Wednesday, 26 February 2020

तंग गलियारे

माना, हम सब सह जाएंगे,
दंगों के विष, घूँट-घूँट हम पी जाएंगे,
आगजनी, गोलीबारी,
तन-बदन और सीनों पर, झेल जाएंगे,
लेकिन, मन की तंग गलियारों से,
आग की, उठती लपटें,
धू-धू, उठता धुआँ,
इन साँसों में, कैसे भर पाएंगे?

जलता मन, सुलगता बदन,
आघातों के, हर क्षण होते विस्फोट,
डगमगाता विश्वास,
बहती गर्म हवाएँ, सुलगते से ये होंठ,
जहरीली तकरीरें, टूटती तस्वीरें,
चुभते, बिखरे से काँच,
सने, खून से दामन,
इस मन को, कैसे जोड़ पाएंगे?

मन के, ये तंग से गलियारे,
नफ़रतों, साज़िशों की ऊँची दीवारें,
वैचारिक अंन्तर्द्वन्द,
अन्तर्विरोध व अन्तः प्रतिशोध के घेरे,
अवरुद्ध हो चली, वैचारिकताएं,
घिनौनी मानसिकताएं,
चूर-चूर, होते सपने,
इन नैनों में, कैसे बस पाएंगे?

इन, तंग गलियारों में ....
माना, हम सब सह जाएंगे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
 (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 23 February 2020

मंद मार्तण्ड

छुपी है क्यूँ रौशनी, रात की आगोश में!

विवश बड़ा, हुआ दिवस का पहर, 
जागते वो निशाचर, वो काँपते चराचर!
भान, प्रमान का अब कहाँ?
दिवा, खो चली यहाँ,
वो दिनकर, दीन क्यूँ है बना?
निशा, रही रुकी,
उस निशीथिनी की गोद में!

छुपी है क्यूँ रौशनी, रात की आगोश में!

खिली हुई धूप में, व्याप्त है अंधेरा,
पूछ लूँ क्षितिज से, कहाँ छुपा है सवेरा!
अब तो, भोर भी हो चला,
चाँद, कहीं खो चला,
तमस, अब तलक ना ढ़ला!
याम, क्यूँ छुपी?
उस यामिनी की गोद में!

छुपी है क्यूँ रौशनी, रात की आगोश में!

व्याप्त है, रात का, वो दुरूह पल,
तू ही बता, क्यूँ ये रात, कर रहा है छल!
अब तो, गुम हुई है चाँदनी,
गई, कहाँ वो रौशनी,
मार्तण्ड, मंद क्यूँ हो चला!
विभा, क्यूँ छुपी?
उस विभावरी की गोद में?

छुपी है क्यूँ रौशनी, रात की आगोश में!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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शब्दार्थ:---------
प्रमान : दिन, विभा, याम
मार्तण्ड: सूर्य
निशीथिनी: रात, निशा, यामिनी

Saturday, 22 February 2020

लहर! नहीं इक जीवन!

वेदना ही है जीवन, व्यथा किसने ना सहा!
क्यूँ भागते हो जीवन से?
लहरों को, कब मैंने जीवन कहा?

इक ज्वार, नहीं इक जीवन,
उठते हैं इक क्षण, फिर करते हैं गमन,
जैसे, अनुभव हीन कोई जन,
बोध नहीं, कुछ भान नहीं,
लवणित पीड़ा की, पहचान नहीं, 
सागर है, सुनसान नहीं,
छिड़के, मन की छालों पर लवण,
टिसते, बहते ये घन,
हलचल है, श्मशान नहीं,
रुकना होता है, थम जाना होता है,
भावों से, वेदना को, 
टकराना होता है,
तिल-तिल, जल-कर, जी जाना होता है!
जीवन, तब बन पाता है!

वेदना ही है जीवन, व्यथा किसने ना सहा!
क्यूँ भागते हो जीवन से?
लहरों को, कब मैंने जीवन कहा?

रह-रह, आहें भरता सागर,
इक-इक वेदना, बन उठता इक लहर,
मन के पीड़, सुनाता रो कर,
बदहवास सी, हर लहर,
पर, ये जीवन, बस, पीड़ नहीं,
सरिता है, नीर नहीं,
डाले, पांवों की, छालों पर मरहम,
रोककर, नैनों में घन,
यूँ चलना है, आसान नहीं,
रहकर अवसादों में, हँसना होता है,
हाला के, प्यालों को,
पी जाना होता है,
डूब कर वेदना संग, जी जाना होता है!
जीवन, फिर कहलाता है!

वेदना ही है जीवन, व्यथा किसने ना सहा!
क्यूँ भागते हो जीवन से?
लहरों को, कब मैंने जीवन कहा?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 21 February 2020

हे शिव!

हे शिव!

अर्पित है, दुविधा मेरी,
समर्पित, मन की शंका मेरी,
बस खुलवा दे, मेरे भ्रम की गठरी,
उलझन, सुलझ जाए थोड़ी,
जोड़ लूँ, मैं ये अँजुरी!

हे शिव!

क्या, सचमुच भगवान,
मांगते हैं, दूध-दही पकवान,
होने को प्रसन्न, चाहते हैं द्रव्य-दान,
लेते हैं, जीवों का बलिदान,
हूँ भ्रमित, मैं अन्जान!

हे शिव!

भीतर, पूजते वो पत्थर,
बाहर, रौंदते जो मानव स्वर,
निकलूं कैसे, मैं इस भ्रम से बाहर,
पूजा की, उन सीढ़ियों पर,
क्यूँ विलखते हैं ईश्वर?

हे शिव!

जीवन ये, स्वार्थ-प्रवण,
मानव ही, मानव के दुश्मन,
शायद, हतप्रभ चुप हैं यूँ भगवन,
घनेरे कितने, स्वार्थ के वन,
भटक रहा, मानव मन!

हे शिव!

पाप-पुण्य, सी दुनियाँ,
ये, सत्य-असत्य की गलियाँ,
धर्म-अधर्म की, तैरती कश्तियाँ,
बहती, नफरत की आँधियां,
भ्रम, हवाओं में यहाँ!

हे शिव!

अर्पित है, दुविधा मेरी,
समर्पित, मन की शंका मेरी,
बस खुलवा दे, मेरे भ्रम की गठरी,
उलझन, सुलझ जाए थोड़ी,
जोड़ लूँ, मैं ये अँजुरी!

हे शिव!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 20 February 2020

आर-पार

यूँ हर घड़ी, मैं, किसकी बात करूँ!
क्यूँ मैं, उसी की बात करूँ?

हूँ मैं इस पार, या हूँ मैं उस पार,
जैसे दर्पण क़ोई, करे खुद का ही दीदार,
क्यूँ ना, मैं इन्कार करूँ!

यूँ हर घड़ी, मैं, उसी की बात करूँ!

यूँ बूँद कोई, कभी छलक आए,
चले पवन कोई, बहा दूर कहीं ले जाए,
बहकी, कोई बात करूँ!

यूँ हर घड़ी, मैं, उसी की बात करूँ!

हुई ओझल, कहीं तस्वीर कोई,
रंग ख्यालों में लिए, बनाऊं ताबीर कोई,
अजनबी, कोई रंग भरूँ!

यूँ हर घड़ी, मैं, उसी की बात करूँ!

निहारूँ राह वही, यूँ अपलक,
वो सूना सा फलक, कोई ना दूर तलक,
यूँ बेखुदी में, जाम भरूँ!

यूँ हर घड़ी, मैं, उसी की बात करूँ!

हूँ मैं इस पार, या हूँ मैं उस पार,
है परछाईं कोई, या वो कल्पना साकार,
यूँ मैं क्यूँ, इंतजार करूँ!

यूँ हर घड़ी, मैं, उसी की बात करूँ!
क्यूँ मैं, उसी की बात करूँ?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 18 February 2020

चुप हो क्यूँ?

लो डुबकियाँ,
हो रहा बेजार, ये मझधार है!

जीवन, जिन्दगी में खो रहा कहीं,
मानव, आदमी में सो रहा कहीं, 
फर्क, भेड़िये और इन्सान में अब है कहाँ?
कहीं, श्मसान में गुम है ये जहां, 
बिलखती माँ, लुट चुकी है बेटियाँ, 
हैरान हूँ, अब तक हैवान जिन्दा हैं यहाँ!
अट्टहास करते हैं वो!
तुम चुप हो क्यूँ?

लो चुटकियाँ, 
हो रहा बेकार, नव-श्रृंगार है!

सत्य, कंदराओं में खोया है कहीं,
असत्य, यूँ प्रभावी होता नही!
फर्क, अंधेरों और उजालों में अब है कहाँ?
जंगलों में, दीप जलते हैं कहाँ,
सुलगती आग है, उमरता है धुआँ,
जिन्दा जान, तड़पते जल जाते हैं यहाँ!
तमाशा, देखते हैं वो!
तुम चुप हो क्यूँ?

लो फिरकियाँ, 
हो रहा बेजार, ये उपहार है!

भँवर, इन नदियों में उठते हैं यूँ ही,
लहर, समुन्दरों में यूँ डूबते नहीं,
फर्क, तेज अंधरो के, उठने से पड़ते कहाँ!
इक क्षण, झुक जाती हैं शाखें,
अगले ही क्षण, उठ खड़ी होती यहाँ,
निस्तेज होकर, गुजर जाती हैं आँधियां!
सम्हल ही जाते हैं वो!
तुम चुप हो क्यूँ?

लो डुबकियाँ,
हो रहा बेजार, ये मझधार है!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 16 February 2020

रचनाओं की विधा

जीते हैं, शायद वे कुंठाओं में,
या फिर सरस्वती, अवकुंठित हैं उनमें,
यूँ ही वाणी, अमर्यादित न होती,
यूँ अहम, प्रभावी न होते!

घोल कर, अपनी बातों में अहम,
कहते हैं वो, करते गर्जन, 
गर हो आपकी, कोई विधा-प्रकाशन,
चाहते हैं, पढ़ना हम-
- कुंडलियाँ, दोहा, रोला, सवैया,
- चौपाई, सायली, लावणी, धनाकरी, 
- मत्तगयंद, कवित्त, पंच चामर!

विद्या से परे, ना कोई विधा,
सुंदर से सुंदरतम, होती हर इक विधा,
यूँ ही ये विधाएं, प्लावित न होती,
यूँ कवि, चारण न बनते!

हर रचना, बुनती इक भाव,
तुलसी ने, कब लिखी गजल, लावणी,
दिनकर ने, कब लिखी कव्वाली,
यूँ रचना, प्रखर ना होते!

मेरी साधारण सी, रचनाएँ,
मन की यमुना है, बस बहती ही जाए,
गंगा है, कल-कल करती जाए,
यूँ धारा बन, ना बहते!

मन भर जाए, लिखता हूँ, 
विधा जो कहलाए, भाव बुन लेता हूँ,
जिनको पढ़ना हो, वे पढते हैं,
यूँ ही,भावों में बहते हैं!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
 (सर्वाधिकार सुरक्षित)

भटकाव - इक होड़

होड़ लगी है, हर ओर लगी है...

कविताओं से दूर, इक धार बही है,
जितना जो दूर, पार वही है!
भटकावे का, द्वार यही है,
लेकिन, कविताओं को है बहना,
पाँच सात पाँच, भी गिनना,
क्यूँ बंधकर बहना!
बंधने की, इक शोर सी मची है!

होड़ लगी है, हर ओर लगी है...

कहते हैं वो, यह कोई बिंब नही है,
मैं जो समझूँ, बिंब वही है!
भाव, इशारों में मत कहना,
बिंब ना बने, तो यूँ, चुप ही रचना,
पाँच सात पाँच, का चक्कर,
फिर ना करना,
चारो ओर, यही शोर मची है!

होड़ लगी है, हर ओर लगी है...

समझाते हैं वे, नियम कह-कह कर,
समीक्षाओं के, हठीले भँवर!
खो जाते हैं, भाव हो मुखर,
बहते ये भाव, नियमबद्ध हो कैसे,
पाँच सात पाँच, ही कहना,
या चुप ही रहना!
हर ओर, इक शोर सी मची है!

होड़ लगी है, हर ओर लगी है...

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
 (सर्वाधिकार सुरक्षित)

अवधान

टूटा ना अवधान,
उस, काल कोठरी में,
कैद हो चला, एक दिन और!
बिन व्यवधान!

और एक दिन....

धारा है अवधान,
मौन धरा नें, 
पल, अनगिनत बह चला,
अनवरत, रात ढ़ली, दिवस ढ़ला,
हुआ, सांझ का अवसान,
बिन व्यवधान!

और एक दिन....

टूटा ना अवधान,
कालचक्र का,
कहीं सृजन, कहीं संहार,
कहीं लूटकर, किसी का श्रृंगार,
वक्त, हो चला अन्तर्धान,
बिन व्यवधान!

और एक दिन....

कैसा ये अवधान,
वही है धरा,
बदला, बस रूप जरा,
छाँव कहीं, कहीं बस धूप भरा,
क्षण-क्षण, हैं अ-समान,
बिन व्यवधान!

और एक दिन....

टूटा ना अवधान,
उस, काल कोठरी में,
कैद हो चला, एक दिन और!
बिन व्यवधान!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
 (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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अवधान का अर्थ:
1. मन का योग । चित्त का लगाव । मनोयोग ।
2. चित की वृत्ति का निरोध करके उसे एक ओर लगाना । समाधि । 
3. ध्यान । सावधानी । चौकसी ।

Saturday, 15 February 2020

अंबर तले

मेघाच्छादन
बिखरता सैलाब~
गीला क्षितिज!

डूबती नाव~
उफनाती सी धार
तैरते लोग!

डूबते जन~
क्षत विक्षत घर 
रुग्न वाहन!

डूबती शैय्या~
आहत परिजन
जन सैलाब!

रहे सोचते~
अब चलें या रुके
अंबर तले!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
 (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 14 February 2020

कोशिशें

नीरवता! ठहरी क्यूँ है रात भर?
है कैसी, ये कोशिशें?

असंख्य तारे, टंके आसमां पर,
कर कोशिशें, लड़े अंधेरों से रात भर,
रहे जागते, पखेरू डाल पर,
उड़ना ही था, उन्हें हर हाल पर,
चाहे, करे कोशिशें,
अंधेरे, रुकने की रात भर!

नीरवता! ठहरी क्यूँ है रात भर?
है कैसी, ये कोशिशें?

ठहर जा, दो पल, ऐ चाँद जरा,
अंधेरे हैं घने, तू लड़, कुछ और जरा,
भुक-भुक सितारों, संग खड़ा,
हो मंद भले, तेरे दामन की रौशनी,
पर, तू है चाँदनी,
कोशिशें, कर तू रात भर!

नीरवता! ठहरी क्यूँ है रात भर?
है कैसी, ये कोशिशें?

यूँ जारी हैं, हमारी भी कोशिशें,
जलाए हमने भी, उम्मीदों के दो दीये,
लेकिन भारी है, इक रात यही,
व्याप्त निशा, नीरवता ये डस रही,
बुझने, ये दीप लगी,
करती कोशिशें, रात भर!

नीरवता! ठहरी क्यूँ है रात भर?
है कैसी, ये कोशिशें?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
 (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 13 February 2020

विहग - झूलती डाली

झूलती डाली, उड़ते-चहकते विहग,
जैसे, प्रसंग कोई छिड़ा हो,
गहन सी, कोई बात हो,
या, विहग, बिन-बात ही भिड़ा हो,
उलझ कर, साथ में,
फुर्र-फुर्र, वो कहीं उड़ा हो!

झूलती डाली, उड़-उड़ आते विहग,
प्रासंगिक सी, वो बात हो,
शुरु, फिर आप्रवास हो,
या, वियोग ही, विहग का बड़ा हो,
तीर, लग कर कोई,
जोड़ा, विहग का, मरा हो!

झूलती डाली, दूर-दूर तकते विहग,
बहेरी, पास ही खड़ा हो,
प्रसंग, वो ही बड़ा हो,
प्रश्न-चिन्ह, मानवता पर, लगा हो,
स्वार्थी, बहेरी ने ही,
लघु-मन को, झकझोरा हो!

झूलती डाली, विरह में डूबे विहग,
प्रसंग, जीवन से बड़ा हो,
जंग, कोई छिड़ा हो,
प्रश्न-चिन्ह, अस्तित्व पर लगा हो,
उस चह-चहाहट में, 
दर्द ही, विहग का घुला हो!

झूलती डाली, उड़ते-चहकते विहग,
जैसे, प्रसंग कोई छिड़ा हो,
गहन सी, कोई बात हो,
या, विहग, बिन-बात ही भिड़ा हो,
उलझ कर, साथ में,
फुर्र-फुर्र, वो कहीं उड़ा हो!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 12 February 2020

बेज़ुबान पंछी

सेवते अण्डे,
घटाटोप बादल,
सोचते पंछी!

दुष्ट प्रवृत्ति,
निर्दयी बहेलिया,
सहमी जान!

झूलते डाल,
टूटते वो घोंसले,
गिरते अण्डे!

तेज पवन,
निस्तेज होता मन,
चुप बेजुबां!

कैसा ये ज़हां,
बिखरा वो आशियां,
खुश अहेरी!

करे आखेट,
निर्दयी वो आखेटक,
मारते पंछी!

झूलते डाल,
बिखरे से घोंसले,
मृत वे चूजे!

रोते आकाश,
पछताते पवन,
कर अनर्थ!

चुप सी हवा,
ठहरा वो बादल,
निढ़ाल पंछी!

वही मानव,
बन बैठा दानव,
करे उत्सव!

थमा मौसम,
निढाल सा चातक,
ताकते नभ!

मूक सी बोली,
बेज़ुबान वो बात,
भीतरी घात!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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हाइकु: जापान के काव्य-जगत में, हाइकु को स्थान दिलाने वाले जापानी कवि बाशो ‘हाइकु’ को परिभाषित करते हुए कहते हैं कि  “एक अच्छा हाइकु क्षण की अभिव्यक्ति होते हुए भी किसी शास्वत जीवन-सत्य की अभिव्यक्ति होता है|”

हाइकु मूल रूप से एक अतुकांत कविता है और हाइकु के मान्य विषय प्रकृति–चित्रण और दार्शनिक-सोच हैं। परन्तु हिन्दी हाइकु में अनेकानेक विविध प्रयोग हुए हैं।

हाइकु में तीन चरण या पद होते हैं। पहले चरण में 5 वर्ण, दूसरे में 7 वर्ण एवं तीसरे में 5 वर्ण होते हैं। इस तरह तीनों चरणों में कुल (5+7+5) 17 वर्ण (स्वर या स्वर युक्त व्यंजन) होते हैं। स्वर रहित व्यंजन (हलन्त्) की गिनती नहीं की जाती, जैसे विस्तार में स् की गणना नही की जाएगी । इस शब्द में वि, ता और र की ही गणना की जाएगी । इस गणना में लघु/दीर्घ मात्राएँ समान रूप से गिनी जाती हैं, अर्थात् विस्तार में 1+1+1=3 वर्ण ही माने जाएँगे।

इन पंक्तियों की विशेषता होती है कि ये अपने आप में स्वतंत्र होती हैं परन्तु आखिरी अक्षर तक पहुँचते ही पाठक के सामने एक पूरी तस्वीर प्रस्तुत होती है, मन में गहन भाव का बोध होता है|

Tuesday, 11 February 2020

रुग्ध मन

दुग्ध रौशन,
मुग्ध मंद पवन,
रुग्ध ये मन!

बहकी घटा,
हलकी सी छुवन,
गुम ये मन!

खिलती कली,
हिलती डाल-डाल,
क्षुब्ध ये मन!

 सुरीली धुन, 
फिर वो रूनझुन, 
डूबोए मन!

बहते नैन,
पल भर ना चैन, 
करे बेचैन!

गाती कोयल,
भाए न इक पल, 
करे बेकल!

 वही आहट,
वो ही मुस्कुराहट,
भूले न मन!

खुद से बातें, 
खुद को समझाते,
रहे ये मन!

अंधेरी रातें,
फिर वो सौगातें,
ढ़ोए ये मन!

ना कोई कहीं, 
कहें किस से हम,
रोए ये मन!

दुग्ध रौशन,
मुग्ध मंद पवन,
रुग्ध ये मन!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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हाइकु - कविता की एक ऐसी विधा, जिसकी उत्पत्ति जापान में हुई और जिसके बारे में आदरणीय रवीन्द्रनाथ ठाकुर जी ने कहा कि "एइ कवितागुलेर मध्ये जे केवल वाक्-संयम ता नय, एर मध्ये भावेर संयम।" अर्थात, यह सिर्फ शब्द संयोजन नहीं, इसके मध्य एक भाव संयोजन है।

Sunday, 9 February 2020

तुम जो गए

तुम जो गए, ख्वाब कैसे बो गए!

लेते गर सुधि,
ऐ, सखी,
सौंप देता, ये ख्वाब सारे,
सुध जो हारे,
बाँध देता, उन्हें आँचल तुम्हारे,
पल, वो सभी,
जो संग, तेरे गुजारे,
रुके हैं वहीं,
नदी के, वो ठहरे से धारे,
बहने दे जरा,
मन,
या
नयन,
सजल, सारे हो गए, 
तुम जो गए!

तुम जो गए, ख्वाब कैसे बो गए!

सदियों हो गए,
सोए कहाँ,
जागे हैं, वो ख्वाब सारे,
बे-सहारे,
अनमस्क, बेसुध से वो धारे,
ठहरे वहीं,
सदियों, जैसे लगे हों,
पहरे कहीं, 
मन के, दोनों ही किनारे,
ये कैसे इशारे, 
जीते,
या 
हारे,
पल, सारे खो गए, 
तुम जो गए!

तुम जो गए, ख्वाब कैसे बो गए!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 8 February 2020

सपने

अजीब होते हैं, ये कितने...
बंद होते ही आँखें, तैरने लगते हैं सपने!
क्षण-भर को, कितने लगते ये अपने,
समाए कब, खुली पलकों में,
जागे से पल में, गैर लगे ये कितने!
विस्मित करते, ये सपने!

सपने ना होते, तो होती ना आशा,
कहीं ना रहता, ये मन बंधा सा,
उभरते ना, रंग कहीं उन ख्वाबों में,
रोशनी, होती न अंधियारों में,
यूँ, कल्पनाओं में, गोते ना खाते,
यूँ गीत कोई, पंछी ना गाते,
यूँ, खिलती ना कलियाँ, 
यूँ भौंरे, डोल-डोल न उन पर आते,
फूल कोई, फिर यूँ ना शर्माते,
सजती ना, फूलों से डोली, 
आती ना, लौटकर होली,
यूँ, गूंजती ना, कोयल की बोली,
संजोती ना, दुल्हन,
नैनों में रुपहले, सपने!

अजीब होते हैं, ये कितने....
दिग्भ्रमित कभी, कर जाते हैं ये सपने!
राह कहीं भटकाते, बन कर अपने,
समाए कब, पनाहों में सारे,
टूटे बिखरे, जैसे आसमां के तारे!
व्यथित करते, ये सपने!

सपने ना होते, पनपती ना निराशा,
उड़ता ये मन, आजाद पंछी सा,
न कैद होते, ये पंख किसी पिंजरे में,
हर वक्त, न होते इक पहरे से,
यूँ, आशाओं के, टुकड़े ना होते,
यूँ, टूट कर, काँच ना चुभते,
यूँ, बिखरते ना ये अरमाँ,
यूँ,भभक-भभक, जलती ना शमां,
यूँ, दूर कोई, विरहा ना गाता,
टूटती ना, फूलों की माला,
यूँ कोई, पीता ना हाला,
बिलखती ना, वो दुल्हन नवेली,
आँसुओं में, बहकर,
ना ढ़ल जाते, ये सपने!

अजीब होते हैं, ये कितने...
बहा ले जाते, कहीं छोड़ जाते ये सपने!
क्षण-भर ही, करीब होते जैसे अपने,
कभी करते, संग गलबहियाँ,
दूर हुए जब ये, गैर लगे ये कितने!
अतिरंजित से, ये सपने!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
 (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 4 February 2020

पदचाप

बहुधा, गिनता रहता हूँ, पल-पल,
बस यूँ, चुपचाप!
सूनी राहों पर, वो पदचाप!

लगता है, इस पल तुम आए हो,
यूँ बैठे हो, पास!
सुखद वही, इक एहसास, 
तेरा ही आभास,
और चुप-चुप,
सूनी राहों पर, वो पदचाप!

बहुधा, कहीं बहती है इक सुधा,
बस यूँ, चुपचाप!
शायद, हों उनके अनुलाप,
करती हो आलाप,
थम-थम कर,
सूनी राहों पर, वो पदचाप!

मन भरमाए, वो हर इक आहट,
हर वो, पदचाप!
दोहराए, वो ही अभिलाप,
वो ही एकालाप,
करे रुक-रुक,
सूनी राहों पर, वो पदचाप!

बहुधा, गिनता रहता हूँ, पल-पल,
बस यूँ, चुपचाप!
सूनी राहों पर, वो पदचाप!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday, 3 February 2020

अकेले प्रेम की कोशिश-2

यूँ जारी है मेरी कोशिशें, 
अकेले ही प्रेम लिखने की....

प्रेम बस अक्षर नहीं, जिसे लिख डालें,
शब्दों का मेल नहीं, जिसे हर्फो से पिस डालें,
उष्मा है ये मन की, जो पत्थर पिघला दे,
ठंढ़क है ये, जलते मन को जो सहला दे,
कोशिशें अनथक अनवरत जारी हैं मेरी,
वो ठंढ़क, वही उष्मा जीवन में नित भरने की!

यूँ जारी है मेरी कोशिशें, 
अकेले ही प्रेम लिखने की....

प्रवाहित हो जैसे नदी, है ये प्रवाह वही,
बलखाती धारा सी, चंचल सी ये चाह वही,
बरसाती नदिया सी, ये कोई धार नही,
सदाबहार प्रवाह ये, हिमगिरी से जो बही,
कोशिशें अनथक अनवरत जारी हैं मेरी,
वो प्रवाह, वही चंचल धारा संग ले चलने की!

यूँ जारी है मेरी कोशिशें, 
अकेले ही प्रेम लिखने की....

है पुष्प वही, जो मुरझाने तक सुगंध दे,
योग्य हो पुष्पांजलि के, ईश्वर के शीष चढ़े,
चुने ले वैद्य जिसे, रोगों में उपचार बने,
संग-संग चिता चढ़े, जलते जलते संग दे,
कोशिशें अनथक अनवरत जारी हैं मेरी,
वो सुगंध, बस वही अनुराग उत्पन्न करने की!

यूँ जारी है मेरी कोशिशें, 
अकेले ही प्रेम लिखने की....

शब्दों में ढल जाएंगे, जब मेरे भाव यही,
हर्फों से मिल ही जाएंगे, फिर मेरे शब्द वही,
अक्षर प्रेम के, इन फिज़ाओं में उभरेंगे,
पिघल जाएंगे पाषाण, प्रेम की इस भाफ से,
कोशिशें अनथक अनवरत जारी हैं मेरी,
वो भाव, उन्ही हर्फों से कुछ अक्षर लिखने की!

यूँ जारी है मेरी कोशिशें, 
अकेले ही प्रेम लिखने की....
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"अकेले प्रेम की कोशिश" भाग-1 को पढ़ने के विए यहाँ क्लिक करें 👉   "अकेले प्रेम की कोशिश"
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- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

बसंत के दरख्त-2

ऐ आलि!
ये दरख्त, ये वक्त, बसंत के!
क्या, सूख जाएंगे?
चुप्पी साधेंगे पंछी, या दूर कहीं उड़ जाएंगे!

संध्या की लाली,
इठलाते, बसंत की हरियाली,
चक्र है, ये जीवन का,
क्या जाने?
माली!
सूखे थे कब, बसंत के ये दरख्त, 
ऐ आलि,
गुनगाएंगे अलि,
पंछी, कल फिर से आएंगे,
दूर कहाँ जाएंगे!
टूटेगी चुप्पी,
दरख्तों पर, फिर छाएगी हरियाली!
ऐ आलि!

रंग, नए उभरेंगे,
उमंग नए, अंग-अंग जागेंगे,
बदलेंगे, थोड़े ये चेहरे,
अभिव्यक्त,
फिर से ये होंगे,
बौराई बातें, अंतरंग सी संवादें,
उभरेंगी,
वो ही सिलवटें,
चहचहाते, फिर आएंगे पंछी,
झूम जाएंगी डाली,
लता गाएंगी,
झूल जाएगी, झूलों सी ये मतवाली,
ऐ आलि!

नादान हैं वो,
ना समझ, समझे ना बसंत को,
पंछी बेचारे, 
अपनी, विपदा के मारे,
चुप, हैं आधे,
कुछ, दम को साधे,
देखो ना, बसंत की हरियाली,
चुप साधे, 
संध्या, 
लाई है लाली,
मुरझाई सी, वो किरणें शर्मीली,
ऐ आलि!

चुप वो पंछी,
गुप-चुप, कल फिर गाएंगे,
ये वक्त, ये दरख्त!
गीत वही बासंती, झूम-झूम कल फिर गाएंगे!
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"बसंत के दरख्त" (भाग-1) इस लिंक पर पढ़ें "बसंत के दरख्त" भाग-1
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- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 2 February 2020

बसंत के दरख्त-1

गुजर सा गया हूँ!
या, और थोड़ा, सँवर सा गया हूँ?
बसंत के ये, दरख्त जैसे!

कई रंग, अंग-अंग, उभरने लगे,
चेहरे, जरा सा, बदलने लगे,
शामिल हुई, अंतरंग सारी लिखावटें,
पड़ने लगी, तंग सी सिलवटें,
उभर सा गया हूँ!
या, और थोड़ा, निखर सा गया हूँ?
कभी था, अव्यक्त जैसे!

बसंत के ये, खिले से दरख्त जैसे!

ये सांझ, धूमिल होने को आए,
जैसे, हर-पल, कोई बुलाए,
हासिल हुई, पनपती थी जो हसरतें 
हुई खत्म, सारी शिकायतें,
अदल सा गया हूँ!
या, और थोड़ा, बदल सा गया हूँ?
ना हूँ मैं, आश्वस्त जैसे!

बसंत के ये, खिले से दरख्त जैसे!

दुलारे लगे, ऋतुओं के नजारे,
नदी के, दो बहते से धारे,
ओझल हुई, नजरों से वो नाव अब,
दिखने लगा, वो गाँव अब,
पिघल सा गया हूँ!
या, और थोड़ा, उबल सा गया हूँ?
नसों में, बहे रक्त जैसे!

बसंत के ये, खिले से दरख्त जैसे!

गुजर सा गया हूँ!
या, और थोड़ा, सँवर सा गया हूँ?
बसंत के ये, दरख्त जैसे!
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"बसंत के दरख्त" (भाग-2) इस लिंक पर पढ़ें  "बसंत के दरख्त-2"
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- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)