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Friday, 4 March 2016

साऱांश तुम हो उपलब्धियों की

कहो तो, सारांश तुम ही हो जीवन के उपलब्धियों की !

तुम सार हो चिर सुख के लम्हों की,
तुम से ही प्रेरणा जीवन में कुछ करने की,
तुम विभूषित अनुभूति हो इस मन की,
मैं सह गया व्यथा तुम संग पूरे जीवन की।

कहो तो, सारांश तुम ही हो जीवन के उपलब्धियों की !

कायनात सपनों की तेरे ही दामन में,
डग लम्बे भरता हूँ तुम संग ही जीवन में,
आशा और विश्वास तुझसे ही मानस में,
जीवन का सार तुझसे ही इस मन प्रांगण में।

कहो तो, सारांश तुम ही हो जीवन के उपलब्धियों की !

इस मन वीणा की सुरमई संगीत तुम,
सप्तराग में गाती कोई मधुर सी गीत तुम,
उनमुक्त गगण के पंछी की आवाज तुम,
जीवन की अनुराग का संचित आधार तुम।

कहो तो, सारांश तुम ही हो जीवन के उपलब्धियों की !

Friday, 15 January 2016

हिरण सा मन

हिरन सा चंचल मन कैद में विवश,
कुटिल शिकारी के जाल फसा मोहवश,
कुलाँचे भर लेने को उत्तेजित टांगें,
चाहे तोड़ देना मोहबंधन के जाल बस।

फेके आखेटक ने मोह के कई वाण,
चंचल मन भूल वश ले फसता जान,
मन में उठती पीड़ा पश्चाताप के तब,
जाल मोहमाया का क्युँ आया न समझ।

छटपटाते प्राण उसके हो आकुल,
मोहपाश क्युँ बंधा सोचे हो व्याकुल,
स्वतंत्र विचरण को आत्मा पुकारती,
धिक्कारती खुद को हिरण ग्लानि वश।

सिमटती परछाँई


कहते हैं परछाईं हमेशा साथ चलती हैं,
लघुता गुरुता के हर क्षण बदलती निरंतर,
पर मुश्किल क्षणों में साया भी साथ नही,
सिमट कर दुबक जाती है पैरों तले,
या फिर पड़ जाती निरंकार शरीर के नीचे।

सुबह की खुशनुमा बेला,
दिखती बेलों से भी लंबी लतराई,
एहसास कराती अपनी गुरूता का,
चिलचिलाती दोपहर ये,
दुबक जाती अपनी ही सायों तले,
तम रात्रि बेला उतर जाते चोला,
एहसास करती अपनी लघुता का पीछे।

रंग बदलती साथ समय के,
नाचती इर्द-गिर्द बेशर्म निःसंकोच,
अपना अस्तित्व बचाने को बदलती निरंतर,
न कोई लक्ष्य न कोई सिद्धांत,
तम रात्रि छोडती जन्म देने वाले शरीर को भी,
छुपा लेती सर कहीं उस कालिमा के नीचे।

Wednesday, 13 January 2016

तम जीवन का


छँटते नही रात के तम कभी,
व्यर्थ जाती मेहनत चाँद की भी,
रात्रि तम तमस घनघोर,
रौशनी चाँद की मद्धम चितचोर,
कुछ वश मे नही लाचार चाँदनी के भी?

काजल सम बादल नभ पर,
चाँदनी आभा को करते तितर बितर,
व्यर्थ कोशिश तारों के मंडली की भी,
रात्रि तम विहँसती हो मुखर,
कुछ वश मे नही लाचार तारों के भी?

तम जीवन का हरना हो तो,
खुद सूरज बन जग मे जलना होगा,
तम मिट जाएंगे चाँद तारों के भी,
जीवन हो जाएगा मुखर,
क्या वश मे है बनना सूरज इंसानों के भी?

हाथों की रेखाएँ

चकित भाव से रह-रह वो देखता,
हाथों को रेखाओं को और सोचता,
क्या वश में है मेरी भाग्य रेखा?
क्या आज शेष बची है जीवन रेखा?

रेखाएँ मस्तिस्क की भी होती हाथों मे,
हृदय रेखा भी कुछ आरी-टेढ़ी,
फिकर कहाँ हृदय, मस्तिस्क रेखा की,
मति मस्तिस्क की खुद ही है खोई,
क्या देख पाएगा वो मस्तिस्क की रेखा?

वो वश करना चाहता रेखाओं में,
व्योम के तारे, वसुधा के सारे धन,
पर फिकर कहाँ मन के तम की,
मन तो खुद ही स्वप्न मे खोया,
क्या तोड़ बंध बना सकेगा प्रभा रेखा?

भाग्य,जीवन गर करना हो वश मे,
ज्योति वृत्त बना पथ वश में करो तुम,
चलो जहाँ मन, मस्तिस्क, प्राण चलते हैं,
संकल्प करो सोए मस्तिष्क जगा तुम,
क्या वश कर सकेगा तू जीवन भाग्य रेखा?

Monday, 11 January 2016

वो यतीम बच्चा

वो दूधपीता बच्चा,
वह छोटा मासूम सा,
नन्हीं टांगों से बेपरवाह,
अटखेलियाँ करता,
स्टेशन के दूसरे किनारे पर,
आती जाती ट्रेन को देख,
कभी थोड़ा खुश हो जाता,
फिर अगले ही पल,
निगांहे इधर उधर दौड़ाता,
फिर भूख से बिलख पड़ता।

तेज घूप चेहरे पर पड़ती
परेशान हो जाता वो,
भूख-प्यास की
तड़प बढ जाती,
अंदर तक उसे सता जाती,
शायद ममता की छांव
से बहुत दूर था वो,
सहसा अंधेरे में एक कदम देख,
चेहरा खिल सा उठा उसका,
आँखों में चमक आ गई,
तभी एक साए ने उसे गोद मे ले
सीने से लगा लिया।

मैंने सोचा शायद वो,
काम मे कहीं अटकी होगी,
पर ये क्या? मंजर बदल गया!
अगले ही कुछ पलों मे,
आँखें पोछती वो वापस जा चुकी थी!

भिखारियों के एक झुंड ने मोहवश,
उस बच्चे को गोद ले लिया,
उत्सुकतावश मैंने
उस बच्चे के बारे में पूछा,
जवाब मिला, "यतीम भाई है अपना"
मैं सन्न सा सोचता रह गया ।

प्रभात आभा

झांक रहा है सूरज दूर मुंडेड़ से पहाड़ के,
रंग पीला और गुलाबी आसमां पे डाल के।

बादलों में बिखेर जाती रश्मि प्रभा सतरंगी,
रूप सवाँरती धरा का देकर छटा अठरंगी।

सौन्दर्य आकाश के सँवारती विविध रंगों से,
मानो खेल रहा होली वो बादल के अंगो से।

हिमगिरि के शीष पे बिखर गई है किरण,
छिटक गई बर्फ की वादियों पर बन स्वर्ण।

कलियों ने स्वागत मे खोल दिए घूँघट सोपान,
कलरव करती पंछियों ने छेड़े हैं स्वागत गान।

ऐसी मधुर प्रभात की आभा मै भी निहार लूँ,
संग मेरे तू आ सजनी, प्रीत का नव हार लूँ।

Sunday, 10 January 2016

दर्द की दास्तान

चौराहे पर गाड़ियों की कतार में,
रुकी मेरी कार के शीशे से,
फिर झांकती वही उदास आँखें!

जानें कितनी कहानियाँ,
हैं उन आँखो मे समाई,
कितने दर्द उन लबों पर सिले,
चेहरों की अनगिनत झुर्रियों मे,
असंख्य दु:ख के पलों के एहसास समेटे,
झुकी हुई कमर दुनिया भर के बोझ से दबी,
तन पर मैले फटे से कपड़े,
मुश्किल से बदन ढकने को काफी,
हाथों मे लाठी का सहारा लिए,
किसी तरह कटोरा पकड़े,
कहती, "कुछ दे दो बाबू"!

तभी हरी सिग्नल देख,
चल पड़ती गाड़ियों के कारवाँ,
मैं भौचक्का सा!
उसे देखता रह जाता!
फिर पीछे से तेज हार्न में,
मैं भी आगे बढ़ जाने को विवश!

पर मन में उठते कई प्रश्न,
क्या इंसान की कीमत सिर्फ इतनी?
क्या अभाव मे बुजुर्ग हो जाना है गुनाह?
क्या हम इतने भावविहीन हो चुके है?
समाज के प्रति हमारी संवेदना कहाँ है?
क्या मेरा व्यक्तिगत प्रयास काफी होगा?

सोचता मैं बढ़ जाता आगे,
पर अगले चौराहे पर देखता,
झांकती फिर वैसी ही उदास आँखें!
जीवन के दर्द की दूसरी दास्तान समेटे!
फफक-फफक कर रो पड़ता मन,
उनकी मदद कर पाने में,
खुद को असह्य अक्षम पाकर।

सूर्य नमन

नमन आलिंगन नव प्रभात, 
हे रश्मि किरण तुम्हारा,
खुद अग्नि मे हो भस्म,
तम हरती करती उजियारा।

जनकल्यान परोपकार हेतु
पल-पल भस्म तू होती,
ज्वाला ज्यों-ज्यों तेज होती,
प्रखर होती तेरी ज्योति ।

विश्व मे पूजित हो पाने का,
अवश्यमभावी मंत्र यही है,
निष्काम्-निःस्वार्थ परसेवा,
जीवन का आधार यही है।

सीख सभ्यता को नितदिन,
तू देता निःशुल्क महान,
परमार्थ कार्य तू भी सीख,
मानव हो जगत कल्याण।

जीवन संघर्ष

जीवन तेरा नित संघर्षमय,
राहें तेरी अनवरत संघर्ष की,
धैर्य साहस से तू कर संघर्ष,
यही राह तेरे उत्कर्ष की।

शिखर पर आरूढ़ होने को,
चरमोत्कर्ष पर चढ़ जाने को,
निष्ठा लगन से तू कर संघर्ष,
यही पंथ तेरे निष्कर्ष की।

बाधाएँ फिर भी घेरेंगी तुझको,
तेरे अपने ही रोकेंगे तुझको,
अपनों से ही है तेरा संघर्ष,
यही संघर्ष तेरे मोक्ष की।

Saturday, 9 January 2016

कदमों के निशान

कभी सोचता!

जीवन में जो भी हासिल कर पाऊँ,
उनके निशान चंद छोड़ जाऊँ,
सागर तट मीलों चलता रहता,
निरंतर सोचता जाता बस यही,
साधता स्वार्थ सिर्फ अपनी,
लिखता रहता कर्मों के बही,
पर निश्छल चंचल सागर की लहरें,
धो जाती सब स्वार्थ के निशाँ,
ढूंढता वापस मुड़कर जब,
जीवन सागर तट यहाँ,
मिल पाते नही कदमों के निशाँ।

फिर सोचता!

बनते कब निशां कदमों के सागर किनारे,
अनवरत लहरे सागर की स्वयं,
निस्वार्थ करती रहती कार्य दिन रात,
और अपने ही हाथों पोछती रहती,
निरंतर अपने कदमो के निशान।

फिर खुद से कहता!

जीवन की राहें मिलती हैं सागर से,
कटीली, पथरीली रास्तों में चलकर,
पथ जीवन की कहाँ सुरीली प्यारे,
तू इन पत्थरों पर नित हो अग्रसर,
मानव कल्यान को ध्येय बनाकर,
करता जा कर्म तू निःस्वार्थ निरंतर,
बनते जाएंगे खुद ही तेरे पीछे,
अमिट तेरे कदमों के निशाँ प्यारे।

Thursday, 7 January 2016

पहरे लगे हैं

बीते वर्षों हृदय की अनुभूति समेटे,
युग बीते अनेकों ख्वाहिशें देखे,
पहरे लगे हैं यहाँ हसरतों पे!

आँखों की पलकों मे पलते कई सपनें,
अभिलाषा के यौवन लेकिन खोए,
पहरे लगे हैं यहाँ पलकों पे!

शीतल जल की तृष्णा अमिट जीवन मे,
व्रत प्यास का धारण किया है हमनें,
पहरे लगे हैं यहाँ तृष्णाओं पे!

कामना के कंच कलश से ख्वाब हृदय में,
बुझते नही प्यास वारिधि मे भी अब,
पहरे लगे है यहाँ ख्वाबों पे!

Wednesday, 6 January 2016

तू स्वयं का विधाता

वो दूर से खामोशियों की सदाएँ दे रहा कौन?
मुझको करने दे जरा आराम तू।
व्योम को जख्मों के नासूर दिखा रहा है कौन?
सृष्टि को करने दे जरा आराम तू।
चुप रहकर वसुधा को मन की व्यथा कह रहा कौन?
वसुधा को करने दे जरा आराम तू।

तू है भी कौन ? 
तू इतना महत्वपूर्ण नहीं!
तेरी सुननेवाला यहाँ कोई नही!
सब की अपनी कथा सबकी पीड़ा!
सब अपनी व्यथा से है व्यथित!
सब है यहाँ थके हुए, करने दे इन्हे विश्राम तू।

अपनी खामोशी, जख्म, मन की व्यथा,
सारे गम तुझे खुद ही होंगे झेलना,
इस भव-सागर में तुझे स्वयं है तैरना।

तू ही अपनी सृष्टि का पालक,
तू ही अपनी वसुधा का रक्षक,
तु ही है स्वयम् का नियोक्ता,
तू ही खुद का विधाता, कर जरा सा काम तू।
सब है यहाँ थके हुए, करने दे इन्हे विश्राम तू।

मोह के बंधन

मोह पास के बन्धन मे बंधे फसे हम,
छोटी सी इस दुनिया में फिर मिले हम,
कौंध गयी फिर यादों की बिजलियां,
फिर एक बार मोह की जुड़ी लड़ियाँ।

पहचान उसी मोह में आज तेरी जुड़ी,
जो नित नयी जोड़े जिन्दगी की लड़ी,
पर देख इतिहास दुबारा घटित होता नहीं,
बिछुड़ेंगे फिर हम छोड़ बन्ध मोह के घड़ी?

व्यक्तित्व

व्यक्तित्व धीर गंभीर हो, बने पेड़ सा ऊँचा,
आँधियों में भी हो खड़ा किए सिर ऊँचा,
उगते डूबते सूरज चाँद दे तुझको आशीष,
ऋतु बदलें, मेघ उमड़े तू न कभी पसीज।

व्यक्तित्व बने सन्तुलित शान्त धीर गंभीर,
विनम्रता की हरियाली से रहे आच्छादित,
अन्तस् में इसके उमरती रहे ममता भावना,
देश, समाज, जनकल्याण हो तेरी साधना।

पेड़ की मर्मरित पत्तियों सा हो कोमल हृदय,
नम्रता और विनम्रता करे इनके मार्ग प्रशस्थ,
तू बार-बार जा झूल प्रतिकूल हवाओं संग,
पर सफलता का श्रेय पैरों-तले मिट्टी को दे।

शख्शियत धीर गंभीर बने पेड़ सा बढ़ता रहे,
परिस्थितियाँ प्रतिकूल भी इन्हे हिला ना सकें, 
व्यक्तित्व की मजबूत जड़ें दूर धरती में रहे,
श्रेय तेरे मान अभिमान का समाज लेता रहे।

Tuesday, 5 January 2016

तू रहता कहाँ?

आकाश और सागर के मध्य,
क्षितिज के उस पार कहीं दूर,
जहाँ मिल जाती होंगी सारी राहें,
खुल जाते होंगे द्वार सारे मौन के,
क्या तू रहता है दूर वहीं कही?

क्षितिज के पार गगन मे उद्भित,
ब्रम्हांड के दूसरे क्षोर पर उद्धृत,
शांत सा सन्नाटा जहां है छाता,
मिट जाती जहां जीवन की तृष्णा,
क्या तू रहता क्षितिज के पार वहीं?

कोई कहता तू घट-घट बसता,
हर जीवन हर निर्जीव मे रहता,
कण कण मे रम तू ही गति देता,
क्षितिज, ब्रह्मान्ड को तू ही रचता,
मैं कैसे विश्वासुँ तू हैं यहीं कहीं?

मौन ही मुक्ति

जीवन की तृष्णाओं से,
मुक्त न कोई हो पाया,
चक्रव्युह इस तृष्णा का,
जग में कोई तोड़ न पाया,
अवसान वेला बची न तृष्णा,
चिरनिद्रा आगोश मे लेकर,
मौन ही इनसे मुक्त करेगा!

अकेन्द्रित चेतन का द्वार,
जीते जी न खुल सकेगा,
जीवन गांठ खुला न तुझसे,
जीकर भी तू क्या करेगा,
चिर निद्रा की आएगी वेला,
उस दिन तू वो राह पकड़ेगा,
मौन ही तुझको मुक्त करेगा!

शब्दों से परे नाद तू बोलता,
संवेदना से परे हैं तेरे संवाद,
अहंकार, ईर्ष्या घेरे है तुृझको,
ईन पर तू कब विजय करेगा,
जीते जी तू क्या मानव बनेगा,
इक दिन तू भी वो राह पकड़ेगा,
मौन ही तुझको मुक्त करेगा!

सूर्याभिनंदन


हे सूर्य-किरण,
अभिनन्दन तेरा करुँ,
प्रथम रश्मि आभा तू,
मैं क्षण-क्षण विस्मित,
अपलक तेरा रूप निहारूं,
मन चेतन प्राण वश तेरे,
क्या तुझ पर वारूँ?

रश्मि, चेतना, विश्वास,
नित् तुझ संग नैन धरूँ,
तज रात्रि घनघोर तम,
तेरा आलोकित पथ धरूँ,
तुम आशा तुम जीवन प्राण,
अभिन्नदन तेरा करूँ,

हे सूर्य किरण,
दे निजजीवन की आहुति,
नित आरती तेरी उतारुँ ।

Monday, 4 January 2016

भाग्य और किस्मत

भाग्य का दामन,
नही छोड़ा कभी जीवन ने,
कर्म का भाग्य से शायद,
है जन्मों का नाता,
किस्मत मे जो है तेरे,
वही सामने आता।

वश नहीं विधि के लिखे पर,
दूर जिससे तू जितना भागता,
उतना ही वो समीप आ जाता,
लिखा तेरा तेरे सामने आता,
भाग्य के रेखाओं पर,
वश कहाँ चल पाता।

कर्म किए जा तू पथपर,
आगे की व्यर्थ चिन्ता मतकर,
जो होगा लिखा विधि में,
आएगा वो खुद चलकर,
भाग्य के लिखे पर,
वश कहाँ चल पाता।

अच्छे-बुरे की कर पहचान,
पथ अपनी तू चलता जा,
भाग्य को मत कौश अपने,
किस्मत की अनमिट रेखा,
तू बदल नही सकता,
है तेरे किस्मत मे जो,
वही सामने आता।

बंधन मुक्त

मैं बंधन मुक्त हो जाऊँ।

मुक्त जीवन जाल से कर दो,
हृदय अन्तस् तेरा छू जाऊँ,
उत्कंठाओ को नव स्वर दे दूँ,
मर्म जीवन का समझ पाऊँ।

कल्पनाओं के मुक्त पंख दे दो,
उन्मुक्त पंछी बन ऊड़ जाऊँ,
ऊड़ बैठूं कभी हिमगिरि पर,
कभी वृक्ष विशाल चढ़ जाऊँ।

मुझको विशाल व्योम दे दो,
आभाओं के दीप बन जल जाऊँ,
रचना नवश्रृष्टि की कर पाऊँ।
मुक्त भव-बाधा से मैं हो जाऊँ।

मैं बंधन मुक्त हो जाऊँ।