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Saturday, 25 January 2020

26 जनवरी : ऐ देश!

ऐ देश, तू अब जाग जरा,
देखे जो, स्वप्न तूने,
जा, पा उसे,
उनके पीछे, तू भाग जरा!

ऐ देश, तू वही लहू बन,
नस-नस, में दौर,
ना, ठहर,
जन-जन में, तू भाग जरा!

ऐ देश, तू लहर हर मन,
बन जा, तीन रंग,
संगीत, सा,
साँसों में भर, तू राग जरा!

ऐ देश, तू पीछे ना मुड़,
कर्म-पथ पर, चल,
आगे ही बढ़,
दे विश्व को, तू ज्ञान जरा!
प्रथम गणतंत्र समारोह में सम्मलित होने, घोड़े की बग्घी में, राजपथ पर जाते देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद।

आपको यह जानकर हैरानी होगी कि आजादी पूर्व 26 जनवरी 1930 से लेकर 26 जनवरी 1947 तक, हम देशवासी 26 जनवरी को स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाते रहे हैं।

वस्तुतः दिसम्बर 1929 के लाहौर अधिवेशन में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा प्रस्ताव पारित कर इस बात की घोषणा की गई कि अंग्रेज सरकार, 26 जनवरी 1930 तक, भारत को स्वायत्त-उपनिवेश (Dominion) का दर्जा प्रदान करे, नहीं तो, उस दिन से भारत की पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्ति तक, सक्रिय आंदोलन चलता रहेगा, और, 26 जनवरी 1930 से 1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति तक, भारत में, 26 जनवरी, स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाया जाता रहा।

इसके पश्चात, स्वतंत्रता प्राप्ति के वास्तविक दिन, अर्थात् 15 अगस्त, को भारत के स्वतंत्रता दिवस के रूप में स्वीकार किया गया।

भारत की आज़ाद के पश्चात्  संविधान सभा (Constituent Assembly) की घोषणा हुई। संविधान सभा के सदस्य, भारत के राज्यों की सभाओं के निर्वाचित सदस्यों द्वारा चुने गए। डॉ० भीमराव अम्बेडकर, डाॅ राजेन्द्र प्रसाद, सरदार वल्लभ भाई पटेल, जवाहर लाल नेहरू, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद आदि जैसे प्रमुख सहित, कुल मिलाकर 308 सदस्य थे।

संविधान निर्माण में कुल 22 समितियाँ थी जिसमें  प्रारूप समिति (Drafting Committee) सबसे प्रमुख एवं महत्त्वपूर्ण समिति थी और इस समिति का कार्य संपूर्ण ‘संविधान लिखना’ या ‘निर्माण करना’ था।इसके अध्यक्ष, विधिवेत्ता डॉ० भीमराव अम्बेडकर थे। प्रारूप समिति नें, 2 वर्ष, 11 माह, 18 दिन में भारतीय संविधान का निर्माण पूर्ण किया और इसे, संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को, 26 नवम्बर 1949 को सुपूर्द किया, इसलिए 26 नवम्बर को भारत में संविधान दिवस के रूप में मनाया जाता है।

संविधान सभा ने, संविधान निर्माण के समय, कुल 114 बैठकें की। इन बैठकों में प्रेस और जनता को भाग लेने की स्वतन्त्रता थी। अनेक सुधारों और बदलावों के बाद सभा के 308 सदस्यों ने 24 जनवरी 1950 को, संविधान की दो हस्तलिखित कॉपियों पर हस्ताक्षर किये, और इसके दो दिन पश्चात्,अर्थात् 26 जनवरी को, भारतीय संविधान, देश भर में लागू हो गया।

इसी दिन, सन् 1950 को भारत सरकार अधिनियम (एक्ट) (1935) को हटाकर भारत का संविधान लागू किया गया।

26 जनवरी का महत्व बनाए रखने के लिए, इसी दिन संविधान निर्मात्री सभा (Constituent Assembly), द्वारा संविधान में, भारत के गणतंत्र स्वरूप को, मान्यता प्रदान की गई। 

तभी से, 26 जनवरी को, भारत में गणतंत्र दिवस (Republic Day) को राष्ट्रीय पर्व के रूप में, मनाया जाता है।
- सभी देशवासियों को गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ।

ऐ देश, तू अब जाग जरा,
देखे जो, स्वप्न तूने,
जा, पा उसे,
उनके पीछे, तू भाग जरा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Thursday, 26 September 2019

हुंकार

गूंज उठी थी ह्यूस्टन, थी अद्भुत सी गर्जन!
चुप-चुप सा, हतप्रभ था नेपथ्य!
क्षितिज के उस पार, विश्व के मंच पर, 
देश ने भरी थी, इक हुंकार?

सुनी थी मैंने, संस्कृति की धड़कनें,
जाना था मैंने, फड़कती है देश की भुजाएं,
गूँजी थी, हमारी इक गूंज से दिशाएँ,
एक व्यग्रता, ले रही थी सांसें!

फाख्ता थे, थर्राए दुश्मनों के होश,
इक भूचाल सा था, फूटा था मन का रोश,
संग ले रहा था, एक प्रण जन-जन,
विनाश करें हम, विश्व आतंक!

आतंक मुक्त हों, विश्व के फलक,
जागे मानवता, आत॔कियों के अन्तः तक,
लक्ष्य था एक, संग हों हम नभ तक,
संकल्प यही, पला अंत तक!

चाह यही, समुन्नत हों प्रगति पथ,
गतिमान रहे, विश्व जन-कल्याण के रथ,
अवसर हों, हाथों में हो इक मशाल,
रंग हो, नभ पे बिखरे गुलाल!

महा-शक्ति था, जैसे नत-मस्तक,
पहचानी थी उसने, नव-भारत की ताकत,
जाना, क्यूँ अग्रणी है विश्व में भारत!
आँखों से भाव, हुए थे व्यक्त!

गूंजी थी ह्यूस्टन, जागे थे सपने,
फलक पर अब, संस्कृति लगी थी उतरने,
हैरान था विश्व, हतप्रभ था नेपथ्य!
निरख कर, भारत का वैभव!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Friday, 15 February 2019

पुलवामा (14.02.2019)

पुलवामा की आज 14.02.2019 की, आतंकवादी घटना और नौजवानों / सैनिकों की वीरगति से मन आहत है....

प्रश्न ये, देश की स्वाभिमान पर,
प्रश्न ये, अपने गणतंत्र की शान पर,
जन-जन की, अभिमान पर,
प्रश्न है ये,अपने भारत की सम्मान पर।

ये वीरगति नहीं, दुर्गति है यह,
धैर्य के सीमा की, परिणति है यह,
इक भूल का, परिणाम यह,
नर्म-नीतियों का, शायद अंजाम यह!

इक ज्वाला, भड़की हैं मन में,
ज्यूँ तड़ित कहीं, कड़की है घन में,
सूख चुके हैं, आँखों के आँसू,
क्रोध भरा अब, भारत के जन-जन में!

ज्वाला, प्रतिशोध की भड़की,
ज्वालामुखी सी, धू-धू कर धधकी,
उबल रहा, क्रोध से तन-मन,
कुछ बूँदें आँखों से, लहू की है टपकी।

उबाल दे रहा, लहू नस-नस में,
मेरा अन्तर्मन, आज नहीं है वश में,
उस दुश्मन के, लहू पी आऊँ,
चैन मिले जब, वो दफ़न हो मरघट में।

दामन के ये दाग, छूटेंगे कैसे,
ऐसे मूक-बधिर, रह जाएँ हम कैसे,
छेड़ेंगे अब गगणभेदी हुंकार,
प्रतिकार बिना, त्राण पाएंगे हम कैसे!

ये आह्वान है, पुकार है, देश के गौरव और सम्मान हेतु एक निर्णायक जंग छेड़ने की, ताकि देश के दुश्मनों को दोबारा भारत की तरफ आँख उठाकर देखने की हिम्मत तक न हो। जय हिन्द ।

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Friday, 19 February 2016

जननी जन्मभूमि भारत

जननी जन्मभूमि हूँ मैं,
आहत हूँ थोड़ी सी, थोड़ी विचलित हूँ मैं,
सदियों से कुठाराघात कई दुश्मनों के सह चुकी हूँ मैं,
टूटी नहीं अभी तक संघर्षरत हूँ मैं।

भारत की माता हूँ मैं!
जानती हूँ सदियों से हमपे जुल्म कई होते रहे,
गोलियों से मेरे वीर सपूतों के हृदय छलनी होते रहे,
पर आहूति देकर ये, रक्षा मेरी करते रहे।

कर्मवीरों की धरती हूँ मैं!
अभिमान हूँ कोटि कोटि हृदयस्थ जलते दीप की,
गौरव हूँ मैं जन जन के संगीत की,
बिखरूंगी लय नई बन, विश्वविजय गीत की।

जननी जन्मभूमि हूँ मैं, भारत माता हूँ मैं।

Thursday, 18 February 2016

तिरंगा शिरमौर भारत की शान

तिरंगे की शान मे बर्दाश्त न होगी गुस्ताखी हमें,
शिरमौर भारत की मान-सम्मान-गौरव सुरक्षा,
 लेनी अब अपनी हाथों में हमें!

वो दुश्मन गद्दार है जो कहता,
भारत मेरा देश नहीं,
मैं कहता सरजमीं-ए-भारत,
स्वाभिमान है मेरा,कोई खेल नहीं!

गद्दार हैं वो! जिनके दिल,
सरजमीं-ए-हिंदुस्तान में रहते नहीं,
युगों- युगों से जयचन्द जैसे,
गद्दारों की इस देश में चली नही।

शिरोधार्य शिरमौर देश का स्वाभिमान हमें,
अरमानों की बलि देकर,
इसकी रक्षा करनी होगी हमें, 
तिरंगे की शान मे बर्दाश्त न होगी गुस्ताखी हमें,
देश द्रोही अफजल जैसे गद्दारों के,
सर कलम करनी होगी हमें।

शिरमौर भारत की मान-सम्मान-गौरव सुरक्षा,
 अब लेनी अपनी हाथों में हमें!

सपनों के भारत को लगी नजर

मेरे सपनों के भारत को लग गई किसकी नजर?

सोंच हो चुकी है दूषित आज सत्तालोलुपों की,
सत्ता के भूखे उस महा दानव की,
साधते स्वार्थ अपना रोपकर वृक्ष वैमनस्य की।

महादानव हैं वो पर दाँत नही दिखते उसके,
खतरनाक विषधर विष भरे सोंच उनके,
दूषित कर देते ये सोंचविचार निरीह भोले मानस के।

चंद पैसों की खातिर बिक जाते यहाँ ईमान,
देश समाज धर्म का फिर कहाँ ध्यान,
आम जन मरे या जले, बढ़ता रहे इनका सम्मान।

सत्ता लोलुपता इनकी देशभक्ति से ऊपर,
देश की बदहाली, दुर्दशा से ये बेखबर,
खुशहाल आवो हवा को लग गई इनकी बुरी नजर।

मेरे सपनों के भारत को लग गई किसकी नजर?