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Sunday, 5 February 2023

उस ओर

भोर, कहीं उस ओर!
अलसाई सी जग रही, इक किरण,
उठ रहा शोर!

उस ओर, कहीं ढ़ल रही विभा,
संतप्त पलों के, हर निशां,
बदल रही दिशा,
अब न होंगे, दग्ध ये ह्रदय,
जग उठेंगे हर शै,
हो विभोर!

भोर, कहीं उस ओर....

जिधर, कई धुंधली परछाईयां,
लेने लगी, नव अंगड़ाइयां,
जन्मी संभावनाएं,
अंकुरित हुई, कई आशाएं,
सपने पाने लगे,
नए ठौर!

भोर, कहीं उस ओर....

नयन कोटिशः, कर उठे नमन,
कर दोऊ जोड़े, हुए मगन,
जागी कण-कण,
कुसुमित हो चली, ये पवन,
उठे कदम कितने,
उसी ओर!

भोर, कहीं उस ओर!
अलसाई सी जग रही, इक किरण,
उठ रहा शोर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 18 November 2021

चलो ना

बड़ी ही धुंधली, ढ़ल रही ये शाम है,
चलो ना,
चमकीली, सुबह की, इक छोर ढ़ूंढ़ लाएं!
वो प्रतीक्षित, भोर ढ़ूंढ़ लाएं!

अंधेरों की, कोई हद तो होगी,
कहर, ढ़ाएगी ये कब तक,
डूबती वो किरण, मन को डराएगी कब तक,
चलो ना,
संग, राहतों की वो सरहद ढ़ूंढ़ लाएं!

कब तक रहा, वक्त इक जैसा,
डरो मत, ये बस सांझ है,
मन में, इक बांझपन ये बढ़ाएगी, कब तक,
चलो ना,
वक्त की, बदलती, करवटें ढ़ूंढ़ लाएं!

उस ओर, वो पल उम्मीदों भरा,
तो हों, यूं नाउम्मीद क्यूँ,
बादल नाउम्मीदियों के, छाएंगे ये कब तक,
चलो ना,
उम्मीद की, वो नई किरण ढ़ूंढ़ लाएं!

बड़ी ही धुंधली, ढ़ल रही ये शाम है,
चलो ना,
चमकीली, सुबह की, इक छोर ढ़ूंढ़ लाएं!
वो प्रतीक्षित, भोर ढ़ूंढ़ लाएं!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 4 September 2021

ये शहर

छोड़िए भी, शहर से बेहतर थी मेरी गली।

न दिन का पता, न खबर शाम की,
जिन्दगी, सिर्फ यहाँ नाम की,
कितनी अधूरी, हर भोर, 
और, अधूरी सी, हर शाम हो चली!

छोड़िए भी, शहर से बेहतर थी मेरी गली।

अधूरे से, कुछ गीत, रहे सदियों मेरे,
टूटे, अभिलाषाओं के तानपूरे,
चुप-चुप, रही ये वीणा,
और, अधखिली उमंगों की कली!

छोड़िए भी, शहर से बेहतर थी मेरी गली।

भोर, चितचोर लगे, तो ये मन जागे,
ये बांध ले, जज्बातों के धागे,
छाए, अंधियारे से साए,
और, सिमटती सी, हर भोर मिली!

छोड़िए भी, शहर से बेहतर थी मेरी गली।

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 10 April 2021

बेजुबां खौफ

जुबां ये, बेजुबां सी हो चली...

अब तो जिंदगी, कैद सी लगने लगी,
अभी, इक खौफ से उबरे, 
फिर, नई इक खौफ!
शेष कहने को है कितना, पर ये सपना!
सपनों तले, क्या उम्र ढ़ली!

जुबां ये, बेजुबां सी हो चली...

पहरे लगे हैं, साँसों की रफ्तार पर,
अवरुद्ध कैसी, सांसें यहाँ,
नया, ये खौफ कैसा!
इस खौफ की, अलग ही, पहचान अब!
पहरों तले, क्या उम्र ढ़ली!

जुबां ये, बेजुबां सी हो चली...

अलग सी ये दास्ताँ, इस दौर की,
बोझिल राह, हर भोर की,
खौफ में, सिमटे हुए,
गुजरते दिन की, अंधेरी सी, सांझ अब!
अंधेरों तले, क्या उम्र ढ़ली!

जुबां ये, बेजुबां सी हो चली...

चुपचाप, सिमटने लगी अब राहें,
बिन बात, अलग दो बाहें,
शून्य को, तकते नैन,
विवश हो एकांत जब, कहे क्या जुबां!
यूंही अकेले, क्या उम्र ढ़ली!

जुबां ये, बेजुबां सी हो चली...

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)
------------------------------------------------------कोरोना - पार्ट 2....

Sunday, 5 July 2020

शंकाकुल मन

आकुल करती, हल्की-सी भोर,
व्याकुल कोयल की कूक,
ढ़ुलमुल सी, बहती ठंढी पवन,
और शंकाकुल,
ये मन!

सुबह, जाने क्या-क्या ले आई?
क्यूँ, कोयल थी भरमाई?
क्यूँ पवन, यूँ बहती इठलाई?
प्रश्नों में घिरा,
ये मन!

है वो भोर की किरण, या मन का प्रस्फुटन!
वो गूंज है कोयल की, या अपनी ही धड़कन!
चलती है पवन या तेज है सांसों का घन!
यूँ बादलों को, निहारते ये नयन,
दिन में जागते से, ये सपन,
घबराए क्यूँ ना,
ये मन!

सपना ये कैसा? वो भोर इक हकीकत सा!
वो रव, कूक, वो कलरव, मन के प्रतिरव सा!
ढ़ुलमुल वो पवन, च॔चल सी इस मन सा,
असत्य के अन्तस, इक सत्य सा,
कल्पना कोई, इक मूरत सा,
पर माने ना,
ये मन!

धुन कोई, बुनता वो अपनी ही,
प्रतिरव, सुनता अपनी ही,
भ्रमित करते स्वर, वो आरव,
उस पर गरजाते,
वो घन!

फिर जगती, आकुल होती भोर,
कूकती, व्याकुल सी कूक,
बहती, ढ़ुलमुल सी ठ॔ढ़ी पवन,
और शंकाकुल,
ये मन!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 15 January 2020

वो भोर नहीं

कुम्हलाए सूरज में, वो भोर नहीं अब,
अंधेरी रातों का, छोर नहीं अब!
नमीं आ जमीं, या पिघल रहा वो सूरज,
खिली सुबह का, दौर नहीं अब!

झुकते पर्वत पे, बादल और नहीं अब,
उड़ते बादल के, ठौर नहीं अब!
लदी बूँदों से घन, जली वो मन ही मन,
करता क्यूँ कोई, गौर नहीं अब!

चहकते चिड़ियों में, वो शोर नहीं अब,
भौंरे कलियों पे, और नहीं अब!
बदली है फ़िजा, बदल चुका वो सूरज,
बहते झरनों का, शोर नहीं अब!

धधकता ही नहीं, क्या आग सीने में!
राख ही बचा, क्या अब जीने में!
धूल-धूसरित या मुर्छित हुआ वो सूरज,
अंधेरी रातों का, अंत नहीं अब!

खोया भोर कहीं, उन्ही अंधियारों में!
सूरज वो खोया, शायद तारों में,
लपटें नहीं उठती, अब उन अंगारों में, 
चम-चमाता वो, भोर नहीं अब!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 22 June 2019

प्रभा-लेखन

है यह, नव-प्रभात का स्पंदन!
या है यह, प्रकृति का, इक सर्वश्रेष्ठ लेखन!
या, खुद रचकर, इक नव-संस्करण,
प्रकृति, करती है विमोचन!

यूँ, रचती है प्रकृति, हर क्षण इक रचना,
सर्वश्रेष्ठ, सर्वदा देती है वो अपना,
थोड़ा सा आवर्तन, अप्रत्याशित सा परिवर्तन,
कर कोई, श्रृंगार अनुपम,
ले आती है नित्य, नव-प्रभात का संस्करण!

कलियों की आहट में, होती है इक लय,
डाली पर प्रस्फुट, होते हैं किसलय,
बूँदों पर ढ़लती किरणें, ले नए रंगों के गहने,
छम-छम करती, पायल,
उतरती है प्रभात, कितने आभूषण पहने!

किलकारी करती, भोर लेती है जन्म,
नर्तक भौंड़े, कर उठते हैं गुंजन,
कुहुकती कोयल, छुप-छुप करती है चारण,
संसृति के, हर स्पंदन से,
फूट पड़ती है, इसी प्रकृति का उच्चारण!

किरणों के घूँघट, ओढ़ आती है पर्वत,
लिख जाती है, पीत रंग में चाहत,
अलौकिक सी वो आभा, दे जाती है राहत,
मंत्रमुग्ध, हो उठता है मन,
बढ़ाता है प्रलोभन, भोर का संस्करण!

है यह, नव-प्रभात का स्पंदन!
या है यह, प्रकृति का, इक सर्वश्रेष्ठ लेखन!
या, खुद रचकर, इक नव-संस्करण,
प्रकृति, करती है विमोचन!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Friday, 11 May 2018

भोर की पहली किरण

यूं अंगड़ाई लेकर उठी ये भोर की पहली किरण!

घुल गई है रंग जैसे बादलों में,
सिमट रही है चटक रंग किसी के आँचलों में,
विहँसती खिल रही ये सारी कलियाँ,
डाल पर डोलती हैं मगन ये तितलियाँ,
प्रखर शतदल हुए हैं अब मुखर,
झूमते ये पात-पात खोए हुए हैं परस्पर,
फिजाओं में ताजगी भर रही है पवन!

यूं अंगड़ाई लेकर उठी ये भोर की पहली किरण!

निखर उठी है ये धरा सादगी में,
मन को लग गए हैं पंख यूं ही आवारगी में,
चहकने लगी है जागकर ये पंछियाँ,
हवाओं में उड़ चली है न जाने ये कहाँ,
गुलजार होने लगी ये विरान राहें,
बेजार सा मन, अब भरने लगा है आहें,
फिर से चंचल होने लगा है ये पवन!

यूं अंगड़ाई लेकर उठी ये भोर की पहली किरण!

गूंज सी कोई उठी है विरानियों में,
गीत कोई गाने लगा है कहीं रानाईयों में,
संगीत लेकर आई ये राग बसंत,
इस विहाग का न आदि है न कोई अंत,
खुद ही बजने लगे हैं ढोल तासे,
मन मयूरा न जाने किस धुन पे नाचे,
रागमय हुआ है फिर से ये भवन!

यूं अंगड़ाई लेकर उठी ये भोर की पहली किरण!

Tuesday, 14 November 2017

मुख़्तसर सी कोई बात

मुख़्तसर सी, कोई न कोई तो होगी उसमें बात....

सांझ की किरण, रोज ही छू लेती है मुझे,
देखती है झांक कर, उन परदों की सिलवटों से,
इशारों से यूँ ही, खींच लाती है बाहर मुझे,
सुरमई सी सांझ, ढ़ल जाती है फिर आँखों में मेरी!
सिंदूरी ख्वाब लिए, फिर सो जाती है रात...

मुख़्तसर सी, कोई न कोई तो होगी उसमें बात....

झांकती है सुबह, उन खिड़कियों से मुझे,
रंग वही सिंदूरी, जैसे सांझ मिली हो भोर से,
मींचती आँखों में, सिन्दूरी सा रंग घोल के,
रंगमई सी सुबह, बस जाती है फिर आँखों में मेरी!
दिन ढ़ले फिर, है उसी सपने की बात...

मुख़्तसर सी, कोई न कोई तो होगी उसमें बात....

रंग वही सिंदूरी, लाकर देना तुम मुझे,
मांग सजाऊँगा उसकी, रंग लाकर किरणों से,
किरणपूंज सी, वो आएँगे जब बाहों में,
चंपई वो रंग, बिखरती जाएगी इन राहों में मेरी!
सिंदूरी सांझ तले, कट जाएगी ये रात...

मुख़्तसर सी, कोई न कोई तो होगी उसमें बात....

Sunday, 16 April 2017

क्षितिज की ओर

भीगी सी भोर की अलसाई सी किरण,
पुरवैयों की पंख पर ओस में नहाई सी किरण,
चेहरे को छूकर दिलाती है इक एहसास,
उठ यार! अब आँखे खोल, जिन्दगी फिर है तेरे साथ!

ये तृष्णगी कैसी, फिर है मन के आंगन,
ढूंढती है किसे ये आँखे, क्युँ खाली है ये दामन,
अब न जाने क्युँ अचेतन से है एहसास,
चेतना है सोई, बोझिल सी इन साँसों का है बस साथ!

ये किस धुंध में गुम हुआ मन का गगन,
फलक के विपुल विस्तार की ये कैसी है संकुचन,
न तो क्षितिज को है रौशनी का एहसास,
न ही मन के धुंधले गगन पर, उड़ने को है कोई साथ!

पर भीगती है हर रोज सुबह की ये दुल्हन,
झटक कर बालों को जगाती है नई सी सिहरन,
मन को दिलाती है नई सुखद एहसास,
कहती है बार बार! तु चल क्षितिज पर मैं हूँ तेरे साथ!