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Friday, 19 June 2020

मन हो चला पराया

मेरी सुसुप्त संवेेेेदनाओं को फिर पिरोने,
वो कौन आया?
मन हो चला पराया!

लचकती डाल पर,
जैसे, छुप कर, कूकती हो कोयल,
कदम की ताल पर,
दिशाओं में, गूंजती हो पायल,
है वो रागिनी या है वो सुरीली वादिनी!
वो कौन है?
जो लिए, संगीत आया!

जग उठी, सोई सी संवेदनाएँ,
मन हो चला पराया!

आँखें मूंद कोई,
कुछ कह गया हो, प्यार बनकर,
गिरी हो बूँद कोई,
घटा से, पहली फुहार बनकर,
है वो पवन, या वो है नशीला सावन!
वो कौन है?
जो लिए, झंकार आया!

जग उठी, सोई सी संवेदनाएँ,
मन हो चला पराया!

चहकती सी सुबह,
जैसे, जगाती है झक-झोरकर,
खोल मन की गिरह,
कई बातें सुनाती है तोलकर,
है वो रौशनी या वो है कोई चाँदनी!
वो कौन है?
जो लिए, पुकार आया!

मेरी सुसुप्त संवेेेेदनाओं को फिर पिरोने,
वो कौन आया?
मन हो चला पराया!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday, 2 September 2019

ख्वाब

अनदेखे ख्वाब कैसे, दिखाए हैं ख्याल ने!

है वो चेहरा या है शबनम!
हुए बेख्याल, बस यही सोचकर हम!
हाँ, वो कोई रंग बेमिसाल है!
यूं ही हमने रंग डाले,
हाँ, जिन्दगी सवाल में!

कई ख्याल आ रहे हैं, उन्हीं के ख्याल में!

वो रंग है या नूर है,
जो चढ़ता ही जाए, ये वो सुरूर है,
हाँ, वो कुछ तो जरूर है!
यूं ही हमने देख डाले,
हाँ, कई रंग ख्वाब में!

अनोखे हैं रंग कितने, उन्हीं के ख्याल में!

ये कैसे मैं भूल जाऊँ?
है बस ख्वाब वो, ये कैसे मान जाऊँ?
हाँ, कहीं वो मुझसे दूर है!
यूं ही उसने भेज डाले,
हाँ, कई खत ख्वाब में!

रंगीन हो चुके हैं खत, उन्हीं के ख्याल मे!

हाँ, वो नजरों में गए हैं उतर!
इन ख्यालों में, कहीं कर रहे हैं बसर!
वो रूप है या बस ख्याल है!
यूं ही हम सँवार डाले,
हाँ, कई ख्वाब ख्याल में!

कई ख्वाब देख डाले, हम यूं ही ख्याल में!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Sunday, 21 April 2019

प्यार

न जाने, कितनी ही बार,
चर्चा का विषय, इक केन्द्र-बिंदु, रहा ये प्यार!
जब भी कहीं, अंकुरित हुई कोमलता,
भीगी, मन की जमीन,
अविरल, आँखों से फूटा इक प्रवाह,
बह चले, दो नैन,
दिन हो या रैन, मन रहे बेचैन,
फिर चर्चाओं में,
केन्द्र-बिंदु बन कर, उभरता है ये प्यार!

हर दिन, क्षितिज के पार,
उभरता है सूरज, जगाकर संभावनाएं अपार!
झांकता है, कलियों की घूँघट के पार,
खोल कर, उनके संपुट,
सहलाकर किरणें, भर देती हैं उष्मा,
विहँसते हैं शतदल,
खिल आते हैं, करोड़ों कमल,
अद्भुत ये श्रृंगार,
क्यूँ न हो, चर्चा के केन्द्र-बिन्दु में प्यार!

कल्पना, होती हैं साकार,
जब सप्तरंगों में, इन्द्रधनुष ले लेता है आकार!
मन चाहे, रख लूँ उसे ज़मीं पर उतार,
बिखर कर, निखरती बूंदें,
किरणों पर, टूट कर नाचती वो बूंदें,
भींगता, वो मौसम,
फिजाओं में, पिघली वो धूप,
शीतल वो रूप,
चर्चाओं के केन्द्र-बिंदु, क्यूँ न बने ये प्यार!

न जाने, कितनी ही बार,
चर्चा का विषय, इक केन्द्र-बिंदु, रहा ये प्यार!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Tuesday, 19 February 2019

करार

ऐ बेकरार दिल, खो रहा है क्यूँ तेरा करार?
क्यूँ तुझे हुआ है, फिर किसी से प्यार?

भीगी है ये, आँखें क्यूँ,
यूँ फैलाए है पर, आसमां पे क्यूँ,
ना तू, इस कदर मचल,
आ जा, जमीं पे साथ चल,
मुझ पे कर ले, ऐतबार!

ऐ बेकरार दिल, खो रहा है क्यूँ तेरा करार?
क्यूँ तुझे हुआ है, फिर किसी से प्यार?

परेशान हैं, इतना क्यूँ,
हैरान इस कदर, ये तेरे नैन क्यूँ,
गुम है, बातों में खनक,
अधूरी सी, आँखों में ललक,
तू कर, काबू में करार!

ऐ बेकरार दिल, खो रहा है क्यूँ तेरा करार?
क्यूँ तुझे हुआ है, फिर किसी से प्यार?

धड़कनें हैं, तेज क्यूँ,
अन्तरमन तेरा, निस्तेज क्यूँ,
लड़खड़ाए से कदम,
छूट जाए न, कहीं तेरा दम,
एक, तू ही है मेरा यार!

ऐ बेकरार दिल, खो रहा है क्यूँ तेरा करार?
क्यूँ तुझे हुआ है, फिर किसी से प्यार?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Wednesday, 30 January 2019

सौगातें

ले आती है वो, कितनी ही सौगातें!
सुप्रिय रूप, कर्ण-प्रिय वाणी, मधु-प्रिय बातें!

हो उठता हैं, परिभाषित हर क्षण,
अभिलाषित, हो उठता है मेरा आलिंगन,
कंपित, हो उठते हैं कण-कण,
उस ओर ही, मुखरित रहता है ये मन!

लेकर आती है वो, कितनी ही सौगातें.......

रंग चटक, उनसे लेती हैं कलियाँ,
फिर मटक-मटक, खिलती हैं पंखुड़ियां,
और लटक झूलती ये टहनियाँ,
उस ओर ही, भटक जाती है दुनियाँ!

लेकर आती है वो, कितनी ही सौगातें.......

स्वर्णिम सा, हो उठता है क्षितिज,
सरोवर में, मुखरित हो उठते हैं वारिज,
खुश्बूओं में, वो ही हैं काबिज,
हर शै, होता उनसे ही परिभाषित!

लेकर आती है वो, कितनी ही सौगातें.......

उनकी बातें, उनकी ही धड़कन,
उनकी होठों का, कर्ण-प्रिय सा कंपन,
मधु-प्रिय, चूड़ी की खन-खन,
हर क्षण सरगम, लगता है आंगन!

ले आती है वो, कितनी ही सौगातें!
सुप्रिय रूप, कर्ण-प्रिय वाणी, मधु-प्रिय बातें!

Thursday, 2 August 2018

तू, मैं और प्यार

ऐसा ही है कुछ,
तेरा प्यार...

मैं, स्तब्ध द्रष्टा,
तू, सहस्त्र जलधार,
मौन मैं,
तू, बातें हजार!

संकल्पना, मैं,
तू, मूर्त रूप साकार,
लघु मैं,
तू, वृहद आकार!

हूँ, ख्वाब मैं,
तू, मेरी ही पुकार,
नींद मैं,
तू, सपन साकार!

ठहरा ताल, मैं,
तू, नभ की बौछार,
वृक्ष मैं,
तू, बहती बयार!

मैं, गंध रिक्त,
तू, महुआ कचनार,
रूप मैं,
तू, रूप श्रृंगार!

शब्द रहित, मैं,
तू, शब्द अलंकार,
धुन मैं,
तू, संगीत बहार!

ऐसा ही है कुछ,
तेरा प्यार...

Sunday, 20 May 2018

स्वार्थ

शायद, मैं तुझमें अपना ही स्वार्थ देखता हूं....

तेरी मोहक सी मुस्काहट में,
अपने चाहत की आहट सुनता हूं
तेरी अलसाए पलकों में,
सलोने जीवन के सपने बुनता हूं,
उलझता हूं गेसूओं में तेरे,
बाहों में जब भी तेरे होता हूं,
जी लेता हूं मैं तुझ संग,
यूं सपने जीवन के संजोता हूं,
हाँ तब भी, मैं अपना स्वार्थ ही देखता हूं!

कब पल-भर को भी मैं नि:स्वार्थ जीता हूं!

भीगे तेरे आँसू में
दामन भी मेरे,
छलनी मेरा हृदय भी
हुआ दर्द से तेरे,
डोर जीवन की मेरी
है साँसों में तेरे,
मेरी डोलती नैया
है हांथों में तेरे,
यही तो हैं स्वार्थ....
मै वश में जिनके रहता हूं...
फिर, कैसे हुआ मैं निःस्वार्थ...
हाँ इनमें भी, मैं अपना स्वार्थ ही देखता हूं!

कब पल-भर को भी, मैं नि:स्वार्थ जीता हूं!

कोई छोटी सी बात भी मेरी,
न बनती है बिन तेरे,
है तुझ पे ही पूर्णतः निर्भर,
मेरे जीवन के फेरे,
संतति को मेरी...
शरण मिली कोख में ही तेरे,
जीवन की इन राहों पर
इक पग भी
न चल पाया मैं बिन तेरे,
फिर, कहां हुआ मैं निःस्वार्थ,
हाँ अब भी, मैं अपना स्वार्थ ही देखता हूं!

कब पल-भर को भी मैं नि:स्वार्थ जीता हूं!

सब कहते हैं इसको ही प्यार....
पर, इसमें मैं अपने
स्वार्थ का संसार देखता हूं ....
बिल्कुल, मैं तुझमें अपना ही स्वार्थ देखता हूं....

(स्वार्थवश...., पत्नी को सप्रेम समर्पित)

Tuesday, 15 May 2018

नए नग्मे

नग्में नए गुनगुनाओ, मेरी पनाहो में आओ....

तुम हर पल यूं ही मुस्कुराओ,
तराने नए तुम बनाओ,
नए जिन्दगी की नई ताल पर,
झूमो यूं, मस्ती में आओ....

नग्में नए गुनगुनाओ, मेरी पनाहो में आओ....

तुम बहारों के दामन में खेलो,
कलियो सी खिलखिलाओ,
चटक रंग की नई फूल सी तुम,
आंगन को मेरे सजाओ....

नग्में नए गुनगुनाओ, मेरी पनाहो में आओ....

तुम वापस न जाने को आओ,
लौटकर फिर न जाओ,
कह दो जरा, के मेरे हो तुम,
सपनों को मेरे सजाओ....

नग्में नए गुनगुनाओ, मेरी पनाहो में आओ....

Tuesday, 20 March 2018

संशय

कुछ पूछे बिन लौट आता है, मन बार-बार....

पलते हैं इस मन शंका हजार,
मन को घेरे हैं संशय, कर लेता हूं विचार!
क्या सोचेंगे वो! क्या समझेंगे वो? 
क्या होगा उनका व्यवहार?
गर, मन की वो बातें, रख दूं उतार!
फिर, लाखों संशय से मन घिर जाता है!
डरता है, घबराता है, सकुचाता है.....
जाता है उन राहों पे हर-बार....

कुछ पूछे बिन लौट आता है, मन बार-बार....

फिर करता हूं मन को तैयार,
संशय में जीता, संशय में मरता हूं यार?
क्या संशय में मिल पाएंगे वो?
क्या यह संशय है बेकार?
या त्याग दूं संशय, हो जाऊँ बेजार!
फिर, संशय की बूंदों से मन घिर जाता है!
भीगता है, रुकता है, फिर चलता है...
जाता है भीगी राहों पे हर-बार....

कुछ पूछे बिन लौट आता है, मन बार-बार....

Sunday, 18 March 2018

अधलिखा अफसाना

बंद पलकों तले, ढ़ूंढ़ता हूं वही छाँव मैं...
कुछ देर रुका था जहाँ, देखकर इक गाँव मैं....

अधलिखा सा इक अफसाना,
ख्वाब वो ही पुराना,
यूं छन से तेरा आ जाना,
ज्यूं क्षितिज पर रंग उभर आना..
और फिर....
फिजाओं में संगीत,
गूंजते गीत,
सुबह की शीत,
घटाओं का उड़ता आँचल,
हवाओं में घुलता इत्र,
पंछियों की चहक,
इक अनोखी सी महक,
चूड़ियों की खनक,
पत्तियों की सरसराहट,
फिर तुम्हारे आने की आहट,
कोई घबराहट,
काँपता मन,
सिहरता ये बदन,
इक अगन,
सुई सी चुभन,
फिर पायलों की वही छन-छन,
वो तुम्हारा पास आना,
वो मुस्कुराना,
शर्म से बलखाना,
वो अंकपाश में समाना,
वापस फिर न जाना,
मन में समाना,
अहसास कोई लिख जाना,
है अधलिखा सा इक वो ही अफसाना....

बंद पलकों तले, ढ़ूंढ़ता हूं वही छाँव मैं...
कुछ देर रुका था जहाँ, देखकर इक गाँव मैं....

Saturday, 3 March 2018

ओ रे साथिया!

ओ रे साथिया! चल गीत लिखें कोई इक नया....

बदलेंगे यहाँ मौसम कई,
बदलेगी न राहें कभी सुरमई,
सुरीली हो धुन प्यार की,
नया गीत लिख जाएंगे हम कई...
यू चलते रहेंगे हम यहाँ,
आ बना ले इक नया हम जहाँ....

ओ रे साथिया! चल गीत लिखें कोई इक नया....

हो प्रेम की वादी कोई,
गूंजते हों जहाँ शहनाई कोई,
गीतों भरी हो सारी कली,
आ झूमें वहाँ हर डगर हर गली...
यूं मिलते रहे हम यहाँ,
आ लिख जाएँ हम नया दास्ताँ.....

ओ रे साथिया! चल गीत लिखें कोई इक नया....

हर गीत मे हो तुम्ही,
संगीत की हर धुन में तुम्ही,
तुम सा नही दूजा कोई,
रंग दूजा न अब चढता कोई....
यूं बदलेंगे ना हम यहाँ,
आ मिल रचाएँ हम सरगम नया....

ओ रे साथिया! चल गीत लिखें कोई इक नया....

Saturday, 17 February 2018

खलल डालते ख्याल

भीगे से ये सपने .....,
खलल डालते ख्याल,
डगमगाता सुकून,
और तुम .....
सवालों से बेहतर जवाबों मे,
ख्यालों से बेहतर, मेरे जज्ब से इरादों मे.....

कैसा ये सफर,
कि तू होकर भी है कहीं बेखबर !
तेरा स्मृति पटल में आना,
फिर धुँध मे तेरा कहीं खो जाना !
काश !
खामोशी की छाँव मे तू कुछ पल साथ रहती !

ये एहसास,
ये भीगे से जज्बात,
हर पल इक तेरा इन्तजार,
सुकून में बस,
खलल डालते इक ख्याल,
और कोई कशमकश,
जब थक जाते हैं,
तो हम मन ही मन यूं ही मुस्करा लेते हैं....

ये कैसा है सफर,
कि तू होकर भी है कहीं बेखबर !
बरबस, बेहिसाब, हर बार..
मैं तकता रहता हूं वो ही राह बार-बार...
मन की चाह से,
खिल जाती है यूं ही फिर कोई कुंद,
कि जैसे सूखते से पल्लव पर पड़ी हो बूँद !

भीगे से ये सपने .....
खलल डालते तुम्हारे ख्याल,
एहसास की ये राहें,
कहीं सूनी सी है दिखती,
कहीं दिल में,
बस, एक कसक सी है रहती !
काश !
खामोशी की छाँव मे तू कुछ पल साथ रहती ! 

Sunday, 4 February 2018

पुराना किस्सा

नया तो कुछ भी नही, किस्सा है सब वही पुराना!

हया की लाली आँखों पर छाना,
इक पल में तेरा घबराना,
शरमाकर चुपके से आँचल में छुप जाना,
हाथों में वो कंगण खनकाना.....

नया तो कुछ भी नही, किस्सा है सब वही पुराना!

बात-बात पर तुम्हारा रूठ जाना,
हर क्षण मेरा तुम्हें मनाना,
अगले ही पल फिर हँसना खिलखिलाना,
सिमटकर फिर इठला जाना.....

नया तो कुछ भी नही, किस्सा है सब वही पुराना!

कसमें-वादों में नित बंधते जाना,
पल में नैनों का छलकाना,
जुदाई का इक क्षण भी असह्य हो जाना,
विरहा में ये दामन भीग जाना.....

नया तो कुछ भी नही, किस्सा है सब वही पुराना!

अनदेखे धागों से यूँ जुड़ते जाना,
यूँ ही भावप्रवन कर जाना,
जन्मों के किस्से साँसों पर लिख जाना,
नींव इरादों की फिर रख जाना.......

नया तो कुछ भी नही, किस्सा है सब वही पुराना!

Thursday, 18 January 2018

दिल की सरखत

दिल की सरखत पे मेरे,
तुम दस्तखत किए जाते हो.....
मेरी बातों में तुम, यूँ शामिल हुए जाते हो....

बड़ी सूनी थी ये सरखत,
हर पन्ने मे तुम नजर आते हो,
मेरी तन्हाईयो में तुम, यूँ ही चले आते हो....

हर लम्हा इन्तजार तेरा,
यूँ बेवशी तुम दिए जाते हो,
इन ख्यालों को तुम मेरे, यूँ हीं भरमाते हो....

छू गई हो जैसे ये बदन,
यूँ सर्द हवाओं मे लहराते हो,
जैसे हो कोई पवन, यूँ ही तुम बहे जाते हो....

यूँ गूंजती हैं ये फिजाएँ,
ज्युँ तुम संग ये गुनगुनाते हो,
तेरे गीतों की लय पे, यूँ ही ये झूम जाते हों....

दिल की सरखत पे मेरे,
तुम दस्तखत किए जाते हो.......
ख्वाबों में रंग कई, यूँ ही तुम भरे जाते हो....

Friday, 12 January 2018

वही पल

गूंजते से पल वही, कहते हैं मुझको चल कहीं.........

निर्बाध समय के, इस मौन बहती सी धार में,
वियावान में, घटाटोप से अंधकार में,
हिचकोले लेती, जीवन की कश्ती,
बलखाती सी, कभी डूबती, कभी तैरती,
बह रही थी कहीं, यूँ ही बिन पतवार के,
भँवर के तीव्र वार में, कोई पतवार थामे हाथ में,
मिल गए थे तुम, इस बहती सी मौन धार में...

टूटा था सहसा, तभी मौन इक पल को,
संवाद कोई था मिला, इस मौन जीवन को,
जैसे दिशा मिल गई थी कश्ती को,
किनारा मिला था वियावान जीवन को,
प्रस्फुटित हुई, कहीं इक रौशनी की किरण,
लेकिन छल गई थी मेरी ये खुशी, उस भँवर को,
गुम हुए थे तुम, इस बहती सी मौन धार में...

समय के गर्त से, अब गूंजते है पल वही,
निर्जन सी राह पर, कहते हैं मुझको चल कहीं,
दिशाहीन कश्ती न जाने कहाँ चली,
मौन है हर तरफ, इक आवाज है बस वही,
कांपते से बदन में जागती सिहरन वही
रुग्ण सी फिजाएँ, वही पिघलती ठंढ सी हवाएँ,
बह रहे थे तुम, इस बहती सी मौन धार में...

बहती सी मौन धार में, अब गूंजते से पल वही........

Thursday, 28 December 2017

अबकी बरस

इस बरस भी तुम न आए, मन ये भरमाए ......

सोच-सोच निंदिया न आए,
बैरी क्युँ भए तुम, दूर ही क्यूँ गए तुम?
वादा मिलन का, मुझसे क्युँ तोड़ गए तुम,
हुए तुम तो सच में पराए!
नैनों में ना ही ये निंदिया समाए,
ओ बैरी सजन, इस बरस भी तुम न आए ......

भाल पे अब बिंदिया न भाए,
दर्पण में ये मुख अब मुझको चिढाए,
चूड़ियों की खनक, बैरन मुझको सताए,
बैठे हैं हम पलकें बिछाए,
हर आहट पे ये मन चौंक जाए,
क्यूँ भूले सजन, इस बरस भी तुम न आए ......

पपीहा कोई क्यूँ चीख गाए?
हो किस हाल मे तुम, हिय घबराए?
हूक मन में उठे, तन  सूख-सूख जाये,
विरह मन को बींध जाए,
का करूँ मैं, धीर कैसे धरूँ मैं,
क्यूँ बिसारे सजन, इस बरस भी तुम न आए ......

काश ये मन सम्भल जाए!
अबकी बरस सजन घर लौट आए!
छुपा के रख लूँ, बाहों मे कस लूँ उन्हें,
बांध लू आँचल से उनको,
फिर न जाने दूँ कसम देकर उन्हें,
काश! बैरी सजन, इस बरस घर लौट आए....

इस बरस भी तुम न आए, मन ये भरमाए ......

Saturday, 23 December 2017

हजारदास्ताँ

अपरिमित प्रेम तुम्हारा, क्या बंधेगे परिधि में......

छलक आते हैं, अक्सर जो दो नैनों में,
बांध तोड़कर बह जाते हैं,
जलप्रपात ये, मन को शीतल कर जाते हैं,
अपरिमित निरन्तर प्रवाह ये, 
प्रेम की बरसात ये, क्या बंधेगे परिधि में........

जल उठते हैं, जो गम की आँधी में भी,
शीतल प्रकाश कर जाते हैं,
दावानल ये, गम भी जिसमें जल जाते हैं,
बिंबित चकाचौंध प्रकाश ये,
झिलमिल आकाश ये, क्या बंधेगे परिधि में........

सहला जाते है, जो स्नेहिल स्पर्श देकर,
पीड़ मन की हर जाते हैं,
लम्हात ये, हजारदास्ताँ ये कह जाते हैं,
कोई मखमली एहसास ये,
अपरिमित विश्वास ये, क्या बंधेगे परिधि में........

अपरिमित प्रेम तुम्हारा, क्या बंधेगे परिधि में......

Sunday, 17 December 2017

तन्हा गजल

कोई शामोसहर, गाता है कहीं तन्हा सा गजल.....

मेह लिए प्राणों मे, कोई दर्द लिए तानों में,
सहरा में कभी, या कभी विरानों में,
रंग लिए पैमानों में, फैलाता है आँचल.....
कोई शामोसहर, गाता है कहीं तन्हा सा गजल.....

किसी आहट से, पंछी की चहचहाहट से,
कलियों से, फूलों की तरुणाहट से,
नैनों की शर्माहट से, शमाँ देता है बदल....
कोई शामोसहर, गाता है कहीं तन्हा सा गजल.....

विह्वल सा गीत लिए, भावुक सा प्रीत लिए,
रीत लिए, धड़कन का संगीत लिए,
मन में मीत लिए, विरह में है वो पागल....
कोई शामोसहर, गाता है कहीं तन्हा सा गजल.....

विवश कर जाता है, यूँ मन को भरमाता है,
बरसता है, बादल सा लहराता है,
इठलाता है खुद पर, है कितना वो चंचल....
कोई शामोसहर, गाता है कहीं तन्हा सा गजल.....

Saturday, 25 November 2017

अनन्त प्रणयिनी

कलकल सी वो निर्झरणी,
चिर प्रेयसी, चिर अनुगामिणी,
दुखहरनी, सुखदायिनी, भूगामिणी,
मेरी अनन्त प्रणयिनी......

छमछम सी वो नृत्यकला,
चिर यौवन, चिर नवीन कला,
मोह आवरण सा अन्तर्मन में रमी,
मेरी अनन्त प्रणयिनी......

धवल सी वो चित्रकला,
नित नवीन, नित नवरंग ढ़ला,
अनन्त काल से, मन को रंग रही,
मेरी अनन्त प्रणयिनी......

निर्बाध सी वो जलधारा,
चिर पावन, नित चित हारा,
प्रणय की तृष्णा, तृप्त कर रही,
मेरी अनन्त प्रणयिनी......

प्रणय काल सीमा से परे,
हो प्रेयसी जन्म जन्मान्तर से,
निर्बोध कल्पना में निर्बाध बहती,
मेरी अनन्त प्रणयिनी......

अतृप्त तृष्णा अजन्मी सी,
तुम में ही समाहित है ये कही,
तृप्ति की इक कलकल निर्झरणी,
मेरी अनन्त प्रणयिनी......

(शादी की 24वीं वर्षगाँठ पर पत्नी को सप्रेम समर्पित) 

Tuesday, 21 November 2017

वही धुन

धुन सरगम की वही, चुन लाना फिर से तू यारा......

वो पहला कदम, वो छम छम छम,
इस दहलीज पर, रखे थे जब तूने कदम,
इक संगीत थी गूंजी, गूंजा था आंगन,
छम छम नृत्य कर उठा था ये मृत सा मन,
वही प्रीत, वही स्पंदन, दे देना मुझको सारा...

धुन सरगम की वही, चुन लाना फिर से तू यारा......

वो चौखट मेरी, जो थी अधूरी सूनी,
अब गाते है ये गीत, करते है मेरी अनसुनी,
घर के कण-कण, बजते हैं छम छम,
फिर कोई गीत नई, सुना दे ऐ मेरे हमदम,
गीतों का ये शहर, मुझको प्राणों से है प्यारा...

धुन सरगम की वही, चुन लाना फिर से तू यारा......

वो स्नेहिल स्पर्श, वो छुअन के संगीत,
वो नैनों की भाषा में गूंजते अबोले से गीत,
धड़कन के धक-धक की वो थपकी,
साँसों के उच्छवास संग सुर का बदलाव,
वही प्रारब्ध, वही ठहराव, वही अंत है सारा...

धुन सरगम की वही, चुन लाना फिर से तू यारा......

स्तब्ध हूँ, उस धुन से आलिंगनबद्ध हूँ,
नि:शब्द हूँ, अबोले उन गीतों से आबद्ध हूँ,
स्निग्ध हूँ, उन सप्तसुरों में ही मुग्ध हूँ,
विमुक्त हूँ, निर्जन मन के सूनेपन से मुक्त हूँ,
कटिबद्ध हूँ, उस धुन पर मैने ये जीवन है वारा.....

धुन सरगम की वही, चुन लाना फिर से तू यारा......