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Saturday, 13 August 2022

घन


हौले से, आ बरसो, हृदय के आंगन में,
यूं जैसे, घन बरसे सावन में!

पहले छा जाना, मन को भा जाना,
धुंधला सा, ये गहरा आंचल, फिर फैलाना,
उतर आना, इक बदली सा आंगन में!

हौले से, आ बरसो, हृदय के आंगन में!

यूं भर लेना नैनों में थोड़ा काजल,
ज्यूं रात, मचल कर,  गाती हो एक ग़ज़ल,
और साज कहीं, बजते हों उपवन में!

हौले से, आ बरसो, हृदय के आंगन में!

फिर चाहे तू कहना मन की व्यथा,
या रखना, मन की बातें, मन में ही सर्वथा,
उतर आना, नीर सरीखे, नयनन में!

हौले से, आ बरसो, हृदय के आंगन में!

सूना ये आंगन, संवर जाए थोड़ा,
सरगम की छमछम से, भर जाए ये जरा,
बज उठे शंख कई, इस सूनेपन में!

हौले से, आ बरसो, हृदय के आंगन में,
यूं जैसे, घन बरसे सावन में!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 3 July 2021

मन भरा-भरा

मन, क्यूँ भरा-भरा सा है...
गीत, सावन ने, अभी तो, गाया जरा सा है!

यकीं था कि, पाषाण है, ये मन मेरा!
सह जाएगा, ये चोट सारा,
झेल जाएगा, व्यथा का हर अंगारा,
लेकिन, व्यथा की एक आहट,
पर ये भर्राया सा है!

मन, क्यूँ भरा-भरा सा है...
गीत, सावन ने, अभी तो, गाया जरा सा है!

भरम था कि, अथाह है ये मन मेरा!
जल, पी जाएगा ये खारा,
लील जाएगा, ये गमों का फव्वारा,
लेकिन, बादल की गर्जनाओं,
पर ये थर्राया सा है!

मन, क्यूँ भरा-भरा सा है...
गीत, सावन ने, अभी तो, गाया जरा सा है!

गिरी, इक बूँद, टूटा भरम ये सारा!
छूटा, मन पे यकीं हमारा,
लबा-लब सी भरी, मन की धरा,
बेवश, खड़ा हूँ किनारों पर,
मन, चरमराया सा है!

मन, क्यूँ भरा-भरा सा है...
गीत, सावन ने, अभी तो, गाया जरा सा है!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 8 May 2021

पाठक व्यथा-कथा

ऐ कविवर, बिखरा दो, पन्नों पर, शब्दों को,
ताकि, शेष रहे ना, कुछ लिखने को!

यूँ लिखते हो, तो दर्द बिखर सा जाता है,
ये टीस, जहर सा, असर कर जाता है,
ठहर सा जाता है, ये वक्त वहीं!
यूँ ना बांधो, ना जकड़ो, उस पल में मुझको,
इन लम्हों में, जीने दो अब मुझको!

ऐ कविवर, बिखरा दो, पन्नों पर, शब्दों को,
ताकि, शेष रहे ना, कुछ लिखने को!

करुण कथा, व्यथा की, यूँ, गढ़ जाते हो,
कोई दर्द, किसी के सर मढ़ जाते हो,
यूँ खत्म हुई कब, करुण कथा!
राहत के, कुछ पल, दे दो, आहत मन को,
जीवंत जरा, रहने दो अब मुझको!

ऐ कविवर, बिखरा दो, पन्नों पर, शब्दों को,
ताकि, शेष रहे ना, कुछ लिखने को!

यूँ, करूँ क्या, लेकर तुम्हारी ये संवेदना!
क्यूँ जगाऊँ, सोई सी अपनी चेतना!
कहाँ सह पाऊँगा, मैं ये वेदना!
अपनी ही संवेदनाओं में, बहने दो मुझको,
आहत यूँ ना, रहने दो अब मुझको!

ऐ कविवर, बिखरा दो, पन्नों पर, शब्दों को,
ताकि, शेष रहे ना, कुछ लिखने को!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 5 May 2021

अंजान रिश्ते

मन, तू जागा है क्यूँ?
क्यूँ, है थामे!
अनगिनत, अंजान रिश्तों का, धागा तू?

खुद कहाँ, कब, तुझको पता!
कब, जुड़ा रिश्ता!
लग गए, कब अदृश्य से गाँठ कई!
कब गुजर गए, बन सांझ वही!
तो जागा, क्यूँ लिखता?
व्यथा की, वही एक अन्तःकथा तू!

मन, तू जागा है क्यूँ?
क्यूँ, है थामे!
अनगिनत, अंजान रिश्तों का, धागा तू?

कल, पल न बन जाए भारी!
यूँ, निभा न यारी!
न कर, उन अनाम रिश्तों की सवारी,
कल, कौन दे, तुझको यूँ ढ़ाढ़स,
न यूँ, बेकल पल बिता,
यूँ न गढ़, व्यथा की अन्तःकथा तू!

मन, तू जागा है क्यूँ?
क्यूँ, है थामे!
अनगिनत, अंजान रिश्तों का, धागा तू?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 6 March 2020

बरसों ढ़ले

बरसों ढ़ले, सांझ तले, तुम कौन मिले!

फिर पनपा, इक आस,
फिर जागे, सुसुप्त वही एहसास,
फिर जगने, नैनों में रैन चले!

बरसों ढ़ले, सांझ तले, तुम कौन मिले!

फिर पंकिल, नैन हुए,
फिर, कल-कल उमड़ी करुणा,
फिर स्नेह, परिधि पार चले!

बरसों ढ़ले, सांझ तले, तुम कौन मिले!

फिर मिली, वही व्यथा,
फिर, झंझावातों सी बहती सदा,
फिर एकाकी, दिन-रैन ढ़ले!

बरसों ढ़ले, सांझ तले, तुम कौन मिले!

फिर ढ़ली, उमर सारी,
सुसुप्त हुई, कल्पना की क्यारी,
इक दीपक, सा मौन जले!

बरसों ढ़ले, सांझ तले, तुम कौन मिले!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 31 August 2018

प्रतिश्राव

वही तार
संवेदना के
बार-बार
क्यूं?
छेड़ते हो तुम,
अपनी ही
संवेदनाओं के
प्रतिश्राव
क्या!
इन आँखो में,
चाहते हो
देखना तुम...!

पीड़ा का
है ना
मुझको
तनिक भी भान,
मैं
गम से
हूँ बिल्कुल
अंजान,
दिखता हूँ
मैं जैसा,
तू वैसा ही
मुझको जान...

मुझ है
न कोई व्यथा,
न ही
दुख भरी
है मेरी
कोई भी कथा,
फिर
बार-बार
क्यूँ ?
पूछते हो
मुझसे
ये प्रश्न तुम,
जख्म
कोई नया,
क्यूँ ?
हरबार
कुरेदते हो तुम....!

छलक पड़ेंगी
अनायास ही
मेरी
ये आँखे
प्रतिश्राव होगा वह!
तुम्हारे ही,
स्नेह का,
इस प्यार में,
तुम्हारे प्रश्न ही
छलक कर
बह पड़ेंगे
मेरे अश्रुधार में....!

क्या यही?
चाहते हो तुम
क्यूँ?
अपनी ही
संवेदनाओं के
प्रतिश्राव
मेरी इन
आँखो में,
डालते हो तुम,
शायद!
चाहते हो
वही प्रतिश्राव
मेरी
कोमल से,
हृदय में,
देखना तुम...!

Thursday, 23 November 2017

अरुचिकर कथा

कोई अरुचिकर कथा,
अंतस्थ पल रही मन की व्यथा,
शब्दवाण तैयार सदा....
वेदना के आस्वर,
कहथा फिरता,
शब्दों में व्यथा की कथा?
पर क्युँ कोई चुभते तीर छुए,
क्युँ भाव विहीन बहे,
श्रृंगार विहीन सी ये कथा,
रोमांच विहीन, दिशाहीन कथा,
कौन सुने, क्युँ कोई  सुने?
इक व्यथित मन की अरुचिकर कथा!

किसी के कुछ कहने,
या किसी से कुछ कहने, या
इससे पहले कि
कोई मन की बात करे 
या फिर रस की बरसात करे, 
दिल के जज्बात 
लम्हातों मे आकर कोई भरे, 
खींच लेता वो शब्दवाण,
पिरो लेता बस
अपने शब्दों में अपनी ही कथा...
अपनी पीड़ा, अपनी व्यथा,
कौन सुने, क्युँ कोई  सुने?
इक व्यथित मन की अरुचिकर कथा!

सबकी अपनी पीड़ा,
अपनी-अपनी सबकी व्यथा,
पीड़ा की गठरी
सब के सर इक बोझ सा रखा,
कोई अपनी पीड़ा
जीह्वा मे भरकर
घुटने टेक,
सर के बल लेट,
शब्दों पर लादकर चल रहा,
कौन सुने, क्युँ कोई  सुने?
इक व्यथित मन की अरुचिकर कथा!

व्यथा की कथा रच-रच....
वाल्मीकि रामायण रच गए,
तुलसी रामचरितमानस,
वेदव्यास महाभारत,
और कृष्ण गीतोपदेश दे गए,
पढे कौन, क्युँ कोई पढे,
है कौन व्यथा से परे!
मैं शब्दों में बोझ भरूँ कैसे?
शब्दवाण बींधूँ कैसे,
एकाकी पलों में 
खुद से खुद कहता व्यथा की कथा!
कौन सुने, क्युँ कोई  सुने?
इक व्यथित मन की अरुचिकर कथा!

बर्फ के फाहे

कुछ फाहे बर्फ की, जमीं पर संसृति की गिरीं.....

व्यथित थी धरा, थी थोड़ी सी थकी,
चिलचिलाती धूप में, थोड़ी सी थी तपी,
देख ऐसी दुर्दशा, सर्द हवा चल पड़ी,
वेदनाओं से कराहती, उर्वर सी ये जमी,
सनैः सनैः बर्फ के फाहों से ढक चुकी.....

कुछ बर्फ, सुखी डालियों पर थी जमीं,
कुछ फाहे, हरी पत्तियों पर भी रुकी,
अवसाद कम गए, साँस थोड़े जम गए,
किरण धूप की, कही दूर जा छुपी,
व्यथित जमीं, परत दर परत जम चुकी....

यूँ ही व्यथा तभी, भाफ बन कर उड़ी,
रूप कई बदल, यूँ बादलों में उभरी,
कभी धुआँ, कभी रहस्यमयी सी आकृति,
अविरल बादलों में, अनवरत तैरती,
वेदनाओं से फिर, आक्रांत थी ये संसृति....

यूँ संसृति की जमीं पर, गिरे बर्फ के फाहे,
कुछ घाव भरे, कुछ दर्द उठे अनचाहे,
कभी तृप्त हुए, कभी उभरे हृदय पर छाले,
ठिठुरते से कोहरों में कभी रात गुजारी,
कोमल से फाहों में, वेदना मे घिरी संसृति...

कुछ फाहे बर्फ की, जमीं पर संसृति की गिरीं.....

Saturday, 6 August 2016

किसे कह दूँ

किसे कह दूँ मैं शब्दों में अपनी व्यथा?
है कौन जो सुने इस व्यथित मन की अरूचिकर कथा?

दुरूह सबकी अपनी-अपनी व्यथा,
मैं शब्दों मे व्यथा का बोझ भरूँ फिर कैसे?
मुस्काते होठ, चमकीली आँखों मे मैं इनको भर लेता,
व्यंगों की चटकीली रंगों से कहता व्यथा की कथा!

व्यथा का आभाष तनिक न उनको,
व्यथा के शब्दों से बींधूँ कैसे उनकी तन को,
हृदय के कोष्ठों, पलकों की चिलमन मे इनको भर लेता,
एकाकी पलों में खुद से खुद कहता व्यथा की कथा!

किसे कह दूँ मैं शब्दों में अपनी व्यथा?
है कौन जो सुने इस व्यथित मन की अरूचिकर कथा?

Sunday, 26 June 2016

छाया का मौन

क्या टूटा भी है कभी इस व्यथित छाया का मौन?

जाने कब टूटेगा इस मूक छाया का मौन,
प्यासे किरणों के चुम्बन से रूँधी हैं इनकी साँसे,
कंपित हृदय हैं इनके सूखे पत्तों की आहट से,
खोई सी चाहों में घुट कर मूक हुई आहों में,
सुप्त आहों में छुपी वेदना कितनी ये पूछता है कौन?

क्या टूटा भी है कभी इस व्यथित छाया का मौन?

व्यथित प्राण इनके देख मुर्झाए फूलों को,
घुटती हैं साँसें इनकी देख सूूखे बंजर खेतों को,
सूनी आंगन में तब लेकर आती ये ठंढ़ी साँसो को,
रात के मूक क्षण भर भरकर धोती ये आहों को,
सुप्त चाहों में छुपी व्यथा कितनी ये पूछता है कौन?

क्या टूटा भी है कभी इस व्यथित छाया का मौन?

छलकते बादलों से टपकते आँसू मोती के,
मेघ भर लेता बाहों में छाया को अपनी पंखों से,
कह जाते इनके नैन कथा जाने किस बीते जीवन के,
सिहर उठते प्राण उस क्षण व्याकुल छाया के
सुप्त पनाहों में यह व्याकुल कितनी ये पूछता है कौन?

क्या टूटा भी है कभी इस व्यथित छाया का मौन?

Monday, 30 May 2016

ऐ अधीर मन

ऐ अधीर मन, तू धीरज रख, तू व्यग्र कभी न होना!

आकाक्षाओं की सीमा का कहीं अन्त नहीं,
अभिलाषाओं के पंछी पर कहीं तेरा वश नहीं,
तेरी उत्कंठाएँ तुझको खींचती है कहीं और,
देख तू संयम रख, दिगभ्रमित पल भर को न हो जाना,

ऐ अधीर मन, तू धीरज रख, तू व्यग्र कभी न होना!

वर्जनाओं के बंधन पाश यहाँ तुझको हैं घेरे,
जटिलताएँ इस जीवन की तेरी राहों के हैं रोड़े,
मोह के ये बंधन तुझको खीचते है कहीं और,
देख तू जरा संभल, अनियंत्रित इक पल को न हो जाना,

ऐ अधीर मन, तू धीरज रख, तू व्यग्र कभी न होना!

आश-निराश के पल जीवन में आएँगे जाएँगे,
विफलताओं के असह्य नीरव पल तुझको डराएंगे,
व्यथा के धागे तुझको ले जाएंगे कहीं और,
देख तू विश्वास रख, व्यथित इक पल को न हो जाना

ऐ अधीर मन, तू धीरज रख, तू व्यग्र कभी न होना!

Friday, 27 May 2016

वो चाय जो आदत बन गई

वो लजीज एक प्याली चाय जो अब आदत बन गई.....

सुबह की मंद बयार तन को सहलती जब,
अलसाई नींद संग बदन हाथ पाँव फैलाते तब,
अधखुले पलकों में उभरती तभी एक छवि,
चाय की प्याली हाथों में ले जैसे सामने कोई परी,
स्नेहमई मूरत चाय संग प्यार छलकाती रही,

वो लजीज एक प्याली चाय जो अब आदत बन गई.....

चाय की वो चंद बूँदें लगते अमृत की धार से,
एहसास दिलाते जैसे छलके हो मदिरा उन आँखों से,
सिंदुरी मांग सी प्यारी रंग दमकती उन प्यालों में,
चूड़ियों की खनखन के संग चाय लिए उन हाथों में,
अलबेली मूरत वो मन को सदा लुभाती रही,

वो लजीज एक प्याली चाय जो अब आदत बन गई.....

सांझ ढ़ले फिर कह उठते वो चाय के प्याले,
कुछ फुर्सत के मदहोश क्षण संग मेरे तू और बीता ले,
जहाँ बस मैं हुँ, तुम हो और हो नैन वही दो मतवाले,
तेरी व्यथा कब समझेंगे हृदयविहीन ये जग वाले,
मनमोहिनी सूरत वो चाय संग तुझे पुकारती,

वो लजीज एक प्याली चाय जो अब आदत बन गई.....

Thursday, 19 May 2016

नभ पर वो तारा

नभ पर हैं कितने ही तारे, एकाकी क्युँ मेरा वो संगी?

वो एकाकी तारा! धुमिल सी है जिसकी छवि,
टिमटिमाता वो प्रतिक्षण जैसे मंद-मंद हँसता हो कोई,
टिमटिमाते लब उसके कह जाती हैं बातें कई,
एकाकी सा तारा वो, शायद ढूंढ़ता है कोई संगी?

वो एकाकी तारा! नित छेड़ता इक स्वर लहरी,
पुकारता वो प्रतिक्षण जैसे चातक व्यग्र सा हो कोई,
टिमटिमाते लब जब गाते गीत प्यारी सी सुरमई,
है कितना प्यारा वो, पर उसका ना कोई संगी!

वो एकाकी तारा! मैं हूँ अब उसका प्रिय संगी,
कहता वो मुझसे प्रतिक्षण मन की सारी बातें अनकही,
टिमटिमाते लब उसके हृदय की व्यथा हैं कहती,
एकाकी तारे की करुणा में अब मैं ही उसका संगी!

Wednesday, 6 April 2016

पिता

विलख रहा, पिता का विरक्त मन,
देख पुत्र की पीड़ा, व्यथा और जलन,
पुत्र एक ही, कुल में उस पिता के,
चोट असंख्य पुत्र ने, सहे जन्म से दर्द के।

सजा किस पाप की, मिली है उसे,
दूध के दाँत भी, निकले नही उस पुत्र के,
पिता उसका कौन? वो जानता नही!
दर्द उसके पीड़ की, पर जानता पिता वही।

दौड़ता वो पिता, उसके लिए गली गली,
साँस चैन की, पर उसे कहाँ मिली,
आस का दीप एक, जला था उस पुत्र से,
बुझने को अब दीप वो, बुझ रहा पिता वहीं।

Sunday, 20 March 2016

सहमी सहमी सी खुशी

बरसों बीते, एक दिन खुशी को अचानक मैने भी देखा था राह में,
शक्ल कुछ भूली-भूली, कुछ जानी-पहचानी सी लगी थी उसकी,
दिमाग की तन्तुओं पर जोर डाला, तो पहचान मिली उस खुशी की,
बदहवास, उड-उड़े़े होश, माथे पे पसीने की बूंदे थी छलकी सी।

उदास गमगीन अंधेरों के साए में लिपटी, गुमसुम सी लगती थी वो,
इन्सानों की बस्ती से दूर, कहीं वीहट में शायद गुम हो चुकी थी वो,
खुद अपने घर का पता ढ़ूढ़ने, शायद जंगल से निकली थी वो,
नजरें पलभर मुझसे टकराते ही, कहीं कोने मे छुपने सी लगी थी वो।

सहमी-सहमी सी आवाज उसकी, बिखरे-बिखरे से थे अंदाज,
उलझे-उलझे लट चेहरे पे लटकी, जैसे झूलती हुई वटवृक्ष के डाल,
कांति गुम थी उसके चेहरे से, कोई अपना जैसे बिछड़ा था उससे,
या फिर किसी अपनों नें ही, दुखाया था दिल उस विरहन के जैसे।

इंसानों की बस्ती में वापस, जाने से भी वो घबराती थी शायद,
पल पल बदलते इंसानों के फितरत से, आहत थी वो भी शायद,
आवाज बंद हो चुकी थी उसकी, कुछ कह भी नही पाती वो शायद,
टूटकर बिखरी थी वो भी, छली गई थी इन्सानों से वो भी शायद।

व्यथा देख उसकी मैं, स्नेहपूर्वक विनती कर अपने घर ले आया,
क्षण भर को आँखे भर आई उसकी, पर अगले ही क्षण यह कैसी माया,
अपनों मे से ही किसी की मुँह से "ये कौन है?" का स्वर निकल आया,
विरहन खुशी टूट चुकी थी तब, जंगल में ही खुश थी वो शायद....!

Friday, 4 March 2016

साऱांश तुम हो उपलब्धियों की

कहो तो, सारांश तुम ही हो जीवन के उपलब्धियों की !

तुम सार हो चिर सुख के लम्हों की,
तुम से ही प्रेरणा जीवन में कुछ करने की,
तुम विभूषित अनुभूति हो इस मन की,
मैं सह गया व्यथा तुम संग पूरे जीवन की।

कहो तो, सारांश तुम ही हो जीवन के उपलब्धियों की !

कायनात सपनों की तेरे ही दामन में,
डग लम्बे भरता हूँ तुम संग ही जीवन में,
आशा और विश्वास तुझसे ही मानस में,
जीवन का सार तुझसे ही इस मन प्रांगण में।

कहो तो, सारांश तुम ही हो जीवन के उपलब्धियों की !

इस मन वीणा की सुरमई संगीत तुम,
सप्तराग में गाती कोई मधुर सी गीत तुम,
उनमुक्त गगण के पंछी की आवाज तुम,
जीवन की अनुराग का संचित आधार तुम।

कहो तो, सारांश तुम ही हो जीवन के उपलब्धियों की !

तेरी साँसों की लय

जब जब तुमने सांसें ली थी आह मेरी भी निकली थी मन से!

तेरी साँसों की आती जाती लय में,
व्यथा उस जीवन की मैंने सुन ली थी,
व्यथित होता था मैं भी उस व्यथा से,
तब आह इस मन से निकल जाती थी।

विचलन इन साँसो की तेरी कह जाती थी मन की बातें सारी!

तुम मन को कितना भी बहलाओ,
रफ्तार इन साँसों की सब कह जाती है,
व्यथा की आग निकलती हैं साँसों से,
आह तब इस मन से निकल जाती है।

तेरी साँसों की लय का अंतरंग राही मैं, सुन लेता हूँ बातें सारी!

आह कैसे ना निकले इस मन से,
व्यथित जीवन मैं तेरी देख पाऊंगा कैसे,
ऐ सुख की घड़ियाँ तू जा मिल उनसे,
साँसों की लय मे तू बस जाना उनके।

बीते सारा जीवन तेरा, साँसों से सुख की लड़ियाँ गिनते गिनते!

साँसें तुम लेती रहना सुख चैन की,
आह मैं भी भर लूंगा तब अपने मन की,
तेरी खुशियों की लय पर जी लूंगा मैं,
व्यथा इस जीवन की तब ही कम होगी।

जब तक तुम सांसें लोगी जीवन में, आह भर लूंगा मैं भी मन से!

Monday, 25 January 2016

व्यथा की कथा

व्यथा की भी अपनी ही करुण कथा!

व्यथा गहराती रोती चिल्लाती,
व्यथा कहती व्यथा ही रोती,
झांकती व्यथा चहुँ ओर फिर देखती,
हृदय के अन्तस्थ व्यथा सिमटती,
व्यथा व्यथित स्वयं में अकुलाती।

व्यथा की भी अपनी ही करुण कथा!

मन ही मन खुद घुटती व्यथा,
राह देखती संवेदनाओं का,
फिर स्वयं ही संकुचित होती व्यथा,
जग बैरी सदा व्यथा ही जनमता,
वेदना व्यथा की यहाँ कौन समझता।

व्यथा की भी अपनी ही करुण कथा!

कथा व्यथा की कितनी लम्बी,
व्यथा की वेदना व्यथा ही जानती,
परस्पर व्यथा एक दूजे से कहती,
दुनियाँ व्यथा की व्यथित क्यूँ रहती?
पीड़ा व्यथा के ही हदय क्युँ पलती?

व्यथा की भी अपनी ही करुण कथा!

Saturday, 16 January 2016

कौन सी भाषा

मैं न जानूँ व्यथित मन की भाषा,
समझ सकूँ न नैनों की मूक भाषा,
व्यथा भावना दृष्टि की समझ से परे,
अभिलाषा की भाषा अब कौन पढ़े?

किस भाषा मे वेदना लिख गए तुम?
मन की पीड़ा व्यथा क्या कह गए तुम?
अंकित मानस-हृदय पर ये आड़े-टेढ़े,
वेदना पीड़ा की भाषा अब कौन पढ़े?

हृदय भावविहीन पाषाण हो चुका!
मन के भीतर का मानव सो चुका!
भावनाओं का साहित्य जटिल हो चुका!
भाव-संवेदना की भाषा अब कौन पढ़े?

Wednesday, 13 January 2016

और नहीं कुछ तुमसे चाह!

कुछ हल्का कर दो जीवन की व्यथा-भार,
तुम दे दो सुख के क्षण जीवन आभार,
प्रिय, बस और नही कुछ तुमसे चाह!

व्यथा-भार जीवन की संभलती नही अकेले,
दुःख के क्षण जीवन के चिरन्तन से खेले,
तुम दे दो साथ, और नही कुछ तुमसे चाह!

अर्थ जीवन का अकेले समझ नही कुछ आता,
राह जीवन की लम्बी व्यर्थ मुझे है लगता,
तुम हाथ थाम लो, और नही कुछ तुमसे चाह!