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Monday, 20 February 2023

आसार

कैसे गढ़ पाऊं, श्रृंगार!

ना फूल खिले, 
ना खिलने के आसार!
ठूंठ वृक्ष, ठूंठ रहे सब डाली,
पात -पात सब सूख रहे,
सूख रही हरियाली,
ना बूंद गिरे, 
ना ही, बारिश के आसार!

कैसे गढ़ पाऊं, श्रृंगार!

ना रात ढ़ले, 
ना किरणों के आसार!
गहन अंधियारे, डूबे वो तारे,
उम्मीदों के आसार कहां,
उम्मीदों से ही हारे,
ना चैन मिले,
ना ही, नींदिया के आसार!

कैसे गढ़ पाऊं, श्रृंगार!

ना मीत मिले,
ना मनसुख के आसार!
रूखा-रूखा, हर शै रूठा सा,
मधुकण के आसार कहां,
मधुबन से ही हारे,
ना रास मिले,
ना ही, रसबूंदो के आसार!

कैसे गढ़ पाऊं, श्रृंगार!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 25 September 2022

अन्तर्निहित


निरर्थक सी, उन बातों में,
शायद, अन्तर्निहित हैं जीवन के अर्थ सारे!
मैं ही, ना-समझ,
बुनता रहता हूँ, अर्थ कोई!

फूलों का, यूं खिल आना,
निरर्थक, कब था!
अर्थ लिए, आए वो, मौसम के बदलावों में, 
मुकम्मल सा, श्रृंगार कोई!

हवाओं में घुलते कलरव,
इक संशय में, सब,
रीत, ये कैसा, राग कौन सा, पिरोए विहग!
या अर्थपूर्ण, विहाग कोई!

नत-मस्तक, इक बादल,
शीष उठाए, पर्वत,
अधूरे से दोनों, दोनों ही इक दूजे के पूरक,
भावप्रवण ये, प्रीत कोई!

चुपचुप गुमसुम सी रात,
अर्थपूर्ण, हर बात,
उस छोर, वही लिख जाती सुरीली प्रभात,
रहस्यमई, जज्बात कोई!

निरर्थक सी, उन बातों में,
शायद, अन्तर्निहित हैं जीवन के अर्थ सारे!
मैं ही, ना-समझ,
बुनता रहता हूँ, अर्थ कोई!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 12 December 2021

मैं प्रशंसक

वो, सर्दियों में, गुनगुनी सी धूप जैसे,
पिघलती सांझ सी, रूप वो!

ठगा सा मैं रहूं, ताकूं, उसे ही निहारूं,
ओढ़ लूं, रुपहली धूप वो ही,
जी भर, देख लूं, 
पल-पल, बदलता, इक रूप वो ही,
हो चला, उसी का मैं प्रशंसक,
कह भी दूं, मैं कैसे!

वो, सर्दियों में, गुनगुनी सी धूप जैसे,
पिघलती सांझ सी, रूप वो!

समेट लूं, नैनों में, उसी की इक छटा,
उमर आई, है कैसी ये घटा!
मन में, उतार लूं,
उधार लूं, उस रुप की इक कल्पना,
अद्भुत श्रृंगार का, मैं प्रशंसक,
कह भी दूं, मैं कैसे!

वो, सर्दियों में, गुनगुनी सी धूप जैसे,
पिघलती सांझ सी, रूप वो!

बांध पाऊं, तो उसे, शब्दों में बांध लूं,
लफ़्ज़ों में, उसको पिरो लूं,
प्रकल्प, साकार लूं,
उस क्षितिज पर बिखरता, रंग वो,
उसी तस्वीर का, मैं प्रशंसक,
कह भी दूं, मैं कैसे!

वो, सर्दियों में, गुनगुनी सी धूप जैसे,
पिघलती सांझ सी, रूप वो!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 22 March 2020

वो नदी सी

वो, नदी सी!

बंधी, दो किनारों से,
कहती रही, उच्छृंखल तेज धारों से,
हो मेरे, श्रृंगार तुम ही,
ना, कभी कम,
तुम, ये धार करना, 
उमर भर, साथ बहना,
संग-संग,
बहूंगी, प्रवाह बन!

रही, उन दायरों में,
उलझी, बहावों के अनमने सुरों में,
चली संग, सफर पर,
रत, अनवरत,
अल्हड़, नादान सी,
दायरों में, गुमनाम सी,
सतत्  ,
बहती, अंजान बन!

थकी, थी धार अब,
सिमटना था, उसे उन समुन्दरों में,
सहमी थी, नदी अब,
गुम, वो धारे,
खो, चुके थे किनारे,
विस्तृत, हो चले थे दायरे,
चुप सी हुई,
मिलकर, सागरों में!

वो, नदी सी!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 11 March 2020

पुकार लो

छोड़ो दर्प, पुकार लो, फिर उसे!

जीर्ण हो, या नवीन सा श्रृंगार हो,
नैन से नैन का, चल रहा व्योपार हो,
फिर ये शब्द, क्यूँ मौन हों?
ये प्रेम, क्यूँ गौण हो?
बेझिझक, होंठ ये खोल दो,
पुकार लो, फिर उसे!

गर्भ में समुद्र के, दबी कितनी ही लहर,
दर्प के दंभ में, जले भाव के स्वर,
डूब कर, गौण ही रह गए, 
वो लहर, वो भँवर, मौन जो रह गए, 
तैर कर, पार वे कब हुए!
उबार लो, फिर उसे!

अतिवृष्टि हो, अल्प सा तुषार हो,
मेघ से मेह का, बरस रहा फुहार हो,
फिर आकाश, क्यूँ मौन हो?
प्रकाश, क्यूँ गौण हो?
बेझिझक, गांठ ये खोल दो,
निहार लो, फिर उसे!

छोड़ो दर्प, पुकार लो, फिर उसे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)
....................................................


दर्प: - अहंकारघमंडगर्व; मन का एक भावजिसके कारण व्यक्ति दूसरों को कुछ न समझे; अक्खड़पन। 


Sunday, 16 February 2020

अवधान

टूटा ना अवधान,
उस, काल कोठरी में,
कैद हो चला, एक दिन और!
बिन व्यवधान!

और एक दिन....

धारा है अवधान,
मौन धरा नें, 
पल, अनगिनत बह चला,
अनवरत, रात ढ़ली, दिवस ढ़ला,
हुआ, सांझ का अवसान,
बिन व्यवधान!

और एक दिन....

टूटा ना अवधान,
कालचक्र का,
कहीं सृजन, कहीं संहार,
कहीं लूटकर, किसी का श्रृंगार,
वक्त, हो चला अन्तर्धान,
बिन व्यवधान!

और एक दिन....

कैसा ये अवधान,
वही है धरा,
बदला, बस रूप जरा,
छाँव कहीं, कहीं बस धूप भरा,
क्षण-क्षण, हैं अ-समान,
बिन व्यवधान!

और एक दिन....

टूटा ना अवधान,
उस, काल कोठरी में,
कैद हो चला, एक दिन और!
बिन व्यवधान!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
 (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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अवधान का अर्थ:
1. मन का योग । चित्त का लगाव । मनोयोग ।
2. चित की वृत्ति का निरोध करके उसे एक ओर लगाना । समाधि । 
3. ध्यान । सावधानी । चौकसी ।

Sunday, 19 January 2020

कवि-मन

श्रृंगार नही यह, किसी यौवन का,
बनिए का, व्यापार नही,
उद्गार है ये, इक कवि-उर का!
पीड़-प्रसव है, उमरते मनोभावों का,
तड़पता, होगा कवि!
जब भाव वही, लिखता होगा!

हर युग में, कवि-मन, भींगा होगा,
करे चीर हरन, दुस्साशन,
युगबाला का हो, सम्मान हनन,
सीता हर ले जाए, वो कपटी रावण,
विलखता, होगा कवि!
जब पीड़ कोई, लिखता होगा!

खुद, रूप निखरते होंगे शब्दों के,
शब्द, न वो गिनता होगा, 
खिलता होगा, सरसों सा मन,
बरसों पहर, जब, बंजर रीता होगा,
विहँसता, होगा कवि!
जब प्रीत वही, लिखता होगा!

क्या, मोल लगाएँ, कवि मन का,
देखो उसकी, निश्छलता,
अनमोल हैं उनका, हर लेखन,
लिख-लिख कर, सुख पाता होगा,
रचयिता, होगा कवि!
निःस्वार्थ वही, लिखता होगा!

किसी यौवन का, ये श्रृंगार नहीं,
बनिए का, व्यापार नही,
उद्गार है ये, इक कवि-उर का!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 4 September 2019

कहीं न कहीं

न चाह कर भी, चाहतों से दूर थे हम!
जिक्र उनकी बातों में, अब भी थी मेरी ही!
कहीं न कहीं...
उनकी यादों में, जिन्दा जरूर थे हम!

कोई कल्पना, पूरा न था उनका मेरे बिन!
सारे सपने, अधूरे थे उनके मेरे बिन!
मेरी यादों से, उसने रंगे थे जीवन के पन्ने,
श्रृंगार उसने किए थे, आँखों से मेरी,
दूर थे हम, उस कल्पना में जरूर थे हम!

कहीं न कहीं...

खामोश थे लब, अधूरी थी बातें मेरे बिन!
अधजगी, उनींदी थी रातें मेरे बिन!
किसी काम के, न थे आसमाँ के सितारे,
हजारों थे वो, मगर न थे मुझसे प्यारे,
दूर थे हम, उनकी जेहन में जरूर थे हम!

कहीं न कहीं...

खनकती न थी, उनकी चूड़ियाँ मेरे बिन!
उजरी सी थी, वो ही दुनियाँ मेरे बिन!
चुप सी थी, उनके पायलों की रुन-झुन,
गुम-सुम से थे, उन होठों के तरन्नुम,
दूर थे हम, उन चुप्पियों में जरूर थे हम!

कहीं न कहीं...

न चाह कर भी, चाहतों से दूर थे हम!
फिक्र उनकी बातों में, अब भी थी मेरी ही!
कहीं न कहीं...
उनकी यादों में, जिन्दा जरूर थे हम!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Saturday, 22 June 2019

प्रभा-लेखन

है यह, नव-प्रभात का स्पंदन!
या है यह, प्रकृति का, इक सर्वश्रेष्ठ लेखन!
या, खुद रचकर, इक नव-संस्करण,
प्रकृति, करती है विमोचन!

यूँ, रचती है प्रकृति, हर क्षण इक रचना,
सर्वश्रेष्ठ, सर्वदा देती है वो अपना,
थोड़ा सा आवर्तन, अप्रत्याशित सा परिवर्तन,
कर कोई, श्रृंगार अनुपम,
ले आती है नित्य, नव-प्रभात का संस्करण!

कलियों की आहट में, होती है इक लय,
डाली पर प्रस्फुट, होते हैं किसलय,
बूँदों पर ढ़लती किरणें, ले नए रंगों के गहने,
छम-छम करती, पायल,
उतरती है प्रभात, कितने आभूषण पहने!

किलकारी करती, भोर लेती है जन्म,
नर्तक भौंड़े, कर उठते हैं गुंजन,
कुहुकती कोयल, छुप-छुप करती है चारण,
संसृति के, हर स्पंदन से,
फूट पड़ती है, इसी प्रकृति का उच्चारण!

किरणों के घूँघट, ओढ़ आती है पर्वत,
लिख जाती है, पीत रंग में चाहत,
अलौकिक सी वो आभा, दे जाती है राहत,
मंत्रमुग्ध, हो उठता है मन,
बढ़ाता है प्रलोभन, भोर का संस्करण!

है यह, नव-प्रभात का स्पंदन!
या है यह, प्रकृति का, इक सर्वश्रेष्ठ लेखन!
या, खुद रचकर, इक नव-संस्करण,
प्रकृति, करती है विमोचन!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Sunday, 26 May 2019

कैसे याद रहे?

जितने पल, व्यतीत हुए इस जीवन के,
उतने ही पल, तुम भी साथ रहे,
शैशव था छाया, जाने कब ये पतझड़ आया,
फिर, कैसे याद रहे?

था श्रृंगार तुम्हारा, या चटकी कलियाँ?
रंग तुम्हारा, या रंग-रंलियाँ?
आँचल ही था तेरा, या थी बादल की गलियाँ,
फिर, कैसे याद रहे?

अस्त हुआ कब दिनकर, कब रात हुई,
तारों को तज, तेरी ही बात हुई,
चाँदनी थी छाई, या थी तेरी ही दुग्ध परछाई,
फिर, कैसे याद रहे?

वृद्ध होंगे कल हम, बृथा था मेरा भ्रम,
यौवन संग, शैशव का संगम,
सप्त-दल से थे तुम,या थे अलि-दल से हम,
फिर, कैसे याद रहे?

कहो ना, तुझको प्रतीत हुआ कैसा?
अंतराल, व्यतीत हुआ कैसा?
अनुपालन, मन के अनुबंधों का था जैसा,
फिर, कैसे याद रहे?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Thursday, 9 May 2019

स्वप्न में मिलें

चलो ना! नींद में चलें, कहीं स्वप्न में मिलें ...

दिन उदास है, अंधेरी सी रात है!
बिन तेरे साथिया, रास आती ना ये रात है!
किससे कहें, कई अनकही सी बात है!
हकीकत से परे, कोई स्वप्न ही बुनें,
अनकही सी वही, बात छेड़ लें....

चलो ना! नींद में चलें, कहीं स्वप्न में मिलें ...

पलकों तले, यूँ जब भी तुम मिले,
दिन हो या रात, गुनगुनाते से वो पल मिले,
शायद, ये महज कल्पना की बात है!
पर हर बार, नव-श्रृंगार में तुम ढ़ले,
कल्पना के उसी, संसार में चलें.....

चलो ना! नींद में चलें, कहीं स्वप्न में मिलें ...

पास होगे तुम, न उदास होंगे हम,
कल्पनाओं में ही सही, मिल तो जाएंगे हम!
तेरे मुक्तपाश में, खिल तो जाएंगे हम!
तम के पाश से, चलो मुक्त हो चलें,
रात ओढ़ लें, उसी राह मे चलें......

चलो ना! नींद में चलें, कहीं स्वप्न में मिलें ...

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Friday, 18 January 2019

शिशिर

शिशिरे स्वदंते वहितायः पवने प्रवाति!
(अर्थात् , शिशिर में ठंढी हवा बहती है, तो आग तापना मीठा लगता है)

धवल हुई दिशा-दिशा,
उज्जवल वसुंधरा,
अंबर एकाकार हुए,
कण-कण ओस भरा,
पात-पात हुए प्रौढ़,
टूट-टूट चहुँओर गिरा,
पतझड़ का इक बयार, शिशिर ले आया!

जीर्ण-शीर्ण सा काया,
फिर से है इठलाया,
पूर्णता, सरसता, रोचकता,
यौवन रस भर लाया,
रसयुक्त हुए पोर पोर,
खिली डार-डार कलियाँ,
नव-श्रृजन का श्रृंगार , शिशिर ले आया !

शीतल विसर्गकाल,
ठंढ कड़ाके की लाया,
घनेरा सा कोहरा,
संसृति को ढ़कने आया,
प्रस्फुटित हुई कली,
नव-सृजन करने चली,
नव-जीवन का विहान, शिशिर ले लाया!

कण-कण में स्पंदन,
फूलों पर भौरों का गुंजन,
कलियों में कंपन,
झूम रही वो बन-ठन,
ठंढी-ठंढ़ी छुअन,
चहुँ दिश छाया सम्मोहन,
मन-भावन ये निमंत्रण, शिशिर ले आया!

Friday, 21 September 2018

ब्रम्ह और मानव

सुना है! ब्रम्ह नें, रचकर रचाया ये रचना....
खुद हाथों से अपने,
ब्रम्हाण्ड को देकर विस्तार,
रचकर रूप कई,
गढ़ कर विविध आकार,
किया है साकार उसने कोई सपना...

सुना हैं! उन सपनों के ही इक रूप हैं हम....
अंश उसी का सबमें,
रंग विविध से दिए है उसने,
भरकर भाव कई,
देकर मन रुपी संसार,
किया है हृदय में ममता का श्रृंगार....

सुना है! ब्रम्हलोक गए वे सब कुछ देकर...
दे कर विशाल सपने,
एहसास उपज कर मानव में,
इच्छाएं दे कई,
किए बिन सोच विचार,
सृष्टि पर सौंप दिया था अधिकार....

सुना है! अब पश्चाताप कर रहा वो ब्रम्ह...
श्रेष्ठ ज्ञान दिया जिसे,
योनियों में उत्तम रचा जिसे,
भूला राह वही,
कपट क्लेश व्यभिचार,
सृष्टि की संहार पर तुला है मानव...

सुना है! टूट चुकी है अब ब्रम्ह की तन्द्रा...
रूठ चुका है वो सबसे,
त्रिनेत्र खोल दिए है शिव ने,
प्रलय न हो कहीं!
प्रकृति में है हाहाकार,
हो न हो, है विनाश का ये हुंकार...

सुना है! अब भी नासमझ बना है मानव...

Monday, 13 August 2018

ऋतु परिवर्तन

ॠतुओं का अनवरत परिवर्तन....
क्या है ये.....

यह संधि है या है ये संधि विच्छेद?
अनवरत है या है क्षणिक प्रभेद,
कई टुकड़ों में है विभक्त,
या है ये अनुराग कोई अविभक्त,
कैसा ये क्रमिक अनुगमन.....

देखा है हमनें.....

संसृति का निरंतर निर्बाध परिवर्तन,
और बदलते ॠतुओं संग,
मुस्कुराती वादियों का मुरझाना,
कलकल बहती नदियों का सूख जाना,
बेजार होते चहकते दामन....

और फिर ...

उन्ही ऋतुओं का पुनः व्युत्क्रमण,
कोपलों का नवीकरण,
मद में डूबा प्यारा सा मौसम,
आगोश में फिर भर लेने का फन,
बहकता सा कुंवारा मन......

मैं इक कविमन...

उत्सुकता मेरी बढ़ती जाए हरक्षण,
शायद है यही सर्वश्रेष्ठ लेखन!
संसृति का ये श्रृंगार अनुपम,
यही तो है उत्कृष्ठ सौन्दर्य विमोचन,
ॠतुओं का क्रमिक परिवर्तन.....

सँवर रही हो जैसे दुल्हन....

Thursday, 2 August 2018

तू, मैं और प्यार

ऐसा ही है कुछ,
तेरा प्यार...

मैं, स्तब्ध द्रष्टा,
तू, सहस्त्र जलधार,
मौन मैं,
तू, बातें हजार!

संकल्पना, मैं,
तू, मूर्त रूप साकार,
लघु मैं,
तू, वृहद आकार!

हूँ, ख्वाब मैं,
तू, मेरी ही पुकार,
नींद मैं,
तू, सपन साकार!

ठहरा ताल, मैं,
तू, नभ की बौछार,
वृक्ष मैं,
तू, बहती बयार!

मैं, गंध रिक्त,
तू, महुआ कचनार,
रूप मैं,
तू, रूप श्रृंगार!

शब्द रहित, मैं,
तू, शब्द अलंकार,
धुन मैं,
तू, संगीत बहार!

ऐसा ही है कुछ,
तेरा प्यार...

Monday, 29 January 2018

सृजन

शायद अब हो पूरा, प्रकृति का यह श्रृंगार अधूरा!

एकत्र हुई है सब कलियाँ,
चटक रंगों से करती रंगरलियाँ,
डाल-डाल खिल आई नव-कोपल,
खिलते फूलों के चेहरे हैं चंचल,
सब पात-पात झूमे हैं,
कलियों के चेहरे भँवरों ने चूमे हैं,
लताओं के लट यूँ बिखरे हैं,
ज्यूँ नार-नवेली ने लट खोले हैं,
रंगीन धरा, अंग-अंग में श्रृंगार भरा...

शायद अब हो पूरा, प्रकृति का यह श्रृंगार अधूरा!

झूम-झूम हो रही मतवाली,
गुलमोहर, अमलतास की डाली,
खुश्बू भर आई गुलाब, चम्पा और बेली,
गीत बसंत के कूक रही वो कोयल,
पपीहा अपनी धुन में पागल,
रह रह गाती बस ..पी कहाँ, पी कहाँ!
मुग्ध संसृति है इनकी तान से,
सृजन का है सुन्दर नव-विहान ये,
मुखरित धरा, कण-कण में लाड़ भरा...

शायद अब हो पूरा, प्रकृति का यह श्रृंगार अधूरा!

हैं दलदल में खिले कमल,
जल में बिखरे हैं शतधा शतदल,
कलरव क्रीड़ा करते झूम रहे है जलचर,
जैसे मना रहे उत्सव सब मिलकर,
झिलमिल करती वो किरणें,
ठहरी झील की चंचल सतह पर,
थिरक रही बूँद-बूँद बस इठलाकर,
मुग्ध धरा, अंग-प्रत्यंग में उन्माद भरा......

शायद अब हो पूरा, प्रकृति का यह श्रृंगार अधूरा!

Wednesday, 31 August 2016

अरुणोदय


अरुणोदय की हल्की सी आहट पाकर,
लो फिर मुखरित हुआ प्रभात,
किरणों के सतरंगी रंगों को लेकर,
नभ ने नव-आँचल का फिर किया श्रृंगार।

मौन अंधेरी रातों के सन्नाटे को चीरकर,
सूरज ने छेरी है फिर नई सी राग,
कलरव कर रहे विहग सब मिलकर,
कलियों के संपुट ने किया प्रकृति का श्रृंगार।

नव-चेतन, नव-साँस, नव-प्राण को पाकर,
जागा है भटके से मानव का मन,
नव-उमंग, नव-प्रेरणा, नव-समर्पण लेकर,
आँखों में भर ली है उसने रचना का नया श्रृंगार।

Wednesday, 13 April 2016

श्रृंगार

श्रृंगार ये किसी नव दुल्हन के, मन रिझता जाए!

कर आई श्रृंगार बहारें,
रुत खिलने के अब आए,
अनछुई अनुभूतियाें के अनुराग,
अब मन प्रांगण में लहराए!

सृजन हो रहे क्षण खुमारियों के, मन को भरमाए!

अमलतास यहां बलखाए,
लचकती डाल फूलों के इठलाए,
नार गुलमोहर सी मनभावन,
मनबसिया के मन को लुभाए।

कचनार खिली अब बागों में, खुश्बु मन भरमाए!

बहारों का यौवन इतराए,
सावन के झूलों सा मन लहराए,
निरस्त हो रहे राह दूरियों के,
मनसिज सा मेरा मन ललचाए।

आलम आज मदहोशियों के, मन डूबा जाए!

Saturday, 16 January 2016

सरसों के फूल

सरसों के फूल
 लुभा गए मन को,
दूर-दूर तक,
धरा पर,
प्रीत बन,
पीली चादर फैला गए,
हरितिमा पर छा गए,
 लहलहा गए,
पीत रंग
मन को मेरे भा गए।

श्रृंगार
लुभावन
वसुधा को दे गए,
आच्छादित हुए
धरा के
अंग-अंग,
गोद भराई कर गए,
 मधु-रस की
मधुर धार,
भौरों को दे गए,
मुक्त सादगी
सरसों की
मन को हर गए।

कुछ पल
मैं भी संग बिताऊँ,
कोमलता
तनिक
स्पर्श मैं भी कर जाऊँ,
दामन में,
भर लूँ,
निमित्त हुए
चित मेरे विस्मित,
कर गए,
सरसों के फूल,
मेरे मन में बस गए।