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Tuesday, 27 April 2021

नयन-नयन

नयन-नयन, कितने सूने क्षण!

निखरते थे कल, नैनों में काजल,
प्रवाह नयन के, कब रुकते थे कल-कल,
हँसी, विषाद के वो पल,
अब कितने, नासाद हो चले,
सूख चले, नैनों से आँसू,
रूठ चले, ये क्षण!

उपवन-उपवन, सूखे कितने ये घन,
नयन-नयन, कितने सूने क्षण!

इच्छाओं के घेरों में, निस्पृह मन,
ज्यूँ, निस्संग, कोई तुरंग, भागे यूँ सरपट,
सूने से, उन सपनों संग,
विवश, बंद-बंद अपने आंगन,
जागी सी, इच्छाओं संग,
कैद हुए, ये क्षण!

निस्पृह, आंगन-आंगन कामुक मन,
नयन-नयन, कितने सूने क्षण!

इच्छाएं, छलक उठती थी जिनसे,
कुछ उदास क्षण, अब झांकते हैं उनसे,
सूने हैं, नैनों के दो तट,
विरान, इच्छाओं के ये पनघट,
अब क्या, रोकेंगी राहें,
निस्पृह, ये क्षण!

नयन-नयन, कितने सूने क्षण!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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निस्पृह; - 1. जिसे किसी प्रकार की इच्छा न हो; इच्छारहित; वासनारहित 2. जिसे लोभ न हो।

निस्संग; - 1. जिसके साथ कोई न हो; अकेला 2. जो किसी से कोई संबंध न रखता हो 3. सांसारिक विषय - वासनाओं से रहित;  उदासीन;  निष्काम;  निर्लिप्त

Friday, 9 April 2021

उभर आओ ना

उभर आओ ना, बन कर इक हकीकत,
सिमटोगे, लकीरों में, कब तक!

झंकृत, हो जाएं कोई पल,
तो इक गीत सुन लूँ, वो पल ही चुन लूँ,
मैं, अनुरागी, इक वीतरागी,
बिखरुं, मैं कब तक!

उभर आओ ना, बन कर इक हकीकत..

आड़ी तिरछी, सब लकीरें,
यूँ ही उलझे पड़े, कब से तुझको ही घेरे,
निकल आओ, सिलवटों से,
यूँ देखूँ, मैं कब तक! 
   
उभर आओ ना, बन कर इक हकीकत..

उतरे हो, यूँ सांझ बन कर,
पिघलने लगे हो, सहज चाँद बन कर,
यूँ टंके हो, मन की गगन पर,
निहारूँ, मैं कब तक!

उभर आओ ना, बन कर इक हकीकत..

खोने लगे हैं, जज्बात सारे,
भला कब तक रहें, ख्वाबों के सहारे,
नैन सूना, ये सूना सा पनघट,
पुकारूँ, मैं कब तक!

उभर आओ ना, बन कर इक हकीकत,
सिमटोगे, लकीरों में, कब तक!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday, 2 March 2020

कैसी फगुनाहट

संग हो, उम्मीदों की आहट!
तुम, तब ही आना, ऐ फगुनाहट!

खून-खून, है ये फागुन,
धुआँ-धुआँ, उम्मीदें,
बिखरे, अरमानों के चिथरे,
चोट लगे हैं गहरे,
हर शै, इक बू है साजिश की,
हर बस्ती, है मरघट!

संग हो, उम्मीदों की आहट!
तुम, तब ही आना, ऐ फगुनाहट!

छलनी-छलनी, ये मन,
छलकी सी, आँखें,
छूट चले, आशा के दामन,
रूठ चले हैं रंग,
डूब चुके, हृदय के तल-घट,
छूट, चुके हैं पनघट!

संग हो, उम्मीदों की आहट!
तुम, तब ही आना, ऐ फगुनाहट!

बस्ती थी, ये कल-तक,
है अब, ये मरघट,
घुल चुके भंग, इन रंगों में,
धुल चुके हैं अंग,
उड़ चले गुलाल, सपनों से,
अब कैसी, फगुनाहट!

संग हो, उम्मीदों की आहट!
तुम, तब ही आना, ऐ फगुनाहट!
हूँ, दंगों से आहत!
ऐ फगुनाहट!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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कैसी फगुनाहट (मेरी आवाज मे You Tube पर इस रचना को सुनें)
https://youtu.be/jV0W5oNbBAU

Saturday, 25 August 2018

अधूरा संवाद

करो ना कुछ बात, अभी अधूरा है ये संवाद.....

बिन बोले तुम सो मत जाना,
झूठमूठ ही, चाहे कुछ भी बतियाना,
या मेरी बातों में तुम खो जाना,
मुझको करनी है तुमसे, पूरी मन की बात,
अभी अधूरा है इक संवाद......

प्रिये, करो ना कुछ बात.....

भटका सा था मैं इक बंजारा,
तेरी ही पनघट पर था मैं तो ठहरा,
कुछ छाँव मिली मैं सब हारा,
बड़ी अद्भुद सी थी, उस छैय्यां की बात,
अभी अधूरा है इक संवाद......

प्रिये, करो ना कुछ बात.....

छाँव घनेरी, थी वो बरगद सी,
इक मंद बयार, वहीं थी आ ठहरी,
करता भी क्या अब मैं बेचारा,
उस बयार में थी, शीतल सी कोई बात,
अभी अधूरा है इक संवाद......

प्रिये, करो ना कुछ बात.....

अति लघु जुड़ाव जीवन का,
लधुत्तर फुर्सत के ये चंद लम्हात,
चुप चुप सी हो तुम क्यूं बोलो,
कह दो ना तुम, कुछ अनसूनी सी बात,
अभी अधूरा है इक संवाद......

प्रिये, करो ना कुछ बात.....

बिन बोले तुम सो मत जाना,
रिक्त कभी ना, ये झूला कर जाना,
इन बाहों का हो ना रिक्त शृंगार,
रिक्त ना रह जाए, आलिंगन की बात,
अभी अधूरा है इक संवाद......

करो ना कुछ बात, अभी अधूरा है ये संवाद.....

Tuesday, 24 October 2017

घट पीयूष

घट पीयूष मिल जाता, गर तेरे पनघट पर मै जाता!

अंजुरी भर-भर छक कर मै पी लेता,
दो चार घड़ी क्या,मैं सदियों पल भर में जी लेता,
क्यूँ कर मैं उस सागर तट जाता?
गर पीयूष घट मेरी ही हाथों में होता!
लहरों के पीछे क्यूँ जीवन मैं अपना खोता?

लेकिन था सच से मैं अंजान, मैं कितना था नादान!

हृदय सागर के उकेर आया मैं,
उत्कीर्ण कर गया लकीर पत्थर के सीने पर,
बस दो घूँट पीयूष पाने को,
मन की अतृप्त क्षुधा मिटाने को,
भटका रहा मैं इस अवनी से उस अंबर तक!

अब आया मैं तेरे पनघट, पाने को थोड़ी सी राहत!

झर-झर नैनों से बहते ये निर्झर,
कहते हैं ये कुछ मेरी पलकों को छू-छूकर,
है तेरा घट पीयूष का सागर,
तर जाऊँ मैं इस पीयूष को पाकर,
जी लूँ मैं इक जीवन, संग तेरे इस पनघट पर!

घट पीयूष का भर लूँ मैं, पावन सा तेरे पनघट पर!

Sunday, 24 January 2016

नैनों की पनघट

नैनों की तेरे पनघट पर,
मधु हाला प्यासा पथिक पा लेता,  
प्यास बुझाने जीवन भर की,
सुधि नैन पनघट की फिर फिर लेता।

नैनों की इस पनघट में,
पथिक देखता आलोक प्रखर सा,
दो घूँट हाला की पाने को,
सर्वस्व जीवन घट न्योछावर कर देता।

नैनों की इस पनघट तट पर,
व्यथित हृदय पीर पथिक का रमता,
विरह की चिर नीर बहाकर,
पनघट तट अश्रुमय जलमग्न कर जाता।

नैनों की इस मृदुहाला में,
कण कण पनघट का डूब जाता,
अनमिट प्यास पथिक की पर,
नैन पनघट ही परित्राण जीवन का पाता।