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Sunday, 10 November 2024

दफ्न


अधीर मन, सुने कहां!
नित छेड़े, दफ्न कोई दास्तां.....

कारवां सी, बहती ये नदी,
अक्श, बहा ले जाती,
बह जाती, सदी,
बहते कहां, सिल पे बने निशां,
बहते कहां, दास्तां!

अधीर मन, सुने कहां....

लगे दफ्न सी, कहीं दास्तां,
ज्यूं, ओझल कहकशां,
रुकी सी कारवां,
चल पड़े हों, जगकर सब निशां,
सुनाते इक, दास्तां!

अधीर मन, सुने कहां.....

खींच लाए, फिर उसी तीर,
बहे जहां, धार अधीर,
जगाए, सोेए पीर,
जगाए सारे, दफ्न से हुए निशां,
सुनाए वही, दास्तां!

अधीर मन, सुने कहां....

पर न अब, उस ओर जाएंगे,
जरा उसे भी समझाएंगे,
सोचूं, नित यही,
पर, कब सुने मन जिद पे अड़ा,
सुनाए वही, दास्तां!

अधीर मन, सुने कहां!
नित छेड़े, दफ्न कोई दास्तां.....

Saturday, 23 March 2024

वो कौन

वो कौन, छेड़े है मन वीणा के तार,
गा उठा धुन कोई नया,
ये जर्जर सितार!

वो कौन, जो पहले, स्वप्न सा आया,
फिर, पलकों में समाया,
इंद्रधनुष सी, कैसी, वो परछाईं,
छुई-मुई सी, मुरझाई,
है वो कोई भरम, टूटे जो पल-पल,
कैसा वहम, छूटे ना इक पल!

वो कौन..

मन की जमीं पे, वृक्ष सा वो उभरा,
बसंत सा वो जैसे संवरा,
नृत्य कर उठे, मृदु वे पात-दल,
हर ओर, जैसे हलचल,
दो नैन जैसे, झांकते हों हर-पल,
घेरे वे ही, एहसास पल-पल!

वो कौन..

आए चलकर, उतर कर बादलों से,
झांके छुपके, आंचलों से,
हृदय, धुन इक उसी की सुनाए,
सुनहरे गीत कोई गाए,
आज लय पर, थिरकते वे बादल,
गाने लगे हैं, संगीत कलकल!

वो कौन, छेड़े है मन वीणा के तार,
गा उठा धुन कोई नया,
ये जर्जर सितार!

Wednesday, 4 October 2023

मद्धिम रात

हौले-हौले, मद्धिम होती रही रात,
सुबह तक, अधूरी हर बात!

स्वप्न सरीखी, अनुभूतियां,
कंपित होते, कितने ही पल,
उलझे हैं, इन आंखों पर,
ज्यूं, जागी है रात!

हौले-हौले, मद्धिम होती रही रात,
सुबह तक, अधूरी हर बात!

सुलझे कब, ऐसे उलझन,
विस्मित, दो तीर, खड़ा मन,
अपना लूं, सुबह के पल,
या, मद्धिम सी रात!

हौले-हौले, मद्धिम होती रही रात,
सुबह तक, अधूरी हर बात!

भ्रमित करे, ये मृगतृष्णा,
खींचे स्वप्न भरे कंपित पल,
सहलाए, भूले मन को,
हौले-हौले, ये रात!

हौले-हौले, मद्धिम होती रही रात,
सुबह तक, अधूरी हर बात!

सुबह के, ये भीगे पात,
अलसाई, उंघती हर छटा,
वो नन्हीं सी, इक घटा,
कहती अधूरी बात!

हौले-हौले, मद्धिम होती रही रात,
सुबह तक, अधूरी हर बात!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 24 June 2023

जीत

मन में लिए, कई उलझन,
पहली बार, विदा हो आई जब मेरे आंगन,
शंकाओं भरा, 
था बड़ा ही, वो तेरा मन!

पर, कहीं, थी इक लगन,
मध्य उलझनों के, विहँसता रहा तेरा मन,
उम्मीदों भरा, 
था बड़ा ही, वो तेरा मन!

झौंक जाते, तप्त पवन,
चौंक जाते हर आहटों पर, तेरे हृदयांगन,
ममत्व भरा, 
था बड़ा ही, वो तेरा मन!

बिता चुके, इक जीवन,
हर वक्त, संग मेरे इसी देहरी इसी आंगन,
निस्वार्थ सा,
स्वत्व से परे, तेरा मन!

जाने कब हारा ये मन,
तेरे ही नैनों की गलियों में, बेचारा ये मन,
मैं हैरान सा,
छू लूं, प्यारा तेरा मन!

तुम बिन सूना जीवन,
अब तुम बिन, राहों में कितने हैं उलझन,
सब मैं हारा,
जीत चला, तेरा मन!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 18 June 2023

आशाओं तक

दो तीर, चले मन,
अधीर,
अन्तः कोई पीर लिए मन!

इक तीर, ठहराव भरा,
विस्तृत, आशाओं का द्वार हरा,
दूजे, धार बड़ा,
पग-पग, इक मझधार खड़ा,
आशाएं, बांध चले मन!

छिछली सी, राहों पर,
अन्तहीन, उथली सी चाहों पर,
उस ओर चले,
जिस ओर, सन्नाटों सा शोर,
अल्हड़, मौन रहे मन!

सांझ, किरण कुम्हलाए,
‌निराशाओं के, बादल ले आए,
चले मौन पवन,
बांधे कब ढ़ाढ़स, तोड़ चले,
बंध, तोड़ बहे ये मन!

धूमिल सी, वो आशाएं,
छिछली सी, ये अंजान दिशाएं,
खींच लिए जाए,
थामे, धीरज का इक दामन,
सरपट, दौड़ चले मन!

दो तीर, चले मन,
अधीर,
अन्तः कोई पीर लिए मन!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 16 May 2023

अक्सर

अक्सर, जग आए इक एहसास....

रुक जाए, घन कोई चलते-चलते,
घिर आए, इक बदली,
गरजे कोई बादल,
चमके बिजुरी,
उस सूने आकाश!

अक्सर, जग आए इक एहसास....

झुक जाए, पेड़ घना सूने से रस्ते,
और संग करे अटखेली,
छू कर बहे पवन,
वही अलबेली,
हो, जिसकी आस!

अक्सर, जग आए इक एहसास....

हो अधीर मन, पाने को इक पीड़,
ज्यूं सदियों अंक पसारे,
बैठा हो, इक तीर,
बहते वे धारे,
ठहर जाते काश!

अक्सर, जग आए इक एहसास....

क्यूं, छल जाए अनमनस्क मन,
क्यूं, छलके कोई नयन,
क्यूं, रुक जाए सांस,
क्यूं, टूटे आस,
क्यूं, विरोधाभास!

अक्सर, जग आए इक एहसास....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 1 January 2023

चेतना

जागो तुम, किसी की चेतना में,
सो जाना फिर,
खो जाना,
उसी की वेदना में!

यूं, आसां कहां, जगह पाना!
चेतना में, किसी की सदा रह जाना,
मन अचेतन,
न जाने, देखे कौन सा दर्पण!
कब कहां, करे, खुद को अर्पण!
किसी की चेतना मे!

यूं वेदना की तपती धरा पर,
सिमट कर, धूप सेकती है, चेतना!
सिसक कर,
सन्ताप में, दम तोड़ती कब!
मन भटकता, धूंध के पार, तब,
किसी की चेतना मे!

सो लो तुम, किसी की वेदना में,
जाग लेना फिर,
खो जाना,
उसी की चेतना में!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 4 December 2022

छोर

इधर ही, उस राह का इक छोर है,
लिए जाए किधर, ये मोड़ है!

छोड़ आए, उधर ही, कितनी गलियां,
कितने सपने, छूटे उधर,
मन के मनके, टूटकर, बिखरे राह में,
अब, लौट भी न, पाएं उधर,
छूटा जिधर, वो डोर है!

लिए जाए किधर, ये मोड़ है!

शक्ल अंजान कितने, इस छोर पर,
हैं हादसे, हर मोड़ पर,
सिमटता हर आदमी अपने आप में,
डस रही, अपनी परछाइयां,
विरान कैसा, ये छोर है!

लिए जाए किधर, ये मोड़ है!

धूल-धुसरित हो चले, ये पांव सारे,
धूमिल से दोनों किनारे,
ढूंढता खुद की ही, पहचान राहों में,
थक कर, चूर-चूर ये बदन, 
करे हैरान, यह छोर है!

इधर ही, उस राह का इक छोर है,
लिए जाए किधर, ये मोड़ है!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 28 September 2022

जो हाथों से परे


जो हाथों से परे.....

याद करे, वो ही बचपन,
वही लौ, फिर छू लेने का पागलपन,
बरस चला, जो घन,
पतझड़ में, वही सावन का वन,
करे यतन,
वही पाना चाहे मन!

जो हाथों से परे.....

दूर जितना, वो क्षितिज,
प्रबल होते उतने, अतृप्ति के बीज,
होते, अंकुरित रोज,
शून्य में, क्षितिज की ही खोज,
अलब्ध जो,
वही पाना चाहे मन!

जो हाथों से परे.....

कैद भला, कब वो होते,
बहते पवन, इक ठांव कहां रुकते,
अक्सर, चुभो जाते,
छुवन भरे, कई हौले से कांटे,
जो डसते,
वही पाना चाहे मन!

जो हाथों से परे.....

पूर्ण, अतृप्त चाह कहां,
आस लिए, यह मानव, मरता यहाँ,
पाने को, दोनो जहां,
मानव, घृणित पाप करता यहां,
स्वार्थ पले,
वही पाना चाहे मन!

जो हाथों से परे.....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

आभार ......

Friday, 16 September 2022

बेचैनियाँ


न मन है, जमीं पर कहीं,
न मन की आहटें,
उमरता, सन्नाटों में, बिखरता वो बादल,
किससे, कहे,
अपनी, बेचैनियों के किस्से!

बहा लिए जाए, ये अल्हड़ पवन,
चल दे, कहीं छोड़ कर,
सूने पर्वतों के, उन्हीं मोड़ पर,
कल, छोड़ आए,
थे जिसे!

ले उड़े कहीं, बन्द, दायरों से परे,
तोड़ कर, वो, बंध सारे,
बह चले , फिर उन रास्तों पर,
कल, भूल आए,
थे जिसे!

गगन के, दो किनारे, दूर कितने,
हारे-बेसहारे, वो सपने,
चाहे बांधना वो, अंकपाश में,
ना, बिसार पाए,
थे जिसे!

न मन है, जमीं पर कहीं,
न मन की आहटें,
उमरता, सन्नाटों में, बिखरता वो बादल,
किससे, कहे,
अपनी, बेचैनियों के किस्से!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 13 August 2022

घन


हौले से, आ बरसो, हृदय के आंगन में,
यूं जैसे, घन बरसे सावन में!

पहले छा जाना, मन को भा जाना,
धुंधला सा, ये गहरा आंचल, फिर फैलाना,
उतर आना, इक बदली सा आंगन में!

हौले से, आ बरसो, हृदय के आंगन में!

यूं भर लेना नैनों में थोड़ा काजल,
ज्यूं रात, मचल कर,  गाती हो एक ग़ज़ल,
और साज कहीं, बजते हों उपवन में!

हौले से, आ बरसो, हृदय के आंगन में!

फिर चाहे तू कहना मन की व्यथा,
या रखना, मन की बातें, मन में ही सर्वथा,
उतर आना, नीर सरीखे, नयनन में!

हौले से, आ बरसो, हृदय के आंगन में!

सूना ये आंगन, संवर जाए थोड़ा,
सरगम की छमछम से, भर जाए ये जरा,
बज उठे शंख कई, इस सूनेपन में!

हौले से, आ बरसो, हृदय के आंगन में,
यूं जैसे, घन बरसे सावन में!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 5 August 2022

संवेदना


जगाएगी, उम्र भर,
इस सफर में, दे ही जाएगी वेदना!
ये संवेदना!

संवेदनाओं से विमुख, रहा कौन?
बस चीर जाती है हृदय, किसी का मौन!
तड़पा जाती है, चेतना,
यूं चुभोती इक कसक, मन के आंगना,
जगाएगी, उम्र भर, 
ये संवेदना!

इस सफर में, दे ही जाएगी वेदना!

गर न हो, तेरा, हृदय एक पाषाण,
शर्म हो, खुद को कहलाने में एक इन्सान,
सो ना चुकी हो, चेतना,
बींध जाएगी, मन को, किसी की वेदना,
जगाएगी, उम्र भर, 
ये संवेदना!

इस सफर में, दे ही जाएगी वेदना!

गर सुन सको, तुम, उनकी चीखें,
आह, किसी की, आ तेरे कदमों को रोके,
पड़े, यूं नींद से जागना,
अन्त:करण, देने लगे तुझको उलाहना,
जगाएगी, उम्र भर, 
ये संवेदना!

इस सफर में, दे ही जाएगी वेदना!

जगाएगी, उम्र भर,
इस सफर में, दे ही जाएगी वेदना!
ये संवेदना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 3 August 2022

काश


धुंधली सी, वो परछाईं,
याद बहुत आई!

काश, वो एहसास, सुखद न होते इतने,
काश, लगते, इतने न वो अपने,
काश, आते न वो सपने,
यूं दूर बैठी, सिमटी वो परछाईं,
याद बहुत आई!

धुंधली सी, वो परछाईं,
याद बहुत आई!

काश, कुम्भला जाते ये खिले एहसास,
काश, न आते, वो मन को रास,
काश, यूं भूल जाते हम,
वो बदली, बरस भी न जो पाई,
याद बहुत आई!

धुंधली सी, वो परछाईं,
याद बहुत आई!

काश, छू न लेती यूं परछाइयाँ हमको,
काश, यूं न बांधती यहां हमको,
काश, बहती न, ये पवन,
कह गई जो, वही इक कहानी,
याद बहुत आई!

धुंधली सी, वो परछाईं,
याद बहुत आई!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 1 June 2022

शक


बेशक दुश्मन बड़ा, मन इक शक भरा!

उस मन, पल न सका इक पौधा विश्वास का,
भरोसे का, उग न सका, इक बीज,
शक, बेशक बांझ करे मन को,
डसे, पहले खुद को,
फिर, रह-रह, दे मन को दर्द बड़ा!

बेशक दुश्मन बड़ा, मन इक शक भरा!

उजड़ी, फुलवारी, कितनी ही, मन की क्यारी,
मुरझाए, आशाओं के, वृक्ष सभी,
बिखर चले, मन उप-वन सारे,
सूख चली, वो नदी,
जो सदियों, पर्वत के, शीश चढ़ा!

बेशक दुश्मन बड़ा, मन इक शक भरा!

सशंकित मन, विचरे निर्मूल शंकाओं के वन,
पाले, बर-बस, निरर्थक आशंका,
विराने, पथ पर, घन में घिरा,
ढूंढ़े, अपना ही पग,
अनिर्णय के, उन राहों पर खड़ा!

बेशक दुश्मन बड़ा, मन इक शक भरा!

निर्मल इक संसार, इस, बादल के उस पार,
बहती है, शीतल सी, एक पवन,
शक के बादल, उड़ जाने दे,
मन, जुड़ जाने दे,
टूट न जाए शीशा, विश्वास भरा!

बेशक दुश्मन बड़ा, मन इक शक भरा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 31 August 2021

पीछे छूटा क्या

कोई, क्या जाने, पीछे छूटा क्या!
कितना, टूटा क्या!

वो वृक्ष घना था, या इक वन था,
सावन था, या इक घन था,
विस्तृत जीवन का, लघु आंगन था,
विस्मित करता, वो हर क्षण था!

कोई क्या जाने, पीछे छूटा क्या!

वो बचपन था, या अल्हड़पन था,
यौवन में डूबा, इक तन था,
इक दर्पण था, या, मेरा ही मन था,
कंपित होता, हर इक कण था!

कोई क्या जाने, पीछे छूटा क्या!

वो आशाओं का, अवलोकन था,
अदृश्य भाव का, दर्शन था,
भावप्रवण होता, गहराता क्षण था,
विह्वल सा, वो आकुल मन था!

कोई, क्या जाने, पीछे छूटा क्या!
कितना, टूटा क्या!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 29 August 2021

मन पंछी

ये मन पंछी, उन्हें ही याद करे,
इस गगन से, 
उन्हें, कैसे आजाद करे!

झूले कैसे, गगन का ये झूला,
भरे, पेंग कैसे, 
पड़ा, तन्हा अकेला,
तन्हाईयाँ, वो आबाद करे!

ये मन पंछी, उन्हें ही याद करे!

बरबस, खींच लाए, वो साए,
देखे, भरमाए,
करे, कोरी कल्पना,
भरे रंग, वो मन शाद करे!

ये मन पंछी, उन्हें ही याद करे!

भटके ना, कहीं डाली-डाली,
भूले ना, राह,
चाहतों का, गाँव,
वियावानों में, आबाद करे!

ये मन पंछी, उन्हें ही याद करे!

रंग सारे, यूँ बिखरे गगन पर,
रंगी, ये नजारे,
भाए ना, रंग कोई,
ना ही, दूजा फरियाद करे!

ये मन पंछी, उन्हें ही याद करे,
इस गगन से, 
उन्हें, कैसे आजाद करे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 28 July 2021

तन और मन

दिन-दिन, चिन्तित, ये तन गलै,
बेपरवा मन, अपनी ही राह चलै,
तन, कब चंचल मन की सुनै,
मन, तन की, कब परवाह करै!

सावन की बूँदों संग, भीगे तन,
भीगे से मौसम संग, तरसे ये मन,
भिन्न, परस्पर, तन और मन,
चुन कर, राह अलग, चले मन!

मन झांके, गुजरे से गलियों में,
खुश्बू ढूंढे, सूखे बन्द कलियों में,
भटके ये मन, उन वीरानों में,
रखा है क्या, उन अफसानों में!

धुँधलाती, वो राहें, वो गलियाँ, 
भरमाती है, वो बाहें, वो दुनियाँ,
बस तन्हाई, पलती हो जहाँ,
लौट वहाँ तब, जाए तन कहाँ!

तन का बैरी, येही चंचल मन,
चढ़ती उमर तले, ढ़ल जाए तन,
पाए चैन कहाँ, प्यासा मन,
तन की परवाह, करै कब मन!

दिन-दिन, तिल-तिल तन गलै,
बेफिक्र मन, अपनी ही राह चलै,
यह मन, कब तन संग ढ़लै,
दिन-दिन, मन, लापरवाह बनै!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
(सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 21 July 2021

भटकाव

पाकर भी, कौन किसे पाता है....
बस भरमाता है, मन,
तरपाता है क्षण!

तन तक, सीमित, रहती नहीं चाहत,
रूह कहीं, पाती नहीं राहत,
बुझती, ये प्यास नहीं,
प्यासा कण-कण, भटकता वन-वन,
सिमटता, यह रेगिस्तान नहीं,
फैलाव., भटकाता है!

पाकर भी, कौन किसे पाता है....

बिखरे पल, सिमटते, कब दामन में,
टूटे मन, भटकते इस तन में, 
पाते, मन आस नहीं,
दो पल, गर बहल भी जाए, दो तन,
मिलता, इन्हें समाधान नहीं,
विलगाव, भरमाता है!

पाकर भी, कौन किसे पाता है....

बेघर एहसासों को, कोई ठौर मिले,
ठहरी साँसों को, मोड़ मिले,
पर, वो जज्बात नही,
सूखे पतझड़ सा, उजाड़ ये उपवन,
खिलाते, इक अरमान नहीं,
भटकाव, तरसाता है!

पाकर भी, कौन किसे पाता है....
बस भरमाता है, मन,
तरपाता है क्षण!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

चली रे

चली रे, ये पुरवा, कहाँ ले चली रे!

खुद भटके, भटकाए, कौन दिशा ले जाए,
बहा उस ओर, कहाँ ले जाए,
जाने, कौन गली रे!

चली रे, ये पुरवा, कहाँ ले चली रे!

बिछड़े गाँव सभी, बह गए बंधे नाव सभी,
तिनके-तिनके, बिखरे मन के,
खाली, हर डाली रे!

चली रे, ये पुरवा, कहाँ ले चली रे!

नई सी हर बात, करे है मन के पात-पात,
नव-स्वप्न तले, ढ़ल जाए रात,
इक साँस, ढ़ली रे!

चली रे, ये पुरवा, कहाँ ले चली रे!

पीछे छूट चले, कितनी बातें, कितने बंध,
निशिगधा के, वो महकाते गंध,
खोई, बंद कली रे!

चली रे, ये पुरवा, कहाँ ले चली रे!

वो डगर, वो ही घर, चल, वापस ले चल,
या, ले आ, वो सारे बिछड़े पल,
वही, नेह गली रे!

चली रे, ये पुरवा, कहाँ ले चली रे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 3 July 2021

मन भरा-भरा

मन, क्यूँ भरा-भरा सा है...
गीत, सावन ने, अभी तो, गाया जरा सा है!

यकीं था कि, पाषाण है, ये मन मेरा!
सह जाएगा, ये चोट सारा,
झेल जाएगा, व्यथा का हर अंगारा,
लेकिन, व्यथा की एक आहट,
पर ये भर्राया सा है!

मन, क्यूँ भरा-भरा सा है...
गीत, सावन ने, अभी तो, गाया जरा सा है!

भरम था कि, अथाह है ये मन मेरा!
जल, पी जाएगा ये खारा,
लील जाएगा, ये गमों का फव्वारा,
लेकिन, बादल की गर्जनाओं,
पर ये थर्राया सा है!

मन, क्यूँ भरा-भरा सा है...
गीत, सावन ने, अभी तो, गाया जरा सा है!

गिरी, इक बूँद, टूटा भरम ये सारा!
छूटा, मन पे यकीं हमारा,
लबा-लब सी भरी, मन की धरा,
बेवश, खड़ा हूँ किनारों पर,
मन, चरमराया सा है!

मन, क्यूँ भरा-भरा सा है...
गीत, सावन ने, अभी तो, गाया जरा सा है!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)