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Monday, 31 May 2021

पथ के आकर्षण

पथ के आकर्षण,
पीछे, पथ में ही रह जाते हैं .....

चलते-चलते, इक संग, इक पथ में,
मन को, ये कर जाते, वश में,
दामन में, ये कब आए,
वो आकर्षण, 
मन-मानस में, बस जाते हैं!

दामन में कब आते हैं!
पथ के आकर्षण,
पीछे, पथ में ही रह जाते हैं .....

जैसे, कोई सम्मोहन, या कोई जादू,
मन को, करता जाए, बेकाबू,
छलक उठे, पैमानों में,
बूँदों के वो घन,
फिर भी, प्यास बढ़ा जाते हैं!

आँगन में कब आते हैं!
पथ के आकर्षण,
पीछे, पथ में ही रह जाते हैं .....

इक दर्द, टीस जरा, मुझे है हासिल,
पीड़ वही, करती है, बोझिल,
यूँ, पथ में ही छूटे हम,
उन यादों में डूबे,
मुझसे दूर, मुझे ही ले जाते है!

पहलू में कब आते हैं!
पथ के आकर्षण,
पीछे, पथ में ही रह जाते हैं .....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday, 9 March 2020

पहाड़ों पे

गुजारे थे कल, पहाड़ों पे कुछ पल....

विशाल हृदय, वो स्नेह भरा दामन, 
इक सम्मोहन, वो अपनापन,
विस्मित करते, वो आकर्षण के पल,
बसे, नज़रो में हैं, हर-पल!

गुजारे थे कल, पहाड़ों पे कुछ पल....

रोक रही राहें, खुली पर्वत सी बाँहें,
इक परदेशी, लौट कैसे जाए,
यूँ बांध गए थे, पाँवों में बेरी वो पल,
था तिलिस्म कोई, उस पल!

गुजारे थे कल, पहाड़ों पे कुछ पल....

संदेश कोई, ले आई थी मंद पवन, 
मैं, एकाग्र-चित्त, ध्यान मग्न,
सांध्य किरण, लाई थी इक सिहरन,
ठहरे वो पल, थे बड़े चंचल!

गुजारे थे कल, पहाड़ों पे कुछ पल....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)
.................................................
"पहाड़" हमेशा से ही हमारी अनुभूतियों को सजग करने में सक्षम रहे हैं,  जब भी इनकी ऊच्च शिखरों को देखता हूँ तो अनायास ही उस ओर खींचा चला जाता हूँ और लगता है जैसे "खुद को छोड़ आया हूँ उन पहाड़ों में ...."  -  पहाड़ों में 

Saturday, 18 January 2020

जलते रहना, ऐ आग!

जलते रहना, ऐ आग!
इक सम्मोहन सा है, तेरी लपटों में,
गजब सा आकर्षण है,   
जलाते हो,
पर खींच लाते हो, ध्यान!

जलते रहना, ऐ आग!
जलाते हो, प्रतीक चिर जीवन के,
कर स्वयं में समाहित,
ले अंकपाश,
आखिरी देते हो, सम्मान!

जलते रहना, ऐ आग!
जब तक, राख उठे लपटों से तेरी,
धुआँ-धुआँ, हो ये शमां,
जलना यहाँ,
या तू बन जाना, श्मशान!

जलते रहना, ऐ आग!
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रूखा-सूखा पहाड़ कोई नहीं देखने जाता। लेकिन, पहाड़ से उतरते झरनों को देखकर मन बरबस ही खिचा चला आता है। पहाड़  पर चढ़कर मनोरम व मनोहारी दृश्य देखना ही मन को भाता है।

कहीं आग लगे या लगाया जाय, तो सब मुड़-मुड़कर देखते हैं । अलाव या चिता जले तो सभी इकट्ठे होकर तापते या देखते हैं ।

मुझे लगता है कि, जरूरी नहीं है कि शब्द ज्यादा लिखे जाएँ, परन्तु जरूरी है कि शब्द की आत्मा यानि अन्तर्निहित भाव लिखी जाय, जो कि पल भर को झकझोर दे अन्तर्मन को।

अत:, शब्दों के पहाड़ से, कलकल करता कोई झरना बहे, पल-पल रिसता कोई भाव झरे तो बात ही कुछ और है। शब्द जले और आग या धुआँ ना उठे तो यह जलना व्यर्थ है।
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- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 12 January 2019

स्वर उनके ही

स्वर उनके ही, गूंज रहे अब कानों में.....

सम्मोहन सा, है उनकी बातों में,
मन मोह गए वो, बस बातों ही बातों में,
स्वप्न सरीखी थी, उनकी हर बातें,
हर बात अधूरा, छोड़ गए वो बातों में!

स्वर उनके ही, गूंज रहे अब कानों में.....

सब कह कर, कुछ भी ना कहना,
बातें हैं उनकी, या है ये बातों का गहना,
कहते कहते, यूँ कुछ पल रुकना,
मीठे सम्मोहन, घोल गए वो बातों में!

स्वर उनके ही, गूंज रहे अब कानों में.....

रुक गए थे वो, कुछ कहते कहते,
अच्छा ही होता, वो चुप-चुप ही रहते,
विचलित ये पल, नाहक ना करते,
असमंजस में, छोड़ गए वो बातों में!

स्वर उनके ही, गूंज रहे अब कानों में.....

स्वप्न, जागी आँखों का हो कोई,
मरुस्थल में, कोयल कूकती हो कोई, 
तार वीणा के, छेड़ गया हो कोई,
स्वप्न सलोना, छोड़ गए वो बातों में!

स्वर उनके ही, गूंज रहे अब कानों में.....

काश! न रुकता ये सिलसिला,
ऐ रब, फिर चलने दे ये सिलसिला,
कह जा उनसे, फिर लब हिला,
सिलसिला , जोड़ गए जो बातों में!

स्वर उनके ही, गूंज रहे अब कानों में.....

Sunday, 28 October 2018

पथ के आकर्षण

दामन में कब आते हैं!
पथ के आकर्षण,
पीछे पथ में ही रह जाते हैं .....

इक पथ संग-संग, साथ चले थे वो पल,
मन को जैसे, बांध चले थे वो पल,
बस हाथों मे कब, कैद हुए हैं वो पल,
वो आकर्षण, मन-मानस में बस जाते हैं!
सघन वन में, ये खींच लिए जाते हैं....

दामन में कब आते हैं!
पथ के आकर्षण,
पीछे पथ में ही रह जाते हैं .....

सम्मोहन था, या कोई जादू था उस पल,
मन कितना, बेकाबू था उस पल,
जाम कई, प्यालों से छलके उस पल,
सारा जाम, कहाँ बूँद-बूँद हम पी पाते हैं!
प्यासे है जो, प्यासे ही रह जाते हैं....

दामन में कब आते हैं!
पथ के आकर्षण,
पीछे पथ में ही रह जाते हैं .....

अब नजरों से, ओझल हुए है वो पल,
कुछ बोझिल, कर गए हैं वो पल,
आगे हूँ मैं, पथ में ही छूटे हैं वो पल,
बहते धार, वापस हाथों में कब आते हैं!
कुछ मेरा ही, मुझमें से ले जाते है.....

दामन में कब आते हैं!
पथ के आकर्षण,
पीछे पथ में ही रह जाते हैं .....

Tuesday, 8 May 2018

सम्मोहन

हो बिन देखे ही जब भावों का संप्रेषण,
उत्सुक सा रहता हो जब-तब ये मन,
कोई संशय मन को तड़पाताा हो हर क्षण,
पल पल फिर बढता है ये सम्मोहन....

ये सम्मोहन के अनदेखे मंडराते से घन,
नभ पर घनन-घनन गरजाते ये घन,
शायद उन नैनों के तट से आए है ये घन,
निष्ठुर कितना है ये प्रश्नमय संप्रेषण.....

भावों का ये प्रश्नमय अन्जाना संप्रेषण,
अनुत्तरित प्रश्नों में उलझा ये प्रश्न,
इन अनसुलझे प्रश्नो से भरमाया है मन,
ओ अपरिचित, ये कैसा है सम्मोहन....

शायद ये किसी विधुवदनी का आवेदन,
या हो यह विधुलेखा का सम्मोहन,
सम्मोहित करती हो शायद वो विधुकिरण,
ओ विधुवदनी,ये कैसा है सम्मोहन....

ओ मन रजनी, विधुवदनी ओ विधुलेखा,
ओ साजन, ओ अन्जाना, अनदेखा,
मन की भावो में लिपटा ये भावुक संप्रेषण,
पल पल बढ़ता ये तेरा है सम्मोहन....