Showing posts with label आहट. Show all posts
Showing posts with label आहट. Show all posts

Tuesday, 2 August 2022

आहट


घुल रही है, यूं फिजा में आहट किसी की ....

हर तरफ, एक धुंधली सी नमीं,
भीगी-भीगी, सी ज़मीं,
हैं नभ पर बिखेरे, किसी ने आंचल,
और बज उठे हैं, गीत छलछल,
हर तरफ इक रागिनी!

घुल रही है, यूं फिजा में आहट किसी की ....

पल-पल, धड़कता है, वो घन,
कांप उठता, है ये मन,
झपक जाती हैं, पलकें यूं चौंक कर,
ज्यूं, खड़ा कोई, राहें रोककर,
अजब सी, दीवानगी!

घुल रही है, यूं फिजा में आहट किसी की ....

हो न हो, ये सरगम, है उसी की,
है मद्धम, राग जिसकी,
सुरों में, सुरीली है आवाज जिसकी,
छेड़ जाते हैं, जो सितार मन के,
कर दूं कैसे अनसुनी?

घुल रही है, यूं फिजा में आहट किसी की ....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 3 July 2021

मन भरा-भरा

मन, क्यूँ भरा-भरा सा है...
गीत, सावन ने, अभी तो, गाया जरा सा है!

यकीं था कि, पाषाण है, ये मन मेरा!
सह जाएगा, ये चोट सारा,
झेल जाएगा, व्यथा का हर अंगारा,
लेकिन, व्यथा की एक आहट,
पर ये भर्राया सा है!

मन, क्यूँ भरा-भरा सा है...
गीत, सावन ने, अभी तो, गाया जरा सा है!

भरम था कि, अथाह है ये मन मेरा!
जल, पी जाएगा ये खारा,
लील जाएगा, ये गमों का फव्वारा,
लेकिन, बादल की गर्जनाओं,
पर ये थर्राया सा है!

मन, क्यूँ भरा-भरा सा है...
गीत, सावन ने, अभी तो, गाया जरा सा है!

गिरी, इक बूँद, टूटा भरम ये सारा!
छूटा, मन पे यकीं हमारा,
लबा-लब सी भरी, मन की धरा,
बेवश, खड़ा हूँ किनारों पर,
मन, चरमराया सा है!

मन, क्यूँ भरा-भरा सा है...
गीत, सावन ने, अभी तो, गाया जरा सा है!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 18 April 2021

उभरता गजल

सांझ के, बादल तले,
उभर आए हो, बनकर इक गजल,
देखें किसे!

दैदीप्य सा, इक चेहरा, है वो,
सब, नूर कहते हैं जिसे,
पिघल कर, उतर आए जमीं पर,
चाँद कहते हैं,
हम उसे!

सांझ के, बादल तले...

बड़ी ही, सुरीली सी सांझ ये,
सब, गीत कहते हैं जिसे,
जो, नज्म बनकर, गूंजे दिलों में, 
गजल कहते हैं, 
हम उसे!

सांझ के, बादल तले...

चह-चहाहट, या तेरी आहट,
कलरव, समझते हैं उसे,
सुरों की, इक लरजती रागिणी,
संगीत कहते हैं,
हम उसे!

सांझ के, बादल तले,
उभर आए हो, बनकर इक गजल,
देखें किसे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 2 June 2020

गौण

वो, जो गौण था!
जरा, मौन था!
वो, तुम न थे, तो वो, कौन था?

मंद सी, बही थी वात,
थिरक उठे थे, पात-पात,
मुस्कुरा रही, थी कली,
सज उठी, थी गली,
उन आहटों में, कुछ न कुछ, गौण था!
वो, तुम न थे, तो वो कौन था

सिमट, रही थी दिशा,
मुखर, हो उठी थी निशा,
जग रही थी, कल्पना,
बना एक, अल्पना,
उस अल्पना में, कुछ न कुछ, गौण था!
वो, तुम न थे, तो वो कौन था

वो ख्वाब का, सफर,
उनींदी राहों पे, बे-खबर,
वो जागती, बेचैनियाँ,
शमां, धुआँ-धुआँ,
उस रहस्य में, कुछ न कुछ, गौण था!
वो, तुम न थे, तो वो कौन था

वो, जो गौण था!
जरा, मौन था!
वो, तुम न थे, तो वो, कौन था?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday, 2 March 2020

कैसी फगुनाहट

संग हो, उम्मीदों की आहट!
तुम, तब ही आना, ऐ फगुनाहट!

खून-खून, है ये फागुन,
धुआँ-धुआँ, उम्मीदें,
बिखरे, अरमानों के चिथरे,
चोट लगे हैं गहरे,
हर शै, इक बू है साजिश की,
हर बस्ती, है मरघट!

संग हो, उम्मीदों की आहट!
तुम, तब ही आना, ऐ फगुनाहट!

छलनी-छलनी, ये मन,
छलकी सी, आँखें,
छूट चले, आशा के दामन,
रूठ चले हैं रंग,
डूब चुके, हृदय के तल-घट,
छूट, चुके हैं पनघट!

संग हो, उम्मीदों की आहट!
तुम, तब ही आना, ऐ फगुनाहट!

बस्ती थी, ये कल-तक,
है अब, ये मरघट,
घुल चुके भंग, इन रंगों में,
धुल चुके हैं अंग,
उड़ चले गुलाल, सपनों से,
अब कैसी, फगुनाहट!

संग हो, उम्मीदों की आहट!
तुम, तब ही आना, ऐ फगुनाहट!
हूँ, दंगों से आहत!
ऐ फगुनाहट!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)
--------------------------------------------
कैसी फगुनाहट (मेरी आवाज मे You Tube पर इस रचना को सुनें)
https://youtu.be/jV0W5oNbBAU

Tuesday, 11 February 2020

रुग्ध मन

दुग्ध रौशन,
मुग्ध मंद पवन,
रुग्ध ये मन!

बहकी घटा,
हलकी सी छुवन,
गुम ये मन!

खिलती कली,
हिलती डाल-डाल,
क्षुब्ध ये मन!

 सुरीली धुन, 
फिर वो रूनझुन, 
डूबोए मन!

बहते नैन,
पल भर ना चैन, 
करे बेचैन!

गाती कोयल,
भाए न इक पल, 
करे बेकल!

 वही आहट,
वो ही मुस्कुराहट,
भूले न मन!

खुद से बातें, 
खुद को समझाते,
रहे ये मन!

अंधेरी रातें,
फिर वो सौगातें,
ढ़ोए ये मन!

ना कोई कहीं, 
कहें किस से हम,
रोए ये मन!

दुग्ध रौशन,
मुग्ध मंद पवन,
रुग्ध ये मन!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)
----------------------------------------------
हाइकु - कविता की एक ऐसी विधा, जिसकी उत्पत्ति जापान में हुई और जिसके बारे में आदरणीय रवीन्द्रनाथ ठाकुर जी ने कहा कि "एइ कवितागुलेर मध्ये जे केवल वाक्-संयम ता नय, एर मध्ये भावेर संयम।" अर्थात, यह सिर्फ शब्द संयोजन नहीं, इसके मध्य एक भाव संयोजन है।

Saturday, 24 August 2019

धुंध

बिंब है वो, या प्रतिबिम्ब है आप का!
या धुंध के साये तले, ख्वाब है वो रात का!

दबी सी आहटों में, आपका आना,
फिर यूँ, कहीं खो जाना,
इक शमाँ बन, रात का मुस्कुराना,
पिघलते मोम सा, गुम कहीं हो जाना,
भर-भरा कर, बुझी राख सा,
आगोश में कहीं,
बिखर जाना आप का!

बिंब है वो, या प्रतिबिम्ब है आप का!
या धुंध के साये तले, ख्वाब है वो रात का!

अक्श बन कर, आईने में ढ़लना,
रूप यूँ, पल में बदलना,
पलकों तले, इक धुंध सा छाना,
टपक कर बूँद सा, आँखों में आना,
टिम-टिमा कर, सितारों सा,
निगाहों में कहीं,
विलुप्त होना आप का!

बिंब है वो, या प्रतिबिम्ब है आप का!
या धुंध के साये तले, ख्वाब है वो रात का!

दिवा-स्वप्न सा, हर रोज छलना,
संग यूँ, कुछ दूर चलना,
उन्हीं राह में, कहीं बिछड़ना,
विरह के गीत में, यूँ ही ढ़ल जाना,
निकल कर, उस रेत सा,
इन हाथों से कहीं,
फिसल जाना आप का!

बिंब है वो, या प्रतिबिम्ब है आप का!
या धुंध के साये तले, ख्वाब है वो रात का!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Friday, 19 April 2019

रिश्तों की चाय

फीकी ही सही, चाय, गर्म तो हो मगर,
रिश्ते ना सही, मायने, रिश्तों के तो हों मगर!

सिमट कर रह गए, रिश्तों के खुले पर,
महज औपचारिकताओं के, जकड़े पाश में
उड़ते नही ये, अब खुले आकाश में!

चहचहाते थे कभी, मीठी प्यालियों में,
उड़ते थे ये कभी, चाय संग सर्द मौसमों में,
अब बची, औपचारिकताएँ चाय में!

फीकी सी हुई, रिश्तों की सुगबुगाहट,
अब कहाँ है, चाय के प्यालियों की आहट,
हो न हो चीनी, कम गई है चाय में!

या जरूरतें! या स्वार्थ! हुई हैं प्रभावी,
या झूठी तरक्की, सब पे हो चुकी हैं हावी,
कम हो चुकी है, गर्माहट चाय में!

फीकी ही सही, चाय, गर्म तो हो मगर,
रिश्ते ना सही, मायने, रिश्तों के तो हों मगर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Thursday, 25 October 2018

श्वेत-श्याम

होने लगी है, श्वेत-श्याम अब ये शाम,
लगने लगी है, इक अजनबी सी अब ये शाम....

इक गगन था पास मेरे.....
विस्तार लिए, भुजाओं का हार लिए,
लोहित शाम, हर बार लिए,
रंगो की फुहार, चंचल सी सदाएं,
वो सरसराहट, उनके आने की आहट,
पहचानी सी कोई परछांईं,
थी हर एक शाम, इक पुकार लिए.....

हो चला अब, बेरंग सा वो ही गगन,
होने लगी अब, श्वेत-श्याम हर एक शाम....

इक गगन अब पास मेरे.....
निस्तेज सा, संकुचित विस्तार लिए,
श्वेत श्याम सा उपहार लिए,
धुंध में घिरी, संकुचित सी दिशाएं,
न कोई दस्तक, न आने की कोई आहट,
अंजानी सी कई परछांई,
बेरंग सी ये शाम, उनकी पुकार लिए.....

मलीन रंग  लिए, तंज कसती ये शाम,
लगने लगी है, इक अजनबी सी अब ये शाम....

Wednesday, 29 March 2017

क्युँ गाए है घुंघरू!

छुन-छुन रुन-झुन की धुन फिर क्युँ गाए हैं ये घुंघरू.....

कोई आहट पर भरमाए है ये मन क्युँ,
बिन कारण के इतराए है ये मन क्युँ,
कोई समझाए इस मन को, इतना ये इठलाए है क्युँ,
बिन बांधे पायल अब नाचे है ये पग क्युँ,
छुन-छुन रुन-झुन की धुन क्युँ गाए हैं ये घुंघरू.....

कोई कल्पित दृश्य पटल पर उभरे है क्युँ,
अब बिन ऐनक सँवरे है ये मन क्युँ,
कभी उत्श्रृंखल तो, कभी चुपचुप सा ये रहता है क्युँ,
कभी गुमसुम सा कहता कुछ नहीं है क्युँ,
छुन-छुन रुन-झुन की धुन क्युँ गाए हैं ये घुंघरू.....

कोई संग-संग गाए तो ये मन गाए ना क्युँ,
राग कोई छेड़े तो मन इठलाए ना क्युँ,
रिझाए जब मौसम की धुन, मयूर सा मन नाचे ना क्युँ,
बतलाए कोई आहट पर भरमाए ना ये मन क्युँ,
छुन-छुन रुन-झुन की धुन क्युँ गाए ना ये घुंघरू.....

कोई बुत सा ये मन, फिर बन जाए है क्युँ,
दिल की अनसूनी ये कर जाए है क्युँ,
छेड़ मिलन के गीत, फिर नैनों में ये भर जाए है क्युँ,
तन्हा रातों में आहट से भरमाए है ये मन क्युँ,
छुन-छुन रुन-झुन की धुन फिर क्युँ गाए हैं ये घुंघरू.....

Thursday, 3 November 2016

उनकी आहट

भरम सा हो रहा है मन को, या ये आहट है उनकी.....?

फैली है पहचानी सी खुश्बू फिजाओं में पल पल,
गूंज रही इक आवाज दिशाओं में हर पल,
तोड़ रही ये खामोशी, विरान दिल के प्रतिपल,
रह रहकर इन हवाओं में,ये कैसी है हलचल.......!

भरम सा हो रहा है मन को, या ये आहट है उनकी.....?

क्यूँ आँखों से अदृश्य अब तक है वो प्रतिकृति,
क्या आहट है यह किसी मूक आकृति की,
गुंजित हैं फिर मेरा मन धुन पर किस सरगम की,
मन से निकल रही है क्यूँ इक आह सी....!

भरम सा हो रहा है मन को, या ये आहट है उनकी.....?

झूमती इन पत्तियों में ये सरसराहट है फिर कैसी,
छुअन सी इक सिहरन बदन में है ये कैसी,
जेहन में हर पल गूंजती फिर ये आवाज है कैसी,
एहसास नई सी जागी दिल मे आज है कैसी.......!

भरम सा हो रहा है मन को, या ये आहट है उनकी.....?

Sunday, 20 March 2016

भटकता मन

भीड़ मे इस दुनियाँ की,
एकाकी सा भटकता मेरा मन......

तम रात के साए में,
कदमों के आहट हैं ये किसके,
सन्नाटे को चीरकर,
ज उठे हैं फिर प्राण किसके।

चारो तरफ विराना,
फिर धड़कनों में बजते गीत किसके,
मन मेरा जो आजतक मेरा था,
अब वश में किस कदमों की आहट के।

टटोलकर मन को देखा तब जाना...

वो तो मेरा एकाकी मन ही है
भटक रहा है जो इस रात के विराने में,
वो तो हृदय की गति ही मेरी है,
धड़क रही जो बेलगाम अश्व सी अन्तः में।

भीड़ मे इस दुनियाँ की,
एकाकी सा भटकता मेरा मन......