Wednesday, 30 December 2020

ओ तथागत-2020

ओ तथागत!

प्रतिक्षण, थी तेरी ही, इक प्रतीक्षा!
जबकि, मैं, बेहद खुश था,
नववर्ष की, नूतन सी आहट पर,
उसी, कोमल तरुणाहट पर!

गुजरा वो, क्षण भी! तुम आए...
ओ तथागत!

कितने कसीदे, पढ़े स्वागत में तेरी!
मान-मनौवल, आवभगत,
जैसे कि, तुम थे कोई अभ्यागत,
पर, तुम तो बिसार चले हो!

गुजरा वो, क्षण भी! तुम चले...
ओ तथागत!

बड़ी खोखली, पाई तेरी ही झोली!
जाते-जाते, ले गए तुम,
मेरी ही, तरुणाई के इक साल!
और, छोड़ गए हो तन्हा!

ओ तथागत!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 27 December 2020

कैसा परिचय

तुम, अपरिचित तो न थे कभी!
ना मैं अंजाना!

फिर क्यूँ, मुड़ गई ये राहें!
मिल के भी, मिल न पाई निगाहें!
हिल के भी, चुप ही रहे लब,
शब्द, सारे तितर-बितर,
यूँ न था मिलना!

तुम, अपरिचित तो न थे कभी!
ना मैं अंजाना!

कैसी, ये परिचय की डोर!
ले जाए, मन, फिर क्यूँ उस ओर!
बिखरे, पन्नों पर शब्दों के पर,
बना, इक छोटा सा घर,
सजा ले, कल्पना!

तुम, अपरिचित तो न थे कभी!
ना मैं अंजाना!

यूँ तो फूलों में दिखते हो!
कुनकुनी, धूप में खिल उठते हो!
धूप वही, फिर खिल आए हैं,
कई रंग, उभर आए हैं,
बन कर, अल्पना!

तुम, अपरिचित तो न थे कभी!
ना मैं अंजाना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 26 December 2020

कठपुतली

तू, क्यूँ खुद पर, इतना करे गुमान!
देने वाला वो, और लेने वाला भी वो ही,
बस, ये मान!  क्यूँ बनता अंजान!
ढ़ल जाते हैं दिन, ढ़ल जाती है ये शाम,
उनके ही नाम!

ईश्वर के हाथों, इक कठपुतली हम!
हैं उसके ही ये मेले, उस में ही खेले हम,
किस धुन, जाने कौन यहाँ नाचे!
हम बेखबर, बस अपनी ही गाथा बाँचे,
बनते हैं नादान!

ये है उसकी माया, तू क्यूँ भरमाया!
खेल-खेल में, उसने ये रंग-मंच सजाया,
सबके जिम्मे, बंधी इक भूमिका,
पात्र महज इक, उस पटकथा के हम,
बस इतना जान!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
----------------------------------------------------
एक सत्य प्रसंग से प्रेरित .....

दान देते वक्त, संत रहीम, जब भी हाथ आगे बढ़ाते थे, तो शर्म से उनकी नज़रें नीचे झुक जाती थी।

यह बात सभी को अजीब सी लगती थी! इस पर एक संत ने रहीम को चार पंक्तियाँ लिख भेजीं -

"ऐसी देनी देन जु, कित सीखे हो सेन।
ज्यों ज्यों कर ऊँचौ करौ, त्यों त्यों नीचे नैन।।"

अर्थात्, रहीम! तुम ऐसा दान देना कहाँ से सीखे हो? जैसे जैसे तुम्हारे हाथ ऊपर उठते हैं वैसे वैसे तुम्हारी नज़रें, तुम्हारे नैन, नीचे क्यूँ झुक जाते हैं?

संत रहीम ने जवाब में लिखा -

"देनहार कोई और है, भेजत जो दिन रैन।
लोग भरम हम पर करैं, तासौं नीचे नैन।।"

अर्थात्, देने वाला तो, मालिक है, परमात्मा है, जो दिन रात भेज रहा है। परन्तु लोग समझते हैं कि मैं दे रहा हूँ, रहीम दे रहा है। यही सोच कर मुझे शर्म आती है और मेरी नजरें नीचे झुक जाती हैं।

Thursday, 24 December 2020

झील सा, अधबहा

गुफ्तगू, बहुत हुई गैरों से,
पर गाँठ, गिरह की, खुल न पाई!
है अन्दर, कितना अनकहा!
झील सा, अनबहा!
अब, बहना है,
इक दीवाने से, कहना है!

मिल जाए, तो अपना लूँ, 
माना, इक फलक है, बिखरा सा,
खुद में, कितना उलझा सा,
बंधा या, अधखुला!
कितना, टूटा है,
उन टुकड़ों को, चुनना है!

दो होते, तो होती गुफ्तगू,
चुप-चुप, करे क्या, मन एकाकी!
गगन करे भी क्या, तन्हा सा!
भींगा या, अधभींगा!
शायद, तरसा है!
उसे तन्हाई में, पलना है!

पहले, सहेज लूँ ये बहाव,
समेट लूँ, मन के सारे बहते भाव!
रोक लूँ, ले चलूँ किनारों पर!
बहने दूँ, ये अधबहा!
भँवर विहीन सा,
फिर बहाव में, बहना है!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 23 December 2020

निवृति

निवृति कब पाया किसने!
माया यह जीवन!

गंतव्य कहाँ!
जाने कौन, यहाँ!
अनंत पथ,
अनवरत जीवन रथ,
शतत् कर्मरत्, यह अग्निपथ,
इक शपथ,
इक और शपथ!
निवृत कब!
पलती, साँसों के मध्य,
तृष्णा,
और वितृष्णा,
दोधार बना जीवन!

निवृति कब पाया किसने!
माया यह जीवन!

संसार जहाँ,
सुख-सार, कहाँ!
व्यस्त रहा,
विवश रहा, प्राणी,
बिछड़न-मिलन के मध्य,
बह चला,
आँखों का पानी,
बरसा सावन,
फिर भी क्यूँ तरसा,
मन,
प्यासा घन,
सूख चला जीवन!

निवृति कब पाया किसने!
माया यह जीवन!

रात अकेली,
पलकों बीच, खेली,
कभी सोई,
बदल बदल करवट,
जागे, ऊंघे पलकों के पट,
राहें सूनी,
आंगन सब सूना,
इक आस,
मध्य, सौ-सौ निराश,
क्षण,
क्षत्-विक्षत,
आहत इक जीवन!

निवृति कब पाया किसने!
माया यह जीवन!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 20 December 2020

कोहरे

धुंधले ये कोहरे हैं, या दामन के हैं घेरे,
रुपहली क्षितिज है, या रुपहले से हैं चेहरे,
ठंढ़ी पवन है, या हैं सर्द आहों के डेरे,
सिहरन सी है, तन-मन में,
इक तस्वीर उभर आई है, कोहरों में!

सजल ये दो नैन हैं, या हैं बूंदों के डेरे,
वो आँचल हैं ढ़लके से, या हैं बादल घनेरे,
वो है चिलमन, या हैं हल्के से कोहरे,
हलचल सी है, तन-मन में,
वही रंगत उभर आई है, कोहरों में!

उसी ने, रंग अपने, फलक पर बिखेरे,
रंगत में उसी की, ढ़लने लगे अब ये सवेरे,
वो सारे रंग, जन्नत के, उसी ने उकेरे,
छुवन वो ही है, तन-मन में,
वही चाहत उभर आई है, कोहरों में!

बुनकर कोई धागे, कोई गिनता है घेरे,
चुन कर कई लम्हे, कोई संग लेता है फेरे,
किसी की रात, किन्हीं यादों में गुजरे,
कोई बन्धन है, तन-मन में,
इक तावीर उभर आई है, कोहरों में!

धुंधले ये कोहरे हैं, या दामन के हैं घेरे,
रुपहली क्षितिज है, या रुपहले से हैं चेहरे,
ठंढ़ी पवन है, या हैं सर्द आहों के डेरे,
सिहरन सी है, तन-मन में, 
इक तस्वीर उभर आई है, कोहरों में!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

और कितने दूर

और कितने दूर, ले जाएगी ये राह!

सब तो, छूट चुका है पीछे,
फिर भागे मन, किन सपनों के पीछे,
वो, जो है रातों के साए,
कब हाथों में आए,
जाने, कहाँ-कहाँ, भटकाएगी,
अधूरी मन की चाह!

और कितने दूर, ले जाएगी ये राह!

जाने कब, भूल चुके सब,
मन के स्नेहिल बंधन, तोड़ चले कब,
बिसराए, नेह भरे गंध, 
वो गेह भरे सुगंध,
तन्हा पल में, याद दिलाएगी,
बन कर इक आह!

और कितने दूर, ले जाएगी ये राह!

अब तक, लब्ध रहा क्या!
क्या प्रासंगिक थी, सारी उपलब्धियाँ!
गिनता हूँ अब तारों को,
मलता हूँ हाथों को,
झूठी चाहत, क्या करवाएगी?
बस, भटकाएगी राह!

और कितने दूर, ले जाएगी ये राह!

प्रसंग कई, जब छूट चले,
जाना, जब खुद अप्रासंगिक हो चले,
तर्क, भला  क्या देना!
राहों में, क्या रोना!
इस प्रश्नकाल में, जग जाएगी!
इक तृष्णा इक चाह!

और कितने दूर, ले जाएगी ये राह!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 16 December 2020

आसां नहीँ

आसां नही, किसी के किस्सों में समा जाना,
रहूँ मैं जैसा! हूँ मगर आज का हिस्सा,
कल के किस्सों में, शायद रह जाऊँ बेगाना!
आसां नहीं, किसी और का हो जाना!

जीवंत, एक जीवन, सुसुप्त करोड़ों भावना,
कितना ही नितांत, उनका जाग जाना!
कितने थे विकल्प, पर न थी एक संभावना,
आसां नहीं, किसी और का हो जाना!

मन की किताबों पर, कोई लिख जाए कैसे!
मौन किस्सों का हिस्सा, बन जाए कैसे!
कपोल-कल्पित, सारगर्भित सा मेरा तराना,
आसां नहीं, किसी और का हो जाना!

ये हैं चह-चहाहटें, है ये ही कल की आहटें,
जीवंत संवेदनाओं की, मूक लिखावटें!
सुने ही कौन, ये अनगढ़ा, मूक सा फ़साना,
आसां नहीं, किसी और का हो जाना!

क्यूँ कोई बनाए, किसी को याद का हिस्सा,
क्यूँ कोई पढ़े, कोई अनगढ़ा सा किस्सा,
क्यूँ कोई संभाले, किसी और की संवेदना,
आसां नहीं, किसी और का हो जाना!

पहर दोपहर, बढ़ा, असंवेदनाओं का शहर,
मान कर अमृत, पान कर लेना ये जहर,
रख संभालना, जीवंत भावना व संवेदना,
आसां नहीं, किसी और का हो जाना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 15 December 2020

आ भी जाओ

आ भी जाओ कि अबकी बहार आए!

कोई खेल कैसे, अकेले ही खेले!
कोई बात कैसे, खुद से कर ले अकेले!
तेरे बिन ये मेले, मुझको न भाए!

आ भी जाओ कि अबकी बहार आए!

फागुन भी हारे, खो गए रंग सारे,
नैन, तुझको ना बिसारे, उधर ही निहारे,
तुम बिन ये रंग, मुझको न भाए!

आ भी जाओ कि अबकी बहार आए!

बेरंग से ये फूल, तकती हैं राहें,
चुप-चुप सी कली, तुझको ही पुकारे,
रंग ये उदास, मुझको न भाए!

आ भी जाओ कि अबकी बहार आए!

सूनी सी पड़ी, कब से ये गलियाँ,
गई जो बहारें, फिर न लौट आई यहाँ,
विरान गलियाँ, मुझको न भाए!

आ भी जाओ कि अबकी बहार आए!

वो, कल के तराने, न होंगे पुराने,
ले आ वही गीत, वो ही गुजरे जमाने,
ये नए से तराने, मुझको न भाए!

आ भी जाओ कि अबकी बहार आए!

जा कह दे, उन बहारों से जाकर,
वो ही तन्हाई में, गुम न जाए आकर,
ये लम्हात तन्हा, मुझको न भाए!

आ भी जाओ कि अबकी बहार आए!

भूले कोई कैसे वो सावन के झूले,
कोई दूर कैसे, खुद से, रह ले अकेले!
बूंदें! ये तुम बिन, मुझको न भाए!

आ भी जाओ कि अबकी बहार आए!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 13 December 2020

देश को न बाँटिए

अधिकार-पूर्वक, मांगिए,
मतलब साधिए,
भले ही,
पर, देश को न बाँटिए!

जयचंद न बनिए,
राह, जिन्ना की न चलिए,
देखे हैं हमनें, पराधीनता की पराकाष्ठा,
फिर, डिग न जाए, ये आस्था,
देश ये, बँट न जाए,
अपने हाथों, हाथ अपना, 
कट न जाए,
एक जिन्ना, राष्ट्र को ही, बाँट बैठा,
हाथ, खुद ही अपना, काट बैठा,
बचे हैं, कुछ रक्तबीज,
रोज ही, बोते हैं जो,
विभाजन के, रक्तिम विषैले-बीज!
पर, अब न होने देंगे, हम,
और विभाजन!
आप, सियासतें कीजिए,
रियायतें लीजिए,
भले ही,
पर, देश को न बाँटिए!

स्वार्थ-वश, होकर विवश,
कुछ भी बांचिए,
भले ही,
पर, देश को न बाँटिए!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

निराधार आकाश

निराधार तो नहीं, कहीं ये आकाश मेरा!
डिग रहा क्यूँ, विश्वास मेरा!

देशहित से परे, न आंदोलन कोई,
देशहित से बड़ा, होता नहीं निर्णय कोई,
देशहित से परे, कहाँ संसार मेरा,
देशहित ही रहा संस्कार मेरा,
पर, डिग रहा क्यूँ, विश्वास मेरा!

निराधार तो नहीं, कहीं ये आकाश मेरा!

प्रतिनिधि चुना, खुद मैंने हाथों से,
प्रभावित कितना था मैं, उनकी बातों से!
इक दीप सा था, वो प्रकाश मेरा,
खड़ा सामने था, इक सवेरा,
पर, डिग रहा अब, विश्वास मेरा!

निराधार तो नहीं, कहीं ये आकाश मेरा!

अंधेरों में, रुक चुका है ये कारवाँ,
भरोसे के काबिल, शायद, न कोई यहाँ!
रिक्तियों से भरा, अंकपाश मेरा,
निःपुष्प सा, ये पलाश मेरा,
डिगने लगा है, अब विश्वास मेरा!

निराधार तो नहीं, कहीं ये आकाश मेरा!

चालें, अपनी ही, नित चलता रहा,
वो फरेबी, इक चक्रव्यूह ही रचता रहा,
कल तक, वो था संगतराश मेरा,
ले न आए वही, विनाश मेरा!
ऐसा डिग रहा अब, विश्वास मेरा!

निराधार तो नहीं, कहीं ये आकाश मेरा!

सर्वोपरि हो, देश हित, फिर हैं हम,
पर उसी नें इस देश में, फैलाया है भ्रम,
इक अंधकार में है, आकाश मेरा,
निराधार ही था, विश्वास मेरा!
ऐसा डिग चला अब, विश्वास मेरा!

निराधार तो नहीं, कहीं ये आकाश मेरा!
डिग रहा क्यूँ, विश्वास मेरा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 12 December 2020

पलों के यूकेलिप्टस

नहीं, कुछ भी नहीं!
तुम, न हो तो, कहीं कुछ भी नहीं!

हाँ, बीत जाते हैं जो, साथ होते नहीं,
पर वो पल, बीत पाते हैं कहाँ!
सजर ही आते हैं, कहीं, मन की धरा पर,
पलों के, विशाल यूकेलिप्टस!
लपेटे, सूखे से छाले,
फटे पुराने!

नया, कुछ भी नहीं....

बीत जाते हैं युग, वक्त बीतता नहीं,
कुछ, वक्त के परे, रीतता नहीं!
अकेले ही भीगता, पलों का यूकेलिप्टस,
कहीं शून्य में, सर को उठाए!
लपेटे, भीगे से छाले,
फटे पुराने!

नया, कुछ भी नहीं....

हाँ, पुराने वो पल, पुरानी सी बातें,
गुजरे से कल, रुहानी वो रातें!
उभर ही आते हैं, कहीं, मन की धरा पर,
लह-लहाते, वो यूकेलिप्टस!
लपेटे, रूखे से छाले,
फटे पुराने!

और, कुछ भी नहीं!
तुम, न हो तो, कहीं कुछ भी नहीं!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 11 December 2020

और कितना

और कितने, राज गहरे खोलोगे तुम!
और कितना, बोलोगे तुम!

सदियों तलक, चुप रहे कल तक,
ज्यूँ, बेजुबां हो कोई,
इक ठहरी नदी, कहीं हो, खोई-खोई,
पर, हो चले आज कितने,
चंचल से तुम!

और कितने, राज गहरे खोलोगे तुम!
और कितना, बोलोगे तुम!

रहा मैं, किनारों पे खड़ा, चुपचाप,
बह चली थी वो धारा,
बेखबर, जाने किसका था, वो ईशारा,
बस बह चले थे, प्रवाह में,
निर्झर से तुम!

और कितने, राज गहरे खोलोगे तुम!
और कितना, बोलोगे तुम!

बज उठा, कंदराओं में संगीत सा,
गा उठी, सूनी घाटियाँ,
चह-चहा उठी, लचक कर, डालियाँ,
छेड़ डाले, अबकी तार सारे,
सितार के तुम!

और कितने, राज गहरे खोलोगे तुम!
और कितना, बोलोगे तुम!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

सूना गगन

झाँक लेना, सूना सा, गगन भी यदा-कदा!
इक छवि, तेरी ही दिखलाएगा सदा!

देखती हैं, तुझको ही ये चारो दिशाएँ,
झुक-झुक कर, क्षितिज पर, तुझको बुलाएं,
तारे हैं कई, पर विरान है गगन, 
तुम बिन सर्वदा!

झाँक लेना, सूना सा, गगन भी यदा-कदा!
इक छवि, तेरी ही दिखलाएगा सदा!

कौन जाने, किस घड़ी, छा जाए घटा,
चमके बिजलियाँ, हो न, सुबह सी ये छटा,
घिर न जाए, तूफानों में, गगन,
तुम बिन सर्वदा!

झाँक लेना, सूना सा, गगन भी यदा-कदा!
इक छवि, तेरी ही दिखलाएगा सदा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 9 December 2020

शिकवा

शिकवा ही सही, कुछ तो कह जाते!
तुम जो गए, बिन कुछ कहे,
खल गई, बात कुछ!

करते गर, तुम शिकायत,
निकाल लेते, मन की भड़ास सारी!
जान पाता, मैं वजह,
पर, बेवजह, 
इक धुँध में खो गए, बिन कुछ कहे,
खल गई, बात कुछ!

डिग चला, विश्वास थोड़ा,
अपनाया जिसे, क्यूँ, उसी ने छोड़ा!
उजाड़ कर, इक बसेरा,
ढूंढ़ते, सवेरा,
इक राह में खो गए, बिन कुछ कहे,
खल गई, बात कुछ!

बेहतर था, मिटा लेते शिकायतें सारी,
सुनी तुमने नहीं, मिन्नतें मेरी,
खल गई, बात कुछ!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
    (सर्वाधिकार सुरक्षित)

उम्मीद की किरण

नन्हीं सी इक लौ, बुझ न पाई रात भर,
वो ले आई, धूप सुबह की!

उम्मीद थी वो, भुक-भुक रही जलती,
गहन रात की आगोश में,
अपनी ही जोश में,
पलती रही!
वो पहली किरण थी, धूप की!

उजाले ही उजाले, बिखरे  गगन पर,
इक दिवस की आगोश में,
नए इक जोश में,
हँसती रही,
वो उजली किरण सी, धूप की!

ये दीप, आस का, जला उम्मीद संग,
तप्त अगन की आगोश में,
तनिक ही होश में,
खिलती रही,
वो धुंधली किरण सी, धूप की!

नन्हीं सी इक लौ, बुझ न पाई रात भर,
वो ले आई, धूप सुबह की!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 6 December 2020

जीवट

यह मानव, जीवट बड़ा!
गिरता, हर-बार होता, उठ खड़ा,
जख्म, कितना भी हो हरा!
विघ्न, बाधाओं से, वो ना डरा,
समय से लड़ा, मानव,
जीवट बड़ा!

या विरुद्ध, बहे ये धारा!
हो, पवन विरुद्ध, दूर हो किनारा,
ना अनुकूल, कोई ईशारा!
प्रतिकूल, तूफानों से, वो लड़ा,
डरा कभी ना, मानव,
जीवट बड़ा!

आईं-गईं, प्रलय कितनी!
घिस-घिस, पाषाण, हुई चिकनी,
इक संकल्प, हुई दृढ़ उतनी,
कई युग देखे, बनकर युगद्रष्टा,
श्रृष्टि से लड़ा, मानव,
जीवट बड़ा!

युगों-युगों से, रहा खड़ा!
वो पीर, पर्वत सा, बन कर अड़ा,
चीर कर, धरती का सीना,
सीखा है उसने, जीवन जीना,
हारा है कब, मानव,
जीवट बड़ा!

जंग अभी, है यह जारी!
विपदाओं पर, है यह मानव भारी,
इक नए कूच की, है तैयारी,
अब, ब्रम्हांड विजय की है बारी,
ठहरा है कब, मानव,
जीवट बड़ा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 5 December 2020

धुआँ

ऐ दिल, अब भूल जा,
पतझड़ों में, फूल की, कर न तू कल्पना!
सच है वो, जो सामने है,
और है क्या?

चलो, मैं मान भी लूँ!
अल्पना बनती नहीं, कल्पनाओं के बिना,
है रंग वो, जो सामने है,
और है क्या?

मान, इक सपना उसे!
इस भ्रम में, यथार्थ की, कर न तू कल्पना,
रेत है वो, जो सामने है,
और है क्या?

दिल नें, माना ही कब,
बस रेत पर, लिखता रहा, वो इक तराना,
गीत वो है, जो सामने है,
और है क्या?

ऐ दिल, अब भूल जा,
बादलों में, इक घर की, कर न तू कल्पना,
धुआँ है वो, जो सामने है,
और है क्या?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 3 December 2020

आवाज

पुकारती ही रहना!
वही आवाज! साज थे, जो कल के मेेेरे,
वहीं, इस शून्य को पाटती है,
तुम्हारी गुनगनाहट!
तुम्हारी गूंज,
नदी के, इस पार तक आती है!

बने दो तीर कब!
इक धार, न जाने किधर बट चले कब!
अनमनस्क, बहते दो किनारे,
कब से बे-सहारे,
वो एक धार,
नदी के, इस पार तक आती है!

निश्छल, धार वो!
मगर, पहले सी, फिर हुई ना उत्श्रृंखल,
बस, किनारा ही, पखारती है,
मझधार कलकल,
एक हलचल,
नदी के, इस पार तक आती है!

कभी फिर गुजरना!
वैसी ही रहना, छल-छल यूँ ही छलकना,
वही, दो किनारों को पाटती है,
तेरे पाँवों की आहट,
आवाज बनकर,
नदी के, इस पार तक आती है!

पुकारती ही रहना!
कुछ भी कहना! ठहरे हैं जो पल ये मेरे,
ठहर कर, तुझे ही ताकती हैं,
शून्य में, बिखरी हुई,
आवाज तेरी,
नदी के, इस पार तक आती है!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

विस्मृति

नहीं हो तुम कहीं, पर अभी तो, तुम थे यहीं!
स्मृतियाँ, बार-बार ले आती हैं तुम्हें,
और, मूर्त हो उठते हो तुम।

देखो ना! आज फिर, सजल हैं नैन तेरे,
बहते समीर संग, उड़ चले हैं, गेसूओं के घेरे,
चुप-चुप से हो, पर कंपकपाए से हैं अधर,
मौन हो जितने, हो उतने ही मुखर,
कितनी बातें, कह गए हो, कुछ कहे बिन,
चाहता हूँ कि अब रुक भी जाओ तुम!
रोकता हूँ कि अब न जाओ तुम!
विस्मृति के, इस, सूने से विस्तार में,
कहीं दूर, खो न जाओ तुम!
रोके, रुकते हो कहाँ तुम!

पर, तुम्हारी ही स्मृति, ले आती हैं तुम्हें,
दो नैन चंचल, फिर से, रिझाने आती हैं हमें,
खिल आते हो, कोई, अमर बेल बन कर,
बना लेते हो अपना, पास रहकर,
फिर, हो जाते हो धूमिल, कुछ कहे बिन,
उमर आते हो कभी, उन घटाओं संग,
सांझ की, धूमिल सी छटाओं संग,
विस्मृति के, उसी, सूने से विस्तार में,
वापस, सिमट जाते हो तुम!
रोके, रुकते हो कहाँ तुम!

नहीं हो तुम कहीं, पर अभी तो, तुम थे यहीं!
स्मृतियाँ, बार-बार ले आती हैं तुम्हें,
और, मूर्त हो उठते हो तुम।

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 2 December 2020

राजनीति

नीति-अनीति, यथार्थ या भ्रम,
कहते हैं किसे!
शायद, जायज है, सब इसमें,
राजनीति!
कहते है शायद जिसे!

यूँ तो, गैरों की सुनता हूँ,
अनुभव, चुनता हूँ,
अनुभूतियाँ, शब्दों को देकर,
कविता बुनता हूँ!
पर समझ सका न, इस भ्रम को,
बुनता रहा, इक अधेरबुन,
चुन पाया ना, यथार्थ,
शायद, यहाँ, होता सब परमार्थ!
यूँ इस भ्रम में,
सारे ज्ञान, हुए धूमिल,
पर, मिल पाया ना, इक बिस्मिल!
नीति कहाँ!
और, किधर अनीति!
सर्वथा,
इतर रही राजनीति!

अधिकार, कर्तव्यों पर हैं हावी,
संस्कार, ऐसे!
शायद, जायज है, सब इसमें,
राजनीति!
कहते है शायद जिसे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 1 December 2020

अलविदा 2020

तू तकता किसकी राह, ऐ अन्तिम माह!
तू जाए तो, ये साल बिसारूँ!
हाल सम्हालूँ, बिगरे हालात बना लूँ!

तेरे होने का ही तो, बस, इक रोना था!
संग होकर भी, तू, संग ना था!
करना ही क्या था, जब कोरोना था!

अपनी दामन के काँटे, सब तुमने बाँटे!
सपन सलोने, हम कैसे पाते!
अब कुछ बाकी है क्या, जाते-जाते!

निर्दयी सा होकर, जीवन से तूने खेला!
गुम था जैसे, जीवन का मेला!
सहमा-सहमा, खुशियों का हर वेला!

कह दो, कैसे भूलूँ, ऐ बीता साल, तुझे!
कैद रखूँ, तुझको पिंजड़े में!
या, तुझको आजाद करूँ, जेहन से!

लेकिन, तूने तो जैसे, छेड़ा इक रण है!
याद रहे, अन्तिम ये क्षण है!
जंग में तेरे आगे, भारी ये जीवन है।

कितनी ही बाधाएं, लांघी है मानव ने,
कितने प्रलय, देखे हैं इसने,
जिन्दा हैं फिर भी, आँखों में सपने!

तू तकता किसकी राह, ऐ अन्तिम माह!
तू जाए तो, ये साल बिसारूँ!
हाल सम्हालूँ, बिगरे हालात बना लूँ!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday, 30 November 2020

अबकी बारह में

दु:ख के बादल में, अब चुनता है क्या रह-रह,
अबकी, बारह में, हार चले हम ग्यारह!

वो बीत चुका, अच्छा है, जो वो रीत चुका,
अब तक, लील चुका है, सब वो,
जीत चुका है, सब वो,
लाशों के ढ़ेरों में, अब चुनता है क्या रह-रह!
अबकी, बारह में, हार चले हम ग्यारह!

सपने तोड़े, कितनी उम्मीदों नें दामन छोड़े,
जिन्दा लाशों में, शेष रहा क्या?
अवरुद्ध हो रही, साँसें,
बिखरे तिनकों में, अब चुनता है क्या रह-रह!
अबकी, बारह में, हार चले हम ग्यारह!

2020 का, ये अन्तिम क्षण, जैसे इक रण,
खौफ-जदा था, इसका हर क्षण,
बाकि है, सह या मात,
इन अनिश्चितताओं में, चुनता है क्या रह-रह!
अबकी, बारह में, हार चले हम ग्यारह!

वैसे तो, निराशाओं में ही पलती है आशा,
बेचैनी ही, ले आती चैन जरा सा,
रख ले तू भी, प्रत्याशा!
वैसे इस पतझड़ में, तू चुनता है क्या रह-रह!
अबकी, बारह में, हार चले हम ग्यारह!

दु:ख के बादल में, अब चुनता है क्या रह-रह,
अबकी, बारह में, हार चले हम ग्यारह!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 29 November 2020

अतीत-मेरा सरमाया

गर हो पाता!
तो, मुड़ जाता, मैं, अतीत की ओर,
और, व्यतीत करता,
कुछ पल,
चुन लाता, कुछ, बिखरे मोती!

मेरा सरमाया!
वो छूटा कल, जो मैं, चुन ना पाया,
मुझसे ही, रूठा पल,
टूटा पल,
समेट लाता, सारे, हीरे मोती!

हो ना पाया!
खोया अतीत, तुझे मैं, छू ना पाया,
पर तुझमें है, मेरा अंश,
मेरा कल,
जलाए, जो, मन की ज्योति!

वर्तमान ये मेरा!
चाहे, अनुभव का, इक संबल तेरा,
मद्धिम, प्रदीर्घ सवेरा,
दुग्ध कल,
और, अंधेरो में, इक ज्योति!

चल उड़ जा!
ओ मन के पंछी, जा, दूर वहीं जा,
अतीत, जहाँ है मेरा,
बीते पल,
चुग ला, बिखरे, वे मेरे मोती!

गर हो पाता!
तो, मुड़ जाता, मैं, अतीत की ओर,
और, व्यतीत करता,
कुछ पल,
चुन लाता, सारे, बिखरे मोती!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 27 November 2020

जन्मदिन- एक शुभकामना

स्निग्ध छटा सी, स्वप्निल!
मने निरंतर, जन्म-दिवस यह, 
स्वप्न सरीखी स्नेहिल!

अतुल्य स्नेह मिले,
भार्या, भाई-बन्धु, स्वजन, पुत्रजनों से,
कोटि-कोटि आशीष मिले, 
मात-पिता, गुरुजन, श्रेष्ठजनों से,
गाएं सब हिलमिल!

स्निग्ध छटा सी, स्वप्निल!
मने निरंतर, जन्म-दिवस यह, 
स्वप्न सरीखी स्नेहिल!

नवीन विहान हो,
कल्पतरू सा, जीवन के ये पल खिले,
जगमग हो, धूमिल सी संध्या,
विघ्न-विहीन, समुनन्त राह मिले,
रातें हों झिलमिल!

स्निग्ध छटा सी, स्वप्निल!
मने निरंतर, जन्म-दिवस यह, 
स्वप्न सरीखी स्नेहिल!

उम्र चढ़े, आयुष बढ़े,
खुशी की, इक छाँव, घनेरी हो हासिल,
मान बढ़े, नित् सम्मान बढ़े,
धन-धान्य बढ़े, आप शतायु बनें,
आए ना मुश्किल!

स्निग्ध छटा सी, स्वप्निल!
मने निरंतर, जन्म-दिवस यह, 
स्वप्न सरीखी स्नेहिल!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)
-----------------------------
HAPPY BIRTHDAY

और अभी कितने दिन

और कितने दिन, जीवन के पलछिन!

ये साँसें, कल, थक ना जाएँ,
हो ना हो, कल ये, रुक भी जाएँ!
जीवन, सध भी न पाए,
कैसे कह पाएँ,
बाकि हैं, कितने पलछिन!

और अभी कितने दिन!

पाया जितना, काफी था वो,
चाहा कितना, ना-काफी था वो!
चाहें, तो अब कैसे चाहें,
कोई समझाए,
बाकि हैं, कितने पलछिन!

और अभी कितने दिन!

ठौर मिला, बेशक दौर चला,
मेरे अपनों में, कोई और मिला!
हम गैर किसे कह जाएं,
किसको ठुकराएं,
बाकि हैं, कितने पलछिन!

और अभी कितने दिन!

ठुकरा देता, गर मेरा न होता,
जाते इस पल का, घेरा न होता!
सायों को, कैसे ठुकराएं,
कैसे हाथ छुड़ाएं,
बाकि हैं, कितने पलछिन!

और अभी कितने दिन!

उल्टी साँसें, गिन पाऊँ कैसे,
उखरी हैं साँसें, कह पाऊँ कैसे!
ना ही, धीरज रख पाएं,
कैसे बतलाएं,
बाकि हैं, कितने पलछिन!

और कितने दिन, जीवन के पलछिन!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 24 November 2020

एहसान (27 वीं वर्षगांठ:)

एहसान बड़े हैं तेरे, इस जीवन पर मेरे,
आभारी हूँ, बस इतना, कह दूँ कैसे!
तुझको, बेगाना, इक पल में कर दूँ कैसे!

सजल दो नैन जले, अनबुझ, मेरी डेहरी पर,
जैसे रैन ढ़ले, सजग प्रहरी संग,
ऐसा चैन बसेरा!
कोई छीने, मुझसे क्या मेरा!
निश्चिंति का ऐसा घेरा,
पाता मैं कैसे!
बस, आभारी हूँ मैं, कह दूँ कैसे?

हर क्षण, तेरे जीवन का, मेरे ही हिस्से आया,
शायद मैं ही, कुछ ना दे पाया!
देता भी क्या? 
शेष भला, अब मेरा है क्या!
पर, आभारी हूँ मैं...
कह दूँ कैसे!
पराया, इक पल में, कर दूँ कैसे?

अपने हो तुम, सपने जीवन के बुनते हो तुम,
सूने पल में, रंग कई भरते हो,
यूँ, था मैं तन्हा!
अकेला, मैं करता भी क्या?
फीके रंगों से जीवन...
र॔गता मैं कैसे!
बस, आभारी हूँ मैं, कह दूँ कैसे?

एहसान बड़े हैं तेरे, इस जीवन पर मेरे,
आभारी हूँ, बस इतना, कह दूँ कैसे!
तुझको, गैरों में, इक पल में रख दूँ कैसे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)
---------------------------------------------------
अपनी शादी की 27 वीं वर्षगांठ (24.11.2020) पर पत्नी को सप्रेम समर्पित ...

Sunday, 22 November 2020

खाली कोना

खाली सा, 
कोई कोना तो होगा मन का!

तेरा ही मन है, 
लेकिन!
बेमतलब, मत जाना मन के उस कोने,
यदा-कदा, सुधि भी, ना लेना,
दबी सी, आह पड़ी होगी,
बरस पड़ेगी!
दर्द, तुझे ही होगा,
चाहो तो,
पहले,
टटोह लेना,
उजड़ा सा, तिनका-तिनका!

खाली सा, 
कोई कोना तो होगा मन का!

तेरा ही दर्पण है, 
लेकिन!
टूटा है किस कोने, जाना ही कब तूने,
मुख, भूले से, निहार ना लेना!
बिंब, कोई टूटी सी होगी,
डरा जाएगी!
पछतावा सा होगा,
चाहो तो,
पहले, 
समेट लेना,
बिखरा सा, टुकड़ा-टुकड़ा!

खाली सा, 
कोई कोना तो होगा मन का!

सुनसान पड़ा ये, 
लेकिन!
विस्मित तेरे पल को, संजोया है उसने,
संज्ञान, कभी, उस पल की लेना!
गहराई सी, वीरानी तो होगी,
चीख पड़ेगी!
पर, एहसास जगेगा,
चाहो तो,
पहले, 
संभाल लेना,
सिमटा सा, मनका-मनका!

खाली सा, 
कोई कोना तो होगा मन का!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 20 November 2020

अभिभूत - 27 साल

नित, खुद होकर नत-मस्तक,
मुझ पत्थर को, पावस में परिणत कर,
अभिभूत कर गए तुम!

जितना भी जाना, तुझको कम ही जाना,
बस, फूलों सा, था तुझको मुरझाना,
नित शीष चढ़े, पाँव तक फिसले,
पाँव तले, गए नित कुचले,
फिर भी, हौले से, यूँ मुस्काकर,
वशीभूत कर गए तुम!

नित, खुद होकर नत-मस्तक,
मुझ पत्थर को, पावस में परिणत कर,
अभिभूत कर गए तुम!

चली इक अंजानी पथ, डगमग सी नैय्या,
तब पुरजोर चली थी, इक पुरवैय्या,
किस ओर कहाँ, हम बह निकले,
हाँथों में, मेरा ही हाथ लिए,
उमंग कई, आँचल में भर कर,
द्रवीभूत कर गए तुम!

नित, खुद होकर नत-मस्तक,
मुझ पत्थर को, पावस में परिणत कर,
अभिभूत कर गए तुम!

इक मैं था, अनमस्क, बेपरवा अल्हड़ सा,
बे-दिल, बे-खबर, बेजान, पत्थर सा,
जाने कैसे, पल में, सदियों गुजरे,
हम तो, बस यूँ ही थे ठहरे,
पलकों की, छाँव घनेरी देकर,
परिभूत कर गए तुम!

नित, खुद होकर नत-मस्तक,
मुझ पत्थर को, पावस में परिणत कर,
अभिभूत कर गए तुम!

नित समक्ष सवेरा, अंत क्यूँकर होता मेरा,
ढ़ला, रोज ही, तम सा, तमस अंधेरा,
क्षितिज के, खिल आने से पहले,
चिड़ियों के, गाने से पहले,
रुण-झुण, पायल की भर कर,
जड़ीभूत कर गए तुम!

नित, खुद होकर नत-मस्तक,
मुझ पत्थर को, पावस में परिणत कर,
अभिभूत कर गए तुम!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)
-----------------------------------------------------
24 नवम्बर, 2020: जब हम द्व्य 27 साल पूरा कर रहे होंगे। यह एक अनुभूति, अभिभूत किए जा रही है मुझे। हुए हम दो से चार, रचा इक छोटा सा संसार। 
संक्षिप्त, एक लघु जीवन-रचना, आशीष की अपेक्षाओं सहित, अपने पाठकों के लिए......

Thursday, 19 November 2020

कैद

अब, कैद हो चुके तुम, धुँधले से नैनों में!

भटकोगे, अन्तर्मन के इस सूने वन में, 
कल्पनाओं के दारुण प्रांगण में,
क्या रह पाओगे?

पहले तो, बनती थी, इक परछाईं सी,
कभी, पल-भर में गुम होते थे!
कभी तुम होते थे!

तेरे ही सपने, पलते थे उड़ते-उड़ते से,
पर, डरता था, कुछ कहने से,
उड़ते सपनों से!

कैद हो चली, तेरे ही यादों की परछाईं,
लेकिन, आँखें हैं अब धुंधलाई,
जा पाओगे कैसे!

रोकेंगी तुझको, तेरी यादों के अवशेष,
नैनों का, धुंधलाता ये परिवेश,
जा ना पाओगे!

इन्हीं अवशेषों के मध्य, बजती हुई दूर,
गुनगुनाती सी, होगी इक धुन,
वही, शेष हूँ मैं!

गाते कुछ पल होंगे, बीते वो कल होंगे,
शायद, एकाकी ना पल होंगे,
रुक ही जाओगे!

या भटकोगे, अन्तर्मन के सूने से वन में, 
यातनाओं के, दारुण प्रांगण में,
कैसे रह पाओगे?

अब, कैद हो चुके तुम, धुँधले से नैनों में!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 15 November 2020

गहरी रात

कितनी गहरी, ये रात!
दिवा-स्वप्न की, तू ना कर बात!

इक दीप जला है, घर-घर,
व्यापा फिर भी, इक घुप अंधियारा,
मानव, सपनों का मारा,
कितना बेचारा,
चकाचौंध, राहों से हारा,
शायद ले आए, इक नन्हा दीपक!
उम्मीदों की प्रभात!

कितनी गहरी, ये रात!
दिवा-स्वप्न की, तू ना कर बात!

कतरा-कतरा, ये लहू जला,
फिर कहीं, इक नन्हा सा दीप जला,
निर्मम, वो पवन झकोरा,
तिमिर गहराया,
व्याकुल, लौ कुम्हलाया,
मन अधीर, धारे कब तक ये धीर!
कितनी दूर प्रभात!

कितनी गहरी, ये रात!
दिवा-स्वप्न की, तू ना कर बात!

तम के ही हाथों, तमस बना,
इन अंधेरी राहों पर, इक हवस पला,
बुझ-बुझ, नन्हा दीप जला,
रातों का छला,
समक्ष, खड़ा पराजय,
बदले कब, इस जीवन का आशय!
अधूरी, अपनी बात!

कितनी गहरी, ये रात!
दिवा-स्वप्न की, तू ना कर बात!
--------------------------------------------------
दीपावली का दीप, इक दिवा-स्वप्न दिखलाता  गया इस बार। कोरोना जैसी संक्रमण, विश्वव्यापी मंदी, विश्वयुद्ध की आशंका, सभ्यताओं से लड़ता मानव, मानव से ही डरता मानव आदि..... मन में पलती कितनी ही शंकाओं और इक उज्जवल सभ्यता की धूमिल होती आस के मध्य जलता, इक नन्हा दीप! इक छोटी सी लौ....गहरी सी ये रात.... और पलता इक दिवास्वप्न!
--------------------------------------------------
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 8 November 2020

बंजारे

सारे हैं बंजारे, देखे जो ख्वाब तुम्हारे!

सोचा था, रख लूँगा, मन के घेरों में,
संजो लूँगा, कुछ तस्वीरें, ख्वाबों के डेरों में,
पर, खुश्बू थे वो सारे, 
निकले, बंजारे,
बहते, नदियों के धारे,
पवन झकोरे,
पल भर, वो कब ठहरे,
निर्झर नैनों में, ख्वाब सुनहरे!

सारे हैं बंजारे, देखे जो ख्वाब तुम्हारे!

बेचारा मन, भटके बेगानों के पीछे,
दौरे है बेसुध,आँखें मींचे, बंजारों के पीछे,
पर, ठहरे हैं कब बंजारे,
वो राहों के मारे,
बातों में, ढ़ल जाते सारे,
धुंथलाते तारे,
भोर प्रहर, वो कब ठहरे,
दीवाने नैनों में, ख्वाब सुनहरे!

सारे हैं बंजारे, देखे जो ख्वाब तुम्हारे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 5 November 2020

हैं हालात क्या?

है बात क्या?
पूछे है कोई, दिल से मेरे,
जीर्ण जज़्बातों के हैं,
हालात क्या?

सूनी ये सड़क है, न अन्दर धड़क है,
खोए, गुम-सुम से हैं, बड़े चुप-चुप से हैं, 
ओढ़े हैं, खामोशियाँ!
जागे एहसासों के हैं, हालात क्या?

है बात क्या?
पूछे है कोई, दिल से मेरे, 
जज्ब जज़्बातों के हैं,
हालात क्या?

आता नहीं, अब कोई इस मोड़ तक,
खुशियाँ नहीं, शहर के किसी छोड़ तक,
पसरी है, विरानियाँ!
भीगी साहिलों के हैं, हालात क्या?

है बात क्या?
पूछे है कोई, दिल से मेरे,
जज्ब जज़्बातों के हैं,
हालात क्या?

मुद्दतों हुए, तुम कहाँ, खुल कर हँसे,
आ किसी कैदखाने में, खुद ही हो फ॔से,
गुम है, जिन्दगानियाँ!
लुटे चैनो-भ्रम के हैं, हालात क्या?

है बात क्या?
पूछे है कोई, दिल से मेरे,
जज्ब जज़्बातों के हैं,
हालात क्या?

शर्मसार, कर ना जाएं, कल ये तुम्हें,
रूठकर, मुड़ ना जाएं, हाथों से ये लम्हे,
कैसी है, रुसवाईयाँ!
बीते लम्हातों के हैं, हालात क्या?

है बात क्या?
पूछे कोई, दिल से मेरे,
जीर्ण जज़्बातों के हैं,
हालात क्या?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 4 November 2020

पूछे कोई

मन की गगन पे, वो उतरा था कैसे!

निशा थी, गुम हर दिशा थी,
कहीं बादलों में, छुपी कहकशाँ थी,
न कोई कारवाँ, न कोई निशां,
कोई स्याह रातों से पूछे,
वो गुजरा था कैसे!

मन की गगन पे, वो उतरा था कैसे!

घुलती हुई, पिघलती फिजां,
फिसलन लिए, भीगी थी राहें वहाँ,
आसां न था, खुद को बचाना,
कोई सर्द आहों से पूछे,
वो कहरा था कैसे!

मन की गगन पे, वो उतरा था कैसे!

हलचल सी, रहती प्रतिपल,
वो बेचैन, कहीं ठहरता न इक पल,
ना ठौर कोई, ना ही ठिकाना,
कोई उन ख्यालों से पूछे,
वो ठहरा था कैसे!

मन की गगन पे, वो उतरा था कैसे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 3 November 2020

निर्मम, जाने न मर्म!

निर्दयी बड़ी, सर्द सी ये पवन?
निर्मम, जाने न मर्म!

ढ़ँक लूँ, भला कैसे ये घायल सा तन!
ओढूं भला कैसे, कोई आवरण!
दिए बिन, निराकरण!
टटोले बिना, टूटा सा अंतः करण,
ले आए हो, ठिठुरण!

निर्मम, जाने न मर्म......

हो चले थे सर्द, पहले ही एहसास सारे!
चुभोती न थी, काँटों सी चुभन!
दुश्वार कितने, हैं क्षण!
जाने बिना, पल के सारे विकर्षण,
ले आए हो, ठिठुरण!

निर्मम, जाने न मर्म......

गर, सुन लेते मन की, तो आते न तुम!
दर्द में सिहरन, यूँ बढ़ाते न तुम!
दे गई पीड़, तेरी छुअन!
सर्द आहों में भर के, सारे ही गम,
ले आए हो, ठिठुरण!

निर्दयी बड़ी, सर्द सी ये पवन?
निर्मम, जाने न मर्म!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 29 October 2020

कदम

प्रारम्भ के, डगमग करते, वो दो कदम....
रहे वही निर्णायक!

चल पड़े जो, अज्ञात सी इक दिशा की ओर,
ले चले, न जाने किधर, किस ओर!
अनिश्चित से भविष्य के, विस्तार की ओर!
साथ चलता, इक सशंकित वर्तमान,
कंपित क्षण, अनिर्णीत, गतिमान!
इक स्वप्न, धूमिल, विद्यमान!

डगमग सी आशा, कभी गहराई सी निराशा,
लहरों सी उफनाती, कोई प्रत्याशा,
पग-पग, हिचकोले खाती, डोलती साहिल,
तलाशती, सुदूर कहीं अपनी मंजिल,
निस्तेज क्षितिज, लगती धूमिल!
लक्ष्य कहीं, लगती स्वप्निल!

जागृत, इक विश्वास, कि उठ खड़े होंगे हम, 
चुन लेंगे, निर्णायक दिशा ये कदम,
गढ़ लेंगे, स्वप्निल सा इक धूमिल आकाश,
अनन्त भविष्य, पा ही जाएगा अंत,
ज्यूँ, पतझड़, ले आता है बसन्त!
चिंगारी, हो उठती है ज्वलंत!

प्रारम्भ के, डगमग करते, वो दो कदम....
रहे वही निर्णायक!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 25 October 2020

चुभन

यूँ, खो न देना, सिमटते इन पलों को तुम!

हो गए हो, गुम कहीं आज कल तुम!
हाँ संक्रमण है, कम ही मिलने का चलन है!
वेदना है, अजब सी इक चुभन है!
तो, काँटे विरह के, क्यूँ बो रहे हो तुम?

यूँ, खो न देना, सिमटते इन पलों को तुम!

चल कर ना मिलो, मिल के तो चलो!
हाँ, पर यहाँ, मिल के बिसरने का चलन है!
सर्द रिश्तों में, कंटक सी चुभन है!
तो, रिश्ते भूल के, क्यूँ सो रहे हो तुम?

यूँ, खो न देना, सिमटते पलों को तुम!

पल कर, शूल पर, महकना फूल सा,
हाँ, खिलते फूलों के, बिखरने का चलन है!
पर, बंद कलियों में इक चुभन है!
तो, यूँ सिमट के, क्यूँ घुट रहे हो तुम?

यूँ, खो न देना, सिमटते इन पलों को तुम!

एकाकी, हो चले हो, आज कल तुम,
हाँ, संक्रमण है, एकांत रहने का चलन है!
पर, स्पंदनों में, शूल सी चुभन है!
तो, यूँ एकांत में, क्यूँ खो रहे हो तुम?

यूँ, खो न देना, सिमटते इन पलों को तुम!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 24 October 2020

एक टुकड़ा मन

शायद, छोड़ आया हूँ, वहीं मैं!
एक टुकड़ा मन!

घर से, निकला ही क्यूँ, बेवजह मैं?
न था आसान, इतना, कि आँखें मूंद लेता,
मन के, टुकड़ों को, कैसे रोक लेता!
समझा न पाया, मैं उनको,
आसान न था, समेट लेना, मन के टुकड़ों को!

शायद, छोड़ आया हूँ, वहीं मैं!
एक टुकड़ा मन!

मशगूल था, खुद में ही, था भला मैं!
यूँ, किसी की, हूक सुनकर, चल पड़ा था,
विह्वल सा हुआ था, एक टुकड़ा मन,
पिरोकर हूक, में खुद को,
मुश्किल था बड़ा, समेट लेना, शेष टुकड़ों को!

शायद, छोड़ आया हूँ, वहीं मैं!
एक टुकड़ा मन!

बस, होश है बाकी, शेष हूँ कहाँ मैं!
बेदखल, पराए गमों से, रह सका कहाँ मैं, 
भिगोते ही रहे सदा, आँसूओं के घन,
बहला न पाया, मैं मन को,
बिखर कर, टूटना ही था, मन के टुकड़ों को!

शायद, छोड़ आया हूँ, वहीं मैं!
एक टुकड़ा मन!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 14 October 2020

गर हो तो रुको


गर हो तो, रुको....

कुछ देर, जगो तुम साथ मेरे,
देखो ना, कितने नीरस हैं, रातों के ये क्षण!
अंधियारों ने, फैलाए हैं पैने से फन,
बेसुध सी, सोई है, ये दुनियाँ!
सुधि, ले अब कौन यहाँ!

गर हो तो, रुको....

नीरवता के, ये कैसे हैं पहरे!
चंचल पग सारे, उत्श्रृंखता के क्यूँ हैं ठहरे!
लुक-छुप, निशाचरों ने डाले हैं डेरे!
नीरसता हैं, क्यूँ इन गीतों में!
बहलाए, अब कौन यहाँ!

गर हो तो, रुको....

देखो, एकाकी सा वो तारा,
तन्हा सा वो बंजारा, फिरता है मारा-मारा!
मन ही मन, हँसता है,वो भी बेचारा!
तन्हा मानव, क्यूँ रातों से हारा!
समझाए, अब कौन यहाँ!

गर हो तो, रुको....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday, 12 October 2020

मिथक सत्य

इक राह अनन्त, है जाना,
उलझे इन राहों में, मिथ्या को ही सच माना!
नजरों से ओझल, इक वो ही राह रहा,
भ्रम वो, कब टूटा!
मोह-जाल, माया का यह क्रम, कब छूटा!
दिग्भ्रमित, राह वही थामते हैं सब!
शायद, ये जानते हैं सब!

इक मिथ्या को, सच मानते हैं सब!
शायद, ये जानते हैं सब!

जो भी, जीवन में घटा,
इक कोहरा सा, अन्त-काल तक, कब छँटा!
इक मिथक सा, लिखा मन पर रहा,
मिटाए, कब मिटा!
पर, चक्र पर, काल की सब कुछ लुटा,
खुले हाथ, कुछ थामते हैं कब?
शायद, ये जानते हैं सब!

इक मिथ्या को, सच मानते हैं सब!
शायद, ये जानते हैं सब!

वृहद, समय का विस्तार,
बेतार, संवाद कर रहा समय का तार-तार!
पर, मिथक ही, मैं विवाद करता रहा,
विवाद, कब थमा!
समय का, अनसुन संवाद चलता रहा,
अबिंबित, वो बातें मानते हैं कब!
शायद, ये जानते हैं सब!

इक मिथ्या को, सच मानते हैं सब!
शायद, ये जानते हैं सब!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 11 October 2020

जिद्दी जमीं

खोकर नमीं, कभी जम सी जाती है!
जिद्दी जमीं!

खुद में छिपाए, प्राण कितने!
पिरोए, जीवन के, अवधान कितने,
जीवन्त रखते, अरमान कितने!
जरा सा, थम सी जाती है,
जिद्दी जमीं!

भला, वो बीज, सोता है कब!
वो गगण फिर, रक्ताभ होता है जब,
अंकुरित होते हैं, प्राण कितने!
फिर से, विहँस पड़ती है,
जिद्दी जमीं!

निष्फल, रहता नित कामरत!
सर पे धूप ढ़ोता, जूझता अनवरत,
नित लांघता, व्यवधान कितने!
पुन:श्च, गोद भर जाती है,
जिद्दी जमीं!

खोकर नमीं, कभी जम सी जाती है!
जिद्दी जमीं!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 4 October 2020

याद बन चले

इक उम्र के तले.....
तय हो चले, इक उम्र के ये फासले...

संग थे चले, नादान कितने पल,
हो रहे वही पल, फिर जीवंत आज कल,
वो कुछ याद बन रहे, संवाद कर गए, 
संवाद-हीन कुछ, याद बन चले!

तय हो चले, इक उम्र के ये फासले...

उस धार में, अथक सी प्रवाह थी,
सपन में पली, इक ज्वलंत सी चाह थी,
जीवंत से चाह, संग प्रवाह बन बहे,
कुछ रहे रुके, याद बन चले!

तय हो चले, इक उम्र के ये फासले...

तन्हा कहाँ, उम्र का ये रथ चला,
वक्त का काफिला, मुझसे खुलके मिला,
ये इक शिरा, तो संग है आज भी,
शिरे वो दूर के, याद बन चले!

तय हो चले, इक उम्र के ये फासले...

ठहरने लगी, है उम्र की ये नदी,
क्षणिक ये पल नहीं, बिताई है इक सदी,
रुकी सी रह गई, कोई पल साथ में, 
कुछ पल कहीं, याद बन चले!

तय हो चले, इक उम्र के ये फासले...

खट्टी-मीठी, यादों के वो पल,
हसरतों भरे, कितनी इरादों के वो पल,
मचल से गए, उभर से गए कभी,
तस्वीर में ढ़ले, याद बन चले!

तय हो चले, इक उम्र के ये फासले...

कल हम न हों, पर गम न हो,
समय की साज के, ये गीत कम न हो,
ये नज्म प्यार के, कुछ मेरे पास हैं,
गीतों में कई, याद बन चले!

तय हो चले, इक उम्र के ये फासले...

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

हालात

न ऐसी, कोई बात थी!
बस, छलकी थी बूँदें, न कोई बरसात थी!

कभी ये मन, भर आए तो क्या!
आँखें ही हैं, छलक भी जाएं तो क्या!
चाहे, ये दिल दुखे, 
या कहीं, लुटती रहे अस्मतें,
समझ लेना, जरा विचलित वो रात थी!
अपनी ही जिद पर, हालात थी!

न ऐसी, कोई बात थी!
बस, छलकी थी बूँदें, न कोई बरसात थी!

कहाँ वो, संवेदनाओं का गाँव!
हर तरफ, गहन वेदनाओं का रिसाव!
चाहे, देश ये जले, 
लाशों पे, जिये ये रियासतें,
समझ लेना, सियासतों की ये बात थी!
विवश हो चली, वो हालात थी!

न ऐसी, कोई बात थी!
बस, छलकी थी बूँदें, न कोई बरसात थी!

विषाक्त हो, जब हवा तो क्या!
जहर साँस में, घुल भी जाए तो क्या!
चाहे, रक्त ये जमे!
या तीव्र चाल, वक्त की रुके,
समझ लेना, प्रगति की ये सौगात थी!
अनियंत्रित सी, वो हालात थी!

न ऐसी, कोई बात थी!
बस, छलकी थी बूँदें, न कोई बरसात थी

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)