जीवन के अनुभवों पर, मेरे मन के उद्घोषित शब्दों की अभिव्यक्ति है - कविता "जीवन कलश"। यूं, जीवन की राहों में, हर पल छूटता जाता है, इक-इक लम्हा। वो फिर न मिलते हैं, कहीं दोबारा ! कभी वो ही, अपना बनाकर, विस्मित कर जाते हैं! चुनता रहता हूँ मैं, उन लम्हों को और संजो रखता हूँ यहाँ! वही लम्हा, फिर कभी सुकून संग जीने को मन करता है, तो ये, अलग ही रंग भर देती हैं, जीवन में। "वैसे, हाथों से बिखरे पल, वापस कब आते हैं! " आइए, महसूस कीजिए, आपकी ही जीवन से जुड़े, कुछ गुजरे हुए पहलुओं को। (सर्वाधिकार सुरक्षित)
Saturday, 25 April 2020
कलयुग का काँटा
Thursday, 9 April 2020
दिशाहीन सफर
कम थे, बहुतेरे, सफर के सवेरे,
दिन के उजालों में, गहन मन के अंधेरे,
ठहरे समुन्दरों में, लहरों के थपेरे,
मुस्कुराहटों में, समाया डर,
चह-चहाहटों के, बेसुरे से होते स्वर,
खुशी की आहटों से, हैं बेखबर,
न थी सूनी, इतनी ये सफर!
चल चुके बहुत, अन्तहीन सा ये सफर!
होती रही, शून्य सी, चेतनाएँ,
हैं प्रभावी, काम, मोह, मद, लालसाएँ,
हैं, फिजाओं में घुली, वासनाएँ,
प्रगति के, ये कैसे हैं चरण?
छलते है जहाँ, मनुष्य के आचरण,
हैं राहें कर्म की, बातों से इतर,
दिशाहीन, कैसी ये सफर!
कर चुके बहुत, दिशाहीन सा ये सफर!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
Monday, 26 August 2019
चेतना
स्वत्व की साधना, करते-करते,
निकल पड़े हैं, हम सब किस रस्ते?
विकल्प, खत्म हुए हैं सारे,
जग जीते, पर हैं मन के ही हारे,
मन को जीत, जरा ले हम!
बन जाएँ, जीवों में श्रेष्ठतम!
चल मिल फहराएँ, चेतना के परचम!
जब चलते-चलते, कर्म पथ पर,
निज स्वार्थ, होते हैं हावी निर्णय पर,
भूल कर, तब संकल्प सारे,
कदम, भटक जाते हैं गन्तव्यों से,
हावी हम पर, होते हैं अहम!
कहीं, निष्ठा छोड़ न दे हम!
चल जरा फहराएँ, चेतना के परचम!
निःस्वार्थ करें, कुछ कार्य हम,
चल जगाएँ चेतना, जलाएँ दीप हम,
दूर हों तम, हवस ये सारे,
मानवता जीते, हारे ये अंधियारे,
हावी ना हो, हम पे ये अहम!
डिगे ना, कर्तव्य से कदम!
चल मिल फहराएँ, चेतना के परचम!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
Saturday, 15 June 2019
कर्म-साक्षी
जब मैं मिला था, कुछ सख्त थी शिला,
धूप में जलकर, अंगारों सी कुछ तप्त थी शिला,
न था गम, उसे कोई, न था कोई गिला,
स्वागत में मेरे, बाहें पसारे, वो मुझसे मिला!
मिल आना, तुम भी, उन तप्त शिलाओं से!
पली थी इक नागफनी, उसके अंक में,
काँटे दंश के, चुभोती वो रही, खिल कर संग में,
निरंतर सहती रही, यातना उस दंश में,
मगर, मुझे हँसती वो मिली, उसी के संग में!
मिल आना, तुम भी, उन तप्त शिलाओं से!
बना था मैं साक्षी, शिला के सूकर्म का,
कर्म-साक्षी खुद थी शिला, प्रकृति के धर्म का,
उपांतसाक्षी मैं बना, धरम के मर्म का,
विषम पल में, पहनी मिली गहना शर्म का!
मिल आना, तुम भी, उन तप्त शिलाओं से!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
Wednesday, 11 July 2018
लकीरें
कहता इसे कोई तकदीर,
कोई कहता ये है बस हाथों की लकीर,
या गूंदकर हाथों पर,
बिछाई है इक बिसात किसी ने!
यूं चाल कई चलती ये हाथों की लकीरें.......
शतरंज सी है ये बिसात,
शह या मात देती उम्र सारी यूं ये साथ,
या भाग्य के नाम पर,
खेला है यहां खेल कोई किसी ने!
लिए जाए है कहां ये हाथों की लकीरें.......
आड़ी तिरछी सी राह ये,
कर्म की लेखनी का है कोई प्रवाह ये,
इक अंजाने राह पर,
किस ओर जाने भेजा है किसी ने!
मिटती नहीं हाथ से ये सायों सी लकीरें.......
या पूर्व-जन्म का विलेख,
या खुद से ही गढ़ा ये कोई अभिलेख,
कर्म की शिला पर,
अंकित कर्मलेख किया है किसी ने!
तप्तकर्म की आग से बनी है ये लकीरें......
Monday, 22 February 2016
कर्मपथ की ओर
Saturday, 20 February 2016
पिंजड़ा जीवन का
Friday, 19 February 2016
जननी जन्मभूमि भारत
Wednesday, 20 January 2016
पतवार जीवन का
Saturday, 9 January 2016
कदमों के निशान
Monday, 28 December 2015
सन्निकट अवसान
अवसान सन्निकट जीवन के,
छाए स्वत: हो रहे अब दीर्घ,
वेग-प्रवाह धीमे होते रक्त के,
सांसें स्वतः हो रहे अब प्रदीर्घ।
बीत रहा प्रहर निर्बाध अधीर,
अभिलाशाएँ हृदय की बहाती नीर,
सांझ जीवन की आती अकुलाई,
वश में कर सकै ऐसा कौन प्रवीर।
उत्थान-पतन और विहान-अवसान,
महाश्रृष्टि रचयिता के हैं दो प्रमाण,
जीर्ण होकर ही दे पाता ये नव जीवन,
कर्म अडिग कर, बना अपनी पहचान।