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Thursday, 8 April 2021

हूक उठे

दिल में हूक उठे, तब, कोई कविता लिखे,
ज्यूँ, कोयल कूक उठे!

कैसी, यह गूढ़ विधा!
ज्यूँ रोगी मन, योगी सा हुआ!
वो नीर लिए, अपनी ही, पीड़ लिखे,
उलझी सी, जंजीर लिखे,
खुद रोए, खुद हँसे!

वो कविता लिखे, ज्यूँ, कोयल कूक उठे!

शब्द-शब्द, हों कंपित,
हों, मुक्त-आकाश, रक्त-रंजित,
वो मन के, खंड-खंड, भू-खंड लिखे,
ढ़हती सी, हिमखंड लिखे,
रक्त बहे, शब्द हँसे!

वो कविता लिखे, ज्यूँ, कोयल कूक उठे!

इक, प्यासा एहसास,
जागा हर दर्द, बड़ा ही खास,
सौ-सौ बार, अनसुन मनुहार लिखे, 
अनवरत, वो गुहार लिखे,
पढ़-पढ़, खुद हँसे!

दिल में हूक उठे, तब, कोई कविता लिखे,
ज्यूँ, कोयल कूक उठे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 28 February 2021

कल से यहाँ

कूके न कोयल, ना ही, गाए पपीहा,
तुम जो गए, कल से यहाँ!

भाए न, तुम बिन, ये मद्दिम सा दिन,
लगे बेरंग सी, सुबह की किरण,
न सांझ भाए, 
ना रात भाए, कल से यहाँ!

वो बिखरा क्षितिज, कितना है सूना,
वो चित्र सारे, किसी ने है छीना,
बेरंग ये पटल, 
सूने ये नजारे, कल से यहाँ!

बड़ी बेसुरी, हो चली ये रागिणी अब,
वो धुन ही नहीं, गीतों में जब,
न गीत भाए,
ना धुन सुहाए, कल से यहाँ!

यूँ अभिभूत किए जाए, इक कल्पना,
बनाए, ये मन, कोई अल्पना,
यादों में आए,
वो ही सताए, कल से यहाँ!

कूके न कोयल, ना ही, गाए पपीहा,
तुम जो गए, कल से यहाँ!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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इस पटल पर 1300 वीं रचना.......
सफर जारी है अभी.....

Sunday, 5 July 2020

शंकाकुल मन

आकुल करती, हल्की-सी भोर,
व्याकुल कोयल की कूक,
ढ़ुलमुल सी, बहती ठंढी पवन,
और शंकाकुल,
ये मन!

सुबह, जाने क्या-क्या ले आई?
क्यूँ, कोयल थी भरमाई?
क्यूँ पवन, यूँ बहती इठलाई?
प्रश्नों में घिरा,
ये मन!

है वो भोर की किरण, या मन का प्रस्फुटन!
वो गूंज है कोयल की, या अपनी ही धड़कन!
चलती है पवन या तेज है सांसों का घन!
यूँ बादलों को, निहारते ये नयन,
दिन में जागते से, ये सपन,
घबराए क्यूँ ना,
ये मन!

सपना ये कैसा? वो भोर इक हकीकत सा!
वो रव, कूक, वो कलरव, मन के प्रतिरव सा!
ढ़ुलमुल वो पवन, च॔चल सी इस मन सा,
असत्य के अन्तस, इक सत्य सा,
कल्पना कोई, इक मूरत सा,
पर माने ना,
ये मन!

धुन कोई, बुनता वो अपनी ही,
प्रतिरव, सुनता अपनी ही,
भ्रमित करते स्वर, वो आरव,
उस पर गरजाते,
वो घन!

फिर जगती, आकुल होती भोर,
कूकती, व्याकुल सी कूक,
बहती, ढ़ुलमुल सी ठ॔ढ़ी पवन,
और शंकाकुल,
ये मन!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 19 June 2020

मन हो चला पराया

मेरी सुसुप्त संवेेेेदनाओं को फिर पिरोने,
वो कौन आया?
मन हो चला पराया!

लचकती डाल पर,
जैसे, छुप कर, कूकती हो कोयल,
कदम की ताल पर,
दिशाओं में, गूंजती हो पायल,
है वो रागिनी या है वो सुरीली वादिनी!
वो कौन है?
जो लिए, संगीत आया!

जग उठी, सोई सी संवेदनाएँ,
मन हो चला पराया!

आँखें मूंद कोई,
कुछ कह गया हो, प्यार बनकर,
गिरी हो बूँद कोई,
घटा से, पहली फुहार बनकर,
है वो पवन, या वो है नशीला सावन!
वो कौन है?
जो लिए, झंकार आया!

जग उठी, सोई सी संवेदनाएँ,
मन हो चला पराया!

चहकती सी सुबह,
जैसे, जगाती है झक-झोरकर,
खोल मन की गिरह,
कई बातें सुनाती है तोलकर,
है वो रौशनी या वो है कोई चाँदनी!
वो कौन है?
जो लिए, पुकार आया!

मेरी सुसुप्त संवेेेेदनाओं को फिर पिरोने,
वो कौन आया?
मन हो चला पराया!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 11 February 2020

रुग्ध मन

दुग्ध रौशन,
मुग्ध मंद पवन,
रुग्ध ये मन!

बहकी घटा,
हलकी सी छुवन,
गुम ये मन!

खिलती कली,
हिलती डाल-डाल,
क्षुब्ध ये मन!

 सुरीली धुन, 
फिर वो रूनझुन, 
डूबोए मन!

बहते नैन,
पल भर ना चैन, 
करे बेचैन!

गाती कोयल,
भाए न इक पल, 
करे बेकल!

 वही आहट,
वो ही मुस्कुराहट,
भूले न मन!

खुद से बातें, 
खुद को समझाते,
रहे ये मन!

अंधेरी रातें,
फिर वो सौगातें,
ढ़ोए ये मन!

ना कोई कहीं, 
कहें किस से हम,
रोए ये मन!

दुग्ध रौशन,
मुग्ध मंद पवन,
रुग्ध ये मन!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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हाइकु - कविता की एक ऐसी विधा, जिसकी उत्पत्ति जापान में हुई और जिसके बारे में आदरणीय रवीन्द्रनाथ ठाकुर जी ने कहा कि "एइ कवितागुलेर मध्ये जे केवल वाक्-संयम ता नय, एर मध्ये भावेर संयम।" अर्थात, यह सिर्फ शब्द संयोजन नहीं, इसके मध्य एक भाव संयोजन है।

Saturday, 8 February 2020

सपने

अजीब होते हैं, ये कितने...
बंद होते ही आँखें, तैरने लगते हैं सपने!
क्षण-भर को, कितने लगते ये अपने,
समाए कब, खुली पलकों में,
जागे से पल में, गैर लगे ये कितने!
विस्मित करते, ये सपने!

सपने ना होते, तो होती ना आशा,
कहीं ना रहता, ये मन बंधा सा,
उभरते ना, रंग कहीं उन ख्वाबों में,
रोशनी, होती न अंधियारों में,
यूँ, कल्पनाओं में, गोते ना खाते,
यूँ गीत कोई, पंछी ना गाते,
यूँ, खिलती ना कलियाँ, 
यूँ भौंरे, डोल-डोल न उन पर आते,
फूल कोई, फिर यूँ ना शर्माते,
सजती ना, फूलों से डोली, 
आती ना, लौटकर होली,
यूँ, गूंजती ना, कोयल की बोली,
संजोती ना, दुल्हन,
नैनों में रुपहले, सपने!

अजीब होते हैं, ये कितने....
दिग्भ्रमित कभी, कर जाते हैं ये सपने!
राह कहीं भटकाते, बन कर अपने,
समाए कब, पनाहों में सारे,
टूटे बिखरे, जैसे आसमां के तारे!
व्यथित करते, ये सपने!

सपने ना होते, पनपती ना निराशा,
उड़ता ये मन, आजाद पंछी सा,
न कैद होते, ये पंख किसी पिंजरे में,
हर वक्त, न होते इक पहरे से,
यूँ, आशाओं के, टुकड़े ना होते,
यूँ, टूट कर, काँच ना चुभते,
यूँ, बिखरते ना ये अरमाँ,
यूँ,भभक-भभक, जलती ना शमां,
यूँ, दूर कोई, विरहा ना गाता,
टूटती ना, फूलों की माला,
यूँ कोई, पीता ना हाला,
बिलखती ना, वो दुल्हन नवेली,
आँसुओं में, बहकर,
ना ढ़ल जाते, ये सपने!

अजीब होते हैं, ये कितने...
बहा ले जाते, कहीं छोड़ जाते ये सपने!
क्षण-भर ही, करीब होते जैसे अपने,
कभी करते, संग गलबहियाँ,
दूर हुए जब ये, गैर लगे ये कितने!
अतिरंजित से, ये सपने!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
 (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 24 January 2020

और, मैं चुप सा

कितनी सारी, बातें करती हो तुम!
और, मैं चुप सा!

बज रही हो जैसे, कोई रागिनी,
गा उठी हो, कोयल,
बह चली हो, ठंढ़ी सी पवन,
बलखाती, निश्छल धार सी तुम!
और, मैं चुप सा!

गगन पर, जैसे लहराते बादल,
जैसे डोलते, पतंग,
धीरे से, ढ़लका हो आँचल, 
फुदकती, मगन मयूरी सी तुम!
और, मैं चुप सा!

कह गई हो, जैसे हजार बातें, 
मुग्ध सी, वो रातें,
आत्ममुग्ध, होता ये दिन,
गुन-गुनाती, हर क्षण हो तुम!
और, मैं चुप सा!

कितनी सारी, बातें करती हो तुम!
और, मैं चुप सा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 19 February 2019

वो बोलती रही

वो बोलती रही, कल-कल झरता रहा झरना!

थी कुछ ऐसी, उसके स्वर की संरचना,
मुग्ध हुए थे सारे, स्तब्ध हुए तारे,
उस पल तो हम भी थे, खुद को हारे,
कोयल, भूल गई थी कूकना,
मुखर हो चली थी, साधारण सी रचना!

वो बोलती रही, कल-कल बहती रही रचना!

नव-पल्लव बन, पल्लवित हुए थे स्वर,
महुए की रस में, प्लावित वे स्वर,
उनकी अधरों पर, आच्छादित होकर,
स्वर, सीख रहे थे इठलाना,
सुघड़ हो चली थी, साधारण सी रचना!

वो बोलती रही, इठलाती बहती रही रचना!

मोहक है वो स्वर, उस कंठ है कलरव,
स्वर ने पाया, उस कंठ का वैभव,
डूबे आकण्ठ, उनकी जादू में खोकर,
स्वर, जान गई थी मुस्काना,
प्रखर हो चली थी, साधारण सी रचना!

वो बोलती रही, इतराती बहती रही रचना!

अब मचलकर, बोल उठे वो गूंगे स्वर,
सँवर कर, डोल रहे वो गूंगे स्वर,
झरने सी, कल-कल बहती मन पर,
स्वर ने था, जीवन को जाना,
जीवन्त हो चली , साधारण सी रचना!

वो बोलती रही, कल-कल झरता रहा झरना!
जीती रही, साधारण सी अंकित रचना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
This poem has been Selected as FEATURED POST at INDIBLOGGER. Thanks to All. Regards.

Monday, 14 January 2019

कैसे ना तारीफ करें

कह दे कोई! कैसे ना तारीफ करें....

बासंती रंग, हवाओं में बिखरे,
पीली सरसों, जब खेतों में निखरे,
कहीं पेड़ों पर, कोयल कूक भरे,
रिमझिम बूंदें, घटाओं से गिरे!

कह दे कोई! कैसे ना तारीफ करें....

मुस्काए कोई, हलके-हलके,
सर से उनके, जब आँचल ढ़लके,
बातें जैसे, कोई मदिरा छलके,
वो कदम रखें, बहके-बहके!

कह दे कोई! कैसे ना तारीफ करें....

तारीफ के हो, कोई काबिल,
लफ्जों में हो, किन्हीं के बिस्मिल,
आँखों मे हो , तारे झिलमिल,
बातों में हो, हरदम शामिल!

कह दे कोई! कैसे ना तारीफ करें....

Tuesday, 2 October 2018

शायद तुम आए थे!

शायद तुम आए थे? हाँ, तुम ही आए थे!

महक उठी है, कचनार सी,
मदहोश नशे में, झूम रहे हैं गुंचे,
खिल रही, कली जूही की,
नृत्य नाद कर रहे, नभ पर वो भँवरे,
क्या तुम ही आए थे?

चल रही है, पवन बासंती,
गीत अजूबा, गा रही वो कोयल,
तम में, घुल रही चाँदनी,
अदभुत छटा लेकर, निखरा है नभ,
शायद तुम ही आए थे?

ये हवाएँ, ऐसी सर्द ना थी!
ये दिशाएँ, जरा भी जर्द ना थी!
ये संदेशे तेरा ही लाई है,
छूकर तुमको ही,आई ये पुरवाई है,
बोलो ना तुम आए थे?

कह भी दो, ये राज है क्या!
ये बिन बादल, बरसात है क्या!
क्यूँ मौसम ने रंग बदले,
सातो रंग, क्यूँ अंबर पर है बिखरे?
कहो ना तुम ही आए थे!

चाह जगी है, फिर जीने की,
अभिलाषा है, फिर रस पीने की,
उत्कंठा एक ही मन में,
प्राण फूंक गया, कोई निष्प्राणो में!
हाँ, हाँ, तुम ही आए थे!

शायद तुम आए थे? हाँ, तुम ही आए थे!

Sunday, 29 July 2018

भूलोगे कैसे

हर क्षण कण-कण मेरी याद दिलाएंगे......

वो सूनी राहें, वो बलखाते से पल,
बहते से लम्हे, ये हवाएं चंचल,
वो टूटे पत्ते, वो बिखरा सा आँचल,
यूं मुझमें खो जाओगे तुम,
बहते लम्हों संग, उड़ आओगे तुम,
मौसम के रंग बदलेंगे,
घटा घनघोर जमकर बरसेंगे,
भिगाएंगे, मन विरहाकुल कर जाएंगे....

हर क्षण कण-कण मेरी याद दिलाएंगे......

उड़-उड़कर कागा मुंडेरे पे आएंगे,
काँव-काँव कर संदेशे लाएंगे,
अकुलाहट आने की ये दे जाएंगे,
सोचोगे, राह तकोगे तुम,
सूनी राहों के पदचाप गिनोगे तुम,
कागा फिर फिर आएंगे,
मुंडेर चढ़ गाएंगे, चिढाएंगे,
तरसाएंगे, मन आकुल कर जाएंगे....

हर क्षण कण-कण मेरी याद दिलाएंगे......

कुहू-कुहू कोयल झुरमुट में गाएगी,
छुप-छुप विरहा ये सुनाएंगी,
यादें मेरी लेकर वो भी आएंगी,
मन ही मन, गाओगे तुम,
कुछ गीत मेरे, यूं दोहराओगे तुम,
सूने नैने छलक आएंगे,
कोयल, रुक-रुककर गाएंगे,
जलाएंगे, मन व्याकुल कर जाएंगे....

हर क्षण कण-कण मेरी याद दिलाएंगे......

Wednesday, 9 August 2017

अनुरोध

मधुर-मधुर इस स्वर में सदा गाते रहना ऐ कोयल....

कूउउ-कूउउ करती तेरी मिश्री सी बोली,
हवाओं में कंपण भरती जैसे स्वर की टोली,
प्रकृति में प्रेमर॔ग घोलती जैसे ये रंगोली,
मन में हूक उठाती कूउउ-कूउउ की ये आरोहित बोली!

मधुर-मधुर इस स्वर में सदा गाते रहना ऐ कोयल....

सीखा है पंछी ने कलरव करना तुमसे ही,
पनघट पे गाती रमणी के बोलों में स्वर तेरी ही,
कू कू की ये बोली प्रथम रश्मि है गाती,
स्वर लहरी में डुबोती कूउउ-कूउउ की ये विस्मित बोली!

मधुर-मधुर इस स्वर में सदा गाते रहना ऐ कोयल....

निष्प्राणों मे जीवन भरती है तेरी ये तान,
बोझिल दुष्कर क्षण हर लेती है ये तेरी मीठी गान,
क्षण भर में जी उठते हैं मृत से प्राण,
सपने नए दिखाती कूउउ-कूउउ की ये अचम्भित बोली!

मधुर-मधुर इस स्वर में सदा गाते रहना ऐ कोयल....

Friday, 31 March 2017

कोकिल विधा

कहीं गूंज उठा था कोकिल सा स्वर में,
इक काव्य अनसुना सा कोई,
हठात् रुका था राहों में मैं,
जैसे रुका हो बसंत, कहीं अनमना सा कोई।

कहीं ओझल था वो कोयल नजरों से,
गाता वो काव्य अनोखा सा कोई,
चहुँ ओर तकता फिरता मैं,
जैसे प्यासा हो चातक, कहीं सावन हो खोई।

सरस्वती स्वयं विराजमान उस स्वर में,
स्वरों की रागिनी हो जैसे कोई,
नियंत्रित फिर कैसे रहता मैं,
निरंतर स्वरलहरी जब, पल पल बजती हो कोई।

अष्टदिशाएँ खोई उस कोकिल स्वर में,
इन्द्रधनुषी आभा फैला सा कोई,
खींचता सा जा रहा था मैं,
अमिट छाप जेहन पर, उत्कीर्ण कर गया कोई।

कोई काव्य अनूठी सी रची उस स्वर ने,
अलिखित संरचना थी वो कोई,
पूर्ण कर जाता वो काव्य मैं,
वो विधा वो कोकिलवाणी, मुझको दे जाता कोई।

Friday, 4 March 2016

जब जब तुम हँसती हो

राग नए नए बन जाते हैं,जब जब तुम हँसती हो,

राग मल्हार बज गए तेरे हँसने से,
गीत बादलों ने अब छेड़ा है पीछे से,
बूँदों की झमझम कर रही करताल,
घटाएँ नृत्य कर रही ऩभ में विकराल।

लावण्य चेहरे की बढ़ जाती है जब तुम हसती हो,,

निराली छवि निखरी है चाँदनी सी,
होठों पर खिल गई हजार कलियाँ भी,
चाँद भी देखो शरमा रहा सामने नभ में,
तारों की बारात चल प़ड़ी आपके साथ में।

मोहक जीवन हो जाता है जब जब तुम हसती हो,

इक इक हँसी आपकी मरहम सी,
घाव हजार दुखों का जीवन के ये भर देती,
घायल चातक मैं आपके चितवन का,
आपकी मुस्कुराहट के मरहम का मैं रोगी।

तेरे सुर मे कोयल गाती है, जब जब तुम हसती हो।

राग ये कैसी छिड़ गई हँसने से आपके,
कूक कोयल की भूली है गीतों में आपके,
इस सुर की बहार फैली है अब चारो ओर,
मैं आपके गीतों का प्रेमी, है मेरा मन विभोर।

राग नए नए बन जाते हैं,जब जब तुम हँसती हो।

Tuesday, 16 February 2016

बसंत ने ली अंगड़ाई

अंजुरी भर भर अाम रसीली मंजराई,
वसुधा के कणकण पर छाई तरुनाई,
स्वागत है बसंत ने ली फिर अंगड़ाई।

रूप अतिरंजित कली कली मुस्काई,
प्रस्फुटित कलियों के सम्पुट मदमाई,
स्वागत है बसंत ने ली फिर अंगड़ाई।

कूक कोयल की संगीत नई भर लाई,
मंत्रमुग्ध होकर भौंरे भन-भन बौराए,
स्वागत है बसंत ने ली फिर अंगड़ाई।