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Saturday, 22 January 2022

उनकी बातें

फिर, सुबह ले आई, उसी की भीनी यादें....

अधूरी ही, रह गई थी, सैकड़ों बातें,
उधर, स्वतः रातों का ढ़लना,
अंततः एक सपना,
आंखों में, भर गई थी उसकी बातें,
जैसे-तैसे, कटी थी रातें!

फिर, सुबह ले आई, उसी की भीनी यादें....

संदली, वही, खुश्बू ले आईं हवाएँ,
छू कर, बह चली, इक पवन,
अजीब सी, चुभन,
बहके से क्षण की, बहकी सौगातें,
कह गईं, उनकी ही बातें!

फिर, सुबह ले आई, उसी की भीनी यादें....

विहसते फूलों में, उनके ही अक्श,
कलियों में, उनकी इक हँसी,
पात-पात, चितवन,
दिलाती रही, हर क्षण उनकी यादें,
दिन भर, उनकी ही बातें!

फिर, सुबह ले आई, उसी की भीनी यादें....

अधूरी ही, रह गई थी, सैकड़ों बातें,
हौले से, ढ़लने लगे, वे प्रहर,
उभरता, इक सांझ,
विविध रंग, और, लम्बी लम्बी रातें,
और, वो सपनों की बातें!

फिर, सुबह ले आई, उसी की भीनी यादें....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 28 August 2021

दो अलग बातें

हैं कितनी अलग, ये दो बातें!

चुप से, वो कहकहे, सारे अनकहे,
गूंजता वो आंगन, बहका सा ये सावन,
लरजते दो लब, सहमे वो दो पल,
उन पलों की, ये सौगातें!

हैं कितनी अलग, ये दो बातें!

गुजर से गए जब, उभर आए तब,
नजरों से दूर, उभर आए नजरों में पर,
ख्यालों में तय, हो चले ये फासले,
हैरां करे, वो सारी यादें!

हैं कितनी अलग, ये दो बातें!

करे कैद, टिम-टिमाते वो सितारे,
टँके फलक पर, उन्हें अब कैसे उतारें,
यूँ ही देखते, बस रह से गए वहीं,
तन्हा, गुजरती रही रातें!

हैं कितनी अलग, ये दो बातें!

छूकर गईं, फिर, उनकी ही सदा,
भूलें कैसे? ओ जाते पल, तू ही बता,
छू लें कैसे! बहती सी वो है हवा,
टूटी, यहाँ कितनी शाखें!

हैं कितनी अलग, ये दो बातें!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
 (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday, 24 May 2021

संबल

एकाकी, मैं कब था!
कुछ यादें थी,
यूँ, मैं था,
ज्यूँ, संग मेरे मेरा रब था!

अनवरत, चला वक्त का रथ,
रूठ चले कितने, अपने, छूट चले कितने,
उनकी ही, मीठी यादों के पल,
उभर आए, बन कर संबल,
यूँ, मैं था,
ज्यूँ, संग मेरे मेरा रब था!

बन बिखरे, आँखों के मोती,
बिन मौसम, इक बारिश, यूँ रही भिगोती,
भींगे से हम, भीगे यादों के क्षण,
हर क्षण, बरसा वो सावन,
यूँ, मैं था,
ज्यूँ, संग मेरे मेरा रब था!

रिक्तताओं के मध्य, मरुवन,
व्यस्तताओं के मध्य, पुकारता वो दामन,
समेटता, गहराता वो आलिंगन, 
हर पल, आबद्ध रहा मन,
यूँ, मैं था,
ज्यूँ, संग मेरे मेरा रब था!

एकाकी, मैं कब था!
कुछ यादें थी,
यूँ, मैं था,
ज्यूँ, संग मेरे मेरा रब था!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 30 April 2021

जा, अप्रिल तू जा

झौंके बहुत, तूनें आँखों में धूल,
ओ, अप्रिल के फूल!

कटीली तेरी यादें, कठिन है भुला दें,
बोए तूने, इतने काँटे,
फूलों संग, घर-घर तूने दु:ख बाँटे,
जा, अब याद मुझे न आ,
जा, अप्रिल तू जा!

दूभर है, तुझ संग ये दिन निभ जाए,
बैरी ये पल कट जाए,
हर क्षण, कितने धोखे हमने खाए,
ना, अब सपनों में बहला,
जा, अप्रिल तू जा!

तू, क्या जाने, कुछ खो देने का, गम!
यूँ, अपनों से बिछड़न,
जीवन भर, जीवन खोने का गम,
जा, ना यूँ मन को बहला,
जा, अप्रिल तू जा!

झौंके बहुत, तूनें आँखों में धूल,
ओ, अप्रिल के फूल!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 7 March 2021

शेष

विशेष थी तुम, ओ दीदी....
अब, शेष हैं, बस बीती बातें, और तेरी यादें!

यूँ तो, विधाता नें, सब कुछ दिया,
पर, पल भर को ही!
सुख तेरा, हँसता मुख तेरा, 
उनसे देखा ना गया,
ले चला, वो असमय छीन कर,
तुझसे पहले, तेरी खुशी,
अवशेष थी, 
बस शेष थी, तुम ओ दीदी....

भले ही, उस पार तुम्हें मिल जाए,
खोया सा, तेरा संसार,
करती भी क्या तुम, झूठ था सब,
नेह का ये व्योपार,
फिर से देता हूँ तुझको विदाई,
अब न गम, छूए तुझे,
जो शेष हैं,
तू हँसती रहे, ओ मेरी दीदी.....

विशेष थी तुम, ओ दीदी....
अब, शेष हैं, बस बीती बातें, और तेरी यादें!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)
...............................................
मेरी बड़ी बहन, स्व. नीलू दीदी (सरिता शरण) को समर्पित ..... निधन तिथि 06.03.2021

Tuesday, 19 January 2021

झुर्रियाँ

बोझ सारे लिए, उभर आती हैं झुर्रियाँ,
ताकि, सांझ की गर्दिश तले, 
यादें ओझिल न हो, सांझ बोझिल न हो!

उम्र, दे ही जाती हैं आहट!
दिख ही जाती है, वक्त की गहरी बुनावट!
चेहरों की, दहलीज पर, 
उभर आती हैं.....
आड़ी-टेढ़ी, वक्र रेखाओं सी ये झुर्रियाँ,
सहेजे, अनन्त स्मृतियाँ!

वक्त, कब बदल ले करवट!
खुरदुरी स्मृति-पटल, पे पर जाए सिलवट!
चुनती हैं एक-एक कर,
उतार लाती हैं.....
जीवन्त भावों की, गहरी सी ये पट्टियाँ,
मृदुल छाँव सी, झुर्रियाँ!

घड़ी अवसान की, सन्निकट!
प्यासी जमीन पर, ज्यूँ लगी हो इक रहट!
इस, अनावृष्ट सांझ पर,
न्योछार देती हैं...
बारिश की, भीगी सी हल्की थपकियाँ, 
कृतज्ञ छाँव सी, झुर्रियाँ!

बोझ सारे लिए, उभर आती हैं झुर्रियाँ,
ताकि, सांझ की गर्दिश तले, 
यादें ओझिल न हो, सांझ बोझिल न हो!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 19 November 2020

कैद

अब, कैद हो चुके तुम, धुँधले से नैनों में!

भटकोगे, अन्तर्मन के इस सूने वन में, 
कल्पनाओं के दारुण प्रांगण में,
क्या रह पाओगे?

पहले तो, बनती थी, इक परछाईं सी,
कभी, पल-भर में गुम होते थे!
कभी तुम होते थे!

तेरे ही सपने, पलते थे उड़ते-उड़ते से,
पर, डरता था, कुछ कहने से,
उड़ते सपनों से!

कैद हो चली, तेरे ही यादों की परछाईं,
लेकिन, आँखें हैं अब धुंधलाई,
जा पाओगे कैसे!

रोकेंगी तुझको, तेरी यादों के अवशेष,
नैनों का, धुंधलाता ये परिवेश,
जा ना पाओगे!

इन्हीं अवशेषों के मध्य, बजती हुई दूर,
गुनगुनाती सी, होगी इक धुन,
वही, शेष हूँ मैं!

गाते कुछ पल होंगे, बीते वो कल होंगे,
शायद, एकाकी ना पल होंगे,
रुक ही जाओगे!

या भटकोगे, अन्तर्मन के सूने से वन में, 
यातनाओं के, दारुण प्रांगण में,
कैसे रह पाओगे?

अब, कैद हो चुके तुम, धुँधले से नैनों में!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday, 14 September 2020

चुन लूँ कौन सी यादें

चुन लूँ, कौन सा पल, कौन सी यादें!

बुनती गई मेरा ही मन, उलझा गई मुझको,
कोई छवि, करती गई विस्मित,
चुप-चुप अपलक गुजारे, पल असीमित,
गूढ़ कितनी, है उसकी बातें!

चुन लूँ, कौन सा पल, कौन सी यादें!

बहाकर ले चला, समय का विस्तार मुझको,
यूँ ही बह चला, पल अपरिमित,
बिखेरकर यादें कई, हुआ वो अपरिचित,
कल, पल ना वो बिसरा दे!

चुन लूँ, कौन सा पल, कौन सी यादें!

ऐ समय, चल तू संग-संग, थाम कर मुझको,
तू कर दे यादें, इस मन पे अंकित,
दिखा फिर वो छवि, तू कर दे अचंभित,
यूँ ना बदल, तू अपने इरादे!

चुन लूँ, कौन सा पल, कौन सी यादें!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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तस्वीर में, मेरी पुत्री ... कुछ पलों को चुनती हुई

Monday, 30 December 2019

स्मृति

सघन हो चले कोहरे, दिन धुँध में ढ़ला,
चादर ओढ़े पलकें मूंदे, वो पल यूँ ही बीत चला,
बनी इक स्मृति, सब अतीत बन चला!

कितने, पागल थे हम,
समझ बैठे थे, वक्त को अपना हमदम,
छलती वो चली, रफ्तार में ढ़ली,
रहे, एकाकी से हम!
टूटा इक दर्पण,
वो टुकड़े, संजोए या जोड़े कौन भला!

कल भी है, ये जीवन,
पर दे जाएंगे गम, स्मृति के वो दो क्षण,
श्वेत उजाले, लेकर आएंगी यादें,
बिखरे से, होंगे हम!
सूना सा आंगण,
धुंधली सी स्मृतियाँ, जोहे कौन भला!

छूट चले हैं सारे, वो कल के गलियारे,
विस्मृत करते, वो क्षण, वो दो पल, प्यारे-प्यारे,
सब कुछ है अब, कुछ धुंधला-धुंधला!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 12 July 2019

किताब

बहते चिनाब से,
मिल गई, इक किताब!

उम्र, जो है अब ढ़ली,
सोचता था,
गुजर चुकी है, अब वो गली,
अब न है राफ्ता,
शायद, अब बन्द हो वो रास्ता,
पर, टूटा न था वास्ता,
रह गईं थी,
कुछ यादें, वही मखमली,
संग-संग चली,
उम्र के इस चिनाब में,
इक किताब सी,
मन में,
ढ़ली वो मिली!

बहते चिनाब से,
मिल गई, इक किताब!

बातें वही, बहा ले गई,
यादें पुरानी,
नई सी लगी, थी वो कहानी,
फिर बना राफ्ता,
पर, अब तो बन्द था वो रास्ता,
रह गया था, इक वास्ता,
वो किस्से पुराने,
यादों में ढ़ले, वो ही तराने,
अब सताने लगे,
वो पन्ने, फरफराने लगे,
बंद किताब की,
हर बात,
तड़पाती ही मिली!

बहते चिनाब से,
मिल गई, इक किताब!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Monday, 18 February 2019

यूँ न था बिखरना

यूँ न टूटकर, असमय था बिखरना मुझे...

छोड़ कर यादें, वो तो तन्हा चला,
तोड़ कर अपने वादे, यूँ कहाँ वो चला,
तन्हाइयों का, ये है सिलसिला,
यूँ इस सफर में, तन्हा न था चलना मुझे!

यूँ न टूटकर, असमय था बिखरना मुझे...

कली थी, अभी ही तो खिली थी!
सजन के बाग की, मिश्री की डली थी!
था अपना वही, एक सपना वही,
यूँ न बाहों से उनकी, था निकलना मुझे!

यूँ न टूटकर, असमय था बिखरना मुझे...

गुजर चुके अब, सपनों के दिन,
अब गुजरेंगे कैसे, वक्त अपनों के बिन,
न था वास्ता, तंज लम्हों से मेरा,
यूँ तंग राह में अकेले, न था गुजरना मुझे!

यूँ न टूटकर, असमय था बिखरना मुझे...

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Wednesday, 25 January 2017

यादों की बस्ती

है ख्वाबों की वो, बनती बिगरती इक छोटी सी बस्ती,
कुछ बिछड़ी सी यादें उनकी,अब वहीं हैं रहती......

है अकेली नहीं वो यादें, संग है उनके वहीं मेरा मन भी,
रह लेता है कोने में पड़ा, वहीं कहीं मेरा मन भी,
भूली सी वो यादें, घंटो तलक संग बातें हैं मुझसे करती,
बस जाती है वो बस्ती, बहलता हूँ कुछ देर मैं भी।

यूँ हीं कभी हँसती, तो पल भर को कभी वो सँवरती,
यूँ टूट-टूटकर कर कभी, बस्ती में वो बिखरती.....

हर तरफ बिखरी है उनकी यादें, बिखरा है मेरा मन भी,
संभाले हुए वो ही यादें, बैठा वहीं है मेरा मन भी,
टूटी हुई वो यादें, सुबक-सुबक कर बातें मुझसे करती,
फिर ख्वाब नए लेकर, सँवरती है वो ही बस्ती।

आँखों से छलकती, कभी कलकल नदियों सी बहती,
यूँ ही कभी विलखती, बहती वो यादों की बस्ती...

Wednesday, 2 November 2016

कभी तुम लौट आओ

तुम लौट आओ.....तुम लौट आओ.....कभी तुम..

कभी लगता है मुझको,
जैसे हर चेहरे में छुपा है तेरा अक्श,
क्यूँ  तेरी चाहत में मुझको,
प्यारा सा लगता है हर वो इक शक्श,
ले चला है भरभ किस ओर मुझको,
राहत मिलता नही कहीं दिल को....

तुम लौट आओ....तुम लौट आओ.....कभी तुम..

कभी देखता हूँ मैं फिर,
आँखों मे मंडराता इक धुंधला सा साया,
क्यूँ लगने लगता है फिर,
स्मृतिपटल पर छाई है तिलिस्म सी माया,
लहरों सी वो फिर उफनाती,
उद्वेलित इस स्थिर मन को कर जाती....

तुम लौट आओ....तुम लौट आओ.....कभी तुम..

तभी सोचता हूँ फिर मैं,
वो अक्श तो मिल चुकी वक्त की खाई में,
क्यूँ फिर भरम में हूँ मैं,
किस साए से मिलता हूँ रोज तन्हाई में,
किसी कोहरे में उलझा हूँ शायद मैं,
बिखरा है ये मन भरम के किस बादल में ......

तुम लौट आओ....तुम लौट आओ.....कभी तुम..

कभी लगता है तब,
यादों के ये उद्वेग होते है बड़े प्रबल,
क्यूँ याद करता है इन्हे मन जब,
असह्य पीड़ा देते है ये जीने के संबल,
पर यादों पर है किसके पहरे,
चल पड़ता हूँ उस ओर जिधर ये यादें चले,

तुम लौट आओ....तुम लौट आओ.....कभी तुम..

कभी पूछता हूँ मैं फिर,
झकझोरा है मेरे स्मृतिपटल को किसने,
क्यूँ अंगारों को सुलगाया है फिर,
तन्हा लम्हों को फिर उकसाया है किसने,
पानी में पतवार चली है फिर क्यूँ,
यादों की ये तलवार खुली है फिर क्यूँ,

तुम लौट आओ....तुम लौट आओ.....कभी तुम..

Friday, 28 October 2016

काश

काश! यादों के उस तट से गुजरे न होते हम....

रंग घोलती उन फिजाओं में,
शिकवे हजार लिए अपनी अदाओं में,
हाँ, पहली बार यूँ मिले थे तुम.....

कशिश बला की उन बातों में,
भरी थी शरारत उन शरमाई सी आँखों में,
हाँ, वादे हजार कर गए थे तुम.....

नदी का वो सूना सा किनारा,
वो राह जिनपर हम संग फिरे थे आवारा,
हाँ, उन्हें तन्हा यूँ कर गए थे तुम.....

ढली सुरमई सांझ कभी रंगों में,
कभी रातें शबनमीं तुझको पुकारती रहीं,
हाँ, मुद्दतों अनसुनी कर गए थे तुम....

बातें वो अब बन चुकी हैं यादें,
रह रह पुकारती है मुझको, तेरी वो बातें,
हाँ, लहरों सी यादें देकर गए थे तुम......

काश! यादों के उस तट से गुजरे न होते हम....

Thursday, 29 September 2016

याद तुम्हारी

आ जाती है हर बार बस इक याद तुम्हारी...........

लताएँ झूमकर लहराती हैं जब शाखों पे,
नन्ही सी बुलबुल जब झूलती हैं लताओं पे,
लटकती शाखें जब फैलाती हैं अपनी बाहें,
बहारें जब-जब मिलने आती हैं बागों से,
चंचल हवाएँ जब टकराती हैं मेरे बालों से,

आ जाती है हर बार बस इक याद तुम्हारी...........

गर्म हवाएँ उड़ाती हैं जब ये कण धूल के,
बदन छू जाती हैं जब तपती सूरज की किरणें,
साँसें हल्की गहरी सी निकलती हैं जब सीने से,
चुपके से सहला जाती हैं जब बारिश की बूँदें,
सिहरन भरे एहसास जब लाती हैं सर्द हवाएँ,

आ जाती है हर बार बस इक याद तुम्हारी...........

जब गाती है कोयल कहीं गीत मिलन के,
बज उठती है शहनाई जब धड़कन के,
आँधी लेकर आती है जब सनसनाती हवाएँ,
आवाज निकलती है जब फरफराते पन्नों से,
पल तन्हाई के देती हैं जब खामोश सदाएँ,

आ जाती है हर बार बस इक याद तुम्हारी...........

Sunday, 18 September 2016

इक अमिट याद हूँ मैं

इक अमिट याद हूँ मैं, रह न पाओगे मेरी यादों के बिना।

सताएंगी हर पल मेरी यादें तुझको,
आँखें बंद होंगी न तेरी, मेरी यादों के बिना,
खुली पलकों में समा जाऊंगा मैं,
तन्हा लम्हों में चुपके से छू जाऊंगा मैं,
जिन्दगी विरान सी तेरी, मेरी यादों के बिना।

संवारोगे जब भी तुम खुद को,
लगाओगे जब भी इन हाथों में हिना,
याद आऊँगा मैं ही तुमको,
देखोगे जब भी तुम कही आईना,
निखरेगी ना सूरत तेरी, मेरी यादों के बिना।

गीत बनकर होठों पर गुनगुनाऊंगा मैं,
तेरी काजल में समा जाऊंगा मैं,
संभालोगे जब भी आँचल को सनम,
चंपई रंग बन बिखर जाऊँगा मैं,
सँवरेंगी न सीरत तेरी, मेरी बातों के बिना।

हमदम हूँ मैं ही तेरी तन्हाई का,
तेरे सूने पलों को यादों से सजाऊंगा मैं,
भूला न पाओगे तुम मुझको कभी,
खुश्बू बनकर तेरी सांसों मे समा जाऊंगा मैं,
तन्हाई न कटेगी तेरी, मेरी यादों के बिना।

इक अमिट याद हूँ मैं, रह न पाओगे मेरी यादों के बिना।

Sunday, 11 September 2016

शहतूत के तले

हाॅ, कई वर्षों बाद मिले थे तुम उसी शहतूत के तले.....

अचानक ऑंखें बंद रखने को कहकर,
चुपके से तुमनें रख डाले थे इन हाथों पर,
शहतूत के चंद हरे-लाल-काले से फल,
कुछ खट्टे, कुछ मीठे, कुछ कच्चे से,
इक पल हुआ महसूस मानो, जैसे वो शहतूत न हों,
खट्टी-मीठी यादों को तुमने समेटकर,
सुुुुसुप्त हृदय को जगाने की कोशिश की हो तुमने।

हाॅ, कई वर्षों बाद मिले थे तुम उसी शहतूत के तले....

शहतूत के तले ही तुम मिले थे पहली बार,
मीठे शहतूत खाकर ही धड़के थे इस हृदय के तार,
वो कच्ची खट्टी शहतूत जो पसन्द थी तुम्हें बेहद,
वो डाली जिसपर झूल जाती थी तुम,
शहतूत की वो छाया जहाॅ घंटों बातें करती थी तुम,
वही दहकती यादें हथेली पर रखकर,
सुलगते हृदय की ज्वाला और सुलगा दी थी तुमने।

हाॅ, कई वर्षों बाद मिले थे तुम उसी शहतूत के तले....

Thursday, 1 September 2016

कसक

सिराहने तले दबी मिली कुछ धुंधली सी यादें,
दब चुकी थी वो समय की तहों में,
परत धूल की जम गई थी उन गुजरे लम्हों में,
अक्सर वो झांकता था सिराहने तले से,
कसक ये कैसी दे गई वो भूली-बिसरी सी बातें ....

वो हवाओं में टहनियों का झूल जाना,
उन बलखाती शाखों को देख सब भूल जाना,
लाज के घूंघट लिए वो खिलती सी कलियाॅ,
मुस्कुराते से लम्हों में घुलती वो मिश्री सी बतियाॅ,
कसक कितने ही साथ लाईं वो धुंधली सी यादें .....

जैसे फेंका हो कंकड़ सधे हाथों से किसी ने,
ठहरी हुई झील सी इस शान्त मन में,
वलय कितने ही यादों के अब लगे हैं बिखरने,
वो तस्वीर धुंधली सी झिलमिलाने लगी फिर मन में ,
कसक फिर से जगी है, पर है अब कहाॅ वो बातें ......

पलटे नहीं जाएंगे अब मुझसे फिर वो सिराहने,
अब लौट कर न आना ऐ धुंथली सी यादें,
तू कभी मुड़कर न आना फिर इस झील में नहाने,
पड़ा रह सिराहने तले, तू यूॅ ही धूल की तहों में,
कसक अब न फिर जगाना,  तू ऐ गुजरी सी यादें .....

Wednesday, 17 August 2016

पहर दो पहर

पहर दो पहर,
हँस कर कभी, मुझसे मिल ए मेरे रहगुजर,
आ मिल ले गले, तू रंजो गम भूलकर,
धुंधली सी हैं ये राहें, आए न कुछ भी नजर,
आ अब सुधि मेरी भी ले, इन राहों से भी तू गुजर....

पहर दो पहर,
चुभते हैं शूल से मुझको, ये रास्तों के कंकड़,
तीर विरह के, हँसते हैं मुझकों बींधकर,
ये साँझ के साये, लौट जाते हैं मुझको डसकर,
ऐ मेरे रहगुजर, विरह की इस घड़ी का तू अन्त कर......

पहर दो पहर,
कहती हैं ये हवाएँ, आती हैं जो उनसे मिलकर,
है बेकरार तू कितना, वो तो है तुझसे बेखबर,
आँखों में उनके सपने, तू उन सपनों से आ मिलकर,
ए मेरे रहगुजर, उन सपनों से न कर मुझको बेखबर.....

पहर दो पहर,
लौट जाती हैं उनकी यादें, कई याद उनके देकर,
बंध जाता है फिर ये मन, उन यादों में डूबकर,
रोज मिलता हूँ उनसे, यादों की वादी में आकर,
ऐ मेरे रहगुजर, इन यादों से वापस न जा तू लौटकर....

Thursday, 19 May 2016

यादों की एकान्त वेला

मन एकान्त सा होता नही यादों में जब होते वो संग,
आह ! यह एकान्त वेला, फिर याद लेकर उनकी आई...!

अतिशय उलझा है मन फिर ये कैसी रानाई,
घटाएँ उनके यादों की बदली सी इस मन पर छाई,
निस्तब्ध इस एकान्त वेला में ये कैसी है तन्हाई....?

यादों में पल पल वो झूलों से आते लहराकर,
मुखरे पर वही भीनी सी मंद मुस्कान बिखराकर,
कर जाते वो निःशब्द मुझको अपनाकर....!

लहराते जुल्फों की छाँवो में ही रमता है ये मन,
उनकी यादों की गाँवों में ही बसता है अब ये मन,
मन चल पड़ता उस ओर पाते ही एकान्त क्षण....!

तन्हाई डसती नहीं उनकी यादें जब हो संग,
मन एकान्त सा होता नही यादों में जब होते वो संग,
काश! क्षण उम्र के यूँ ही गुजरे यादों में उनकी संग....!