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Thursday, 5 November 2020

हैं हालात क्या?

है बात क्या?
पूछे है कोई, दिल से मेरे,
जीर्ण जज़्बातों के हैं,
हालात क्या?

सूनी ये सड़क है, न अन्दर धड़क है,
खोए, गुम-सुम से हैं, बड़े चुप-चुप से हैं, 
ओढ़े हैं, खामोशियाँ!
जागे एहसासों के हैं, हालात क्या?

है बात क्या?
पूछे है कोई, दिल से मेरे, 
जज्ब जज़्बातों के हैं,
हालात क्या?

आता नहीं, अब कोई इस मोड़ तक,
खुशियाँ नहीं, शहर के किसी छोड़ तक,
पसरी है, विरानियाँ!
भीगी साहिलों के हैं, हालात क्या?

है बात क्या?
पूछे है कोई, दिल से मेरे,
जज्ब जज़्बातों के हैं,
हालात क्या?

मुद्दतों हुए, तुम कहाँ, खुल कर हँसे,
आ किसी कैदखाने में, खुद ही हो फ॔से,
गुम है, जिन्दगानियाँ!
लुटे चैनो-भ्रम के हैं, हालात क्या?

है बात क्या?
पूछे है कोई, दिल से मेरे,
जज्ब जज़्बातों के हैं,
हालात क्या?

शर्मसार, कर ना जाएं, कल ये तुम्हें,
रूठकर, मुड़ ना जाएं, हाथों से ये लम्हे,
कैसी है, रुसवाईयाँ!
बीते लम्हातों के हैं, हालात क्या?

है बात क्या?
पूछे कोई, दिल से मेरे,
जीर्ण जज़्बातों के हैं,
हालात क्या?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 28 August 2020

जिन्दगी

कुछ बारिश ही, बरसी थी ज्यादा!
भींगे थे, ऊड़ते सपनों के पर,
ऊँचे से, आसमां पर!
यूँ तो, हर तरफ, फैली थी विरानियाँ!
वियावान डगर, सूना सफर,
धूल से, उड़ते स्वप्न!

क॔पित था जरा, मन का ये शिला!
न था अनावृष्टि से अब गिला,
जागे थे, सारे सपन!
यूँ थी ये हकीकत, रहते ये कब तक!
क्या अतिवृष्टि हो तब तक?
क्षणिक थे वो राहत!

खिले हैं फूल तो, खिलेंगे शूल भी!
अंश भाग्य के, देंगे दंश भी,
प्रकृति के, ये क्रम!
यूँ अपनों में हम, यूँ अपनों का गम!
टूटते-छूटते, कितने अवलम्ब!
काल के, ये भ्रम!

राह अनवरत, चलती है ये सफर!
बिना रुके, चल तू राह पर,
कर न, तू फिकर!
तू कर ले कल्पना, बना ले अल्पना!
है ये जिन्दगी, इक साधना,
सत्य तू ये धारणा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 20 August 2019

चंद बातें

मंद सांसों में, बातें चंद कह दे!
तू आज, मुझसे कोई छंद ही कह दे!

चुप हो तुम, तो चुप है जहां!
फैली है जो खामोशियाँ!
पसरती क्यूँ रहे?
इक गूंज बनकर, क्यूँ न ढले?
चहक कर, हम इसे कह क्यूँ न दें?
चल पिरो दें गीत में इनको!
बातें चंद ही कह दे!

तू आज, मुझसे कोई छंद ही कह दे!

तू खोल दे लब, कर दे बयां!
दबी हैं जो चिंगारियाँ!
सुलगती, क्यूँ रहें?
इक आग बनकर, क्यूँ जले?
इक आह ठंढ़ी, इसे हम क्यूँ न दें?
बंद होठों पर, इसे रख दे!
बातें चंद ही कह दे!

तू आज, मुझसे कोई छंद ही कह दे!

चंद बातों से, जला ले शमां!
पसरी है जो विरानियाँ!
डसती क्यूँ रहे?
विरह की सांझ सी, क्यूँ ढले?
मंद सी रौशनी, इसे हम क्यूँ न दें?
चल हाथ में, हम हाथ लें!
बातें चंद ही कह दे!

तू आज, मुझसे कोई छंद ही कह दे!

मंद सांसों में, बातें चंद कह दे!
तू आज, मुझसे कोई छंद ही कह दे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Friday, 8 April 2016

फुहार

इक लहर बन के लहराते अगर मन की इस बाग पे!

फुहार बन के बरसे थे वो एक दिन,
खिल उठी थी विरानियों में गुलशन वहीं,
चमन की हर शाख पर बूँदें छलक आई थी,
गर्म पत्तो की साँसे भी लहराई थी।

फिर वही ढूंढ़ता है दिल फुहारों के दिन,
वो बरसात किस काम की जब बहारें न हों,
बूँदें छलकती रहें चमन की हर शाख पर,
हरी पत्तियों की साँसें कभी गर्म न हों।

वादियों के ये दामन पुकारती हैं तुम्हें,
ये खुला आसमाँ फलक पे ढ़ूंढ़ती हैं तुम्हें,
गुम हुए तुम कहाँ चमन की शाख से,
इक लहर बन के लहराओ मन की इस बाग पे।

Monday, 28 March 2016

साहिलों से भटकी लहर

इक लहर भटकी हुई जो साहिलों से,
मौज बनकर भटक रही अब इन विरानियों में,
अंजान वो अब तलक अपनी ही मंजिलों से।

सन्नाटे ये रात के कटते नही हैं काटते,
मीलों है तन्हाईयाँ जिए अब वो किसके वास्ते,
साहिलों का निशाँ दूर उस लघु जिन्दगी से।

सिसकियों से पुकारती साहिल को वो दूर से,
डूबती नैनों से निहारती प्रियतम को मजबूर सी,
खो गई आवाज वो अब मौज की रानाईयों में।

इक लहर वो गुम हुई अब समुंदरों में,
मौज असंख्य फिर भी उठ रही इन समुंदरों में,
प्राण साहिल का भटकता उस प्रियतमा में।

पुकारता साहिल उठ रही लहरों को अब,
आकुल हृदय ढूंढता गुम हुई प्रियतमा को अब,
इंतजार में खुली आँखें हैं उसकी अब तलक।

टकरा रही लहर-लहर सागर हुई वीरान सी,
चीरकर विरानियों में गुंजी है इक आवाज सी,
तम तमस घिर रहे साहिल हुई उदास सी।

वो लहर जो लहरती थी कभी झूमकर,
अपनी ही नादानियों में कहीं खो गई वो लहर,
मंजिलों से दूर भटकी प्यासी रही वो लहर।

Sunday, 21 February 2016

ये किस मुकाम पर जिन्दगी

ए जिन्दगी, इन रास्तों का पता अब तू ही मुझको बता। 

ये किस मुकाम पर आ पहुँची है जिन्दगी,
 न अपनों की खबर न मजिलों का हेै पता, 
सहरा की धूल मे कहीं, खो गई हर रास्ता,
चँद सांसे ही बची अब, आपसे ही वास्ता।

अंतहीन मरुभूमि सी, लग रही ये जिन्दगी,
धूल सी जम गई समुज्जवल सोच पर मेरे,
संकुचित सिमट रहे, अब दायरे विश्वास के,
मुकाम अब ये कौन सी जिन्दगी के वास्ते।

रेखाएँ सी खिची हुई, हर तरफ यहाँ वहाँ,
अंजान इन रास्तों पर कदम रखें तों कहाँ,
अक्ल जम सी गई हैं, देख कर विरानियाँ,
ये किस मुकाम पर ले आई मेरी रवानियाँ।

ए जिन्दगी, इन रास्तों का पता अब तू ही मुझको बता।