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Thursday, 6 September 2018

खेवैय्या

हो गुम कहाँ तुम, ऐ मेरे खेवैय्या!
गहरी सी इस वापी में डोल रही मेरी नैय्या!

धीरज थिरता था, पहले इस वापी में,
धीर बड़ा मन को मिलता था इस वापी में,
अब आब नहीं इसकी मन माफिक,
तू खे मेरी ये नैय्या, जरा ध्यान से नाविक,
है संकट में है मेरी ये छोटी सी नैय्या,
हो गुम कहाँ, ऐ मेरे खेवैय्या!

थी बड़ी पावन, कभी आब यहाँ की,
किसी ने धोया है इसमें, सारे पाप जहाँ की,
अब खिलते नही हैं कमल यहाँ भी,
उस जलकुम्भी से, जरा बचना ऐ नाविक,
उलझ जाए न, मेरी ये टूटी सी नैय्या,
हो गुम कहाँ, ऐ मेरे खेवैय्या!

गहरी है वापी, ठहरी है आब यहाँ की,
अब बदली सी है, आब-ए-हयात यहाँ की,
अब यहाँ न मन को शुकून जरा भी,
चिन्ता मेरे मन की, बढाओ न ऐ नाविक,
पलट जाए न, है बेकाबू सी ये नैया,
हो गुम कहाँ, ऐ मेरे खेवैय्या!

हो गुम कहाँ तुम, ऐ मेरे खेवैय्या!
गहरी सी इस वापी में डोल रही मेरी नैय्या!

Tuesday, 7 November 2017

वापी

ले चल तू मुझको उस वापी ऐ नाविक,
हो आब जहाँ मेरे मनमाफिक।

अंतःसलिल हो जहाँ के तट,
सूखी न हो रेत जहाँ की,
गहरी सी हो वो वापी, हो मीठी सी आब जहाँ की।

दीड घुमाऊँ मैं जिस भी ओर,
हो चहुँदिश नीवड़ जीवन का शोर,
मन के क्लेश धुल जाए, हो ऐसी ही आब जहाँ की।

वापी जहाँ थिरता हो धीरज,
अंतःकीचड़ खिलते हों जहाँ जलज,
मन को शीतल कर दे, ऐसी खार हो आब जहाँ की।

ले चल तू मुझको उस वापी ऐ नाविक,
हो आब जहाँ मेरे मनमाफिक।

ऐ नाविक, रोको मत,
तुम खुद बयार बन पाल भरो,
बह जाने दो इस वापी में, मनमाफिक है आब यहाँ की।