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Tuesday, 20 September 2022

प्रेमांकुर

प्रेमांकुर
अकथ्य, अकल्पनीय, प्रेम के ये दृश्य...

पतझड़ों सा है रंग, पर, बसन्त सा उमंग,
सूखे से बीज में, जागे अंकुरण,
उम्र से परे, नर्म सा ये चुभन,
एहसास, फिर से वही,
लिए ही आते हैं, प्रेम के ये वृक्ष!

अकथ्य, अकल्पनीय, प्रेम के ये दृश्य...

60 से बस चार कम, अब 56 के हैं हम,
प्रेम, इस उम्र में, अब क्या करें!
पर, रुकते हैं कब ये अंकुरण,
इस बीज के प्रस्फुटन,
उग ही आते हैं, प्रेम के ये वृक्ष!

अकथ्य, अकल्पनीय, प्रेम के ये दृश्य...

बह तो जाएंगे हम, उम्र के इस बहाव में,
ओस बन जाएंगे, इस पड़ाव में,
जगा के, सर्द सी इक छुअन, 
देकर, दर्द का चलन,
संवर ही जाएंगे, प्रेम के ये वृक्ष!

अकथ्य, अकल्पनीय, प्रेम के ये दृश्य...

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 16 May 2021

गूढ़ बात

कोई गूढ़ सी, वो बात है......

उनींदी सी, खुली पलक,
विहँसती, निहारती है निष्पलक,
मूक कितना, वो फलक!
छुपाए, वो कोई, 
इक राज है!

कोई गूढ़ सी, वो बात है......

लबों की, वो नादानियाँ,
हो न हो, तोलती हैं खामोशियाँ,
सदियों से वो सिले लब!
दबाए, वो कोई,
इक बात है!

कोई गूढ़ सी, वो बात है......

हो प्रेम की, ये ही भाषा,
हृदय में जगाती, ये एक आशा,
यूँ ना धड़कता, ये हृदय!
बजाए, वो कोई,
इक साज है!

कोई गूढ़ सी, वो बात है......

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday, 3 February 2020

अकेले प्रेम की कोशिश-2

यूँ जारी है मेरी कोशिशें, 
अकेले ही प्रेम लिखने की....

प्रेम बस अक्षर नहीं, जिसे लिख डालें,
शब्दों का मेल नहीं, जिसे हर्फो से पिस डालें,
उष्मा है ये मन की, जो पत्थर पिघला दे,
ठंढ़क है ये, जलते मन को जो सहला दे,
कोशिशें अनथक अनवरत जारी हैं मेरी,
वो ठंढ़क, वही उष्मा जीवन में नित भरने की!

यूँ जारी है मेरी कोशिशें, 
अकेले ही प्रेम लिखने की....

प्रवाहित हो जैसे नदी, है ये प्रवाह वही,
बलखाती धारा सी, चंचल सी ये चाह वही,
बरसाती नदिया सी, ये कोई धार नही,
सदाबहार प्रवाह ये, हिमगिरी से जो बही,
कोशिशें अनथक अनवरत जारी हैं मेरी,
वो प्रवाह, वही चंचल धारा संग ले चलने की!

यूँ जारी है मेरी कोशिशें, 
अकेले ही प्रेम लिखने की....

है पुष्प वही, जो मुरझाने तक सुगंध दे,
योग्य हो पुष्पांजलि के, ईश्वर के शीष चढ़े,
चुने ले वैद्य जिसे, रोगों में उपचार बने,
संग-संग चिता चढ़े, जलते जलते संग दे,
कोशिशें अनथक अनवरत जारी हैं मेरी,
वो सुगंध, बस वही अनुराग उत्पन्न करने की!

यूँ जारी है मेरी कोशिशें, 
अकेले ही प्रेम लिखने की....

शब्दों में ढल जाएंगे, जब मेरे भाव यही,
हर्फों से मिल ही जाएंगे, फिर मेरे शब्द वही,
अक्षर प्रेम के, इन फिज़ाओं में उभरेंगे,
पिघल जाएंगे पाषाण, प्रेम की इस भाफ से,
कोशिशें अनथक अनवरत जारी हैं मेरी,
वो भाव, उन्ही हर्फों से कुछ अक्षर लिखने की!

यूँ जारी है मेरी कोशिशें, 
अकेले ही प्रेम लिखने की....
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"अकेले प्रेम की कोशिश" भाग-1 को पढ़ने के विए यहाँ क्लिक करें 👉   "अकेले प्रेम की कोशिश"
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- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 24 March 2019

प्रेम के कल्पवृक्ष

ऐ नैसर्गिक प्रेम के मृदुल एहसास,
फैल जाओ तुम फिर इन धमनियों में रक्त की तरह,
फिर लेकर आओ वही मधुमास,
के देखूँ जिधर भी मैं दिशाओं में मुड़कर,
वात्सल्य हो, सहिष्णुता हो, हर आँखों मे हो विश्वास,
लोभ, द्वेश, क्लेश, वासना, तृष्णा का मन जले,
कण-कण में हो सिर्फ प्रेम का वास.....

प्रेम ...!
न जाने कितनी ही बार,दुहराया गया है यह शब्द,
कितनी बार रची गई है कविता,
कितनी बार लिखा गया है इतिहास ढाई आखर का
जिसमें सिमट गई है....
पूरी दुनिया, पूरा ब्रह्माँड, पूरा देवत्व,
रचयिता तब ही रच पाया होगा इक कल्पित स्वर्ग...

अब ...! प्रेम वात्सल्य यहीं कहीं गुम-सुम पड़ा है,
पाषाण से हो चुके दिलों में,
संकुचित से हो चुके गुजरते पलों में,
इन आपा-धापी भरे निरंकुश से चंगुलों में,
ध्वस्त कर रचयिता की कल्पना, रचा है हमने नर्क...

सुनो..! चाहता हूँ मैं फिर लगाऊँ वात्सल्य के कल्पवृक्ष,
ठीक वैसे ही जैसे....
समुद्र के बीच से जगती है ढेह सी लहरें
बादलों की छाती से फूट पड़ते है असंख्य बौछारें
शाम की धुली अलसाई हवा कर जाती है रूमानी बातें,
अचानक सूखते सोते भर जाते हैं लबालब....

क्युँ न ..!
एक बार फिर से रक्त की तरह हमारे धमनियों में,
दौड़ जाए प्रेम की नदी !

और खिल जाएँ प्रेम के कल्पवृक्ष.....

(मेरी ही एक पुरानी रचना, जो मुझे हमेशा नई लगती है, पुनःउद्धृत है)
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Friday, 13 July 2018

जीवन्त पल

आदि है यही, इक यही है अन्त,
संग गुजारे है जो पल, बस वही है जीवन्त!

इक मृत शिला सा,
मैं था पड़ा,
राह के ठोकरों सा,
मैं था गिरा,
चंद आस्था के फूल लेकर,
स्नेह स्पर्श देकर,
जीवन्त तूने ही किया....

संग बीते पल कई,
स्नेह तेरा मिला,
अब नहीं मैं मृत शिला,
भाव पाकर,
जी उठा अब ये शिला,
देवत्व सा मिला,
तेरे ही मन्दिर में खिला....

अब धड़कते हैं हृदय,
इक कंपन सी है,
नैनों में नीर आकर है भरे,
छलका है मन,
प्रारब्ध है ये प्रेम की,
या है ये अन्त मेरा,
क्षण है यही जीवन्त मेरा.....

पतझड़ है यही, यही है बसन्त,
तुम संग जो गुजरे, पल वही है जीवन्त.....

Friday, 27 April 2018

अस्तित्व

कैसे भूलूं कि तेरे उस एक स्पर्श से ही था अस्तित्व मेरा....

शायद! इक भूल ही थी वो मेरी!
सोचता था कि मैं जानता हूँ खूब तुमको,
पर कुछ भी बाकी न अब कहने को,
न सुनने को ही कुछ अब रह गया है जब,
लौट आया हूँ मैं अपने घर को अब!

पर कैसे भूलूं कि उस एक स्पर्श से ही था अस्तित्व मेरा....

शायद! यूँ ही थी वो मुस्कराहटें!
खिल आई थी जो अचानक उन होंठो पे,
कुछ सदाएँ गूँजे थे यूँ ही कानों में,
याद करने को न शेष कुछ भी रह गया है जब,
क्या पता तुम कहाँ और मैं कहाँ हूँ अब!

पर कैसे भूलूं कि उस एक स्पर्श से ही था अस्तित्व मेरा....

शायद! वो एक सुंदर सपन हो मेरा!
जरा सा छू देने से, कांपती थी तुम्हारी काया  ,
एक स्पंदन से निखरता था व्यक्तित्व मेरा,
स्थूल सा हो चुका है अंग-प्रत्यंग देह का जब,
जग चुका मैं उस मीठी नींद से अब!

पर कैसे भूलूं कि उस एक स्पर्श से ही था अस्तित्व मेरा....

शायद! गुम गई हों याददाश्त मेरी!
या फिर! शब्दों में मेरे न रह गई हो वो कशिश,
या दूर चलते हुए, विरानों में आ फसे हैं हम,
या विशाल जंगल, जहाँ धूप भी न आती हो अब,
शून्य की ओर मन ये देखता है अब!

पर कैसे भूलूं कि उस एक स्पर्श से ही था अस्तित्व मेरा....

शायद! छू लें कभी उस एहसास को हम!
पर भूल जाना तुम, वो शिकवे- शिकायतों के पल....
याद रखना तुम, बस मिलन के वो दो पल,
जिसमें विदाई का शब्द हमने नहीं लिखे थे तब,
दफनाया है खुद को मैने वहीं पे अब!

पर कैसे भूलूं कि उस एक स्पर्श से ही था अस्तित्व मेरा....
मगर अब, भूल जाना तुम, वो इबादतों के पल....

Tuesday, 26 December 2017

ख्वाब में

कहीं यूँ ही बहते रहे हम बस हसरतों के आब में......

आपके ही ख्वाब में......
बह रही थी ये कश्ती फिर उसी चिनाब में,
देखता हूँ मैं आपको,
कभी मझधार के हिजाब में,
या कभी आइने से बहते कलकल आब में....

कहीं यूँ ही बहते रहे हम बस हसरतों के आब में......

आपके ही ख्वाब में......
ये आ गया हूँ मैं कहाँ, पतवार थामे हाथ में,
हसरतों के आब में,
खाली से किसी दोआब में,
या आपकी यादों के किसी अछूते महराब में....

कहीं यूँ ही बहते रहे हम बस हसरतों के आब में......

आपके ही ख्वाब में......
सूखे से वो फूल, जग परे मेरी ही किताब में,
वो देखते हैं बाग में,
खोए है यादों के सैलाब में,
या संजोए हैं ये सपने, टूटकर अपने आप में....

कहीं यूँ ही बहते रहे हम बस हसरतों के आब में......

Saturday, 23 December 2017

हजारदास्ताँ

अपरिमित प्रेम तुम्हारा, क्या बंधेगे परिधि में......

छलक आते हैं, अक्सर जो दो नैनों में,
बांध तोड़कर बह जाते हैं,
जलप्रपात ये, मन को शीतल कर जाते हैं,
अपरिमित निरन्तर प्रवाह ये, 
प्रेम की बरसात ये, क्या बंधेगे परिधि में........

जल उठते हैं, जो गम की आँधी में भी,
शीतल प्रकाश कर जाते हैं,
दावानल ये, गम भी जिसमें जल जाते हैं,
बिंबित चकाचौंध प्रकाश ये,
झिलमिल आकाश ये, क्या बंधेगे परिधि में........

सहला जाते है, जो स्नेहिल स्पर्श देकर,
पीड़ मन की हर जाते हैं,
लम्हात ये, हजारदास्ताँ ये कह जाते हैं,
कोई मखमली एहसास ये,
अपरिमित विश्वास ये, क्या बंधेगे परिधि में........

अपरिमित प्रेम तुम्हारा, क्या बंधेगे परिधि में......

Sunday, 17 December 2017

तन्हा गजल

कोई शामोसहर, गाता है कहीं तन्हा सा गजल.....

मेह लिए प्राणों मे, कोई दर्द लिए तानों में,
सहरा में कभी, या कभी विरानों में,
रंग लिए पैमानों में, फैलाता है आँचल.....
कोई शामोसहर, गाता है कहीं तन्हा सा गजल.....

किसी आहट से, पंछी की चहचहाहट से,
कलियों से, फूलों की तरुणाहट से,
नैनों की शर्माहट से, शमाँ देता है बदल....
कोई शामोसहर, गाता है कहीं तन्हा सा गजल.....

विह्वल सा गीत लिए, भावुक सा प्रीत लिए,
रीत लिए, धड़कन का संगीत लिए,
मन में मीत लिए, विरह में है वो पागल....
कोई शामोसहर, गाता है कहीं तन्हा सा गजल.....

विवश कर जाता है, यूँ मन को भरमाता है,
बरसता है, बादल सा लहराता है,
इठलाता है खुद पर, है कितना वो चंचल....
कोई शामोसहर, गाता है कहीं तन्हा सा गजल.....

Wednesday, 13 December 2017

अकेले प्रेम की कोशिश

यूँ जारी है मेरी कोशिशें, अकेले ही प्रेम लिखने की....

कोशिशें बार-बार करता हूँ कि,
रत्ती भर भी छू सकूँ अपने मन के आवेग को,
जाल बुन सकूँ अनदेखे सपनों का,
चून लूँ, मन में प्रस्फुटित होते सारे कमल,
अर्थ दे पाऊँ अनियंत्रित लम्हों को,
न हो इंतजार किसी का, न हो हदें हसरतों की....

यूँ जारी है मेरी कोशिशें, अकेले ही प्रेम लिखने की....

कोशिशें अनथक करता हूँ कि,
रंग कोई दूसरा ही भर दूँ पीले अमलतास में,
वो लाल गुलमोहर हो मेरे अंकपाश में,
भीनी खुश्बुएँ इनकी हवाओं में लिख दे प्रेम,
सुबासित हों जाएँ ये हवाएँ प्रेम से,
न हो बेजार ये रंग, न हो खलिश खुश्बुओं की...

यूँ जारी है मेरी कोशिशें, अकेले ही प्रेम लिखने की....

कोशिशें अनवरत करता हूँ कि,
कंटक-विहीन खिल जाएँ गुलाब की डाली,
बेली चम्पा के हों ऊंचे से घनेरे वृक्ष,
बिन मौसम खिलकर मदमाए इनकी डाली,
इक इक शाख लहरा कर गाएँ प्रेम,
न हो कोई भी बाधा, न हो कोई सीमा प्रेम की.....

यूँ जारी है मेरी कोशिशें, अकेले ही प्रेम लिखने की....

कोशिशें निरंतर करता हूँ कि,
रोक लूँ हर क्षण बढ़ते मन के विषाद को,
दफन कर दूँ निरर्थक से सवाल को,
स्नेहिल स्पर्श दे निहार लूँ अपने अक्श को,
सुबह की धूप का न हो कोई अंत,
न हो धूमिल सी कोई शाम, न रात हो विरह की...

यूँ जारी है मेरी कोशिशें, अकेले ही प्रेम लिखने की....

कोशिशें नित-दिन करता हूँ कि,
चेहरे पर छूती रहे सुबह की वो ठंढ़ी धूप,
मूँद लू नैन, भर लूँ आँखो मे वो रूप,
आसमान से छन-छन कर आती रहे सदाएँ,
बूँद-बूँद तन को सराबोर कर जाएँ,
न हो तपती सी किरण, न ही कमी हो छाँव की...

यूँ जारी है मेरी कोशिशें, अकेले ही प्रेम लिखने की....

Saturday, 25 November 2017

अनन्त प्रणयिनी

कलकल सी वो निर्झरणी,
चिर प्रेयसी, चिर अनुगामिणी,
दुखहरनी, सुखदायिनी, भूगामिणी,
मेरी अनन्त प्रणयिनी......

छमछम सी वो नृत्यकला,
चिर यौवन, चिर नवीन कला,
मोह आवरण सा अन्तर्मन में रमी,
मेरी अनन्त प्रणयिनी......

धवल सी वो चित्रकला,
नित नवीन, नित नवरंग ढ़ला,
अनन्त काल से, मन को रंग रही,
मेरी अनन्त प्रणयिनी......

निर्बाध सी वो जलधारा,
चिर पावन, नित चित हारा,
प्रणय की तृष्णा, तृप्त कर रही,
मेरी अनन्त प्रणयिनी......

प्रणय काल सीमा से परे,
हो प्रेयसी जन्म जन्मान्तर से,
निर्बोध कल्पना में निर्बाध बहती,
मेरी अनन्त प्रणयिनी......

अतृप्त तृष्णा अजन्मी सी,
तुम में ही समाहित है ये कही,
तृप्ति की इक कलकल निर्झरणी,
मेरी अनन्त प्रणयिनी......

(शादी की 24वीं वर्षगाँठ पर पत्नी को सप्रेम समर्पित) 

Thursday, 22 June 2017

त्यजित

त्यजित हूँ मै इक, भ्रमित हर क्षण रहूँगा इस प्रेमवन में।

क्षितिज की रक्तिम लावण्य में,
निश्छल स्नेह लिए मन में,
दिग्भ्रमित हो प्रेमवन में,
हर क्षण जला हूँ मैं अगन में...
ज्युँ छाँव की चाह में, भटकता हो चातक सघन वन में।

छलता रहा हूँ मैं सदा,
प्रणय के इस चंचल मधुमास में,
जलता रहा मैं सदा,
जेठ की धूप के उच्छवास में,
भ्रमित होकर विश्वास में, भटकता रहा मैं सघन घन में।

स्मृतियों से तेरी हो त्यजित,
अपनी अमिट स्मृतियों से हो व्यथित,
तुम्हे भूलने का अधिकार दे,
प्रज्वलित हर पल मैं इस अगन में,
त्यजित हूँ मै इक, भ्रमित हर क्षण रहूँगा इस प्रेमवन में।

भ्रमित रक्तिम लावण्यता में,
श्वेत संदली ज्योत्सना में,
शिशिर के ओस की कल्पना में,
लहर सी उठती संवेदना में,
मधुरमित आस में, समर्पित कण कण मैं तेरे सपन में।

त्यजित हूँ मै इक, भ्रमित हर क्षण रहूँगा इस प्रेमवन में।

Monday, 19 June 2017

खिलौना

तूने खेल लिया बहुत इस तन से,
अब इस तन से तुझको क्या लेना और क्या देना?
माटी सा ये तन ढलता जाए क्षण-क्षण,
माटी से निर्मित है यह इक क्षणभंगूर खिलौना।

बहलाया मन को तूने इस तन से,
जीर्ण खिलौने से अब, क्या लेना और क्या देना?
बदलेंगे ये मौसम रंग बदलेगा ये तन,
बदलते मौसम में तू चुन लेना इक नया खिलौना।

है प्रेम तुझे क्यूँ इतना इस तन से,
बीते उस क्षण से अब, क्या लेना और क्या देना?
क्युँ रोए है तू पगले जब छूटा ये तन,
खिलौना है बस ये इक, तू कहीं खुद को न खोना।

मोह तुझे क्यूँ इतना इस तन से,
मोह के उलझे धागों से क्या लेना और क्या देना?
बढाई है शायद मोह ने हर उलझन,
मोह के धागों से कहीं दूर, तू रख अब ये खिलौना।

तूने खेल लिया बहुत इस तन से,
अब इस तन से तुझको क्या लेना और क्या देना?

Sunday, 28 May 2017

प्रेम के कल्पवृक्ष

ऐ नैसर्गिक प्रेम के मृदुल एहसास,
फैल जाओ तुम फिर इन धमनियों में रक्त की तरह,
फिर लेकर आओ वही मधुमास,
के देखूँ जिधर भी मैं दिशाओं में मुड़कर,
वात्सल्य हो, सहिष्णुता हो, हर आँखों मे हो विश्वास,
लोभ, द्वेश, क्लेश, वासना, तृष्णा का मन जले,
कण-कण में हो सिर्फ प्रेम का वास.....

प्रेम ...!
न जाने कितनी ही बार,दुहराया गया है यह शब्द,
कितनी बार रची गई है कविता,
कितनी बार लिखा गया है इतिहास ढाई आखर का
जिसमें सिमट गई है....
पूरी दुनिया, पूरा ब्रह्माँड, पूरा देवत्व,
रचयिता तब ही रच पाया होगा इक कल्पित स्वर्ग...

अब ...! प्रेम वात्सल्य यहीं कहीं गुम-सुम पड़ा है,
पाषाण से हो चुके दिलों में,
संकुचित से हो चुके गुजरते पलों में,
इन आपा-धापी भरे निरंकुश से चंगुलों में,
ध्वस्त कर रचयिता की कल्पना, रचा है हमने नर्क...

सुनो..! चाहता हूँ मैं फिर लगाऊँ वात्सल्य के कल्पवृक्ष,
ठीक वैसे ही जैसे....
समुद्र के बीच से जगती है ढेह सी लहरें
बादलों की छाती से फूट पड़ते है असंख्य बौछारें
शाम की धुली अलसाई हवा कर जाती है रूमानी बातें,
अचानक सूखते सोते भर जाते हैं लबालब....

क्युँ न ..!
एक बार फिर से रक्त की तरह हमारे धमनियों में,
दौड़ जाए प्रेम की नदी !
और खिल जाएँ प्रेम के कल्पवृक्ष.....

Saturday, 25 March 2017

आभास

परछाई हूँ मैं, बस आभास मुझे कर पाओगे तुम .....

कर सर्वस्व निछावर,
दिया था मैने स्पर्शालिंगन तुझको,
इक बुझी चिंगारी हूँ अब मैं,
चाहत की गर्मी कभी न ले पाओगे तुम।

अब चाहो भी तो,
आलिंगनबद्ध नही कर पाओगे तुम,
इक खुश्बू हूँ बस अब मैं,
कभी स्पर्श मुझे ना कर पाओगे तुम।

चाहत हूँ अब भी तेरा,
नर्म यादें बन बिखरूँगा मैं तुममें ही,
अमिट ख्याल हूँ बस अब मैं,
कभी मन से ना निकाल पाओगे तुम।

तेरी साँसों में ढलकर,
बस छूकर तुम्हें निकल जाऊँगा मैं,
झौंका पवन का हूँ इक अब मैं,
सदा अपनी आँचल से बंधा पाओगे तुम।

साया हूँ तेरा, बस महसूस मुझे कर पाओगे तुम....

Tuesday, 1 November 2016

प्रेम कल्पना

इक दिवा स्वप्न में ढ़लकर, संग मेरे तुम चल रहे ....
कल्पना की चादर मे सिमटी, तुम जीवन में ढ़ल रहे ....

अब गीत विरह के गाने को,
कोई पल ना आयेगा,
मन के मधुबन में ओ मीते,
प्रेम प्रबल हो गायेगा..............

सुरमई गीतों में रचकर, सरगम मे तुम ढल रहे ....
कल्पना की चादर मे सिमटी, तुम जीवन में ढ़ल रहे ....

अब एकाकी ही रह जाने को,
कोई मन ना तड़पेगा,
मन के आंगन में ओ मेरे मीते,
तन्हाई गीतों संग गूंजेगा............

संध्या प्रहर ये सुनहरी, भावों में तुम पल रहे ....
कल्पना की चादर मे सिमटी, तुम जीवन में ढ़ल रहे ....

अब मोहनी सी मूरत देखने को,
कोई पल न रिझाएगा,
सांझ प्रहर क्षितिज नित ओ मीते ,
सूरत तेरी  ही दिखलाएगा..........

गूढ़ शब्द बन तुम मिले, अर्थ में तुम ढ़ल रहे.....
कल्पना की चादर मे सिमटी, तुम जीवन में ढ़ल रहे ....

अब भाव हृदय के पढ़ पाने को,
कोई मन ना तरसेगा,
गूढ़ रहस्य उन शब्दों के ओ मीते,
नैन तेरे मुझसे कह जाएगा..........

इक दिवा स्वप्न की भांति, संग मेरे तुम चल रहे ....
कल्पना की चादर मे सिमटी, तुम जीवन में ढ़ल रहे ....

Tuesday, 4 October 2016

प्यार भरी कोई बात

शायद, दबी सी मन में है कोई बात, ये कैसे हैं जज्बात?

जागे हैं अनदेखे से सपने....ये खयालात हैं कैसे,
अनछुए से मेरे धड़कन.........पर ये एहसास हैं कैसे,
अन्जाना सा चितवन...ये तिलिस्मात हैं कैसे,
बहकते कदम हैं किस ओर, ये अंजान है कैसे?

जीवन के.....इस अंजाने से डगर पर,
उठते है ज्वर ....झंझावातों के.........किधर से,
कौन जगाता है .....एहसासों को चुपके से,
बेवश करता सपनों में कौन, ये अंजान है कैसे?

खुली आँख.. सपनों की ...होती है बातें,
बंद आँखों में ....न जाने उभरती वो तस्वीर कहाँ से,
लबों पर इक प्यास सी...जगती है फिर धीरे से,
गहराती है फिर वो प्यास, मन अंजान हो कैसे?

अंजानी उस बुत से.....होती हैं फिर बातें,
बसती है छोटी सी दुनियाँ...फलक पे अंजाने से,
घुलती है साँसों में....खुश्बु इक हौले से,
बज उठते हैं फिर तराने, गीत अंजान ये कैसे?

संभाले कौन इसे, रोके ...इसे कोई कैसे,
एहसासों...की है ये बारात, अरमाँ हैं बहके से,
रिमझिम सी उस पर ये बरसात, हौले से,
मचले से हैं ये जज्बात, समझाएँ इसे फिर कैसे?

शायद, दबी सी मन में है कोई बात, ये कैसे हैं जज्बात?

Tuesday, 9 August 2016

नेह ये कैसा?

नेह ये कैसा?

मासूम सा वो जिद्दी पतंगा,
कोमल पंख लिए लौ पर उड़ता फिरता,
नेह दिल में लिए दिए से कहता,
पनाह मे अपनी ले ले, जीवन के कुछ पल देता जा......

निरंकुश वो दिया है कैसा?
कहता पतंगे से, तू जिद क्युँ करता,
जीवन नहीं, यहाँ मौत है मिलता,
जीवन तू अपना दे दे, जीवन के कुछ पल लेता जा.....

धुन का पक्का पर वो पतंगा,
रंग सुनहरे अपनी निर्दयी दिए को देता,
प्रेम में ही जीता, प्रेम में ही मरता,
आहूति जीवन की देकर, जीवन के कुछ पल जीता....

दिया रोता तब अपने किए पर,
भभककर जल उठता अब रो रोकर,
बुझ जाता पतंगे संग जल जलकर,
कारिख पतंगो को देकर, निशानी नेह की उनको देता...

नेह ये कैसा?

Friday, 24 June 2016

छाया अल्प सी वो

बुझते दीप की अल्प सी छाया वो,
साथी! उस छाया से मिलना बस सपने की बात.....

प्रतीत होता जिस क्षण है बिल्कुल वो पास,
पंचम स्वर में गाता पुलकित ये मन,
नृत्य भंगिमा करते अस्थिर से दोनों ये नयन,
सुख से भर उठता विह्वल सा ये मन,
लेकिन है इक मृगतृष्णा वो रहता कब है पास....

उड़ते बादल की लघु सी प्रच्छाया वो,
साथी! उस छाया से मिलना बस सपने की बात.....

क्षणिक ही सही जब मिलते हैं उनसे जज्बात,
विपुल कल्पनाओं के तब खुलते द्वार,
पागल से हो जाते तब चितवन के एहसास,
स्मृति में कौंधती है किरणों की बौछार,
लेकिन वो तो है खुश्बु सी बहती सुरभित वात..,,

क्षणिक मेघ की अल्प सी छाया वो,
साथी! उस छाया से मिलना बस सपने की बात..

Thursday, 23 June 2016

चिरन्तन प्रेम तुम

चिरन्तर प्रेम अनुरागिनी, सजल पुतलियों मे तेरी छवि,
हो चिरन्तन प्रेम तुम.....

असीम घन सी वो, है चाह मुझे जिस छवि की,
सजल इन पुतलियों में, है अमिट छाप बस उसी की,
प्राण मेरे पल रहे, अनन्त चाह बस उस छवि की,
पर असीम सी वो, राह तकता रहा मैं जिस छवि की।

चित्र अमिट सी छपी है, नैनों में बस उसी की,
श्वास में उनको छिपाकर, राह तकुँ मैं बस उसी की,
असीम घन सी शून्य मन में ही वो विचर रही,
मन के मिलन मंदिर में सजी सदा से ही है वो छवि।

यादों में पहर सूने बिता, किस प्रांत में वो जा छुपी,
मैं मिटूँ प्रिय की याद में, मिटी ज्यों तप्त रक्त दामिनी,
दीप सा युग-युग जलूँ, जली ज्युँ रूप वो चाँदनी,
चिरन्तर प्रेम अनुरागिनी, सजल पुतलियों मे तेरी छवि।

हो, मेरी चिरन्तन प्रेम तुम........