Tuesday, 23 August 2022

किनारों पर


खड़ा, सागर की, किनारों पर,
इक टक देखता, उस मुसाफ़िर की मानिंद था मैं,
और वो, उस लहर की तरह!

हर बार, छू जाती है, जो, आकर किनारों पर,
और लौट जाती है, न जाने किधर,
फिर उठती है, बनकर इक ढे़ह सी उधर,
देखता हूं, मैं वो लहर,
अनवरत, खड़ा सागर की किनारों पर!

और, छूकर जाती, उफनती वो लहर!

करे क्या! हैरान सा, हारा वो बेवश मुसाफ़िर,
बेपरवाह, उन्हीं लहरों का मुंतजिर,
हर पल, छूकर, करती जाती है जो छल,
लिए, उसी की आस,
प्रतीक्षारत, वहीं सागर की किनारों पर!

और, छूकर जाती, उफनती वो लहर!

झंकृत, हर ओर दिशा, और वो, मंत्रमुग्ध सा,
कोई संगीत सी, बज उठती लहर,
बज उठते, कई साज, उनकी इशारों पर,
वो चुने, वो ही गीत,
कल्पनारत, वहीं सागर की किनारों पर!

और, छूकर जाती, उफनती वो लहर!

उन लहरों से इतर, बे-सबर, जाए तो किधर,
अमिट इक चाह, अमृत की उधर,
और अन्तः, गरल कितने छुपाए सागर,
धारे, वो ही प्यास,
प्रतिमावत, खड़ा सागर की किनारों पर!

और, छूकर जाती, उफनती वो लहर!

खड़ा, सागर की, किनारों पर,
इक टक देखता, उस मुसाफ़िर की मानिंद था मैं,
और वो, उस लहर की तरह!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 18 August 2022

परिचय


क्षय होते, इस काया से, परिचय क्या करना!

गल जाना है इक दिन, मिल जाना है माटी में,
फिर, पहने फिरते हो क्यूं,माया का गहना!

क्षय होते, इस काया से, परिचय क्या करना!

अन्त:स्थित इक चित्त, रहा सर्वथा अपरिचित,
पहले, इक डोर परिचय के, उनसे बांधना!

क्षय होते, इस काया से, परिचय क्या करना!

पूजे जाते वो शील, जिनमें अनुशीलन रब का,
राह पड़े उन शीलों को, कौन बनाए गहना!

क्षय होते, इस काया से, परिचय क्या करना!

मिल लेना, उस से, जो मिलता हो मुश्किल से,
छिछले से सागर तट पर, मोती क्या चुनना!

क्षय होते, इस काया से, परिचय क्या करना!

ढूंढो तो इस कण-कण मिल जाएं, शायद राम,
पर आवश्यक, विश्वास, लगन और साधना!

क्षय होते, इस काया से, परिचय क्या करना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 14 August 2022

कुछ तो है


बादलों की, चपलता,
और, भीगे मेघों की, गर्जना के मध्य,
कुछ, तो है!

है उनको खबर,
कि, तय करना है उन्हें, एक लम्बा सफर,
उधर, इस छोर से, उस छोर तक,
हठीले, मोड़ तक,
टूटकर, कहीं बिखरेंगे वो,
बरस जाएंगे, मुस्कुराकर, तप्त धरा पर,
काम आ जाएंगे, किसी के,
प्यासे जो है!

बादलों की, चपलता,
और, भीगे मेघों की, गर्जना के मध्य,
कुछ, तो है!

वो, दे जाएंगे,
किसी सर, घनी सी, इक छांव क्षण भर,
सब कुछ, यूं दामन से, लुटा कर,
खुद को भुलाकर,
बस जाएंगे, उन्हीं की, सुप्त चेतना में,
विलख कर, विरह वेदना में,
तरपे जो हैं!

बादलों की, चपलता,
और, भीगे मेघों की, गर्जना के मध्य,
कुछ, तो है!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 13 August 2022

एहसास


वो कोई खुश्बू,
वो जिन्दा सा, एहसास कोई!
वो इक झौंका,
वो बंधा सा, सांस कोई!

वो बांध गए, किन एहसासों की डोरी से,
शायद चोरी से!
चुपके से, यूं पांव दबे,
जब सांझ ढ़ले,
ढ़लती किरणों संग, उनकी ही बात चले,
रात ढ़ले,
जिन्दा हो, एहसास कोई,
है साथ वही!

वो इक झौंका,
वो बंधा सा, सांस कोई!

वो कब ठहरे, रुक जाए कब, यूं राहों में,
उन्ही, आहों में,
भर दे, हल्की सिहरन,
उस, छांव तले,
जब भोर जगे, फिर उनकी ही बात चले,
राह चले,
झौंकों सी, इक वात कोई,
हो, संग वही!

वो कोई खुश्बू,
वो जिन्दा सा, एहसास कोई!
वो इक झौंका,
वो बंधा सा, सांस कोई!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

घन


हौले से, आ बरसो, हृदय के आंगन में,
यूं जैसे, घन बरसे सावन में!

पहले छा जाना, मन को भा जाना,
धुंधला सा, ये गहरा आंचल, फिर फैलाना,
उतर आना, इक बदली सा आंगन में!

हौले से, आ बरसो, हृदय के आंगन में!

यूं भर लेना नैनों में थोड़ा काजल,
ज्यूं रात, मचल कर,  गाती हो एक ग़ज़ल,
और साज कहीं, बजते हों उपवन में!

हौले से, आ बरसो, हृदय के आंगन में!

फिर चाहे तू कहना मन की व्यथा,
या रखना, मन की बातें, मन में ही सर्वथा,
उतर आना, नीर सरीखे, नयनन में!

हौले से, आ बरसो, हृदय के आंगन में!

सूना ये आंगन, संवर जाए थोड़ा,
सरगम की छमछम से, भर जाए ये जरा,
बज उठे शंख कई, इस सूनेपन में!

हौले से, आ बरसो, हृदय के आंगन में,
यूं जैसे, घन बरसे सावन में!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 9 August 2022

दो दिन जीवन


शायद दो ही दिन हो, यह जीवन!

पा लेने को, है उन्मुक्त गगन,
है छू लेने को, उम्मीदों के कितने घन!
खुला-खुला, उद्दीप्त ये आंगन,
बुलाता, ये सीमा-विहीन क्षितिज,
भर आलिंगन!

शायद दो ही दिन हो, यह जीवन!

जितना सौम्य, उतना सम्यक,
रहस्यमयी उतनी ही, यह दृष्टि-फलक!
धारे रूप कई, बदले रंग कई!
हर रूप अनोखा, हर रंग सुरमई,
और मनभावन!

शायद दो ही दिन हो, यह जीवन!

पर अंजाना आने वाला क्षण!
ना जाने कौन सा पल, है कितना भारी!
किस पल, बढ़ जाए लाचारी!
ना जाने, ले आए, कौन सा पल,
अन्तिम क्षण!

शायद दो ही दिन हो, यह जीवन!

समेट लूँ, जो शेष है जीवन!
भर लूँ दामन में, कर लूँ इक आलिंगन!
कंपित हो, सुसुप्त धड़कन!
जागृत रहे, किसी की वेदना में,
ये हृदयांगण!

शायद दो ही दिन हो, यह जीवन!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 7 August 2022

कोरी कल्पना


रहना हो, तो ‌‌‌‌‌‌‌रह जाना,
मेरी स्वप्निल कल्पनाओं के, उन्मुक्त आकाश में,
और, रोज मिलना!

चल देते हो, तुम, ऐसे,
जैसे, दिन ढ़ले, ढ़ल जाते हैं असंख्य तारे,
खुल जाते हैं, आकाश के, दो किनारे,
यूं ठहरते हो, कब!

ठहर जाओ कुछ ऐसे,
जैसे, गहराते हैं, मेंहदी के रंग, हौले-हौले,
बहती ये नदियाँ, ज्यूं, सागर को छूले,
और, निखर जाए!

सब दरवाजे, हैं खुले,
रिक्त सारे, कल्पनाओं के ये उन्मुक्त झूले,
खाली सा, आकाश का सारा दामन,
जरा, सँवर जाए!

रहना हो, तो ‌रह जाना,
मेरी स्वप्निल कल्पनाओं के, उन्मुक्त आकाश में,
क्या, रह सकोगे सदा?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 5 August 2022

संवेदना


जगाएगी, उम्र भर,
इस सफर में, दे ही जाएगी वेदना!
ये संवेदना!

संवेदनाओं से विमुख, रहा कौन?
बस चीर जाती है हृदय, किसी का मौन!
तड़पा जाती है, चेतना,
यूं चुभोती इक कसक, मन के आंगना,
जगाएगी, उम्र भर, 
ये संवेदना!

इस सफर में, दे ही जाएगी वेदना!

गर न हो, तेरा, हृदय एक पाषाण,
शर्म हो, खुद को कहलाने में एक इन्सान,
सो ना चुकी हो, चेतना,
बींध जाएगी, मन को, किसी की वेदना,
जगाएगी, उम्र भर, 
ये संवेदना!

इस सफर में, दे ही जाएगी वेदना!

गर सुन सको, तुम, उनकी चीखें,
आह, किसी की, आ तेरे कदमों को रोके,
पड़े, यूं नींद से जागना,
अन्त:करण, देने लगे तुझको उलाहना,
जगाएगी, उम्र भर, 
ये संवेदना!

इस सफर में, दे ही जाएगी वेदना!

जगाएगी, उम्र भर,
इस सफर में, दे ही जाएगी वेदना!
ये संवेदना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 3 August 2022

काश


धुंधली सी, वो परछाईं,
याद बहुत आई!

काश, वो एहसास, सुखद न होते इतने,
काश, लगते, इतने न वो अपने,
काश, आते न वो सपने,
यूं दूर बैठी, सिमटी वो परछाईं,
याद बहुत आई!

धुंधली सी, वो परछाईं,
याद बहुत आई!

काश, कुम्भला जाते ये खिले एहसास,
काश, न आते, वो मन को रास,
काश, यूं भूल जाते हम,
वो बदली, बरस भी न जो पाई,
याद बहुत आई!

धुंधली सी, वो परछाईं,
याद बहुत आई!

काश, छू न लेती यूं परछाइयाँ हमको,
काश, यूं न बांधती यहां हमको,
काश, बहती न, ये पवन,
कह गई जो, वही इक कहानी,
याद बहुत आई!

धुंधली सी, वो परछाईं,
याद बहुत आई!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 2 August 2022

आहट


घुल रही है, यूं फिजा में आहट किसी की ....

हर तरफ, एक धुंधली सी नमीं,
भीगी-भीगी, सी ज़मीं,
हैं नभ पर बिखेरे, किसी ने आंचल,
और बज उठे हैं, गीत छलछल,
हर तरफ इक रागिनी!

घुल रही है, यूं फिजा में आहट किसी की ....

पल-पल, धड़कता है, वो घन,
कांप उठता, है ये मन,
झपक जाती हैं, पलकें यूं चौंक कर,
ज्यूं, खड़ा कोई, राहें रोककर,
अजब सी, दीवानगी!

घुल रही है, यूं फिजा में आहट किसी की ....

हो न हो, ये सरगम, है उसी की,
है मद्धम, राग जिसकी,
सुरों में, सुरीली है आवाज जिसकी,
छेड़ जाते हैं, जो सितार मन के,
कर दूं कैसे अनसुनी?

घुल रही है, यूं फिजा में आहट किसी की ....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)