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Thursday, 25 January 2024

ऋतुओं के पहरे

लम्हों पर, ऋतुओं के पहरे,
वो, कब ठहरे!
रख छोड़े हमने, कुछ ख्वाब अधूरे...

इक आए, इक जाए,
देखे ऋतुओं के, नित रूप नए,
अब कौन, उन्हें समझाए,
सरमाए, ख्वाबों के,
हों, कब पूरे!

रख छोड़े हमने, कुछ ख्वाब अधूरे...

संशय में, पल सारे!
बदलते से, ऋतुओं संग गुजारे,
चलन रहा, यही सदियों,
ख्वाबों के, वो तारे,
रहे, बे-सहारे!

रख छोड़े हमने, कुछ ख्वाब अधूरे...

है इक, दग्ध हृदय,
संदिग्ध सा, उधर, इक वलय,
रोके, वो कब रुक पाए,
धार सा, बहा जाए,
वो, लम्हे सारे!

लम्हों पर, ऋतुओं के पहरे,
वो, कब ठहरे!
रख छोड़े हमने, कुछ ख्वाब अधूरे..

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 15 April 2021

पत्ता

अलकों पर कोई रखता, यूँ न बिखरता!
कोई पत्ता, अनुराग भरा!

ऋतुमर्दन ही होना था, इक दिन तेरा, 
ऋतुओं में ही, खोना था,
ऋतुओं पर, ना करना था यूँ एतबार,
ऋतु पालक, ऋतु संहारक,
ऋतुओं से, रखना था, विराग जरा!

अलकों पर कोई रखता, यूँ न बिखरता!
कोई पत्ता, अनुराग भरा!

डाली पर पनपे, यूँ डाली से ही छूटे!
बिखरे, यह कैसी, इति!
व्यक्त और मुखर, ऋतुओं से बेहतर,
अभिव्यक्ति ही था कारण,
मौसमों में, रहना था अव्यक्त जरा!

अलकों पर कोई रखता, यूँ न बिखरता!
कोई पत्ता, अनुराग भरा!

निखर आए, तेरे अंग, ऋतुओं संग,
यूँ, नजरों में, चढ़ आए,
ऋतुओं संग, पनपता, अनुराग तेरा,
शायद, अखरा हो उनको,
डाली को करना था, विश्वास जरा!

अलकों पर कोई रखता, यूँ न बिखरता!
कोई पत्ता, अनुराग भरा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 24 November 2019

मौसम 26वाँ

हो तुम, तो है, वही ऋतु, वही मौसम...

तुम, जैसे, गुनगुनी सी हो कोई धूप,
मोहिनी सी, हो इक रूप,
तुम्हें, रुक-रुक कर, छू लेती हैं पवन,
ठंढ़ी आँहें, भर लेती है चमन,
ठहर जाते हैं, ये ऋतुओं के कदम,
रुक जाते है, यहीं पर हम!

हो तुम, तो है, वही ऋतु, वही मौसम...

कब ढ़ला ये दिन, कब ढली ये रातें,
गई जाने, कितनी बरसातें,
गुजरे संग, बातों में कितने पलक्षिण,
बीते युग, धड़कन गिन-गिन,
हो पतझड़, या छाया हो बसन्त,
संग इक रंग, लगे मौसम!

हो तुम, तो है, वही ऋतु, वही मौसम...

ठहरी हो नदी, ठंढ़ी हो छाँव कोई,
शीतल हो, ठहराव कोई,
क्यूँ न रुक जाए, इक पल ये पथिक,
क्यूँ न कर ले, थोड़ा आराम,
क्यूँ ढ़ले पल-पल, फिर ये ऋतु,
क्यूँ ना, ठहरे ये मौसम?

हो तुम, तो है, वही ऋतु, वही मौसम...

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)
अपनी शादी कीं 26वीं वर्षगाँठ (यथा 24 नवम्बर 2019) पर, श्रीमति जी को समर्पित ...वही मौसम!

Tuesday, 10 September 2019

हवाएँ

देखे ना, फिर मुड़कर ये हवाएँ!

आए कौन सी दिशा से?
जाए कौन दिशा?
तप्त सुलगते, तन को सहलाकर,
झुलसते, मन को बहलाकर,
देकर क्षणिक दिलासा, कोरा सा ढ़ाढ़स!
क्षण भर को देकर राहत,
दूजे ही क्षण, कर दे ये आहत,
बहलाए, मन भटकाए,
जाने, कौन दिशा ले जाए?

देखे ना, फिर मुड़कर ये हवाएँ!

रुख इनके, मोड़ दूँ कैसे?
बंध तोड़ दूँ कैसे?
भीनी सी खुश्बू, साँसों में भर कर,
चल देती है, मन को हर कर 
चैन जरा सा देकर, कर जाती है बेवश!
जगा कर, सोई सी चाहत,
देकर, अन्जानी की अकुलाहट,
सताए, मुँह मोड़ जाए,
अन्जान, दिशा चली जाए?

देखे ना, फिर मुड़कर ये हवाएँ!

ऐ पंछी, जा कह उनसे!
लौट कर आए वो!
जाए ना फिर, यूँ मेरा चित्त लेकर,
यूँ क्षणिक, दिलासा देकर,
बूँद-बूँद को प्यासी, है ये ऋतु पावस!
ना दे, कोरा सा ढ़ाढ़स,
ठहर जरा, दे दे मन को राहत,
फिर चाहे इठलाए,
लेकिन, ठहर यहीं वो जाए!

पर देखे ना, मुड़कर ये हवाएँ!

                - पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Monday, 13 August 2018

ऋतु परिवर्तन

ॠतुओं का अनवरत परिवर्तन....
क्या है ये.....

यह संधि है या है ये संधि विच्छेद?
अनवरत है या है क्षणिक प्रभेद,
कई टुकड़ों में है विभक्त,
या है ये अनुराग कोई अविभक्त,
कैसा ये क्रमिक अनुगमन.....

देखा है हमनें.....

संसृति का निरंतर निर्बाध परिवर्तन,
और बदलते ॠतुओं संग,
मुस्कुराती वादियों का मुरझाना,
कलकल बहती नदियों का सूख जाना,
बेजार होते चहकते दामन....

और फिर ...

उन्ही ऋतुओं का पुनः व्युत्क्रमण,
कोपलों का नवीकरण,
मद में डूबा प्यारा सा मौसम,
आगोश में फिर भर लेने का फन,
बहकता सा कुंवारा मन......

मैं इक कविमन...

उत्सुकता मेरी बढ़ती जाए हरक्षण,
शायद है यही सर्वश्रेष्ठ लेखन!
संसृति का ये श्रृंगार अनुपम,
यही तो है उत्कृष्ठ सौन्दर्य विमोचन,
ॠतुओं का क्रमिक परिवर्तन.....

सँवर रही हो जैसे दुल्हन....