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Thursday, 25 January 2024

ऋतुओं के पहरे

लम्हों पर, ऋतुओं के पहरे,
वो, कब ठहरे!
रख छोड़े हमने, कुछ ख्वाब अधूरे...

इक आए, इक जाए,
देखे ऋतुओं के, नित रूप नए,
अब कौन, उन्हें समझाए,
सरमाए, ख्वाबों के,
हों, कब पूरे!

रख छोड़े हमने, कुछ ख्वाब अधूरे...

संशय में, पल सारे!
बदलते से, ऋतुओं संग गुजारे,
चलन रहा, यही सदियों,
ख्वाबों के, वो तारे,
रहे, बे-सहारे!

रख छोड़े हमने, कुछ ख्वाब अधूरे...

है इक, दग्ध हृदय,
संदिग्ध सा, उधर, इक वलय,
रोके, वो कब रुक पाए,
धार सा, बहा जाए,
वो, लम्हे सारे!

लम्हों पर, ऋतुओं के पहरे,
वो, कब ठहरे!
रख छोड़े हमने, कुछ ख्वाब अधूरे..

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday, 7 November 2022

क्षणभंगुर


ऐ एकाकी मन, पाले क्यूं, उलझन!

पलकों में, बूटे उग आए थे,
शायद, मेरी ख्वाबों के, वो सरमाए थे!
और, नैन तले, छाए काले घन,
अंतः, मेघों सा गर्जन,
लिए अधीर मन!

ऐ एकाकी मन, पाले क्यूं, उलझन!

सोचे, अब, कैसे ये ख्वाब!
कैसा ये पागलपन, पाले क्यूं, उलझन!
टूट जाते, सावन में ही ये घन,
बिखर जाते हैं, तन,
क्यूं दीवानापन!

ऐ एकाकी मन, पाले क्यूं, उलझन!

क्षण-भंगुर, मेघों के साए,
क्षण भर ही, भाएंगी इनकी क्षणिकाएं,
मुड़ जाएंगे, जाने किस ओर,
ढूंढोगे, कल ये शोर,
फिरोगे, वन-वन!

ऐ एकाकी मन, पाले क्यूं, उलझन!

फिर से ये बूटे, ना उगने दो,
फिर, ख्वाबों के सरमाए, ना बनने दो,
नभ पर, घन आएं, बरस जाएं,
ना ही, ख्वाब दिखाएं,
ना ही अपनापन!

ऐ एकाकी मन, पाले क्यूं, उलझन!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 24 July 2022

एकाकी ही भला


एकाकी खुश हूँ, मैं, एकाकी ही भला....

गम, जो दे जाते हैं, वो मन के बंधन,
क्यूँ, बांध रहे, मुझसे हर क्षण,
ये गीत, न वो गाएंगे,
सर्वदा, मन को न तेरे बहलाएंगे,
न रखना, कोई गिला!

एकाकी खुश हूँ, मैं, एकाकी ही भला....

गम न, इक और, ले पाऊंगा सर्वथा,
रह न पाऊंगा, यूं संग सर्वदा,
न रख, यादों में कहीं,
रखना, पर, बीती बातों में कहीं,
जैसे कोई, कहीं मिला!

एकाकी खुश हूँ, मैं, एकाकी ही भला....

क्यूं ठहर जाऊं, आंगन में किसी के,
क्यूं बना लूं, घर इक कहीं पे,
रेत जैसे हैं ख्वाब ये,
प्यास नजरों को हो, गर, दो घूंट,
अपनी, आंसू के पिला!

एकाकी खुश हूँ, मैं, एकाकी ही भला....

हो बेहतर, रख ले मन पे एक पत्थर,
मत मांग, प्रश्नों के कोई उत्तर,
जो, हल न हो पाएंगे,
वो अन्तर्मन को और बींध जाएंगे,
यूं होगा, किसका भला!

एकाकी खुश हूँ, मैं, एकाकी ही भला....

उड़ा मत, आसमां पर, पंछी चाह के,
कल, रख न पाओगे बांध के,
वो, छल ही जाएंगे,
टूटे बांध जो, वो कल बंध न पाएंगे,
यूं होगा, खुद से गिला!

एकाकी खुश हूँ, मैं, एकाकी ही भला....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  ‌‌ (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 21 July 2022

बस चुनना था


रंग कई थे, बस चुनना था!

उभरे थे, पटल पर, अनगिन परिदृश्य,
छुपा उनमें ही, इक, बिंबित भविष्य,
कोई इक राह, पहुंचाती होगी साहिल तक,
राह वही, इक चुनना था,
दूर तलक, बस, उन पर चलना था!

रंग कई थे, बस चुनना था!

पंख लिए, उड़ा ले जाते, ख्वाब कहीं,
मन को, पथ से भटकाते चाह कई,
कहीं दूर, बहा ले जाते, दुविधाओं के पल,
हासिल जो, चुनना था,
चाहत के रंग, उनमें ही, भरना था!

रंग कई थे, बस चुनना था!

उलझन, उलझाएगी, हर चौराहों पर,
जीवन, ले ही जाएगी दो राहों पर,
हर सांझ, पटल पर छाएंगे रंगी परिदृश्य,
लक्षित, पथ चुनना था, 
उलझे भ्रम के जालों से बचना था!

रंग कई थे, बस चुनना था!

अशांत मन, होता है यूं ही शांत कहां,
बेवजह उलझन का, यूं अंत कहां,
सपन अनोखे, भर लाएंगे दो चंचल नैन,
चैन खुद ही चुनना था,
चुनकर ख्वाब वही इक बुनना था!

रंग कई थे, बस चुनना था!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 13 July 2022

कभी यूं ही


यूं ही.....

कभी यूं ही, रुक जाती हैं पलकें,
दर्द कभी, यूं हल्के -हल्के,
उस ओर कभी, मुड़ जाते हैं सब रस्ते,
कभी इक वादा खुद से,
न गुजरेंगे, 
फिर, उन रस्तों से!

यूं ही.....

कभी यूं ही, दे जाए बहके लम्हें,
उलझे शब्दों के, अनकहे,
खोले, राज सभी, बहके जज्बातों के,
स्वप्निल, सारी रातों के,
नींद चुरा ले,
अपनाए, गैर कहाए!

यूं ही.....

कभी यूं ही, आ जाए ख्वाबों में,
बिसराए, उलझी राहों में,
दो लम्हा, वो ही यहां, ठहरा बाहों में,
ठहरे से, जाते लम्हों में,
आए यादों में,
तरसाए, हर बातों में!

यूं ही.....

कभी यूं ही, रुकते ये धार नहीं,
सपने, सब साकार नहीं,
बारिश की बादल का, आकार नहीं,
निर्मूल, ये आधार नहीं,
ये प्यार नहीं,
तू, क्यूं ढूंढ़े ठौर यहीं!

यूं ही.....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 4 May 2022

घेरे


आ घेरती हैं, हजारों ख्वाहिशें हर पल,
कहां होता हूं अकेला!

भले ही,भीड़ से खुद को बचाकर,
मींच लूं आंखें,
ये प्यासी ख्वाहिशें, बस रखती हैं जगा के,
दिखाती हैं, अरमानों का मेला,
कहां होता हूं अकेला!

म‌न ही जिद्दी, जा बसे उस नगर,
यूं लेकर, संग,
ख्वाहिशों के, बहकते चटकते-भरमाते रंग,
हर पल, फिर वही सिलसिला,
कहां होता हूं अकेला!

उनकी इनायत, उनसे शिकायत,
उनके ही, घेरे,
सुबहो और शाम, यूं लगे ख्वाहिशों के डेरे,
वहीं दीप, अरमानों का जला,
कहां होता हूं अकेला!

आ घेरती हैं, हजारों ख्वाहिशें हर पल,
कहां होता हूं अकेला!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 30 April 2022

आत्ममुग्धि

पलट आईं, यूँ उनकी अनुभूतियों के पल,
सूनी सी, दहलीज पर, 
स्मृतियां, खटखटाने लगी सांकल!

यूँ कल, कितने, विखंडित थे वो पल,
न था, अन्त, अनन्त तक,
बस इक, टिमटिमाता सा एहसास,
जरा सी चांदनी,
और, दूर तलक, बिखरा सा आकाश,
यूँ ही, अचानक, 
संघनित हो उठी, स्मृतियां,
बरस पड़े बादल!

छूकर, बह चली, इक अल्हड़ पवन,
यूँ, बज उठे, सितार सारे,
लरज उठी, कूक सी कोयलों की,
गा उठे, पल,
थिरकने लगे, उनकी पांवों के पायल, 
यूँ ही, छनन-छन,
भूल कर राहें, यह पथिक,
जाए, वहीं चल!

ये कैसी तृप्ति, ये कैसी आत्ममुग्धि!
मंत्रमुग्ध हो, एक प्यासा,
बिन पिये ही, ज्यूं पी चुका सुधा,
सदियाँ जी चुका,
उस गगन पर, एक हारिल उड़ चला,
स्वप्न ही बुन चला,
यूँ ही, कहीं ना, टूट जाए,
ख्वाबों के महल!

पलट आईं, यूँ उनकी अनुभूतियों के पल,
सूनी सी, दहलीज पर, 
स्मृतियां, खटखटाने लगी सांकल!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 18 March 2022

रंग

कुछ रंग ही तो, भरे थे हमनें,
तुम्हारी मांग में,
और तुमने, रंग डाले,
सारे, सपने मेरे!

और, आज भी, दैदिप्य सा है,
तुम्हारे भाल पर,
सफेद, बालों के मध्य,
वही, लाल रंग!

और इधर! चुप, मंत्र-मुग्ध मैं,
ताकूँ, वो ही रंग,
बिखरे, जो यकीन बन,
जिंदगी में, मेरे!

कुछ रंग ही तो, भरे थे हमनें,
बुने, कुछ ख्वाब,
और तुमने, रंग डाले,
सारे, ख्वाब मेरे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)
----------------------------------------------------
परिकल्पनाओं में पलते, सारे रंग,
उम्र भर, रहें आप संग।।।

होली की अशेष शुभकामनाओं सहित.......

Sunday, 30 May 2021

जागे सपने

जाने कब से, घुप अंधियारों में,
पलकें खोले,
जागे से, सपनों को तोले,
जागा सा मैं!

शायद, सपनों के पर, 
छूट चले हों, बोझिल पलकों के घर,
उड़ चली नींद,
झिलमिल, तारों के घर,
आकाश तले, संजोए ख्वाब कई,
जागा सा मैं!

जाने, फिर लौटे कब,
शायद, तारों के घर, मिल जाए रब,
खोई सी नींद,
दिखाए, दूजा ही सबब,
पलकें मींचे, नीले आकाश तले,
जागा सा मैं!

ये, सपनों की परियाँ,
शायद, हों इनकी, अपनी ही दुनियाँ,
भूली हो नींद,
अपने, पलकों का जहाँ,
खाली उम्मीदों के, दहलीज पर,
जागा सा मैं!

जाने कब से, घुप अंधियारों में,
पलकें खोले,
जागे से, सपनों को तोले,
जागा सा मैं!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 11 May 2021

दिल, न दूँगा उधार

भले ही, बेकार....
पर न, ये दिल, किसी को दूंगा उधार!

कौन खोए, चैन अपना!
बिन बात देखे, दिन रात सपना,
फिर उसी से, ये मिन्नतें,
करे हजार!

भले ही, बेकार....
पर न, ये दिल, किसी को दूंगा उधार!

बेवजह ही, ये ख़्वाहिशें!
हर पल, कोई ख्वाब ही, ये बुने,
कोई काँच से, ये महल,
टूटे हजार!

भले ही, बेकार....
पर न, ये दिल, किसी को दूंगा उधार!

मिली हैं, कितनी ठोकरें!
यूँ किसी, शतरंज की हों मोहरें,
जैसे चाल, वो चल गए,
कई हजार!

भले ही, बेकार....
पर न, ये दिल, किसी को दूंगा उधार!

दूँ भी तो, फिर क्यूँ भला!
ये उधार, वापस ही कब मिला!
बिखर न जाएँ, धड़कनें,
मेरे हजार!

भले ही, बेकार....
पर न, ये दिल, किसी को दूंगा उधार!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 15 April 2021

किस्सों में थोड़ा सा

उनकी किस्सों का, इक अंश हूँ अधूरा सा!
उन किस्सों में, अब भी हूँ थोड़ा सा!

मुकम्मल सा, इक पल,
उत्श्रृंखल सी, इठलाती इक नदी,
चंचल सी, बहती इक धारा,
ठहरा सा, इक किनारा!

सपनों में उनकी, अब भी हूँ थोड़ा सा!
इक अंश, अधूरा सा!

धारे के, वो दो किनारे,
भीगे से, जुदा-जुदा वो पल सारे,
अविरल, बहती सी वो नदी,
ठहरी-ठहरी, इक सदी!

सवालों में उनकी, अब भी हूँ थोड़ा सा!
इक अंश, अधूरा सा!

अधूरी सी, बात कोई,
जो तड़पा जाए, पूरी रात वही,
याद रहे, वो इक अनकही,
रह-रह, नैनों से बही!

ख्यालों में उनकी, अब भी हूँ थोड़ा सा!
इक अंश, अधूरा सा!

रुक-रुक, वो राह तके,
इस चाहत के, कहाँ पाँव थके!
उभर ही आऊँ, मैं यादों में,
जिक्र में, या बातों में!

उनकी किस्सों का, इक अंश हूँ अधूरा सा!
उन किस्सों में, अब भी हूँ थोड़ा सा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 9 April 2021

उभर आओ ना

उभर आओ ना, बन कर इक हकीकत,
सिमटोगे, लकीरों में, कब तक!

झंकृत, हो जाएं कोई पल,
तो इक गीत सुन लूँ, वो पल ही चुन लूँ,
मैं, अनुरागी, इक वीतरागी,
बिखरुं, मैं कब तक!

उभर आओ ना, बन कर इक हकीकत..

आड़ी तिरछी, सब लकीरें,
यूँ ही उलझे पड़े, कब से तुझको ही घेरे,
निकल आओ, सिलवटों से,
यूँ देखूँ, मैं कब तक! 
   
उभर आओ ना, बन कर इक हकीकत..

उतरे हो, यूँ सांझ बन कर,
पिघलने लगे हो, सहज चाँद बन कर,
यूँ टंके हो, मन की गगन पर,
निहारूँ, मैं कब तक!

उभर आओ ना, बन कर इक हकीकत..

खोने लगे हैं, जज्बात सारे,
भला कब तक रहें, ख्वाबों के सहारे,
नैन सूना, ये सूना सा पनघट,
पुकारूँ, मैं कब तक!

उभर आओ ना, बन कर इक हकीकत,
सिमटोगे, लकीरों में, कब तक!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 16 January 2021

फेहरिस्तों का शहर

कभी, भूले से, कोई आता है इधर!
जाने, कैसा ये शहर!

लोग कहते हैं, कोई विराना है उधर!
न इन्सान, न कोई राह-गुजर!
हुए सदियों, कोई गुजरा न इधर,
जाने, कैसा ये शहर!

ख्वाबों के कई, फेहरिस्तों का शहर!
कई अनसुने, गीतों का डगर!
बनते-बिगरते , रिश्तों का ये घर,
जाने, कैसा ये शहर!

एक मैं हूँ, यहीं, अकेला सा बेखबर!
सपनों के कई, टूटे से ये घर!
परवाह किसे किसको ये फिकर,
जाने, कैसा ये शहर!

लग न जाए, इन ख्वाबों को भी पर!
फिरे आसमानों, पर बेफिक्र,
दूर कितना, सितारों का वो घर,
जाने, कैसा ये शहर!

कभी, भूले से, कोई आता है इधर!
जाने, कैसा ये शहर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 8 November 2020

बंजारे

सारे हैं बंजारे, देखे जो ख्वाब तुम्हारे!

सोचा था, रख लूँगा, मन के घेरों में,
संजो लूँगा, कुछ तस्वीरें, ख्वाबों के डेरों में,
पर, खुश्बू थे वो सारे, 
निकले, बंजारे,
बहते, नदियों के धारे,
पवन झकोरे,
पल भर, वो कब ठहरे,
निर्झर नैनों में, ख्वाब सुनहरे!

सारे हैं बंजारे, देखे जो ख्वाब तुम्हारे!

बेचारा मन, भटके बेगानों के पीछे,
दौरे है बेसुध,आँखें मींचे, बंजारों के पीछे,
पर, ठहरे हैं कब बंजारे,
वो राहों के मारे,
बातों में, ढ़ल जाते सारे,
धुंथलाते तारे,
भोर प्रहर, वो कब ठहरे,
दीवाने नैनों में, ख्वाब सुनहरे!

सारे हैं बंजारे, देखे जो ख्वाब तुम्हारे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 18 July 2020

बंजारे ख्वाब

सिमट रहे, ये दलीचे उम्र के,
ख्वाब कोई, अब, आए ना मुड़ के!

मन के फलक, धुंधलाए हैं, हल्के-हल्के,
दूर तलक, साए ना कल के,
सांध्य प्रहर, कहाँ किरणों का गुजर,
बिखरे हैं, टूट कर ख्वाब कई,
रख लूँ चुन के!

सिमट रहे, ये दलीचे उम्र के,
ख्वाब कोई, अब, आए ना मुड़ के!

हम-उम्र कोई होता, तो ख्वाब पिरो लेता,
पर, ख्वाबों के ये उम्र नहीं,
संजोये ख्वाब कोई, वो हम-उम्र नहीं,
छलके हैं, रख लूूँ ख्वाब वही,
आँखों में भर के!

सिमट रहे, ये दलीचे उम्र के,
ख्वाब कोई, अब, आए ना मुड़ के!

पर, ख्वाबों के वो तारे, हो चले हैं बंजारे,
थे कल तक, जो नैन किनारे,
छोड़ चले हैं वो, इस मझधार सहारे,
रहते है, जो अब भी साथ यहीं,
बेगाने से बन के!

सिमट रहे, ये दलीचे उम्र के,
ख्वाब कोई, अब, आए ना मुड़ के!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 15 March 2020

मन चाहे

मन चाहे, जी लूँ दोबारा!
जीत लूँ सब, जो जीवन से हारा!

संदर्भ नए, फिर लिख डालूँ,
नजर, विकल्पों पर फिर से डालूँ,
कारण, सारे गिन डालूँ,
हारा भी, तो मैं,
क्यूँ हारा?

मन चाहे, जी लूँ दोबारा!
जीत लूँ सब, जो जीवन से हारा!

खोए से वो पल, दोहरा लूँ,
जीवन से, बिखरे लम्हे पा डालूँ,
मोती, बिखरे चुन डालूँ,
बिखरा तो, वो पल,
क्यूँ बिखरा?

मन चाहे, जी लूँ दोबारा!
जीत लूँ सब, जो जीवन से हारा!

ख्वाब अधूरे, चाहत के सारे,
जीवन के, भटकावों से हम हारे,
खुद को ही, समझा लूँ,
ठहरा भी, तो मैं,
क्यूँ ठहरा?

मन चाहे, जी लूँ दोबारा!
जीत लूँ सब, जो जीवन से हारा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 9 February 2020

तुम जो गए

तुम जो गए, ख्वाब कैसे बो गए!

लेते गर सुधि,
ऐ, सखी,
सौंप देता, ये ख्वाब सारे,
सुध जो हारे,
बाँध देता, उन्हें आँचल तुम्हारे,
पल, वो सभी,
जो संग, तेरे गुजारे,
रुके हैं वहीं,
नदी के, वो ठहरे से धारे,
बहने दे जरा,
मन,
या
नयन,
सजल, सारे हो गए, 
तुम जो गए!

तुम जो गए, ख्वाब कैसे बो गए!

सदियों हो गए,
सोए कहाँ,
जागे हैं, वो ख्वाब सारे,
बे-सहारे,
अनमस्क, बेसुध से वो धारे,
ठहरे वहीं,
सदियों, जैसे लगे हों,
पहरे कहीं, 
मन के, दोनों ही किनारे,
ये कैसे इशारे, 
जीते,
या 
हारे,
पल, सारे खो गए, 
तुम जो गए!

तुम जो गए, ख्वाब कैसे बो गए!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 8 February 2020

सपने

अजीब होते हैं, ये कितने...
बंद होते ही आँखें, तैरने लगते हैं सपने!
क्षण-भर को, कितने लगते ये अपने,
समाए कब, खुली पलकों में,
जागे से पल में, गैर लगे ये कितने!
विस्मित करते, ये सपने!

सपने ना होते, तो होती ना आशा,
कहीं ना रहता, ये मन बंधा सा,
उभरते ना, रंग कहीं उन ख्वाबों में,
रोशनी, होती न अंधियारों में,
यूँ, कल्पनाओं में, गोते ना खाते,
यूँ गीत कोई, पंछी ना गाते,
यूँ, खिलती ना कलियाँ, 
यूँ भौंरे, डोल-डोल न उन पर आते,
फूल कोई, फिर यूँ ना शर्माते,
सजती ना, फूलों से डोली, 
आती ना, लौटकर होली,
यूँ, गूंजती ना, कोयल की बोली,
संजोती ना, दुल्हन,
नैनों में रुपहले, सपने!

अजीब होते हैं, ये कितने....
दिग्भ्रमित कभी, कर जाते हैं ये सपने!
राह कहीं भटकाते, बन कर अपने,
समाए कब, पनाहों में सारे,
टूटे बिखरे, जैसे आसमां के तारे!
व्यथित करते, ये सपने!

सपने ना होते, पनपती ना निराशा,
उड़ता ये मन, आजाद पंछी सा,
न कैद होते, ये पंख किसी पिंजरे में,
हर वक्त, न होते इक पहरे से,
यूँ, आशाओं के, टुकड़े ना होते,
यूँ, टूट कर, काँच ना चुभते,
यूँ, बिखरते ना ये अरमाँ,
यूँ,भभक-भभक, जलती ना शमां,
यूँ, दूर कोई, विरहा ना गाता,
टूटती ना, फूलों की माला,
यूँ कोई, पीता ना हाला,
बिलखती ना, वो दुल्हन नवेली,
आँसुओं में, बहकर,
ना ढ़ल जाते, ये सपने!

अजीब होते हैं, ये कितने...
बहा ले जाते, कहीं छोड़ जाते ये सपने!
क्षण-भर ही, करीब होते जैसे अपने,
कभी करते, संग गलबहियाँ,
दूर हुए जब ये, गैर लगे ये कितने!
अतिरंजित से, ये सपने!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
 (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 31 January 2020

चल कहीं-ऐ दिल

चल कहीं, ऐ दिल, भटक न तू यहाँ!

बहा गई, आँधियाँ,
रहा न शेष, कुछ भी अब यहाँ,
ना वो, इन्तजार है!
अब न कोई, बे-करार है!
रास्ते, वो खो चुके,
तेरे वास्ते, थोड़ा वो रो चुके!
है कौन? 
जिनके वास्ते, तू रुके!
ख्वाब, ना सुना!
न कर, तू ये नादानियाँ!

चल कहीं, ऐ दिल, भटक न तू यहाँ!

न देख, तू ये ख्वाब,
तेरी तरह, है प्यासा ये तालाब,
बचा न वो, आब है!
सूखा सा, अब चेनाब है!
पंक बनी, वो धार,
कहीं दूर, हो चली वो धार!
रिक्त अंक!
अंक-पाश, किसे भरे?
साहिल, ये सूना!
कर न, तू मनमानियाँ!

चल कहीं, ऐ दिल, भटक न तू यहाँ!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
 (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday, 2 September 2019

ख्वाब

अनदेखे ख्वाब कैसे, दिखाए हैं ख्याल ने!

है वो चेहरा या है शबनम!
हुए बेख्याल, बस यही सोचकर हम!
हाँ, वो कोई रंग बेमिसाल है!
यूं ही हमने रंग डाले,
हाँ, जिन्दगी सवाल में!

कई ख्याल आ रहे हैं, उन्हीं के ख्याल में!

वो रंग है या नूर है,
जो चढ़ता ही जाए, ये वो सुरूर है,
हाँ, वो कुछ तो जरूर है!
यूं ही हमने देख डाले,
हाँ, कई रंग ख्वाब में!

अनोखे हैं रंग कितने, उन्हीं के ख्याल में!

ये कैसे मैं भूल जाऊँ?
है बस ख्वाब वो, ये कैसे मान जाऊँ?
हाँ, कहीं वो मुझसे दूर है!
यूं ही उसने भेज डाले,
हाँ, कई खत ख्वाब में!

रंगीन हो चुके हैं खत, उन्हीं के ख्याल मे!

हाँ, वो नजरों में गए हैं उतर!
इन ख्यालों में, कहीं कर रहे हैं बसर!
वो रूप है या बस ख्याल है!
यूं ही हम सँवार डाले,
हाँ, कई ख्वाब ख्याल में!

कई ख्वाब देख डाले, हम यूं ही ख्याल में!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा