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Thursday, 26 December 2019

बातें

तड़पाती हैं कुछ बातें, अंदर ही अंदर,
ज्यूँ बहता हो खामोश समुंदर,
वो उठता, उफान लिखूँ,
बहा लाया जो तिनका, कैसे वो तुफान लिखूँ!

कहने को तो, ढ़ेर पड़े हैं जज्बातों के,
अर्थ निकलते दो, हर बातों के,
कैसे वो, दो बात लिखूँ,
उलझाती है हर बात, कैसे वो जज्बात लिखूँ!

मिलन लिखूँ या विरह की बात लिखूँ,
सांझ लिखूँ या लम्हात लिखूँ,
भूलूँ, या दिन-रात लिखूँ,
जज्ब हुए जो सीने में, क्यूँ वो जज्बात लिखूँ!

नम होती हैं आँखें, यूँ सूखते हैं आँसू,
ज्यूँ तपिश में, जलते हैं आँसू,
जलन, या संताप लिखूँ,
तड़पाते ये क्षण, मैं कैसे क्षण की बात लिखूँ!

दिन भर, कैसे जलता है सूरज तन्हा,
वो ही जाने, वो बातें हैं क्या,
वो अगन वो ताप लिखूँ,
रहता वो किस राह, कैसे उसकी चाह लिखूँ!

अगन लिखूँ या जलन की बात लिखूँ,
राख लिखूँ या लम्हात लिखूँ,
भूलूँ, या दिन-रात लिखूँ,
दफ्न हैं जो दिल में, कैसे वो जज्बात लिखूँ!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 17 July 2019

ये विदाई

विदाई, पल ये फिर आई,
बदरी सावन की, नयनन में छाई,
बूँदों से, ये गगरी भर आई,
रोके सकें कैसे, इन अँसुवन को,
ये लहर, ये भँवर खारेपन की,
रख देती हैं, झक-झोर!

भीग चले हैं, हृदय के कोर,
कोई खींच रहा है, विरहा के डोर,
समझाऊँ कैसे, इस मन को,
दूर कहाँ ले जाऊँ, इस बैरन को,
जिद करता, है ये जाने की,
हर पल, तेरी ही ओर!

धड़कता था, जब तेरा मन,
विहँसता था, तुम संग ये आँगन,
कल से ही, ये ढ़ूंढ़ेगी तुझको,
इक सूनापन, तड़पाएंगी इनको,
कोई डोर, तेरे अपनत्व की,
खीचेंगी, तेरी ही ओर!

विदा तो, हो जाओगे तुम,
मन से जुदा, ना हो पाओगे तुम,
ले तो जाओगे, इस तन को,
ले जाओगे कैसे, इस मन को,
छाँव घनेरी, इन यादों की,
राहों को, देंगी मोड़!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Thursday, 28 March 2019

नीर नही ये, मन के हैं मनके

कुछ बूँदें आँसू के, आ छलके हैं जो नैनों से,
नीर नहीं ये, मन के ही हैं मनके....

कोई बदली सी, छाई होगी उस मन में,
कौंधी होगी, बिजली सी प्रांगण में,
टूट-टूटकर, बरसा होगा घन,
भर आया होगा, छोटा सा मन का आंगण,
फिर घबराया होगा, वो नन्हा सा मन,
संवाद चले होंगे, फिर नैनों से,
फूट-फूटकर, फिर रोए होंगे ये नयन!

कुछ बूँदें आँसू के, आ छलके हैं जो नैनों से,
नीर नहीं ये, मन के ही हैं मनके....

नीरवता, किसी नें तोड़ी होगी मन की,
कहीं तन्द्रा, भंग हुई होगी उसकी,
प्रतिध्वनि, करती होगी बेचैन,
अकुलाहट में फिर, फेरे होंगे उसने मनके,
घबराया होगा, वो मूक बधिर सा मन,
कुछ मनके, टूटे होंगे उस मन,
फिर नैनों में, छाए होंगे अश्रु के घन!

कुछ बूँदें आँसू के, आ छलके हैं जो नैनों से,
नीर नहीं ये, मन के ही हैं मनके....

कोई सागर, लहराता होगा उस मन में,
बार-बार, लहरें उठती होंगी उन में,
टकराती होंगी, दीवारें निरंतर,
आवेग कई, सहता होगा वो व्याकुल मन,
निरंतर, भीगे से रहते होंगे उसके तट,
लहर कई, तोड़ बहते होंगे पट,
फिर नीरधि, छलके होगे उस नयन!

कुछ बूँदें आँसू के, आ छलके हैं जो नैनों से,
नीर नहीं ये, मन के ही हैं मनके....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Tuesday, 26 March 2019

अश्रु, तू क्यूँ बहता?

हुई जो पीड़ा, कण-कण है अश्रु से भरा?

शायद टूटा, मन का घड़ा,
या बहती दरिया का मुँह, किसी ने मोड़ा,
छलक आए ये सूखे से नयन,
लबालब, ये मन है भरा!

हुई जो पीड़ा, कण-कण है अश्रु से भरा?

शायद बही, रुकी सी धारा,
या असह्य सी व्यथा, कह किसी ने पुकारा,
कुछ पल रही, पलकों में अटकी,
रोके, कब रुकी वो धारा!

हुई जो पीड़ा, कण-कण है अश्रु से भरा?

शायद खुद, बही हो धारा,
या अन्तर्मन ही उभरा हो, दबा कोई पीड़ा,
भूली दास्ताँ, हो यादों मे उमरा,
बरबस, बही वो अश्रुधारा!

हुई जो पीड़ा, कण-कण है अश्रु से भरा?

शायद हो, व्यथित वसुधा,
हो ख़ामोशियों की, कोई भीगी सी ये सदा,
कहीं व्योम में, जख्म हो उभरा,
बरस आई, बूँदों सी धारा!

हुई जो पीड़ा, कण-कण है अश्रु से भरा?

शायद हो, रातों का मारा,
दुस्कर उन अंधियारों से, नवदल हो हारा,
अश्रुधार, छलक आईं कोरों से,
ओस, नवदल पर उभरा!

हुई जो पीड़ा, कण-कण है अश्रु से भरा?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Saturday, 9 February 2019

एकाकी

रहने दो एकाकी तुम, मुझको रहने दो तन्हा!

कचोटते हैं गम, ग़ैरों के भी मुझको,
मायूस हो उठता हूँ, उस पल मैं,
टपकते हैं जब, गैरों की आँखों से आँसू,
व्यथित होता हूँ, सुन-कर व्यथा!

रहने दो एकाकी तुम, मुझको रहने दो तन्हा!

किसी की, नीरवता से घबराता हूँ,
पलायन, बरबस कर जाता हूँ,
सहभागी उस पल, मैं ना बन पाता हूँ,
ना सुन पाता हूँ, थोड़ी भी व्यथा!

रहने दो एकाकी तुम, मुझको रहने दो तन्हा!

क्यूँ बांध रहे, मुझसे मन के ये बंधन,
गम ही देते जाएंगे, ये हर क्षण,
गम इक और, न ले पाऊँगा अपने सर,
ना सह पाऊँगा, ये गम सर्वथा !

रहने दो एकाकी तुम, मुझको रहने दो तन्हा!

एकाकी खुश हूँ मैं, एकाकी ही भला,
जीवन पथ पर, एकाकी मैं चला,
दुःख के प्रहार से, एकाकी ही संभला,
बांधो ना मुझको, खुद से यहाँ!

रहने दो एकाकी तुम, मुझको रहने दो तन्हा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Friday, 31 August 2018

प्रतिश्राव

वही तार
संवेदना के
बार-बार
क्यूं?
छेड़ते हो तुम,
अपनी ही
संवेदनाओं के
प्रतिश्राव
क्या!
इन आँखो में,
चाहते हो
देखना तुम...!

पीड़ा का
है ना
मुझको
तनिक भी भान,
मैं
गम से
हूँ बिल्कुल
अंजान,
दिखता हूँ
मैं जैसा,
तू वैसा ही
मुझको जान...

मुझ है
न कोई व्यथा,
न ही
दुख भरी
है मेरी
कोई भी कथा,
फिर
बार-बार
क्यूँ ?
पूछते हो
मुझसे
ये प्रश्न तुम,
जख्म
कोई नया,
क्यूँ ?
हरबार
कुरेदते हो तुम....!

छलक पड़ेंगी
अनायास ही
मेरी
ये आँखे
प्रतिश्राव होगा वह!
तुम्हारे ही,
स्नेह का,
इस प्यार में,
तुम्हारे प्रश्न ही
छलक कर
बह पड़ेंगे
मेरे अश्रुधार में....!

क्या यही?
चाहते हो तुम
क्यूँ?
अपनी ही
संवेदनाओं के
प्रतिश्राव
मेरी इन
आँखो में,
डालते हो तुम,
शायद!
चाहते हो
वही प्रतिश्राव
मेरी
कोमल से,
हृदय में,
देखना तुम...!

Wednesday, 4 July 2018

नीर थे वो

नीर थे वो, जो नैनों से छलककर बह गए.....

जज्ब थे ये नैन की कटोरियों में,
या हृदय की क्यारियों में,
वर्षों तलक, अर्सों से यहीं...
दफ्न थे ये सब्र की तिजोरियों में....

कुछ विष भरे दंश देकर,
मन में टीस के कुछ बीज बोकर, 
फिर कुरेदा है किसी ने,
इस हृदय की बंजर सी जमीं को....

सब्र का जब बांध टूटा,
यूं हृदय से धैर्य का हाथ छूटा,
सुबकते नैन में ये भर गए,
जज्ब थे ये, अचानक फूटकर ये बह गए..

नीर थे वो, यूं ही छलककर कुछ कह गए....

अब रिस रहे ये बंजर से हृदय में,
भर चुके मन की निलय में,
पाषाण जमी सिक्त हो चली...
सदय हो चला, बंजर सा ये हृदय....

कुछ बूंद नैनों में उतरकर,
टीस मन के कुछ हाथों से धोकर,
फिर से बांधा है इसी ने,
बंजर हृदय के टूटे हुए धैर्य को....

सब्र तब मन को मिला,
जब नीर बन ये नैनों से चला,
घनीभूत ये हृदय में रहे,
जज्ब से थे, द्रवीभूत हो टीस में बह गए...

नीर थे वो, यूं ही छलककर कुछ कह गए....

Tuesday, 20 June 2017

रक्तधार

अविरल बहती ये धारा, हैं इनकी पीड़ा के आँसू,
अभिलाषा मन में है बोझिल, रक्तधार से बहते ये आँसू.....

चीरकर पर्वत का सीना, लांघकर बाधाओं को,
मन में कितने ही अनुराग लिए ये धरती पर आई,
सतत प्रयत्न कर भी पाप धरा के न धो पाई,
व्यथित हृदय ले यह रोती अब, जा सागर में समाई।

व्यर्थ हुए हैं प्रयत्न सारे, पीड़ित है इसके हृदय,
अन्तस्थ तक मन है क्षुब्ध, सागर हुआ लवणमय,
भीग चुकी वसुन्धरा, भीगा न मानव हृदय,
हत भागी सी सरिता, अब रोती भाग्य को कोसती।

व्यथा के आँसू, कभी बहते व्यग्र लहर बनकर,
तट पर बैठा मूकद्रष्टा सा, मैं गिनता पीड़ा के भँवर,
लड़ी थी ये परमार्थ, लुटी लेकिन ये यहाँ पर,
उतर धरा पर आई, पर मिला क्या बदले में यहाँ पर?

अविरल बहती ये धारा, हैं इनकी पीड़ा के आँसू,
अभिलाषा मन में है बोझिल, रक्तधार से बहते ये आँसू.....

Sunday, 16 April 2017

गूंजे है क्युँ शहनाई

क्युँ गूँजती है वो शहनाई, अभ्र की इन वादियों में?

अभ्र पर जब भी कहीं, बजती है कोई शहनाई,
सैकड़ों यादों के सैकत, ले आती है मेरी ये तन्हाई,
खनक उठते हैं टूटे से ये, जर्जर तार हृदय के,
चंद बूंदे मोतियों के,आ छलक पड़ते हैं इन नैनों में...

क्युँ गूँजती है वो शहनाई, अभ्र की इन वादियों में?

ऐ अभ्र की वादियाँ, न शहनाईयों से तू यूँ रिझा,
तन्हाईयों में ही कैद रख, यूँ न सोए से अरमाँ जगा,
गा न पाएंगे गीत कोई, टूटी सी वीणा हृदय के,
अश्रु की अविरल धार कोई, बहने लगे ना नैनों से....

क्युँ गूँजती है वो शहनाई, अभ्र की इन वादियों में?

निहारते ये नैन अपलक, न जाने किस दिशा में,
असंख्य सैकत यादों के, अब उड़ रही है हर दिशा में,
खलबली सी है मची, एकांत सी इस निशा में,
अनियंत्रित सा है हृदय, छलके से है नीर फिर नैनों में....

क्युँ गूँजती है वो शहनाई, अभ्र की इन वादियों में?

Tuesday, 5 July 2016

व्यर्थ के आँसू

शायद जीवन इस जग में मुझ जैसा ही सबका!

सभी काटते जीवन में तन्हा ही,
अपनी विरह-भरी विभावरी,
व्यर्थ लुटाते गम में चिर सुख की निधि,
न बट सकी, न घट सकी,
अपने-अपने हिस्से की विरह-घिरी विभावरी।

घटते ना जीवन के कुछ गम,
दुख में करते रोदन-गायन,
व्यर्थ ही जाते ये मोतियों से छलकते आँसू,
न बट सकी, ना ही घटी,
अपने-अपने हिस्से की तम भरी विभावरी।

शायद जीवन इस जग में मुझ जैसा ही सबका!

Tuesday, 5 April 2016

यादें

प्रशस्त हो रही सामने संथ्या जीवन की,
कुछ भीनीं यादें ख्यालों में पल रही सपनों सी,

सपने ही होते वो जो सच ना बन पाते,
बोझल होती साँसों मे कभी खुश्बु बिखराते,
बैठे-बैठे उन आँखो में आँसू भर आते,
रिश्ते ही तो हैं वे भी जो अपने ना बन पाते!

संथ्या जीवन की पल-पल प्रशस्त होते ही जाते....,

इक सुखी फूल किताबों में कहीं गुम सी,
यादों में अबतक वो, चुभती मन में काटों सी,
सिमट आई यादें वो साँसों में बन कंपन सी,
पंखुड़ियाँ बिखर रही, अब उन सूखे फूलों की!

प्रशस्त हो रही हर पल सामने संध्या जीवन की.....
कुछ भीनी-भीनी यादें संग चल रही सपनों सी........

Saturday, 20 February 2016

आह सिमटती मन में

आह सिमटती मेरी मन की गहराई में रोती सकुचाई!

आह अगर सुन लेगा कोई तो होगी रुशवाई,
यही सोच कर मैं होठों को सी लेता हूँ,
पी जाता हूँ आँसुओं को, मै चुप रह जाता हूँ, 
मन की बात कटोरे मे मन के ही रख लेता हूँ।

आह सिमटती मेरी मन की गहराई में रोती सकुचाई,
व्यथा हृदय की फिर भी, मैं आहों को कह जाता हूँ,
ध्वनि होठों के कंपन की आहों में भर देता हूँ 
चुप रह जाता हूँ मैं, आँखों के आँसू पी लेता हूँ।

आह सिमट जाती फिर मन की गहराई में रोती सकुचाई!

Wednesday, 10 February 2016

विदाई के क्षण

छलकती हैं आँखों की देहरी पर नीर,
क्षण विदाई की घड़ियाँ के देती मन को चीर,
झरते हैं नैंनों से आँसू निर्झर सी रह रह,
नभ से झरते ओस की बूंदो की तरह।

क्षण अति कारुणामय होता है वह,
बिछड़ते मात, पिता, भाई बहन, बन्धु जब,
फफक फफक रो पड़ता हृदय तब,
देहरी बदल जाती जीवन की इस तरह।

विदाई नही सिर्फ एक जन की यह,
छूट जाते हैं रिश्ते, नाते, पड़ेसी, कुटुम्ब सब,
टीस दिलों की और बढ़ जाती तब,
नैन नीर अधीर हो बहती निर्झर की तरह।

Monday, 18 January 2016

टूटा हृदय

अश्रुओं की अविरल मुक्त धार से अपनी,
अब क्युँ रोक रही हो राह उसकी?
मंडराते बादलों की तरह टूटा है हृदय उसका,
अश्रुबूँद क्या भर सकेंगे घाव उसकी?

टूटा हृदय बादलों सा नभ में व्याकुल मंडराता,
गर्जना कर व्यथा अपनी सबको सुनाता,
चीर जाती पीड़ा उसकी हृदय व्योम के भी,
निष्ठुर तुझे न आयी क्या दया जरा भी?

अब व्यर्थ किसलिए तुम पश्चाताप करती,
आँसुओं के सैलाब क्युँ बरबाद करती,
प्यास हृदय की बुझ चुकी खुद की आँसुओं से ही,
शेष बरस रहे अब झमाझम बारिश की बुंदों सी।

Saturday, 9 January 2016

ममता

ममता माता के कोख से जन्मी,
प्रसव पीड़ा संग उर लहलहाई,
नवजीवन के आहट संग उपजी,
वात्सल्य के आँसू बन बिखरी।

भाव दुलार मधुर वात्सल्य ,
मिलते ममता की गाँव में,
लालन पालन लाड़ प्यार,
सब ममता की छाँव में।

फलिभूत होता जीवन कण,
सुरभित ममता के अाँचल संग,
ममता वसुधा के कण-कण,
पुचकारती जनजन के मन।

सुख कल्पना नहीं ममता बिन,
राग विहाग नही ममता बिन,
नित सू्र्यालाप नही ममता बिन,
सृष्टि अधूरी ममता बिन।

Monday, 28 December 2015

क्या बीते वर्ष मिला मुझको

पथ पर ठहर मन ये सोचे,
क्या बीते वर्ष मिला है मुझको।

चिरबंथन का मधुर क्रंदन या
लघु मधुकण के मौन आँसू।

स्वच्छंद नीला विशाल आकाश या
अनंत नभमंडल पर अंकित तारे।

चिन्ता, जलन, पीड़ा सदियों का या,
दो चार बूँद प्यार की मधुमास।

अवसाद मे डूबा व्यथित मन या
निज जन के विछोह की अमिट पीड़ा।

मौन होकर ठहर फिर सोचता मन,
क्या बीते वर्ष मिला है मुझको।

Sunday, 20 December 2015

एक कतरा आँसू

एक कतरा आँसू
जो छलक गए नैनों से,
जो देखी दुनिया की बेरुखी,
सिमट गए फिर उन्ही नैंनों मे।

आसू के जज्बात यहां समझे कौन,
अपनी-अपनी सबकी दुनियां,
सभी है खुद में गुम और मौन,
ज्जबातो की यहां सुनता कौन।

बंदिशे हैं सारी जज्बातों पर,
कोमलताएं कही खो चुकी हैं
बेरुखी के सुर्ख जर्रों में,
आँसूं भी अब सोचते बहूं या सूख ही जाऊं...!