लो डुबकियाँ,
हो रहा बेजार, ये मझधार है!
जीवन, जिन्दगी में खो रहा कहीं,
मानव, आदमी में सो रहा कहीं,
फर्क, भेड़िये और इन्सान में अब है कहाँ?
कहीं, श्मसान में गुम है ये जहां,
बिलखती माँ, लुट चुकी है बेटियाँ,
हैरान हूँ, अब तक हैवान जिन्दा हैं यहाँ!
अट्टहास करते हैं वो!
तुम चुप हो क्यूँ?
लो चुटकियाँ,
हो रहा बेकार, नव-श्रृंगार है!
सत्य, कंदराओं में खोया है कहीं,
असत्य, यूँ प्रभावी होता नही!
फर्क, अंधेरों और उजालों में अब है कहाँ?
जंगलों में, दीप जलते हैं कहाँ,
सुलगती आग है, उमरता है धुआँ,
जिन्दा जान, तड़पते जल जाते हैं यहाँ!
तमाशा, देखते हैं वो!
तुम चुप हो क्यूँ?
लो फिरकियाँ,
हो रहा बेजार, ये उपहार है!
भँवर, इन नदियों में उठते हैं यूँ ही,
लहर, समुन्दरों में यूँ डूबते नहीं,
फर्क, तेज अंधरो के, उठने से पड़ते कहाँ!
इक क्षण, झुक जाती हैं शाखें,
अगले ही क्षण, उठ खड़ी होती यहाँ,
निस्तेज होकर, गुजर जाती हैं आँधियां!
सम्हल ही जाते हैं वो!
तुम चुप हो क्यूँ?
भँवर, इन नदियों में उठते हैं यूँ ही,
लहर, समुन्दरों में यूँ डूबते नहीं,
फर्क, तेज अंधरो के, उठने से पड़ते कहाँ!
इक क्षण, झुक जाती हैं शाखें,
अगले ही क्षण, उठ खड़ी होती यहाँ,
निस्तेज होकर, गुजर जाती हैं आँधियां!
सम्हल ही जाते हैं वो!
तुम चुप हो क्यूँ?
लो डुबकियाँ,
हो रहा बेजार, ये मझधार है!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)