Showing posts with label पहाड़. Show all posts
Showing posts with label पहाड़. Show all posts

Monday, 9 March 2020

पहाड़ों पे

गुजारे थे कल, पहाड़ों पे कुछ पल....

विशाल हृदय, वो स्नेह भरा दामन, 
इक सम्मोहन, वो अपनापन,
विस्मित करते, वो आकर्षण के पल,
बसे, नज़रो में हैं, हर-पल!

गुजारे थे कल, पहाड़ों पे कुछ पल....

रोक रही राहें, खुली पर्वत सी बाँहें,
इक परदेशी, लौट कैसे जाए,
यूँ बांध गए थे, पाँवों में बेरी वो पल,
था तिलिस्म कोई, उस पल!

गुजारे थे कल, पहाड़ों पे कुछ पल....

संदेश कोई, ले आई थी मंद पवन, 
मैं, एकाग्र-चित्त, ध्यान मग्न,
सांध्य किरण, लाई थी इक सिहरन,
ठहरे वो पल, थे बड़े चंचल!

गुजारे थे कल, पहाड़ों पे कुछ पल....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)
.................................................
"पहाड़" हमेशा से ही हमारी अनुभूतियों को सजग करने में सक्षम रहे हैं,  जब भी इनकी ऊच्च शिखरों को देखता हूँ तो अनायास ही उस ओर खींचा चला जाता हूँ और लगता है जैसे "खुद को छोड़ आया हूँ उन पहाड़ों में ...."  -  पहाड़ों में 

Saturday, 18 January 2020

जलते रहना, ऐ आग!

जलते रहना, ऐ आग!
इक सम्मोहन सा है, तेरी लपटों में,
गजब सा आकर्षण है,   
जलाते हो,
पर खींच लाते हो, ध्यान!

जलते रहना, ऐ आग!
जलाते हो, प्रतीक चिर जीवन के,
कर स्वयं में समाहित,
ले अंकपाश,
आखिरी देते हो, सम्मान!

जलते रहना, ऐ आग!
जब तक, राख उठे लपटों से तेरी,
धुआँ-धुआँ, हो ये शमां,
जलना यहाँ,
या तू बन जाना, श्मशान!

जलते रहना, ऐ आग!
----------------------------------------------------------
रूखा-सूखा पहाड़ कोई नहीं देखने जाता। लेकिन, पहाड़ से उतरते झरनों को देखकर मन बरबस ही खिचा चला आता है। पहाड़  पर चढ़कर मनोरम व मनोहारी दृश्य देखना ही मन को भाता है।

कहीं आग लगे या लगाया जाय, तो सब मुड़-मुड़कर देखते हैं । अलाव या चिता जले तो सभी इकट्ठे होकर तापते या देखते हैं ।

मुझे लगता है कि, जरूरी नहीं है कि शब्द ज्यादा लिखे जाएँ, परन्तु जरूरी है कि शब्द की आत्मा यानि अन्तर्निहित भाव लिखी जाय, जो कि पल भर को झकझोर दे अन्तर्मन को।

अत:, शब्दों के पहाड़ से, कलकल करता कोई झरना बहे, पल-पल रिसता कोई भाव झरे तो बात ही कुछ और है। शब्द जले और आग या धुआँ ना उठे तो यह जलना व्यर्थ है।
----------------------------------------------------------

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 22 June 2019

प्रभा-लेखन

है यह, नव-प्रभात का स्पंदन!
या है यह, प्रकृति का, इक सर्वश्रेष्ठ लेखन!
या, खुद रचकर, इक नव-संस्करण,
प्रकृति, करती है विमोचन!

यूँ, रचती है प्रकृति, हर क्षण इक रचना,
सर्वश्रेष्ठ, सर्वदा देती है वो अपना,
थोड़ा सा आवर्तन, अप्रत्याशित सा परिवर्तन,
कर कोई, श्रृंगार अनुपम,
ले आती है नित्य, नव-प्रभात का संस्करण!

कलियों की आहट में, होती है इक लय,
डाली पर प्रस्फुट, होते हैं किसलय,
बूँदों पर ढ़लती किरणें, ले नए रंगों के गहने,
छम-छम करती, पायल,
उतरती है प्रभात, कितने आभूषण पहने!

किलकारी करती, भोर लेती है जन्म,
नर्तक भौंड़े, कर उठते हैं गुंजन,
कुहुकती कोयल, छुप-छुप करती है चारण,
संसृति के, हर स्पंदन से,
फूट पड़ती है, इसी प्रकृति का उच्चारण!

किरणों के घूँघट, ओढ़ आती है पर्वत,
लिख जाती है, पीत रंग में चाहत,
अलौकिक सी वो आभा, दे जाती है राहत,
मंत्रमुग्ध, हो उठता है मन,
बढ़ाता है प्रलोभन, भोर का संस्करण!

है यह, नव-प्रभात का स्पंदन!
या है यह, प्रकृति का, इक सर्वश्रेष्ठ लेखन!
या, खुद रचकर, इक नव-संस्करण,
प्रकृति, करती है विमोचन!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Saturday, 11 November 2017

पहाड़ों में

उन पहाड़ों में कहीं, खुद को छोड़ आया था मैं....

विशाल होकर भी कितनी शालीन,
उम्रदराज होकर भी नित नवीन,
एकांत में रहकर भी कितनी हसीन,
मुखर मौन, भाव निरापद और संज्ञाहीन....

उन पहाड़ों में कहीं, खुद को छोड़ आया था मैं....

ताप में रहकर भी कितनी शीतल,
शांत रहकर भी लगती चंचल,
दरिया बनकर बह जाती कलकल,
प्रखर सादगी, उदार चेतना और प्रांजल......

उन पहाड़ों में कहीं, खुद को छोड़ आया था मैं....

न ही कोई द्वेष, न ही कोई दुराव,
सबों के लिए एक सम-भाव,
न आवश्यकता, न कोई अभाव,
शिखर उत्तुंग, शालीन और विनम्रभाव.......

उन पहाड़ों में कहीं, खुद को छोड़ आया था मैं....
-------------------------------------------------------------------सम्मान@
*"राष्ट्रीय सागर"* में प्रकाशित मेरी कविता *"उन पहाड़ों मे"अंक देखना हो तो avnpost.com ke epaper पर देखें। या सीधे epaperrashtriyasagar.com पर *पेज 6* पर देखें।

यह लिंक भी देखें .......   ----   पहाड़ों पे   ----