Sunday, 29 January 2023

छलकी बदरी


छलकी क्यूं बदरी,
इक बूंद गिरी, या दुःख की जलधि!
समझ सके ना हम!

भीगे सब पात, यूं जागी रात,
हुई सजल, हर बात,
क्या उपवन, क्या मरुवन सा ये आंगन!
नैन भिगोए, क्यूं दुल्हन!
कह ना सके हम!

अंतः थामे बरखा संग बिजली,
गोद लिए, चंचल बदरी,
भर लाते, मन के अन्दर, सागर कितने,
अंसुवन के, गागर कितने,
कह ना सके हम!

फैलाए, अंधियारा इक दामन,
गहराते, वो काले घन,
घबराते, या, छम-छम गीत कोई गाते,
व्याकुल, बदरा ही जाने,
कह ना सके हम!

छलकी क्यूं बदरी,
इक बूंद गिरी, या दुःख की जलधि!
समझ सके ना हम!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday, 16 January 2023

दिल न जाने कहां


दिल था यहीं, अब न जाने कहां?
आ ही उतरा, जमीं पर,
वो आसमां!

कैसे मूंद लूं, ये दो, पलकें,
रोक लूं कैसे, ये आंसू जो छलके,
सम्हाले, न संभले,
ले चला, मुझको किधर!
वो कारवां!

दिल था यहीं, अब न जाने कहां?

ख़ामोश है, कितनी दिशा,
चीखकर, कभी, गूंजती है निशा,
चुप रौशनी के साये,
यूं बुलाए, मुझको किधर!
वो कहकशां!

दिल था यहीं, अब न जाने कहां?

हो शायद, वो फलक पर!
लिए तस्वीर, उनकी पलक पर!
सम्हाले, आस कोई,
ले चला, मुझको किधर!
वो बागवां!

दिल था यहीं, अब न जाने कहां?
आ ही उतरा, जमीं पर,
वो आसमां!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 7 January 2023

कौन विशेष है!

कौन यहां, विशेष है?
सब, बहते वक्त के अवशेष हैं!
कुछ बीत चुके, कुछ बीत रहे,
कुछ शेष है!
कौन यहां, विशेष है?

बस, पथ यह अभिमान भरा,
और, झूले सपनों के,
स्व से, स्वत्व का अवलोकन कौन करे?
सत्य के, अंतहीन विमोचन में,
जाने कितना अशेष है?
कौन यहां, विशेष है?

दलदल, और अंधियारा पथ,
खींच रहे सब, रथ,
ये पग कीचड़ से लथपथ, कैसे गौर करे!
अर्ध-सत्यों की, अन-देखी में,
जाने कितना अशेष है?
कौन यहां, विशेष है?

धूमिल स्वप्न सा, यह जीवन,
हाथों में, कब आए,
ये धूल, किधर उड़ जाए, कैसे ठौर करे!
उस दिग-दिगंत को, पाने में,
जाने कितना अशेष है?
कौन यहां, विशेष है?

कौन यहां, विशेष है?
सब, बहते वक्त के अवशेष हैं!
कुछ बीत चुके, कुछ बीत रहे,
कुछ शेष है!
कौन यहां, विशेष है?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 1 January 2023

चेतना

जागो तुम, किसी की चेतना में,
सो जाना फिर,
खो जाना,
उसी की वेदना में!

यूं, आसां कहां, जगह पाना!
चेतना में, किसी की सदा रह जाना,
मन अचेतन,
न जाने, देखे कौन सा दर्पण!
कब कहां, करे, खुद को अर्पण!
किसी की चेतना मे!

यूं वेदना की तपती धरा पर,
सिमट कर, धूप सेकती है, चेतना!
सिसक कर,
सन्ताप में, दम तोड़ती कब!
मन भटकता, धूंध के पार, तब,
किसी की चेतना मे!

सो लो तुम, किसी की वेदना में,
जाग लेना फिर,
खो जाना,
उसी की चेतना में!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

नववर्ष २०२३

आया और इक नव-वर्ष,
और एक उत्कर्ष, 
चल कर लें स्वागत, सहर्ष!

रोका कितनों नें, 
डाले कितनों ने, रोड़े राहों में,
आए कितने ही दोराहे,
मुड़ आए, रस्ते सारे,
ले आए नव-वर्ष!

रुकते कब पग,
रोके, रुकते ना जन कलरव,
स्वागत का यह उत्सव,
स्मृतियों के, ये पल,
ले आए नव-वर्ष!

उर में, उल्लास,
मन में, इक मीठी सी प्यास,
होठों पर, इक नवहास,
चहुंओर नवविलास,
ले आए नव-वर्ष!

आया और इक नव-वर्ष,
और एक उत्कर्ष, 
चल कर लें स्वागत, सहर्ष!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)