में, मिथ्या को ही सच माना!
नजरों से ओझल, इक वो ही राह रहा,
भ्रम वो, कब टूटा!
मोह-जाल, माया का यह क्रम, कब छूटा!
दिग्भ्रमित, राह वही थामते हैं सब!
शायद, ये जानते हैं सब!

इक मिथ्या को, सच मानते हैं सब!
शायद, ये जानते हैं सब!

जो भी, जीवन में घटा,
इक कोहरा सा, अन्त-काल तक, कब छँटा!
इक मिथक सा, लिखा मन पर रहा,
मिटाए, कब मिटा!
पर, चक्र पर, काल की सब कुछ लुटा,
खुले हाथ, कुछ थामते हैं कब?
शायद, ये जानते हैं सब!

इक मिथ्या को, सच मानते हैं सब!
शायद, ये जानते हैं सब!

वृहद, समय का विस्तार,
बेतार, संवाद कर रहा समय का तार-तार!
पर, मिथक ही, मैं विवाद करता रहा,
विवाद, कब थमा!
समय का, अनसुन संवाद चलता रहा,
अबिंबित, वो बातें मानते हैं कब!
शायद, ये जानते हैं सब!

इक मिथ्या को, सच मानते हैं सब!
शायद, ये जानते हैं सब!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 24 April 2020

भ्रम

यूँ, तट से, ना बह दूर कहीं!

बहते कहाँ, बहावों संग, तीर कहीं,
रह जाती सह-सह, पीर वहीं,
ऐ अधीर मन, तू रख धीर वही,
यूँ, तट से, ना बह दूर कहीं!

तूफाँ हैं दो पल के, खुद बह जाएंगे,
बहती सी है ये धारा, कब तक रुक पाएंगे,
परछाईं हैं ये, हाथों में कब आएंगे,
ये आते-जाते से, साए हैं घन के,
छाया, कब तक ये दे पाएंगे?
इक भ्रम है, मिथ्या है, रह इनसे, दूर कहीं,
यूँ, तट से, ना बह दूर कहीं!

गर चाहोगे, तो प्यास जगेगी मन में,
गर देखोगे, परछाईं ही उभरेगी दर्पण में,
बुन जाएंगे जाले, ये भ्रम जीवन में,
उलझाएंगे ही, ये धागे मिथ्या में,
सुख, कब तक ये दे पाएंगे?
इक छल है, तृष्णा है, रह इनसे, दूर कहीं,
यूँ, तट से, ना बह दूर कहीं!

पिघले-पिघले हो, मन में नीर सही,
अनवरत उठते हों, पीर कहीं,
भींगे-भींगे हों, मन के तीर सही,
यूँ, तट से, ना बह दूर कहीं!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 8 April 2020

बुनता हूँ परछाईं

बदली सी, है छाई,
चलता-रुकता हूँ, कोशिश करता हूँ!
बुन लूँ, परछाईं!

थोड़े से हैं बादल, शायद, छँट जाएंगे,
रुकते-चलते, इस भ्रम में,
परछाईं से, हम अपनी, मिल पाएंगे,
शायद, वो मिथ्या ही हो!
पर, उसमें, सत्य का भान, जरा तो होगा,
उस परछाईं में,
इक अक्स, मेरा तो होगा!
सो, जगता हूँ, चल पड़ता हूँ!
बुनता हूँ, परछाईं!

बदली सी, है छाई,
चलता-रुकता हूँ, कोशिश करता हूँ!
बुन लूँ, परछाईं!

जीती है, इक चाहत, भ्रम में है राहत,
वो भ्रम है, या कि हम हैं!
बनते-बिखरते से, पलते हैं वो स्वप्न,
शायद, जागी आँखों में!
पर, चंचल पलकों को, रुकना तो होगा,
उस गहराई में,
ये जीवन, मेरा भी होगा!
सो, उठता हूँ, चल पड़ता हूँ!
बुनता हूँ, परछाईं!

बदली सी, है छाई,
चलता-रुकता हूँ, कोशिश करता हूँ!
बुन लूँ, परछाईं!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 26 July 2018

स्वप्न मरीचिका

स्वप्न था, इक मिथ्या भान था वो!
गम ही क्या, जो वो टूट गया!

ज्यूं परछाईं उभरी हो दर्पण में,
चाह कोई जागी हो मन में,
यूं ही मृग-मरीचिका सा भान हुआ!

भ्रम ने जाल बुने थे कुछ सुंदर,
आँखों में आ बसे ये आकर,
टूटा भ्रम, जब सत्य का भान हुआ!

मन फिरता था यूं ही मारा-मारा,
जैसे पागल या कोई बंजारा,
विचलित था मन, अब शांत हुआ!

छूट चुका सब स्वप्न की चाह में,
हम चले थे भ्रम की राह में,
कर्मविमुख थे पथ का ज्ञान हुआ!

सत्य और भ्रम विमुख परस्पर,
विरोधाभास भ्रम के भीतर,
अन्तर्मन जीता, ज्यूं परित्राण हुआ!

स्वप्न था, इक मिथ्या भान था वो!
गम ही क्या, जो वो टूट गया!

Sunday, 17 April 2016

मिथ्या अहंकार

बिखरे पड़े हैं कण शिलाओं के उधर एकान्त में,
कभी रहते थे शीष पर जो इन शिलाओं के
वक्त की छेनी चली कुछ ऐसी उन पर,
टूट टूटकर बिखरे हैं ये, एकान्त में अब भूमि पर ।

टूट जाती हैं ये कठोर शिलाएँ भी घिस-घिसकर,
हवाओं के मंद झौकों में पिस-पिसकर,
पिघल जाती हैं ये चट्टान भी रच-रचकर,
बहती पानी के संग, नर्म आगोश मे रिस-रिसकर।

शिलाओं के ये कण, इनकी अहंकार के हैं टुकड़े,
वक्त की कदमों में अब आकर ये हैं बिखरे,
वक्त सदा ही किसी का, एक सा कब तक रहता,
सहृदय विनम्र भाव ने ही, दिल वक्त का भी है जीता।

ये अहम भाव तो, मिथ्या भ्रम होते हैं मन के,
टूट जातेे हैं अहंकार यहाँ हम इन्सानों के,
मृदुलता मन की, सर्वदा ही भारी अहम पर,
कोमलता हृदय की, राज करती सर्वदा इस जग पर।