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Tuesday, 14 November 2023

मध्य कहीं


मध्य कहीं, हर बातों में ......

ये किसके चर्चे, कर उठता है मन,
ले कर इक, अल्हरपन!
महसूस कराता, बिन मौसम इक सावन,
मध्य कहीं....
ठहराव लिए, जज्बातों में!
 
अब तो, बह आती इक खुश्बू सी,
छा उठता, इक जादू सा,
नज़रें टिक जाती, उस विस्तृत नभ पर,
मध्य कहीं....
इक इंतजार लिए, रातों में!

खोए वो पल, सपनों सी रातों में,
आए ही कब, हाथों में,
अल्हरपन में, बस उन्हीं पलों के चर्चे,
मध्य कहीं....
करता ये मन, हर बातों में!

शायद, ढूंढे, मन अपना मनचाहा,
अंजाना सा, इक साया,
डूबते-उपलाते, निरर्थक बहते पल के,
मध्य कहीं....
अर्थ कोई, बहकी रातों में!

मध्य कहीं, हर बातों में ......

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 13 July 2022

कभी यूं ही


यूं ही.....

कभी यूं ही, रुक जाती हैं पलकें,
दर्द कभी, यूं हल्के -हल्के,
उस ओर कभी, मुड़ जाते हैं सब रस्ते,
कभी इक वादा खुद से,
न गुजरेंगे, 
फिर, उन रस्तों से!

यूं ही.....

कभी यूं ही, दे जाए बहके लम्हें,
उलझे शब्दों के, अनकहे,
खोले, राज सभी, बहके जज्बातों के,
स्वप्निल, सारी रातों के,
नींद चुरा ले,
अपनाए, गैर कहाए!

यूं ही.....

कभी यूं ही, आ जाए ख्वाबों में,
बिसराए, उलझी राहों में,
दो लम्हा, वो ही यहां, ठहरा बाहों में,
ठहरे से, जाते लम्हों में,
आए यादों में,
तरसाए, हर बातों में!

यूं ही.....

कभी यूं ही, रुकते ये धार नहीं,
सपने, सब साकार नहीं,
बारिश की बादल का, आकार नहीं,
निर्मूल, ये आधार नहीं,
ये प्यार नहीं,
तू, क्यूं ढूंढ़े ठौर यहीं!

यूं ही.....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 15 January 2022

ईश्क

उस मुकम्मल ईश्क की ये शुरुआत है!

गर अटक जाएं, कहीं ये पलकें,
तो समझिए, मुकम्मल ईश्क की ये शुरुआत है!
पर, बस कैद होकर, रह गए कितने नजारे,
और, ये दिल भी हारे,
कितनी, अलग सी ये बात है!

उस मुकम्मल ईश्क की ये शुरुआत है!

फिर, उन्हें ही ढ़ूंढ़ती, ये पलकें,
और, उन्हीं फासलों में, मचले कहीं जज्बात हैं!
ये, धुंधलाती नजर, भूल पाती हैं कब उन्हें,
ख़ामोश, ये लब कहे,
ईश्क की, अलग ही बात है!

उस मुकम्मल ईश्क की ये शुरुआत है!

वो तो रहे, इधर के ना उधर के,
वश में रख सके ना, जो धड़कनों के हालात हैं!
इक दरिया ईश्क का यह, डूबे या कि उबरे,
या बिखरे, और सँवरे,
अपने, नसीबों की ये बात है!

उस मुकम्मल ईश्क की ये शुरुआत है!

ये, झौंके पवन के, हल्के-हल्के,
शायद, गुजरे पलों के, यादों की इक बारात है!
पर, कह गईं कुछ, पलकों तले, ये दो बूंदें,
जा वहीं, तोर कर हदें,
जिधर, इक नई शुरुआत है!

उस मुकम्मल ईश्क की ये शुरुआत है!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 4 September 2021

ये शहर

छोड़िए भी, शहर से बेहतर थी मेरी गली।

न दिन का पता, न खबर शाम की,
जिन्दगी, सिर्फ यहाँ नाम की,
कितनी अधूरी, हर भोर, 
और, अधूरी सी, हर शाम हो चली!

छोड़िए भी, शहर से बेहतर थी मेरी गली।

अधूरे से, कुछ गीत, रहे सदियों मेरे,
टूटे, अभिलाषाओं के तानपूरे,
चुप-चुप, रही ये वीणा,
और, अधखिली उमंगों की कली!

छोड़िए भी, शहर से बेहतर थी मेरी गली।

भोर, चितचोर लगे, तो ये मन जागे,
ये बांध ले, जज्बातों के धागे,
छाए, अंधियारे से साए,
और, सिमटती सी, हर भोर मिली!

छोड़िए भी, शहर से बेहतर थी मेरी गली।

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday, 2 August 2021

कर कुछ बात

ऐ रात, तू ही कर, कुछ बात,
बयां तू ही कर, क्या हैं तेरे हालात!

तू, मेरी बात न कर,
छोड़ आया, कहीं, मैं उजालों का शहर,
जलते, अंगारों का सफर,
भड़के, जज्बात!

बयां तू ही कर, क्या हैं तेरे हालात!

है तेरी बातें, अलग,
सोए रातों में, जागे जज्बातों का विहग,
बुझे, जली आग सुलग,
संभले, लम्हात!

बयां तू ही कर, क्या हैं तेरे हालात!

तू है, तारों का सफर,
सुलगते अंगारों से, भला तुझे क्या डर,
यूँ, सर्द आहें, तू ना भर,
भीगे, पात-पात!

बयां तू ही कर, क्या हैं तेरे हालात!

मैं तो, दिन का जला,
मीलों, उम्र भर संग, अनथक मैं चला,
पर, अचानक वो ढ़ला,
कहाँ कोई, साथ!

ऐ रात, तू ही कर, कुछ बात,
बयां तू ही कर, क्या हैं तेरे हालात!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 9 April 2021

उभर आओ ना

उभर आओ ना, बन कर इक हकीकत,
सिमटोगे, लकीरों में, कब तक!

झंकृत, हो जाएं कोई पल,
तो इक गीत सुन लूँ, वो पल ही चुन लूँ,
मैं, अनुरागी, इक वीतरागी,
बिखरुं, मैं कब तक!

उभर आओ ना, बन कर इक हकीकत..

आड़ी तिरछी, सब लकीरें,
यूँ ही उलझे पड़े, कब से तुझको ही घेरे,
निकल आओ, सिलवटों से,
यूँ देखूँ, मैं कब तक! 
   
उभर आओ ना, बन कर इक हकीकत..

उतरे हो, यूँ सांझ बन कर,
पिघलने लगे हो, सहज चाँद बन कर,
यूँ टंके हो, मन की गगन पर,
निहारूँ, मैं कब तक!

उभर आओ ना, बन कर इक हकीकत..

खोने लगे हैं, जज्बात सारे,
भला कब तक रहें, ख्वाबों के सहारे,
नैन सूना, ये सूना सा पनघट,
पुकारूँ, मैं कब तक!

उभर आओ ना, बन कर इक हकीकत,
सिमटोगे, लकीरों में, कब तक!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 4 April 2021

अश्क जितने

अश्क जितने, इन नैनों की निधि में,
बंध न पाएंगे, परिधि में!

बन के इक लहर, छलक आते हैं ये अक्सर,
तोड़ कर बंध,
अनवरत, बह जाते है,
इन्हीं, दो नैनों में!

अश्क जितने, इन नैनों की निधि में..

हो कोई बात, या यूँ ही बहके हों ये जज्बात, 
डूब कर संग,
अश्कों में, डुबो जाते हैं,
पल, दो पल में!

अश्क जितने, इन नैनों की निधि में...

कब छलक जाएँ, भड़के, और मचल जाएँ,
बहा कर संग,
कहीं दूर, लिए जाते है,
सूने से, आंगण में!

अश्क जितने, इन नैनों की निधि में...

रोके, ये रुके ना, बन्द पलकों में, ये छुपे ना,
कह कर छंद,
पलकों तले, कुछ गाते हैं,
खुशी के, क्षण में!

अश्क जितने, इन नैनों की निधि में...

जज्बात कई, अश्कों से भरे ये सौगात वही,
भिगो कर संग,
अलकों तले, छुप जाते हैं,
गमों के, पल में!

अश्क जितने, इन नैनों की निधि में...
बंध न पाएंगे, परिधि में!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 5 November 2020

हैं हालात क्या?

है बात क्या?
पूछे है कोई, दिल से मेरे,
जीर्ण जज़्बातों के हैं,
हालात क्या?

सूनी ये सड़क है, न अन्दर धड़क है,
खोए, गुम-सुम से हैं, बड़े चुप-चुप से हैं, 
ओढ़े हैं, खामोशियाँ!
जागे एहसासों के हैं, हालात क्या?

है बात क्या?
पूछे है कोई, दिल से मेरे, 
जज्ब जज़्बातों के हैं,
हालात क्या?

आता नहीं, अब कोई इस मोड़ तक,
खुशियाँ नहीं, शहर के किसी छोड़ तक,
पसरी है, विरानियाँ!
भीगी साहिलों के हैं, हालात क्या?

है बात क्या?
पूछे है कोई, दिल से मेरे,
जज्ब जज़्बातों के हैं,
हालात क्या?

मुद्दतों हुए, तुम कहाँ, खुल कर हँसे,
आ किसी कैदखाने में, खुद ही हो फ॔से,
गुम है, जिन्दगानियाँ!
लुटे चैनो-भ्रम के हैं, हालात क्या?

है बात क्या?
पूछे है कोई, दिल से मेरे,
जज्ब जज़्बातों के हैं,
हालात क्या?

शर्मसार, कर ना जाएं, कल ये तुम्हें,
रूठकर, मुड़ ना जाएं, हाथों से ये लम्हे,
कैसी है, रुसवाईयाँ!
बीते लम्हातों के हैं, हालात क्या?

है बात क्या?
पूछे कोई, दिल से मेरे,
जीर्ण जज़्बातों के हैं,
हालात क्या?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 23 June 2020

जिज्ञासा

रह जाए जैसे, जिज्ञासा!
रह गए हो तुम, वैसे ही, जरा सा!

नजर में समेटे, दिव्य आभा,
मुखर, नैनों की भाषा,
चुप-चुप, बड़े ही, मौन थे तुम,
न जाने, कौन थे तुम?

हौले-हौले, प्रकंपित थी हवा,
विस्मित, थे क्षण वहाँ,
कुछ पल, वहीं था, वक्त ठहरा,
जाने था, कैसा पहरा!

हैं तेज कितने, वक्त के चरण,
न ओढ़े, कोई आवरण,
पर रुक गए थे, याद बनकर,
जाने, कैसे वक्त उधर!

थे शामिल, तुम्हीं हर बात में,
मुकम्मिल, जज्बात में,
उलझे, सवालों में तुम ही थे,
न जाने, तुम कौन थे!

उठ खड़े थे, प्रश्न अन-गिनत,
थी, सवालों की झड़ी,
हर कोई, हर किसी से पूछता,
न जाने, किसका पता!

गर जानता, तुझको जरा सा,
संजोता, एक आशा,
भटकता न यूँ, निराश होकर,
न जाने, किधर-किधर!

रह जाए जैसे, जिज्ञासा!
रह गए हो तुम, वैसे ही, जरा सा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 21 March 2020

बिन तुम्हारे

सो गए, अरमान सारे, 
दिन-रात हारे,
बिन तुम्हारे!

अधूरी , मन की बातें, 
किसको सुनाते,
कह गए, खुद आप से ही,
बिन तुम्हारे!

झकोरे, ठंढ़े पवन के,
रुक से गए हैं,
छू गई, इक तपती अगन, 
बिन तुम्हारे!

सुबह के, रंग धुंधले,
शाम धुंधली,
धुँधले हुए, अब रात सारे,
बिन तुम्हारे!

जग पड़ी, टीस सी,
पीड़ पगली,
इक कसक सी, उठ रही,
बिन तुम्हारे!

चुभ गई, ये रौशनी,
ये चाँदनी,
सताने लगी, ये रात भर,
बिन तुम्हारे!

पवन के शोर, फैले,
हर ओर,
सनन-सन, हवाएँ चली,
बिन तुम्हारे!

पल वो, जाते नहीं,
ठहरे हुए,
जज्ब हैं, जज्बात सारे,
बिन तुम्हारे!

रंग, तुम ही ले गए, 
रहने लगे,
मेरे सपने , बेरंग सारे,
बिन तुम्हारे!

सो गए, अरमान सारे, 
दिन-रात हारे,
बिन तुम्हारे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 26 December 2019

बातें

तड़पाती हैं कुछ बातें, अंदर ही अंदर,
ज्यूँ बहता हो खामोश समुंदर,
वो उठता, उफान लिखूँ,
बहा लाया जो तिनका, कैसे वो तुफान लिखूँ!

कहने को तो, ढ़ेर पड़े हैं जज्बातों के,
अर्थ निकलते दो, हर बातों के,
कैसे वो, दो बात लिखूँ,
उलझाती है हर बात, कैसे वो जज्बात लिखूँ!

मिलन लिखूँ या विरह की बात लिखूँ,
सांझ लिखूँ या लम्हात लिखूँ,
भूलूँ, या दिन-रात लिखूँ,
जज्ब हुए जो सीने में, क्यूँ वो जज्बात लिखूँ!

नम होती हैं आँखें, यूँ सूखते हैं आँसू,
ज्यूँ तपिश में, जलते हैं आँसू,
जलन, या संताप लिखूँ,
तड़पाते ये क्षण, मैं कैसे क्षण की बात लिखूँ!

दिन भर, कैसे जलता है सूरज तन्हा,
वो ही जाने, वो बातें हैं क्या,
वो अगन वो ताप लिखूँ,
रहता वो किस राह, कैसे उसकी चाह लिखूँ!

अगन लिखूँ या जलन की बात लिखूँ,
राख लिखूँ या लम्हात लिखूँ,
भूलूँ, या दिन-रात लिखूँ,
दफ्न हैं जो दिल में, कैसे वो जज्बात लिखूँ!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 26 November 2019

टूटा सा तार

जर्जर सितार का, हूँ इक टूटा सा तार!

संभाले, अनकही सी कुछ संवेदनाएं,
समेटे, कुछ अनकहे से संवाद,
दबाए, अव्यक्त वेदनाओं के झंकार,
अनसुनी, सी कई पुकार,
अन्तस्थ कर गई हैं, तार-तार!

जर्जर सितार का, हूँ इक टूटा सा तार!

कभी थिरकाती थी, पाँचो ऊंगलियाँ,
और, नवाजती थी शाबाशियाँ,
वो बातें, बन चुकी बस कहानियाँ,
अब है कहाँ, वो झंकार?
अब न झंकृत हैं, मेरे पुकार!

जर्जर सितार का, हूँ इक टूटा सा तार!

वश में कहाँ, किसी के ये संवेदनाएं,
खुद ही, हो उठते हैं ये मुखर,
कर उठते हैं झंकार, ये गूंगे स्वर,
खामोशी भरा, ये पुकार,
जगाता है, बनकर चित्कार!

जर्जर सितार का, हूँ इक टूटा सा तार!

ढ़ल चुका हूँ, कई नग्मों में सजकर,
बिखर चुका हूँ, हँस-हँस कर,
ये गीत सारे, कभी थे हमसफर,
बह चली, उलटी बयार,
टूट कर, यूँ बिखरा है सितार!

जर्जर सितार का, हूँ इक टूटा सा तार!

जज्ब थे, सीने में कभी नज्म सारे,
सब्ज, संवेदनाओं के सहारे,
बींधते थे, दिलों को स्वर हमारे,
उतर चुका, सारा खुमार,
शेष है, वेदनाओं का प्रहार!

जर्जर सितार का, हूँ इक टूटा सा तार!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 14 November 2019

एक क्षण

वो आँख भी, भीगी होगी!
वो शाख, रोया होगा!
मुड़कर मैं न जब, फिर गया होगा!

उसने तोड़ा था, बारीकियों से ये मन,
डाली से, ज्यूं झरते हैं सुमन,
ठूंठ होते हैं, ज्यूं पतझड़ में ये वन,
ज्यूं झर जाते हैं, ये पात-पात,
हौले-हौले, बिखरे हैं ये जज्बात,
एक क्षण की, वो बात,
हर-क्षण, उसे भी तड़पाता होगा!

वो आँख भी, भीगी होगी!
वो शाख, रोया होगा!
मुड़कर मैं न जब, फिर गया होगा!

नाजुक सा ये मन, कोई पाषाण नहीं,
यूँ भूल जाना, आसान नहीं,
बिन खनक, यूँ ही टूट जाते हैं ये,
टुकड़ों में फिर, जी जाते है ये,
हौले-हौले, पिघलती है ये हर रात,
एक क्षण की, वो बात,
हर क्षण, उसे भी पिघलाता होगा!

वो आँख भी, भीगी होगी!
वो शाख, रोया होगा!
मुड़कर मैं न जब, फिर गया होगा!

कटते नहीं, उम्र भर, ये एक ही क्षण,
कैसे रुके, बहती सी पवन,
कैसे रुके, बहते साँसों के ये घन,
कैसे रुके, ये जीवन के चरण,
हौले-हौले, बहा ले जाए ये साथ,
एक क्षण की, वो बात,
हर क्षण, उसे भी याद आता होगा!

वो आँख भी, भीगी होगी!
वो शाख, रोया होगा!
मुड़कर मैं न जब, फिर गया होगा!

बीते ना ये पतझड़, न आये वो बसंत,
ये राह, क्यूँ हुआ है अनन्त,
विचारे है क्यूँ, अब ओढ़े ये मलाल,
बुझ गई, जली थी जो मशाल,
हौले-हौले, पतझड़ के वो लम्हात,
एक क्षण की, वो बात,
हर क्षण, उसे भी न भुलाता होगा!

वो आँख भी, भीगी होगी!
वो शाख, रोया होगा!
मुड़कर मैं न जब, फिर गया होगा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 6 April 2019

फीकी सी चाय

चंद बातें, फीकी सी पड़ती इक चाय....

एक रूह, एक मैं,
एक तुम, एक पल एक संग,
एक एहसास, बेवजह एक बकवास,
एक ही जिद, विछोह भरे वो पल,
और एक तुम!

एक ही हकीकत,
एक चाहत, कितने ही ख्वाब,
एक सपना, गमगीन कितनी ही रात,
भँवर से उठते, हजारों जज़्बात,
और एक तुम!

साथ वो एहसास,
कुम्भलाता, कभी इतराता,
गहराता, उन पलों के नजदीक लाता,
कहीं धूँध में लिपटी एक परछाई,
और एक तुम!

सितारों भरी रातें,
खुली ये आँखें, भूली सी बातें,
एक तड़प, करवटो के दोनों ही तरफ,
ताकती दो आँखें, एक ही चेहरा,
और एक तुम!

यादें, भूले से वादे,
फीकी सी पड़ती एक चाय,
कई रातें, हजार करवटें, कई सिलवटें,
कई सुबह, बिन चीनी इक चाय,
और एक तुम!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Tuesday, 23 October 2018

मरुवृक्ष

अचल सदा, अटल सदा,
तप्त वात में, मरुवृक्ष सा मैं रहा सदा....

दहकते रहे कण-कण,
पाया ना, छाँव कहीं इक क्षण,
धूल ही धूल प्रतिक्षण,
चक्रवात में, मरुवृक्ष सा रहा....

अचल सदा, अटल सदा....

रह-रह बहते बवंडर,
वक्त बेवक्त, कुछ ढ़हता अंदर,
ढ़हते रेत सा समुन्दर,
सूनी रात में, मरुवृक्ष सा जगा....

अचल सदा, अटल सदा.....

वक्त के बज्र-आघात,
धूल धुसरित, होते ये जज़्बात,
पिघलते मोम से वात,
रेगिस्तान में, मरुवृक्ष सा पला....

अचल सदा, अटल सदा,
तप्त वात में, मरुवृक्ष सा मैं रहा सदा....

Monday, 24 September 2018

सुप्रिय जज्बात

जज्ब कर जज्बात बातों में,
दो पल दे गया कोई साथ, तन्हा रातों में....
खोया मैं उस पल, उनकी ही बातों में....

टटोल कर, मेरा भावुक सा मन,
बोल कर कई सुप्रिय वचन,
पूछ कर न जाने, कितने ही प्रश्न,
रख गया था कोई हाथ, मेरे हाथों में....

जज्ब कर जज्बात बातों में,
दो पल दे गया कोई साथ, तन्हा रातों में....

हृदय के तट, मची है हलचल,
है जिज्ञासा जागी प्रबल,
उस ओर ही, मन ये रहा मचल,
सुप्रिय से वो हालात, लम्बी बातों में....

जज्ब कर जज्बात बातों में,
दो पल दे गया कोई साथ, तन्हा रातों में....

है खींच चुकी, इक लकीर सी,
उठ रही है इक पीर सी,
हो न हो, वो है कोई इक हीर सी,
सुप्रिय है वो ही पीर, मेरे जज़्बातों में...

जज्ब कर जज्बात बातों में,
दो पल दे गया कोई साथ, तन्हा रातों में....
मैं भूला हूँ अब भी, उनकी बातों में....

Sunday, 16 September 2018

बह जाते हैं नीर

जज्बातों में, बस यूँ ही बह जाते हैं नीर...

असह्य हुई, जब भी पीड़,
बंध तोड़ दे, जब मन का धीर,
नैनों से बह जाते हैं नीर,
बिन बोले, सब कुछ कह जाते हैं नीर...

नीर नहीं, ये है इक भाषा,
इक कूट शब्द, संकेत जरा सा,
सुख-दुख हो थोड़ा सा,
छलकते हैं, नैनों से बह जाते हैं नीर...

संयम, थोड़ा ना खुद पर,
ना धैर्य तनिक भी लम्हातों पर,
न जाने किन बातों पर,
जज्बातों में, बस यूँ बह जाते हैं नीर...

सम्भले ना, ये आँखों में,
तड़पाते हैं, आके तन्हा रातों में,
डूबोकर यूँ ख्यालों में,
किसी अंजान नगर, ले जाते हैं नीर...

भिगोते हैं भावों को नीर,
पिरोते है मन के भावों को नीर,
धोते हैं घावों को नीर,
बातों ही बातों में, भिगो जाते हैं नीर....

असह्य हुई, मन की पीड़,
बंध तोड़ रहे, अब मन का धीर,
बह चले अब नैनों से नीर,
कर संकेत, सब कुछ कह रहे हैं नीर...

जज्बातों में, बस यूँ ही बह जाते हैं नीर...

Saturday, 17 February 2018

खलल डालते ख्याल

भीगे से ये सपने .....,
खलल डालते ख्याल,
डगमगाता सुकून,
और तुम .....
सवालों से बेहतर जवाबों मे,
ख्यालों से बेहतर, मेरे जज्ब से इरादों मे.....

कैसा ये सफर,
कि तू होकर भी है कहीं बेखबर !
तेरा स्मृति पटल में आना,
फिर धुँध मे तेरा कहीं खो जाना !
काश !
खामोशी की छाँव मे तू कुछ पल साथ रहती !

ये एहसास,
ये भीगे से जज्बात,
हर पल इक तेरा इन्तजार,
सुकून में बस,
खलल डालते इक ख्याल,
और कोई कशमकश,
जब थक जाते हैं,
तो हम मन ही मन यूं ही मुस्करा लेते हैं....

ये कैसा है सफर,
कि तू होकर भी है कहीं बेखबर !
बरबस, बेहिसाब, हर बार..
मैं तकता रहता हूं वो ही राह बार-बार...
मन की चाह से,
खिल जाती है यूं ही फिर कोई कुंद,
कि जैसे सूखते से पल्लव पर पड़ी हो बूँद !

भीगे से ये सपने .....
खलल डालते तुम्हारे ख्याल,
एहसास की ये राहें,
कहीं सूनी सी है दिखती,
कहीं दिल में,
बस, एक कसक सी है रहती !
काश !
खामोशी की छाँव मे तू कुछ पल साथ रहती ! 

Wednesday, 8 November 2017

बोझिल रात

यूँ बड़ी देर तक, कल ठहर गई थी ये रात,
भावुक था थोड़ा मैं, कुछ बहके थे जज्बात,
शायद कह डाली थी मैने, अपने मन की बात,
खैर-खबर लेने को, फिर आ पहुँची ये रात!

याद मुझे फिर आई, संत रहीम की ये बात...
"रहिमन निजमन की व्यथा मन ही राखो गोय,
  सुनि इठलैहें लोग सब, बाँट न लइहे कोय"
पर चुग गई चिड़ियाँ खेत अब काहे को पछतात..

बड़ी ही खामोशी से फिर, बैठी है ये रात,
झिंगुर, जुगनू, कीट-पतंगो को लेकर ये साथ,
धीरे-धीरे ऊलूक संग बाते करती ये रात,
उफ! फिर से बोझिल होते, बीतते ये लम्हात...

अब सोचता हूँ, पराई ही निकली वो रात,
पीछा कैसे ये छोड़ेगी, मनहूस बड़ी है ये रात,
रखना है काबू में, मुझको अपने जज्बात,
ना खोऊँगा मैं उसमें, चाहे कुछ कहे ये रात...

Thursday, 27 April 2017

बस मिले थे

बस मिले थे मुलाकात के वो, अनगिनत से सैकड़ों पल..

चंद बिसरी सी बातें, चंद भूले से वादे,
बेवजह की मुफलिसी, बेबात की मनमानियाँ,
बे इरादा नैनों की वो नादान सी शैतानियाँ,
पर कहाँ बदल सके वो, हालात के चंद बिगरते से पल...

बस मिले थे जज्बात के वो, अनगिनत से सैकड़ों पल...

बहकते पलों में, थे किए कितने ही वादे,
अनकही कह गए कुछ, अनसुना रह गया कुछ,
थी वो लहर इक, मन हुआ था यूँ ही भावुक,
जाती लहर में धुल गए वो, जज्बात के बहके से पल...

बस मिले थे लम्हात के वो, अनगिनत से सैकड़ों पल...

ठहरे से उन लम्हों में, ठहर गए सारे वादे,
ठहरी सी धुन, ठहरी सी लय और बेसुरा सा गीत,
ठलती सी उस पहर में, ढल गए गीतों के रीत,
अब न लौटेंगे वो लम्हे, बस देखेंगे मुड़-मुड़ के वो पल...

बस मिले थे बिन बात के वो, अनगिनत से सैकड़ों पल..