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Sunday, 19 August 2018

फासले

यूं मिलिए कभी, गिरह नफ़रतों के खोलकर....

चंद कदमों के है ये फासले,
कभी नापिए न!
इन दूरियों को चलकर...
मिल ही जाएंगे रास्ते,
कभी झांकिए न!
इन खिड़कियों से निकलकर..

संग जब भी कहीं डोलते हो,
बेवजह बहुत बोलते हो,
दो बोल ही बोल ले,
मन में मिठास घोलकर,
आओ बैठो कभी,
ये जुबाने खंजर कहीं भूलकर...

यूं तो नफ़रतों के इस दौर में,
मिट गई हैं इबारतें,
सूनी सी पड़ी है महफ़िल,
और बच गईं हैं कुछ रिवायतें,
आओ फिर से लिखें,
इक नई इबारत कहीं मिलकर...

कम हो ही जाएंगे ये फासले,
मिट जाएंगी दूरियां,
न होंगी ये राहें अंधेरी,
हर कदम पे सजेंगी महफिल,
फूल यूं ही जाएंगे खिल,
आइये न खुली वादियों में चलकर...

यूं मिलिए कभी, गिरह नफ़रतों के खोलकर....

Tuesday, 31 July 2018

तन्हाईयाँ

हँस ले जी भर के,
आज मुझपे ऐ तन्हाईयाँ,
सजेंगी महफिलें,
तब आऊंगा बुलाने मैं तुझे,
जल जाएगा तू भी,
देखकर मेरी कहकशाँ....

चलो ये माना कि,
तन्हा है आज हम यहाँ,
न है वो काफिले,
न ही है सितारों का कारवाँ,
पर ये न समझो,
कि गमगीन हैं हम यहाँ....

गूंज हूं मैं अकेला,
संग गूंजेंगी ये विरानियाँ,
दो पग भी चले,
बन ही जाएंगी पगडंडियाँ,
पथिक भी होंगे,
यूं ही बजेंगी शहनाईयाँ....

झेंप जाओगे फिर,
देख मुझको ऐ तन्हाईयाँ,
आ मिल ले गले,
है बेकार की ये रुशवाईयाँ,
क्यूं शिकवे पले,
क्यूं ये शिकायत साथिया....

Saturday, 9 December 2017

संगतराश

जिंदादिल हूँ, कारीगर हूँ, हूँ मैं इक संगतराश...
तराशता हूँ शब्दों की छेनी से दिल,
बातों की वेणी में उलझाता हूं ये महफिल,
कर लेना गौर, न करना यूँ आनाकानी,
उड़ाना ना तुम यूँ मेरा उपहास,
संगतराश हूँ अलबेला.....
आओ, बैठो पल दो पल को तुम मेरे पास,
प्रेम की छेनी से खुट-खुट, थोड़ा तुमको भी दूँ तराश।

करता हूँ कुछ मनमानी, कुछ थोड़ा सा हास... 
गढ़ जाता हूँ बिंदी उन सूने माथों पे,
सजाता हूँ लरजते से होठों पे कोई तिल,
शरमाता हूँ, यूँ हीं करके कोई नादानी,
ना करना तुम यूँ मेरा परिहास,
मैं संगतराश हूँ अकेला....
आओ, बैठो पल दो पल को तुम मेरे पास,
हास की छेनी से खुट-खुट, थोड़ा तुमको भी दूँ तराश।

तन्हाई में ये मेरा दिल, संजोता है सपने खास....
कल्पना आँखों में, उड़ते रंग गुलाल,
साकार सी मूरत, मन में उभरता मलाल,
वही शक्ल, वही सूरत जानी पहचानी,
यूँ ही फिर उड़ाती मेरा उपहास,
मैं संगतराश हूँ मतवाला....
आओ, बैठो पल दो पल को तुम मेरे पास,
नैनों की छेनी से खुट-खुट, थोड़ा तुमको भी दूँ तराश।

Tuesday, 10 May 2016

रफ्ता रफ्ता वजूद

रफ्ता रफ्ता खो चुके हैं इस जहाँ की भीड़ में हम!

गुजर चुके है यहाँ कई महफिलों से हम,
खुद का पता ही कहीं अब भूल चुके हैं हम,
यूँ सफर तमाम कट गई है रफ्ता रफ्ता,
अब खुद का ही वजूद ढूंढ़ने में लगे हैं हम।

बड़ी ही हसीन शाम महफिलों के मगर,
अब दिल है मेरा खोया हुआ न जाने किधर,
यूँ वक्त तमाम कट गई हैं रफ्ता रफ्ता,
अब इस दिल का वजूद ढूंढ़ने में लगे हैं हम।

ये महफिलें है फकत यहाँ बेकाम की,
दिल की राहों से यहाँ दूर अब हो चले हैं हम,
यूँ उम्र तमाम कट गई है रफ्ता रफ्ता,
अब जिन्दगी का ही वजूद ढूंढ़ने में लगे हैं हम।

रफ्ता रफ्ता गुजर रहे हैं इन अंजान राहों से हम!

Thursday, 5 May 2016

वो भूली सी दास्ताँ

भूली सी इक दास्ताँ बन के रह गए हैं अब वो,
यादों में हर पल कभी शुमार रहते थे जो,
कभी अटकती थी वक्त की सुईयाँ जिनकी याद में,
अब अन्जाने से शक्लों में शुमार हो चुके हैं वो।

न जाने क्युँ बेरुखी उनकी बढ़ी कुछ इस कदर,
उन रास्तों से हम, अन्जान से हो चले हैं अब,
अब है मेरी इक अलग दुनियाँ, बेखबर से हुए हैं हम, 
बाकि रही इक कसक, रूठे हैं वो क्युँ अब तलक।

रूठने की वजह, कह भी देते वो मुझको अगर,
बेरुखी की रास्तों पर, वो न होते हमसफर,
खामोशं दिल की महफिलों के, वो न होते रहगुजर,
भूली हुई सी दास्ताँ में, वो न करते कहीं बसर।

Wednesday, 27 April 2016

कहता है विवेक मेरा

कहता है हृदय मेरा, चल ख्वाहिशों का मुँह मोड़ दे तू।

तमन्नाओं की महफिल फिर जगमगाई है कहीं,
कहता है मन,
गीत कोई अधूरा सा तू गाता ले चल,
रस्मों की दम घोंटती दीवारों से,
तू बाहर निकल आ चल।

अधूरी ख्वाहिशों के शहर मे तमन्ना जागी है फिर,
कहता है दिल,
परिदें ख्वाहिशों के उड़ा ले तू भी चल,
छुपी है जो बात अबतक दिल मे,
कह दे तू भी आ चल।

महफिल ख्वाहिशों की ये, तमन्नाओं को पीने दे फिर,
कहता है विवेक,
मैं ना निकलुंगा आदर्शों की लक्ष्मन रेखा से,
तमन्ना मेरी पीकर भटके क्युँ,
चल ख्वाहिशों का मुँह मोड़ दे तू।

कहता है हृदय मेरा, विवेक की अनदेखी ना कर तू।

Wednesday, 23 March 2016

उसे यह फ़िक्र है हरदम : स्व. भगत सिंह, 1931

अमर शहीद भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव को शत-शत नमन।

शहीद-ए-आजम भगत सिंह ने अपनी जंग को कुछ यूँ बयाँ किया था,

उसे यह फ़िक्र है हरदम : भगत सिंह (मार्च 1931)

उसे यह फ़िक्र है हरदम,
नया तर्जे-जफ़ा क्या है?
हमें यह शौक देखें,
सितम की इंतहा क्या है?

दहर से क्यों खफ़ा रहे,
चर्ख का क्यों गिला करें,
सारा जहाँ अदू सही,
आओ मुकाबला करें।
कोई दम का मेहमान हूँ,
ए-अहले-महफ़िल,
चरागे सहर हूँ,
बुझा चाहता हूँ।

मेरी हवाओं में रहेगी,
ख़यालों की बिजली,
यह मुश्त-ए-ख़ाक है फ़ानी,
रहे रहे न रहे।

रचनाकाल: मार्च 19319

(यह रचना अपने ब्लाग के माध्यम से आपलोगों के साथ साझा करने में मुझे गर्व महसूस हो रहा है। क्रान्ति की इस मशाल को नमन।)