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Saturday, 25 April 2020

कलयुग का काँटा

इस अरण्य में, बरगद ना बन पाया,
काँटा ही कहलाया,
कुछ तुझको ना दे पाया,
सूनी सी, राहों में,
रहा खड़ा मैं!

इक पीपल सा, छाया ना बन पाया,
बन भी क्या पाता?
इस कलयुग का, काँटा!
रोड़ों सा राहों में, 
रहा पड़ा मैं!

सत्य की खातिर, सत्य पर अड़ा मैं,
वो अपने ही थे,
जिनके विरुद्ध लड़ा मैं,
अर्जुन की भांति,
सदा खड़ा मैं!

धृतराष्ट्र नहीं, जो बन जाता स्वार्थी,
उठाए अपनी अर्थी,
करता कोई, छल-प्रपंच,
सत्य की पथ पर,
सदा रहा मैं!

संघर्ष सदा, जीवन से करता आया,
लड़ता ही मैं आया,
असत्य, जहाँ भी पाया,
पर्वत की भांति,
रहा अड़ा मैं!

गर, कर्म-विमुख, पथ पर हो जाता,
रोता, मैं पछताता,
ईश्वर से, आँख चुराता,
मन पे इक बोझ,
लिए खड़ा मैं!

इस अरण्य में, बरगद ना बन पाया,
बन भी क्या पाता?
इस कलयुग का, काँटा!
कंकड़ सा राहों में, 
रहा पड़ा मैं!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 9 April 2020

दिशाहीन सफर

कर चुके बहुत, दिशाहीन सा ये सफर!

कम थे, बहुतेरे, सफर के सवेरे,
दिन के उजालों में, गहन मन के अंधेरे,
ठहरे समुन्दरों में, लहरों के थपेरे,
मुस्कुराहटों में, समाया डर,
चह-चहाहटों के, बेसुरे से होते स्वर,
खुशी की आहटों से, हैं बेखबर,
न थी सूनी, इतनी ये सफर!

चल चुके बहुत, अन्तहीन सा ये सफर!

होती रही, शून्य सी, चेतनाएँ,
हैं प्रभावी, काम, मोह, मद, लालसाएँ,
हैं, फिजाओं में घुली, वासनाएँ,
प्रगति के, ये कैसे हैं चरण?
छलते है जहाँ, मनुष्य के आचरण,
हैं राहें कर्म की, बातों से इतर,
दिशाहीन, कैसी ये सफर!

कर चुके बहुत, दिशाहीन सा ये सफर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday, 26 August 2019

चेतना

निष्काम, स्वभाव धरें हम!
चल जरा फहराएँ, चेतना के परचम!

स्वत्व की साधना, करते-करते,
निकल पड़े हैं, हम सब किस रस्ते?
विकल्प, खत्म हुए हैं सारे,
जग जीते, पर हैं मन के ही हारे,
मन को जीत, जरा ले हम!

बन जाएँ, जीवों में श्रेष्ठतम!
चल मिल फहराएँ, चेतना के परचम!

जब चलते-चलते, कर्म पथ पर,
निज स्वार्थ, होते हैं हावी निर्णय पर,
भूल कर, तब संकल्प सारे,
कदम, भटक जाते हैं गन्तव्यों से,
हावी हम पर, होते हैं अहम!

कहीं, निष्ठा छोड़ न दे हम!
चल जरा फहराएँ, चेतना के परचम!

निःस्वार्थ करें, कुछ कार्य हम,
चल जगाएँ चेतना, जलाएँ दीप हम,
दूर हों तम, हवस ये सारे,
मानवता जीते, हारे ये अंधियारे,
हावी ना हो, हम पे ये अहम!

डिगे ना, कर्तव्य से कदम!
चल मिल फहराएँ, चेतना के परचम!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Saturday, 15 June 2019

कर्म-साक्षी

मिल आना, तुम भी, उन तप्त शिलाओं से!

जब मैं मिला था, कुछ सख्त थी शिला,
धूप में जलकर, अंगारों सी कुछ तप्त थी शिला,
न था गम, उसे कोई, न था कोई गिला,
स्वागत में मेरे, बाहें पसारे, वो मुझसे मिला!

मिल आना, तुम भी, उन तप्त शिलाओं से!

पली थी इक नागफनी, उसके अंक में,
काँटे दंश के, चुभोती वो रही, खिल कर संग में,
निरंतर सहती रही, यातना उस दंश में,
मगर, मुझे हँसती वो मिली, उसी के संग में!

मिल आना, तुम भी, उन तप्त शिलाओं से!

बना था मैं साक्षी, शिला के सूकर्म का,
कर्म-साक्षी खुद थी शिला, प्रकृति के धर्म का,
उपांतसाक्षी मैं बना, धरम के मर्म का,
विषम पल में, पहनी मिली गहना शर्म का!

मिल आना, तुम भी, उन तप्त शिलाओं से!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Wednesday, 11 July 2018

लकीरें

मिटाए नहीं मिटती ये सायों सी लकीरें.......

कहता इसे कोई तकदीर,
कोई कहता ये है बस हाथों की लकीर,
या गूंदकर हाथों पर,
बिछाई है इक बिसात किसी ने!

यूं चाल कई चलती ये हाथों की लकीरें.......

शतरंज सी है ये बिसात,
शह या मात देती उम्र सारी यूं ये साथ,
या भाग्य के नाम पर,
खेला है यहां खेल कोई किसी ने!

लिए जाए है कहां ये हाथों की लकीरें.......

आड़ी तिरछी सी राह ये,
कर्म की लेखनी का है कोई प्रवाह ये,
इक अंजाने राह पर,
किस ओर जाने भेजा है किसी ने!

मिटती नहीं हाथ से ये सायों सी लकीरें.......

या पूर्व-जन्म का विलेख,
या खुद से ही गढ़ा ये कोई अभिलेख,
कर्म की शिला पर,
अंकित कर्मलेख किया है किसी ने!

तप्तकर्म की आग से बनी है ये लकीरें......

Monday, 22 February 2016

कर्मपथ की ओर

तू नैन पलक अभिराम देखता किस ओर,
देख रहा वो जगद्रष्टा निरंतर तेरी ओर,
इस सच्चाई से अंजान तू देखता किस ओर।

तू कठपुतली है मात्र उस द्रष्टा के हाथों की,
डोर लिए हाथों मे वो खीचता बाँह तुम्हारी,
सपनों की अंजान नगर तू देखता किस ओर।

निरंकुश बड़ा वो जिसकी हाथों में तेरी डोरी,
अंकुश रखता जीवन पर खींचता डोर तुम्हारी,
उस शक्ति से अंजान तू सोचता किस ओर।

कर्मों के पथ का तू राही नैन तेरे उस ओर,
कर्मपथ पर निश्छल बढ़ता चल कर्मों की ओर,
मिल जाएगी तेरी मंजिल उस द्रष्टा की ओर।

Saturday, 20 February 2016

पिंजड़ा जीवन का

पिंजड़ा सामने खड़ा दिख रहा जीवन का,
कारावास इस जीवन की, तुझे खुद होगी झेलनी,
दीवार इस कारागार की, तू तोड़ नही पाएगा,
लिखा जो भी भाग्य में तेरे, सामने खुद ही आएगा।

व्यर्थ जाएगी युक्ति तेरी सारी मुक्ति की,
अवधि इस कारावास की, तुझको खुद पूरी है करनी,
कर्मों के अंबार लगे हैं, सामने जीवन के तेरे,
राहें भाग्य के रेखा की तेरी, कर्मो के रश्ते ही गुजरेगी।

मुँह फेर नही सकता तू जीवन के कर्मों से,
आजीवन ये कठोर कारावास सश्रम झेलनी है तुझको,
पुरस्कार या दंड? परिणाम यही पर तू पाएगा, 
मुक्ति तुझको इस पिंजरे से, तेरा "जीवन कलश" दे पाएगा।

Friday, 19 February 2016

जननी जन्मभूमि भारत

जननी जन्मभूमि हूँ मैं,
आहत हूँ थोड़ी सी, थोड़ी विचलित हूँ मैं,
सदियों से कुठाराघात कई दुश्मनों के सह चुकी हूँ मैं,
टूटी नहीं अभी तक संघर्षरत हूँ मैं।

भारत की माता हूँ मैं!
जानती हूँ सदियों से हमपे जुल्म कई होते रहे,
गोलियों से मेरे वीर सपूतों के हृदय छलनी होते रहे,
पर आहूति देकर ये, रक्षा मेरी करते रहे।

कर्मवीरों की धरती हूँ मैं!
अभिमान हूँ कोटि कोटि हृदयस्थ जलते दीप की,
गौरव हूँ मैं जन जन के संगीत की,
बिखरूंगी लय नई बन, विश्वविजय गीत की।

जननी जन्मभूमि हूँ मैं, भारत माता हूँ मैं।

Wednesday, 20 January 2016

पतवार जीवन का

खे रहा पतवार जीवन का,
चल रहा तू किस पथ निरंतर,
अनिश्चित रास्तों पर तू दामन धैर्य का धर,
है पहुँचना तुझे उस कठिन लक्ष्‍य पर।

देख बाधाएँ सम्मुख विकट,
छोडना़ मत पतवार तुम,
निश्चित होकर तू अपना कर्म कर,
कर्म तेरा तुझको ले जाएगा लक्ष्य पर।

अनिश्चित सदा ही कर्म फल,
पर कर्म से यदि रहा यह पथ वंचित,
हो न पाएगा यश तेरा संचित,
धैर्य तेरा ले जाएगा तुझे उस लक्ष्य पर।

निशान कठिन रास्तों के भी,
मिलते नही लक्ष्य शिखर पर कभी,
तू बचा सका गर अपना अस्तित्‍व,
मिल जाएगा अपनत्‍व तुझे उस लक्ष्य पर।

Saturday, 9 January 2016

कदमों के निशान

कभी सोचता!

जीवन में जो भी हासिल कर पाऊँ,
उनके निशान चंद छोड़ जाऊँ,
सागर तट मीलों चलता रहता,
निरंतर सोचता जाता बस यही,
साधता स्वार्थ सिर्फ अपनी,
लिखता रहता कर्मों के बही,
पर निश्छल चंचल सागर की लहरें,
धो जाती सब स्वार्थ के निशाँ,
ढूंढता वापस मुड़कर जब,
जीवन सागर तट यहाँ,
मिल पाते नही कदमों के निशाँ।

फिर सोचता!

बनते कब निशां कदमों के सागर किनारे,
अनवरत लहरे सागर की स्वयं,
निस्वार्थ करती रहती कार्य दिन रात,
और अपने ही हाथों पोछती रहती,
निरंतर अपने कदमो के निशान।

फिर खुद से कहता!

जीवन की राहें मिलती हैं सागर से,
कटीली, पथरीली रास्तों में चलकर,
पथ जीवन की कहाँ सुरीली प्यारे,
तू इन पत्थरों पर नित हो अग्रसर,
मानव कल्यान को ध्येय बनाकर,
करता जा कर्म तू निःस्वार्थ निरंतर,
बनते जाएंगे खुद ही तेरे पीछे,
अमिट तेरे कदमों के निशाँ प्यारे।

Monday, 28 December 2015

सन्निकट अवसान

अवसान सन्निकट जीवन के,
छाए स्वत: हो रहे अब दीर्घ,
वेग-प्रवाह धीमे होते रक्त के,
सांसें स्वतः हो रहे अब प्रदीर्घ।

बीत रहा प्रहर निर्बाध अधीर,
अभिलाशाएँ हृदय की बहाती नीर,
सांझ जीवन की आती अकुलाई,
वश में कर सकै ऐसा कौन प्रवीर।

उत्थान-पतन और विहान-अवसान,
महाश्रृष्टि रचयिता के हैं दो प्रमाण,
जीर्ण होकर ही दे पाता ये नव जीवन,
कर्म अडिग कर, बना अपनी पहचान।

Saturday, 26 December 2015

शाकाहारी मांसाहारी

एक शाकाहारी नें गर्व से कहा, 
साग सब्जी भून रहा हूँ मैं खाने को,
जीवन नहीं लेता मैं किसी कि
अपनी क्षुधा, भूख, तृष्णा मिटाने को।

मैने कहा यह तो है सापेक्षिक समझ,
कण-कण में रजते बसते हैं प्राण,
कोशिकाओं ऊतकों से बनते ये भी,
तुम भी लेते हो प्राण उस कण की।

उन कोशिकाओं मे भी होती है जान,
श्वाँस लेते ये भी इन्हे भी होती है पीड़ा,
दर्द हो सके तो तू इसकी भी पहचान,
स्वार्थ में रजकर क्यों रचता है तू भी स्वांग।

कण कण मे बसे हैं सूक्ष्म प्राण
प्रसव पीड़ा तू इनकी भी पहचान।
हो चुका था वो बिल्कुल निरुत्तर ,
विवश हो उठे थे उसके प्राण ।

शाकाहारी मांसाहारी तो है विभिन्र रुचि बस,
नही झलकते इनसे अलग विचार,
भाव अगर हो सूक्ष्म जीवन की रक्षा,
करो तुम कर्म महान हो जग का कल्याण ।