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Saturday, 14 March 2020

अक्सर

कुछ बातें, अक्सर!
आकर, रुक जाती हैं होठों पर!

निर्बाध, समय बह चलता है,
जीवन, कब रुकता है!
खो जाती हैं सारी बातें, कालचक्र पर,
पथ पर, रह-रह कर,
कसक कहीं, उठती है मन पर,
कह देनी थी, वो बातें,
रुक जाती थी जो आकर,
इन होंठों पर, 
अक्सर!

ठहरी सी, बातों के पंख लिए,
पखेरू, बस उड़ता है!
हँसता है वो, जीवन के इस छल पर,
रोता है, रह-रह कर,
मंडराता है, विराने से नभ पर,
कटती हैं, सूनी सी रातें, 
अनथक, करवट ले लेकर,
जीवन पथ पर, 
अक्सर!

कल-कल, बहता सा ये निर्झर,
रोके से, कब रुकता है!
फिसलन ही फिसलन, इस पथ पर,
नैनों में, बहते मंजर,
फिसलते हांथो से, वो अवसर,
देकर, यादों की सौगातें, 
चूमती हैं, आगोश में लेकर,
इन राहों पर,
अक्सर!

कुछ बातें, अक्सर!
आकर, रुक जाती हैं होठों पर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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Sunday, 16 February 2020

अवधान

टूटा ना अवधान,
उस, काल कोठरी में,
कैद हो चला, एक दिन और!
बिन व्यवधान!

और एक दिन....

धारा है अवधान,
मौन धरा नें, 
पल, अनगिनत बह चला,
अनवरत, रात ढ़ली, दिवस ढ़ला,
हुआ, सांझ का अवसान,
बिन व्यवधान!

और एक दिन....

टूटा ना अवधान,
कालचक्र का,
कहीं सृजन, कहीं संहार,
कहीं लूटकर, किसी का श्रृंगार,
वक्त, हो चला अन्तर्धान,
बिन व्यवधान!

और एक दिन....

कैसा ये अवधान,
वही है धरा,
बदला, बस रूप जरा,
छाँव कहीं, कहीं बस धूप भरा,
क्षण-क्षण, हैं अ-समान,
बिन व्यवधान!

और एक दिन....

टूटा ना अवधान,
उस, काल कोठरी में,
कैद हो चला, एक दिन और!
बिन व्यवधान!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
 (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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अवधान का अर्थ:
1. मन का योग । चित्त का लगाव । मनोयोग ।
2. चित की वृत्ति का निरोध करके उसे एक ओर लगाना । समाधि । 
3. ध्यान । सावधानी । चौकसी ।

Sunday, 3 April 2016

हाँ, जिन्दगी लम्हा-लम्हा

हाँ, बस यूँ गुजरती गई ये जिन्दगी,
कभी लम्हा-लम्हा हर कतरा तृष्णगी,
कभी साँसों के हर तार में है रवानगी,
बस बूँद-बूँद यूँ पीता रहा मैं ये जिन्दगी।

हाँ, कभी ये डूबी छलकती जाम में,
विहँसते चेहरो के संग हसीन शाम में,
रेशमी जुल्फों के तले नर्म घने छाँव में,
अपने प्रियजन के संग प्रीत की गाँव में।

हाँ, रुलाती रही उस-पल कभी वो,
याद आए बिछड़े थे हमसे कभी जो,
सिखाया था जिसने जीना जिन्दगी को,
कैसे भुला दें हम दिल से किसी को?

हाँ, पिघलते रहे बर्फ की सिल्लियों से,
उड़ते रहे धूल जैसे हवाओं के झौंकों से,
तपते रहे खुली धूप में गर्म शिलाओं से,
गुजरती रही है ये जिन्दगी हर दौर से।

हाँ, बदले हैं कई रंग हरपल जिन्दगी नें,
कभी सूखी ये अमलतास सी पतझड़ों में,
खिल उठे बार-बार गुलमोहर की फूलो में,
उभरी है जिन्दगी समय के कालचक्र से।

400 वीं कविता....सधन्यवाद "जीवन कलश" की ओर से...

Monday, 15 February 2016

इस पल

वो बस कल की बातें करता रहता नादान,
पल-पल रंग बदलती दुनियाँ से बेखबर वो इंसान,
जीवन तो बस इस पल है, कल से हम सब अंजान।

कल किसने देखा है, कल से किसकी पहचान,
पल में यहाँ बदलता मौसम, बदल जाते पल में इंसान,
पल मे धरा बदलती कक्षा, जानकर भी वो अंजान।

घूमता कालचक्र का पहिया, मांग रहा बलिदान,
सर्वस्व निछावर कर इस पल में, गर बनना तुझे महान,
तलाश किस अनन्त की तुझको, तू कोरा अंजान।

Wednesday, 10 February 2016

छलकते प्याले

छलकते प्यालों की उम्र लेकर,
समय की कालचक्र में घूमता जीवन,
प्यालों की विसात क्या, किस पल छूटे हाथों से,
छलकती जाती जीवन इन प्यालों से।

कब टूटेगी हाथों से गिरकर,
साँसें कब छलकेगी प्यालों में मचलकर,
परिधि जीवन के प्याले की, पुकारती रह रहकर,
गति कालचक्र की चंचल तेज प्रखर।

प्याले ही तो है हम जीवन के,
भरकर जाम हममें पी रहा वो मतवाला,
शोक मनाता तू फिर क्यों, टूटी जो जीवन प्याला,
रचयिता भर लाएगा, फिर नई इक हाला।

टूटते हैं प्याले तो टूटने दे,
हाला प्याले की कालचक्र के हाथों में दे,
काल परिधि में रम, घूँट हाला की तू भी पी ले,
प्याला तो प्याला है, छलकने इनको दे।