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Saturday, 21 October 2023

छूटते लम्हे

प्यार यूं तो, बहुत है इस ज़िन्दगी से,
पर ये लम्हे, हैं कम कितने!

लरी खुशियों की, यूं ही, हम बुनते,
कली ये सारे, यूं ही हम चुनते,
क्या करें!
यूं तो, गम भी हैं कितने!

प्यार यूं तो.....

जल उठे, यूं दिये बंद एहसासों के,
धुवें कितने, यूं गर्म सांसों के,
क्या करें!
नमीं आंखों में, हैं कितने!

प्यार यूं तो.....

यूं कहें किससे, ये किस्से अनकहे,
यूं जलजले से उठते ही रहे,
क्या करें!
गुम से साहिल हैं कितने!

प्यार यूं तो, बहुत है इस ज़िन्दगी से,
पर ये लम्हे, हैं कम कितने!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 15 September 2020

असहज

तनिक सहज, होने लगा हूँ मै अभी,
पर बादलों सा, उतर आओगे,
असहज, इस मन को कर जाओगे!

संचित हो आज भी, असंख्य लम्हों में तुम,
पर हूँ आज वंचित, सानिध्य से मैं!
बारिशों में, जब जलज सा उभर आओगे!
असहज, इस मन को कर जाओगे!

तुम्हें इख्तियार था, जाओ या ठहर जाओ,
इख्तियार से अपने, वंचित रहा मैं,
एकल अधिकार, हर बार तुम दिखाओगे!
असहज, इस मन को कर जाओगे!

पल सारे इन्तजार के, अब हो चले है सूने,
सहज एहसास, चुनने लगा हूँ मैं,
कोई राग बन कर, सीने में उतर आओगे!
असहज, इस मन को कर जाओगे!

तनिक सहज, होने लगा हूँ मै अभी,
धुँध बन कर, बिखर जाओगे,
असहज, इस मन को कर जाओगे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 11 August 2020

संक्षिप्त

संक्षिप्त हुए, विस्तृत पटल पर रंगों के मेले!
संक्षिप्त हुए, समय के सरमाए,
हुई सांझ, वो जब आए,
बेवजह, ठहरे सितारों के काफिले,
हुए संक्षिप्त से!

संक्षिप्त से हो चले,
लम्बी होती, बातों के सिलसिले,
रुके, शब्दों के फव्वारे,
अंतहीन, रिक्त लम्हों से भरे,
दिन के, उजियारे,
रहे, कुछ अधखिले से फूल,
कुछ चुभते शूल,
संक्षिप्त से!

संक्षिप्त से, वो पल,
पल पल, विस्तृत होते, वो पल,
सिमटने लगे, वो कल,
खनके जो, कहीं वादियों में,
चुप से, हैं अब,
गुमसुम, यूँ हीं रिक्त से,
खुद में, लिप्त से,
संक्षिप्त से!

अतृप्त मन की जमीं, भीगी यूँ अलकों तले!
ऊँघती जगती सी, पलकों तले,
विलुप्त हुए, चैनो शुकुन,
बेवजह, लड़खड़ाते नींदों के पहरे,
हुए संक्षिप्त से!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 15 March 2020

मन चाहे

मन चाहे, जी लूँ दोबारा!
जीत लूँ सब, जो जीवन से हारा!

संदर्भ नए, फिर लिख डालूँ,
नजर, विकल्पों पर फिर से डालूँ,
कारण, सारे गिन डालूँ,
हारा भी, तो मैं,
क्यूँ हारा?

मन चाहे, जी लूँ दोबारा!
जीत लूँ सब, जो जीवन से हारा!

खोए से वो पल, दोहरा लूँ,
जीवन से, बिखरे लम्हे पा डालूँ,
मोती, बिखरे चुन डालूँ,
बिखरा तो, वो पल,
क्यूँ बिखरा?

मन चाहे, जी लूँ दोबारा!
जीत लूँ सब, जो जीवन से हारा!

ख्वाब अधूरे, चाहत के सारे,
जीवन के, भटकावों से हम हारे,
खुद को ही, समझा लूँ,
ठहरा भी, तो मैं,
क्यूँ ठहरा?

मन चाहे, जी लूँ दोबारा!
जीत लूँ सब, जो जीवन से हारा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 5 January 2020

ओस

गोल-गोल, कुछ उजली-उजली,
पात-पात, पर थी फिसली,
अंग-अंग, प्रकृति संग लिपटी,
चढ़ दूब पर, इतराई,
ओस कण, मन को थी भरमाई!

शीतलता, समेट कर आँचल में,
बाँट डाले, कलियों में,
सराबोर, हुए दूब गलियों में,
आया, नव-जीवन,
मृत-प्राय हो चले, धमनियों मे!

अनमोल, ओस की उजली डली,
निःस्वार्थ, ही निकली,
लाई, मृत कणों में हरियाली,
क्षणिक, जीवन में,
दीर्घ आस, कण-कण में डाली!

देख उन्हें, ये मेरा मन ललचाया,
खुद को, मैं रोक न पाया,
स्वागत में, आ लिपटी पाँवों में,
हौले से, सहलाया,
वो कोमल मन, मैं भी छू आया!

कोमल वो लम्हे, दो ही पल थे,
विस्तृत, वो दो पल थे,
वो दो ही लम्हे, अर्थ भरे थे,
मिला, लघु जीवन,
जाते हर क्षण, जीवन्त बड़े थे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 29 September 2019

गुजरता वक्त

वक्त है गतिमान, रिक्त है वर्तमान,
वक्त से विलग, बस बचा है ये वियावान,
और है बची, इक मृग-मरीचिका,
सुनसान सा, कोई रेगिस्तान!

रिक्त से हैं लम्हे, सिक्त हैं एहसास,
गुजरता वक्त, छोड़ गया है कुछ मेरे पास!
अंदर जागी है, इक अकुलाहट सी,
जैसे कुछ थम सी गई है साँस!

वो समृद्ध अतीत, ये रिक्त वर्तमान,
खाली से हाथ, पल-पल टूटता अभिमान,
दूर से चिढ़ाता हुआ, वो ही आईना,
था कल तक, जिस पर गुमान!

जाने लगी है दूर, मरुवृक्ष की छाया,
कांति-विहीन, दुर्बल, होने लगी है काया,
सिमटने लगी हैं, धुंधली सी सांझ,
न ही काम आया, ये सरमाया!

सब लगता है, कितना असहज सा,
जैसे अपना ही कुछ, हो चुका पराया सा,
कैद हों चुकी हैं, जैसे कुछ तस्वीरें,
यादों में है बसा, चुनवाया सा!

है असलियत, गुजर जाता है वक्त,
तकती हैं ये हताश आँखें, होकर हतप्रभ,
तलाशती है "क्या कमी है मुझमें",
ढ़ूँढ़ती है, बीता सा वही वक्त!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Sunday, 4 August 2019

परछाईं तेरी

वो तुम थे, या थी बस परछाईं तेरी,
थी खुश्बू कोई, जिनसे मिलती थी तन्हाई मेरी,
महक उठता था, चमन, वो गुलशन सारा,
वो थे तुम, या था वो भरम सारा!

थी परछाईं तेरी, या वो था हमसाया मेरा!
मुझसे ही जुदा, था कहीं साया मेरा!

इक हमसाए सी रही, परछाईं तेरी,
इक धुंध सी थी, भटकती थी जहाँ तन्हाई मेरी,
धुआँ-धुआँ सा हुआ, था वो आलम सारा,
वो थे तुम, या था वो भरम सारा!

थी परछाईं तेरी, या वो था हमसाया मेरा!
मुझसे ही जुदा, था कहीं साया मेरा!

थे धुंध के पहरे, या थी जुल्फें तेरी,
उलझते थे वो बादल, या उलझती थी लटें तेरी,
यूं वादियों से कहीं, था तन्हाई ने पुकारा,
वो थे तुम, या था वो भरम सारा!

थी परछाईं तेरी, या वो था हमसाया मेरा!
मुझसे ही जुदा, था कहीं साया मेरा!

हैरां कर गई, चुप सी वो बातें तेरी,
तन्हाईयों से हुई, वो लम्बी सी मुलाकातें मेरी,
ढूंढता हूँ अब, उन्ही लम्हातों का सहारा,
वो थे तुम, या था वो भरम सारा!

थी परछाईं तेरी, या वो था हमसाया मेरा!
मुझसे ही जुदा, था कहीं साया मेरा!

दूर जाती रही, मुझसे परछाईं तेरी,
यूँ  सताती रही, पास आकर वही तन्हाई मेरी,
गुजरा न वो पल, बेरहम वो वक्त ठहरा,
वो थे तुम, या था वो भरम सारा!

थी परछाईं तेरी, या वो था हमसाया मेरा!
मुझसे ही जुदा, था कहीं साया मेरा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Sunday, 30 September 2018

खुमारियाँ

सुस्त लम्हों में, खुमारियों का है ये आलम....

खुश्क सी ये कैसी, चल रही है हवा,
वक्त, जैसे ठहर चुका है यहाँ,
मंद सी हो चली, सूरज की रौशनी,
मंद मंद बह रही, ये बयार भी,
सुस्त से हैं कदम, अधूरी है प्यास भी....

ठहरा सा ये लम्हा, ये उन्मुक्त से पल,
ठहरा सा है, वो बीता सा कल,
ठहरे से हैं, वो ही बेसब्रियों के पल,
गुजरता नहीं, सुस्त सा ये लम्हा,
जाऊँ किधर, कैद ये कर गया यहाँ....

इस पल ने, यूँ ही बांध रखे है कदम,
आकुल से हैं प्राणों के कण,
इक आहट सी, उठ रही है कहीं,
खोया हूँ मैं, इस पल में यहीं,
है माधुर्य सा, इन खुमारियों में कही....

सुस्त लम्हों में, खुमारियों का है ये आलम....

Wednesday, 13 June 2018

कोई अन्त न हो

बासंती इन एहसासों का कोई अन्त न हो....

मंद मलय जब छू जाती है तन को,
थम जाती है दिल की धड़कन पलभर को,
फिर इन कलियों का खिल जाना,
फूलों की डाली का झूम-झूमकर लहराना,
इन जज्बातों का कोई अन्त न हो.....

यूं किरणों का मलयगिरी से मिलना,
मलयनील का उन शिखरों पर लहराना,
फिर रक्तिम आभा सा छा जाना,
यूं नत मस्तक होकर पर्वत का शरमाना,
इन मुलाकातों का कोई अन्त न हो.....

जब यूं चुपके से पुरवैय्या लहराए,
कोई खामोश लम्हों मे दस्तक दे जाए,
फिर यूं किसी का गले लग जाना,
चंद लम्हों में उम्र भर की कसमें खाना,
इन लम्हातों का कोई अन्त न हो.....

बासंती इन एहसासों का कोई अन्त न हो....

Thursday, 13 October 2016

सौगातें

सौगातें उन लम्हों की, मैं बाँटता हूँ जीवन की झोली से...

अपने मन की तेज धार में उन्मुक्त बह जाने को,
मन ही मन खुल कर मुस्काने को,
गुजारे थे कुछ लम्हे मैनें संग जीवन के,
बस वो ही लम्हे हैं थाथी, मेरे बोझिल से जीवन के।

सौगातें उन लम्हों की, मैं बाँटता हूँ जीवन की झोली से...

चढती साँसों की लय में दूर तक बह जाने को,
कंपन धड़कन की सुन जाने को,
बिताए थे कुछ लम्हे मैने एकाकीपन के,
बस वो लम्हे ही हैं साथी, मेरे जीवन की तन्हाई के।

सौगातें उन लम्हों की, मैं बाँटता हूँ जीवन की झोली से...

दो नैनों की प्यासी पनघट में नीर भर लाने को,
करुणा के सागर तट छलकाने को,
गुजारे थे कुछ लम्हे मैने तुम बिन विरहा के,
बस वो लम्हे हैं काफी, नैनों से सागर छलकाने के।

सौगातें उन लम्हों की, मैं बाँटता हूँ जीवन की झोली से...

Sunday, 25 September 2016

आ जाऊँगा मैं

इक अक्श हूँ, ख्यालों में ढल जाऊँगा मैं,
सोचोगे जब भी तुम, सामने नजरों के आ जाऊँगा मैं...

जब दरारें तन्हा लम्हों में आ जाए,
वक्त के कंटक समय की सेज पर बिछ जाएँ,
दुर्गम सी हो जाएँ जब मंजिल की राहें,
तुम आहें मत भरना, याद मुझे फिर कर लेना,
दरारें उन लम्हों के भरने को आ जाऊँगा मैं......

इक अक्श हूँ, ख्यालों में ढल जाऊँगा मैं,
सोचोगे जब भी तुम, सामने नजरों के आ जाऊँगा मैं...

जब लगने लगे मरघट सी ये तन्हाई,
एकाकीपन जीवन में जब लेती हो अंगड़ाई,
कटते ना हों जब मुश्किल से वो लम्हे,
तुम आँखे भींच लेना, याद मुझे फिर कर लेना,
एकाकीपन तन्हाई के हरने को आ जाऊँगा मैं.....

इक अक्श हूँ, ख्यालों में ढल जाऊँगा मैं,
सोचोगे जब भी तुम, सामने नजरों के आ जाऊँगा मैं...

भीग रही हो जब बोझिल सी पलकें,
विरह के आँसू बरबस आँचल पे आ ढलके,
हृदय कंपित हो जब गम में जोरों से,
तुम टूटकर न बिखरना, याद मुझे फिर कर लेना,
पलकों से मोती चुन लेने को आ जाऊँगा मैं,

इक अक्श हूँ, ख्यालों में ढल जाऊँगा मैं,
सोचोगे जब भी तुम, सामने नजरों के आ जाऊँगा मैं...

Monday, 8 August 2016

कुछ लम्हे मेरी शब्दों के संग

कुछ लम्हे जो गुजरे आपके मेरी शब्दों के संग.........

आँखें मिली जो आपसे शब्दों के जैसे नींद उड़ गए,
शब्दों को जैसे सुर्खाब के पर लग गए,
सुरूर कुछ छाया ऐसा शब्दों के जेहन पर,
कोरे कागज पर जज्बातों के ये प्रहर से लिख गए।

कुछ लम्हे जो गुजरे आपके मेरी शब्दों के संग.....

नैनों मे खोए शब्द कभी हँस परे खिलखिलाकर,
कुछ के जज्बात बूँदों में बह निकले,
कुछ शब्दों के वाणी रूँधकर लड़खड़ाए,
कोरे कागज पर मिश्रित से कई तस्वीर उभर गए।

कुछ लम्हे जो गुजरे आपके मेरी शब्दों के संग.....

शुरू हुई फिर शब्दों में नोंक-झोंक के सिलसिले,
कुछ कहते, वो आए थे मुझसे मिलने गले,
कुछ कहते मेरी चाहत में थे उनके दामन गीले,
कोरे कागज पर शब्दों में अंतहीन जंग से छिड़ गए।

कुछ लम्हे जो गुजरे आपके मेरी शब्दों के संग.....

अब उन्हीं लम्हों को ढूंढ़ते मेरे शब्द पन्नों पर,
अनकहे जज्बात कई लिख डाले मैंने इन पन्नों पर,
मेरे शब्दों के स्वर और भी मुखर हो गए,
कोरे कागज पर इन्तजार के वो लम्हे बिखर से गए।

कुछ लम्हे जो गुजरे आपके मेरी शब्दों के संग.....

Wednesday, 27 April 2016

व्यस्त जिन्दगानी

व्यस्त लम्हे, हकीकत हैं ये जीवन के,
पल भर को फुर्सत नही साँसें लेने की चैन के,
रफ्तार से घूम़ती हैं, ये पहिए जिन्दगी के,
जरूरतों के आगे पिसती है, जरूरत जिन्दगानी के।

कब रुके हम, कब साँसों को झकझोरा,
जाने किन राहों पर हमने खुद को ही रख छोड़ा,
खुद से ही पूछते है हम कभी खुद का पता,
व्यस्तताओं के आगे विवश, हमारी आवश्यकता।

शून्य संग्याहीन हो चुके मन के भाव सारे,
निर्णय के दोराहों पर जाने कितने ही पल गुजारे,
हारी है चाह मन की असंख्य बार जीवन में,
भौतिकता के आगे हरबार टूटे हैं घर कल्पनाओं के।

कोमलता हंदय की दबी व्यस्तताओं में,
खूबसूरती लम्हो की रहती अनदेखी वर्जनाओं में,
जज्बातों के घरौंदे जलते जीवन की भट्ठी में,
एहसासों के राख पर ही महल बनते जिन्दगानी के।

तन्द्रा भंग हुई अब व्यस्त लम्हों की मजार पर,
कशिश आह भरी दिल में, रंजिश उन गुजरे लम्हों पर
आँसू छलके हैं नैनों में, हृदय हो रहा बेजार पर,
गुजरे वक्त के आगे विवश, बैठा जज्बातो के ढ़ेर पर।

Tuesday, 12 April 2016

बिखरे सपने

मेरे सपनों की माला में, सजते कुछ ऐसे मोती,
खुशियाँ बिखरती चहुँ ओर, प्रारब्ध इक जैसी होती!

जीवन ऐसे भी धरा पर, बिखरे हैं जिनके सपने,
टूटी हैं लड़ियाँ माला की, बस टीस बची है मन में,
चुन चुनकर मोतियों को, सहेज रखे हैं उसनें,
सपने हसीन लम्हों के, पर उनके जीवन से बेगाने।

प्रारब्ध ही कुछ ऐसा, नियति ही कुछ ऐसी,
खुशियों के असंख्य पल बस हाथों को छूकर गुजरी,
बुनते रहे वो लड़ियाँ ही, मोतियाँ सब दामन से फिसली,
माला उस जीवन की खुद ही टूट-टूट कर बिखरी।

ऎसे भी जीवन जग में, साँसें चँद मिली हैं जिनको,
कैसे होते हैं सुख के पल, झलक भी मिल सकी न उनको,
उनके भी तो जीवन थे, फिर जन्म मिली क्युँ उनको?
किन कर्मों की सजा, उस विधाता नें दी है उनको।

मेरे सपनों की माला में सजते कुछ ऐसे ही मोती,
सपने पूरे कायनात की सजती बस इक जैसी,
हसते खेलते सभी जीवन में, कोलाहल क्रंदन ये कैसी?
खुशियाँ बिखरती धरा पर, प्रारब्ध सब की इक जैसी!

Thursday, 28 January 2016

खुशियों के क्षण

छंद बिखरे क्षणों के अब बन गए है गीत मेरे!

बिखर गई हैं आज हर तरफ खुशियाँ यहाँ,
सिमट गए हैं दामन में आज ये दोनो जहाँ,
खोल दिए बंद कलियों ने आज घूँघट यहाँ,
खिल गए हैं अब मस्त फूलों के चेहरे यहाँ।

गुजरकर फासलों से अब मिल गई मंजिल मेरी।

शूल यादों के सभी फूल बनकर खिल गए,
सज गई महफिलें हम और तुम मिल गए,
थाम लो मुझको यारों आज वश में मै नही,
मस्त आँखों से सर्द जाम पी है मैनें अभी।

लम्हों के इन कारवाँ में गुजरेगी अब जिन्दगी मेरी।

Friday, 22 January 2016

मधुपान


उन हसीन लम्हातों की खामोशियों मे,
आहट की कल्पना भी प्यारी है तुम्हारी,
रंग कई बिखर जाते हैं आँखों के सामने
डूब जाता है सारा आलंम गुजरिशों में।

दूर एक साया दिखता बस तुम्हारी तरह,
शायद सुन लिया है गीत मेरा तुमने भी,
पास आते हो तुम किसी मंजर की तरह,
गूंज उठते हैं संगीत के स्वर ख्यालों में।

याद बनकर जब कभी छाते हो दिल पर,
शहनाईयाँ सी बज उठती हैं विरानियों मे,
सैंकड़ों फूल खिल उठते मधुरस बरसाते,
झूम उठता हृदय का भँवर मधुर पान से।