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Friday, 15 July 2022

भूल जाता हूं


झूल कर, कभी स्मृतियों के पवन संग,
भूल जाता हूं खुद को!

गहराता वो क्षितिज, हर क्षण बुलाता है उधर,
खींच कर, जरा सा आंचल में भींच कर,
कर जाता है, सराबोर,
उड़ चलते हैं, मन के सारे उत्श्रृंखल पंछी,
गगन के सहारे, क्षितिज के किनारे,
छोड़ कर, मुझको,
ओढ़ कर, वो ही रुपहला सा आंगन,
भूल जाता हूं खुद को!

झूल कर, कभी स्मृतियों के पवन संग,
भूल जाता हूं खुद को!

वो टूटा सा बादल, विस्तृत नीला सा आंचल,
सिमटे पलों में, अजब सी, एक हलचल,
चहुं ओर, फैली दिशाएं,
टोक कर, मुझको, उधर ही बुलाए,
पाकर, रंगी इशारे,
देख कर, वादियों का पिघलता दामन,
भूल जाता हूं खुद को!

झूल कर, कभी स्मृतियों के पवन संग,
भूल जाता हूं खुद को!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 21 July 2021

भटकाव

पाकर भी, कौन किसे पाता है....
बस भरमाता है, मन,
तरपाता है क्षण!

तन तक, सीमित, रहती नहीं चाहत,
रूह कहीं, पाती नहीं राहत,
बुझती, ये प्यास नहीं,
प्यासा कण-कण, भटकता वन-वन,
सिमटता, यह रेगिस्तान नहीं,
फैलाव., भटकाता है!

पाकर भी, कौन किसे पाता है....

बिखरे पल, सिमटते, कब दामन में,
टूटे मन, भटकते इस तन में, 
पाते, मन आस नहीं,
दो पल, गर बहल भी जाए, दो तन,
मिलता, इन्हें समाधान नहीं,
विलगाव, भरमाता है!

पाकर भी, कौन किसे पाता है....

बेघर एहसासों को, कोई ठौर मिले,
ठहरी साँसों को, मोड़ मिले,
पर, वो जज्बात नही,
सूखे पतझड़ सा, उजाड़ ये उपवन,
खिलाते, इक अरमान नहीं,
भटकाव, तरसाता है!

पाकर भी, कौन किसे पाता है....
बस भरमाता है, मन,
तरपाता है क्षण!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 3 January 2021

दो ही दिन

अभी तो, दो ही दिन, कट पाया जीवन!

पा लेने को, है उन्मुक्त गगन,
है छू लेने को, उम्मीदों के कितने घन!
खुला-खुला, उद्दीप्त ये आंगन,
बुलाता, ये सीमा-विहीन क्षितिज,
भर आलिंगन!

अभी तो, दो ही दिन, कट पाया जीवन!

जितना सौम्य, उतना सम्यक,
रहस्यमयी उतनी ही, यह दृष्टि-फलक!
धारे रूप कई,  बदले रंग कई!
हर रूप अनोखा, हर रंग सुरमई,
और मनभावन!

अभी तो, दो ही दिन, कट पाया जीवन

पर अंजाना आने वाला क्षण!
ना जाने कौन सा पल, है कितना भारी!
किस पल, बढ़ जाए लाचारी!
ना जाने, ले आए, कौन सा पल,
अन्तिम क्षण!

अभी तो, दो ही दिन, कट पाया जीवन!

समेट लूँ, जो शेष है जीवन!
भर लूँ दामन में, कर लूँ इक आलिंगन!
कंपित हो, सुसुप्त धड़कन!
जागृत रहे, किसी की वेदना में,
ये हृदयांगण!

अभी तो, दो ही दिन, कट पाया जीवन!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday, 9 March 2020

पहाड़ों पे

गुजारे थे कल, पहाड़ों पे कुछ पल....

विशाल हृदय, वो स्नेह भरा दामन, 
इक सम्मोहन, वो अपनापन,
विस्मित करते, वो आकर्षण के पल,
बसे, नज़रो में हैं, हर-पल!

गुजारे थे कल, पहाड़ों पे कुछ पल....

रोक रही राहें, खुली पर्वत सी बाँहें,
इक परदेशी, लौट कैसे जाए,
यूँ बांध गए थे, पाँवों में बेरी वो पल,
था तिलिस्म कोई, उस पल!

गुजारे थे कल, पहाड़ों पे कुछ पल....

संदेश कोई, ले आई थी मंद पवन, 
मैं, एकाग्र-चित्त, ध्यान मग्न,
सांध्य किरण, लाई थी इक सिहरन,
ठहरे वो पल, थे बड़े चंचल!

गुजारे थे कल, पहाड़ों पे कुछ पल....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)
.................................................
"पहाड़" हमेशा से ही हमारी अनुभूतियों को सजग करने में सक्षम रहे हैं,  जब भी इनकी ऊच्च शिखरों को देखता हूँ तो अनायास ही उस ओर खींचा चला जाता हूँ और लगता है जैसे "खुद को छोड़ आया हूँ उन पहाड़ों में ...."  -  पहाड़ों में 

Friday, 3 January 2020

दुआ (बुजुर्ग)

दुआ उन्हीं की, ले आएगी पुरवाई!

हमारे बुजुर्ग, तन्हाई में खुद को समेटे, इन्तजार में पथराई आँखों  और टूटती साँसों के अन्तिम क्षणों में भी, अपने बच्चों के लिए लबों पर दुआ की कामना ही रखते हैं।

जीवन के बेशकीमती वक्त हमारे देख-रेख में गुजारते हुए वे भूल जाते हैं कि उनकी अगली पीढ़ी के पास, उन्हीं के लिए वक्त नहीं है। अपने रिक्त हाथों में दुआओं की असंख्य लकीरे लिए, वे हमारा ही इन्तजार करते बैठे होते हैं । ये युवा पीढ़ी पर निर्भर करता है कि वो इन बेशकीमती दुआओं को समेट कर अपना दामन भरे या रिक्तताओं से भरा एक भविष्य की वो भी बाट जोहें।

शायद एक पुरवाई बहे, इसी उम्मीद में,  प्रस्तुत है चंद पंक्तियाँ, एक रचना के स्वरूप में ....

दुआ उन्हीं की, ले आएगी पुरवाई!

जीर्ण हुए, उन हाथों में न थी ताकत,
दीर्घ रिक्तता थी, बची न थी जीने की चाहत,
पर उन आँखों में थी, नेक सी रहमत,
सर पर, हाथ उसी ने थी फिराई!

दुआ उन्हीं की, ले आएगी पुरवाई!

लम्हे शेष कहाँ थे, उनकी जीवन के,
जाते हर लम्हे, दे जाते इक दस्तक मृत्यु के,
शब्द-शब्द थे, उनकी बस करुणा के,
उस करुणा में, जैसे थी तरुणाई!

दुआ उन्हीं की, ले आएगी पुरवाई!

उस अन्तिम क्षण, पलकें थी पथराई,
वो दूर कहीं थे, जिन पर थी ममता बरसाई,
मन विह्वल थे, वो आँखें थी भर आई,
अन्त समय, होते कितने दुखदाई!

दुआ उन्हीं की, ले आएगी पुरवाई!

संग कहाँ है कोई, जीवन के उस पार,
मंद मलय बहती है, बस जीवन के इस पार,
बह चली ये मंद समीर, आज उस पार,
मन पर मलयनील, यह कैसी छाई!

दुआ उन्हीं की, ले आएगी पुरवाई!

आह न उनकी लेना, बस परवाह जरा उनकी कर लेना। कल ये बुजुर्ग, शायद, कभी हम में ही न लौट आएं, और कटु एक अनुभव, ऐसा ही, जीवन का ना दे जाएँ।

क्यूँ न, जीवन चढ़ते-चढ़ते, भविष्य की नई एक राह गढ़ते चलें । बुजुर्गों के हाथ उठे, तो बस एक खुशनुमा सा दुआ बनकर। दुआ उन्हीं की, ले आएगी पुरवाई!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 17 March 2018

तारे चुरा ले गया कोई

उनींदी रातों से, झिलमिल तारे चुरा ले गया कोई!

तमस भरी काली रातों में,
कुछ तारे थे दामन मे रातों के,
निशा प्रहर, सहमी सी रात,
छुप बैठी वो, दामन में तारों के,
भुक-भुक जलते वो तारे,
रातों के प्यारे वो सारे,
अलसाए से कुछ थके हारे,
निस्तब्ध रातो की, बाहों में खो गई......

उनींदी रातों से, वो ही तारे चुरा ले गया कोई!

फिर टूटी रातों की तन्द्रा,
अंधियारों में तम की वो घिरा!
तारों की गम में वो रहा,
किससे पूछे वो, तारों का पता?
अब कौन बताए, कहां गए वो तारे?
खुद में खोए निशाचर सारे!
मदमाए से फिरते वो मारे-मारे,
तम की पीड़ा का, न था अन्त कोई....

तम की रातों से, क्युं तारे चुरा ले गया कोई!

टिमटिम जलती वो आशा!
इक उम्मीद, टूट गई थी सहसा!
व्याप्त हुई थी खामोशी,
सहमी सी वो, सिहर गई जरा सी!
दामन आशा का फिर फैलाकर,
लेकर संग कुछ निशाचर,
तम की राहों से गुजरे वो सारे,
उम्मीद की लड़ी, फिर जुड़ सी गई.....

इन रातों से, वो टिमटिम तारे न चुराए कोई!

Wednesday, 7 February 2018

कुछ ऐसा ही है जीवन

दामन में कुछ भीगे से गुलाब,
कांटों में उलझा बेपरवाह सा मन,
कुछ ऐसा ही है जीवन.....

यूँ अनाहूत ही आ जाना,
बिन कुछ कहे यूँ ही चल देना,
भीगी पलकों से बस यूँ रो लेना,
यूँ एकटक क्षितिज देखना,
मनमाना बेगाना सा ये जीवन,
कुछ ऐसा ही है जीवन.....

बूंदों की भीगी सी लड़ियाँ,
भीगी गुलाब की ये पंखुड़ियाँ,
क्षण-क्षण यूँ खिलती ये कलियाँ,
रंगरूप बदलती ये दुनियाँ,
जाना पहचाना सा ये जीवन,
कुछ ऐसा ही है जीवन.....

यूँ खिल कर हँसते गुलाब,
यूँ हिल कर भीगते बेहिसाब,
फिर टूट बिखरते इनके ख्वाब,
यूँ ही माटी में मिलना,
पाकर खो जाने सा ये जीवन,
कुछ ऐसा ही है जीवन.....

दामन में कुछ भीगे से गुलाब,
कांटों में उलझा बेपरवाह सा मन,
कुछ ऐसा ही है जीवन.....

Monday, 19 September 2016

घर

सजाया है घर को मैने, पुकारती हैं तुझको ये बाँहें...

कहता हूँ मैं अपनी दुनियाँ जिसे,
वो चहारदिवारी जहाँ हम तुम बार-बार मिले,
जहाँ बचपन हमारे एकबार फिर से खिले,
करके इशारे, वो आँगन फिर से बुलाती हैं तुझे...

सजाया है घर को मैने, पुकारती हैं तुझको ये बाँहें....

पलकों तले तुमने सजाया था जिसे,
इंतजार करती थी तुम जहाँ नवश्रृंगार किए,
आँचल तेरे ढलके थे जहाँ पहलू में मेरे,
पलकें बिछाए, वो अब देखती है बस तेरी ही राहें....

सजाया है घर को मैने, पुकारती हैं तुझको ये बाँहें....

रौशन थे तुझसे ही इस घर के दिए,
तेरी आँखों की चमक से यहाँ उजाले धे फैले,
खिल उठते थे फूल लरजते होठों पे तेरे,
दामन फैलाए, वो तक रहीं हैं बस तेरी ही राहें....

सजाया है घर को मैने, पुकारती हैं तुझको ये बाँहें....

Thursday, 11 August 2016

नर्म घास की फर्श पर

नर्म घास की फर्श पर, पल जीवन के मिल गए.....

ओस की बूँदों से लदी हरी सी घास वो,
दामन वादी में फैलाए बुलाती पल-पल पास वो,
कोमल स्पर्शों से दिलाती अपनत्व का आभाष वो,
इशारों से मन को हरती लगती खास वो,
इनकी विशाल सी बाहें, मन के प्रस्तर को हर गए....,

आकर्षित हो कुछ पल जो बैठा पास मैं,
बँध सा गया मन नर्म घास की हरी सी पाश में,
बूंदो से फिर मुझको नहलाया हरी सी घास ने,
रस करुणा का पिलवाया उसके एहसास ने,
आलिंगन उसकी बाहों के फिर तन को मिल गए.....

मूक भाषा में अपनी, बातें कितनी वो कह गई,
कह सके न लब जिसे, उन लफ्जों से मन को छू गई,
दे न सका जिसे अबतक कोई, राहत ऐसी दे गई,
भीनी सी खुशबु इनकी, एहसास नई सी दे गई,
अन्जाना था उससे मैं, रिश्ते जन्मों के अब जुड़ गए....

अनबोले बोलों में उसकी, पल जीवन के मिल गए....

Monday, 13 June 2016

दिल दुखे न कभी उनका

दिल दुखे न कभी उनका अब, चलो हम यूँ करते हैं.....

लेकर उनकी हाथों को अपनी हाथों में,
महसूस उन नब्जों की सिहरन को हम करते हैं,
धड़कनें नाजुक सी धड़कती है सीने में,
उसके धड़कन की आवर्तों को चलो गिनते हैं,

दिल दुखे न कभी उनका अब, चलो हम यूँ करते हैं.....

सागर नीले गहरे कितने हैं उन आँखों में,
उस नील-समुन्दर की गहराई में हम उतरते हैं,
स्नेहमई नीर बहते हैं उनकी आँखों से,
स्नेह के उन मोतियों से चलो दामन भरते हैं,

दिल दुखे न कभी उनका अब, चलो हम यूँ करते हैं.....

थाली पूजा की सजाई है उसने हाथों में,
श्रद्धा के फूलों से हम उस थाली को भरते हैं,
माँग को सजाया है उसने कुमकुम से,
सिन्दूर रंगी उस मांग को चलो तारों से भरते हैं,

दिल दुखे न कभी उनका अब, चलो हम यूँ करते हैं.....

नुकीले काटें कितने ही हैं उनके दामन में,
ममतामई उस दामन को हम फूलों से भरते हैं,
कदम-कदम पर धोखे ही खाए हैं उसने,
विश्वास के अंतहीन कदम चलो अब संग भरते हैं,

दिल दुखे न कभी उनका अब, चलो हम यूँ करते हैं.....

Wednesday, 13 April 2016

तुम भी गा देते

फिर छेड़े हैं गीत,
पंछियों नें उस डाल पर,
कलरव करती हैं,
मधु-स्वर में सरस ताल पर,
गीत कोई गा देते,
तुम भी,
जर्जर वीणा की इस तान पर।

डाली डाली अब,
झूम रही है उस उपवन के,
भीग रही हैं,
नव सरस राग में,
अन्त: चितवन के,
आँचल सा लहराते,
तुम भी,
स्वरलहर बन इस जीवन पर।

फिर खोले हैं,
कलियों ने धूँघट,
स्वर पंछी की सुनकर,
बाहें फैलाई हैं फलक नें
रूप बादलों का लेकर,
मखमली सा स्पर्श दे जाते,
तुम भी,
स्नेहमयी दामन अपने फैलाकर।

Friday, 26 February 2016

मै रुक जाता!

प्रिये, एक बार जो तुम कह देती, तो मैं रुक जाता!

प्रिये, तुम मेरी आस, तुम जन्मों की प्यास,
प्यास बुझाने जन्मों की तेरी पनघट ही मैं आता,
मैं राही तेरी राहों का, और कहीं मैं क्युँ जाता,
राह देखती तुम भी अगर, मैं भी तेरा हो जाता।

प्रिये, एक बार जो तुम कह देती, तो मैं रुक जाता!

तुमसे ही चलती ये सांसे, तुमपर ही विश्वास,
सासें जीवन की लेने तेरी बगिया ही मैं आता,
टूटे हृदय के इस मृदंग को तेरे लिए बजाता,
गीत मेरे तुम भी सुन लेती, तो मैं तेरा हो जाता।

प्रिये, एक बार जो तुम कह देती, तो मैं रुक जाता!

कह देती तुम गर, बात कभी अपने मन की,
उम्मीद लिए यही मन में, मैं तेरी राह खडृ़ा था,
दामन उम्मीद का मैंने, कहाँ कभी छोड़ा था,
यूँ ही चल पड़ा था मैं, तुमने भी कब रोका था।

प्रिये, एक बार जो तुम कह देती, तो मैं रुक जाता!

Wednesday, 30 December 2015

आशा का दामन

प्याले जो टूटे तो क्या,
क्षणभंगूर इन्हें टूटना ही था,
भाग्य मे लिखा है इनके,
टूटना! टूट बिखर फिर जाना क्या।

नियति पर किसका चलता,
अपनी हाथों मे कहाँ कुछ होता,
अपनी हाथों किस्मत की रेखा,
तो फिर इनका शोक मनाना क्या।

हे मानव! तू कर्म किए जा,
आशा का दामन तू रह थामे,
राह कितने भी हो कठिन,
इन राहों पे रुक जाना भी क्या।

Sunday, 27 December 2015

प्रीत भरा मन

प्रीत रीत की वो राहें,
जिन पर संग कभी चले थे हम,
ना छोड़ेंगे कभी ये दामन,
ये वादा तुम संग कर चले थे हम,
पर मन अब कितना अकेला है।

चखा था अमृत उन अधरों का,
इन अधरों ने फिर भी
अमिट प्यास अब भी हमारी है,
मन की आवर्तों मे अब भी,
मिलने की आस संभाली है,
देखो मन कितना अलबेला है।

नयन तकते अब भी राह तुम्हारी, 
वादों की करता रखवारी,
तेरी यादों के दामन मे बस जाऊँगा,
याद तुझे भी मैं आऊँगा,
साँसों के थमने तक, बस तुझको ही चाहुँगा,
ये मन भी कितनाअलबेला है।