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Sunday, 25 September 2022

अन्तर्निहित


निरर्थक सी, उन बातों में,
शायद, अन्तर्निहित हैं जीवन के अर्थ सारे!
मैं ही, ना-समझ,
बुनता रहता हूँ, अर्थ कोई!

फूलों का, यूं खिल आना,
निरर्थक, कब था!
अर्थ लिए, आए वो, मौसम के बदलावों में, 
मुकम्मल सा, श्रृंगार कोई!

हवाओं में घुलते कलरव,
इक संशय में, सब,
रीत, ये कैसा, राग कौन सा, पिरोए विहग!
या अर्थपूर्ण, विहाग कोई!

नत-मस्तक, इक बादल,
शीष उठाए, पर्वत,
अधूरे से दोनों, दोनों ही इक दूजे के पूरक,
भावप्रवण ये, प्रीत कोई!

चुपचुप गुमसुम सी रात,
अर्थपूर्ण, हर बात,
उस छोर, वही लिख जाती सुरीली प्रभात,
रहस्यमई, जज्बात कोई!

निरर्थक सी, उन बातों में,
शायद, अन्तर्निहित हैं जीवन के अर्थ सारे!
मैं ही, ना-समझ,
बुनता रहता हूँ, अर्थ कोई!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 8 May 2020

उड़ चले विहग

उड़ चले विहग, क्षितिज पे कहीं दूर!

उन्हीं, असीम सी, रिक्तताओं में,
हैं कुछ, ढ़ूंढ़ने को मजबूर,
मुट्ठी भर आसमां, कहीं गगन पे दूर,
या, अपना, कोई आकाश,
लिए, अंतहीन सा, इक तलाश!

उड़ चले विहग, क्षितिज पे कहीं दूर!

गुम हैं कहीं, पंछियों के कलरव,
कहीं दूर जैसे, उन से हैं रव,
शून्य में घुला, वो गगन का किनारा,
जैसे, संगीत ही हो बेसहारा,
लिए, कलरव में, सुर की तलाश!

उड़ चले विहग, क्षितिज पे कहीं दूर!

अपनी समझ, अपनी विवशता,
मन में दबाए, एक चिन्ता,
घिर कर, आपदाओं में, बिखरे सदा,
फिर से, न लौटने को विवश,
लिए, दुख में, इक सुख की आश!

उड़ चले विहग, क्षितिज पे कहीं दूर!

आसमाँ की, उन्हीं, गहराईयों में,
ढ़ूंढ़ने को, फिर से, चन्द्रमा,
अंधियारे क्षणों में, उजालों के क्षण,
हताशा में, आशा का आंगन,
लिए, अनबुझ सी, वो ही प्यास!

उड़ चले विहग, क्षितिज पे कहीं दूर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 13 February 2020

विहग - झूलती डाली

झूलती डाली, उड़ते-चहकते विहग,
जैसे, प्रसंग कोई छिड़ा हो,
गहन सी, कोई बात हो,
या, विहग, बिन-बात ही भिड़ा हो,
उलझ कर, साथ में,
फुर्र-फुर्र, वो कहीं उड़ा हो!

झूलती डाली, उड़-उड़ आते विहग,
प्रासंगिक सी, वो बात हो,
शुरु, फिर आप्रवास हो,
या, वियोग ही, विहग का बड़ा हो,
तीर, लग कर कोई,
जोड़ा, विहग का, मरा हो!

झूलती डाली, दूर-दूर तकते विहग,
बहेरी, पास ही खड़ा हो,
प्रसंग, वो ही बड़ा हो,
प्रश्न-चिन्ह, मानवता पर, लगा हो,
स्वार्थी, बहेरी ने ही,
लघु-मन को, झकझोरा हो!

झूलती डाली, विरह में डूबे विहग,
प्रसंग, जीवन से बड़ा हो,
जंग, कोई छिड़ा हो,
प्रश्न-चिन्ह, अस्तित्व पर लगा हो,
उस चह-चहाहट में, 
दर्द ही, विहग का घुला हो!

झूलती डाली, उड़ते-चहकते विहग,
जैसे, प्रसंग कोई छिड़ा हो,
गहन सी, कोई बात हो,
या, विहग, बिन-बात ही भिड़ा हो,
उलझ कर, साथ में,
फुर्र-फुर्र, वो कहीं उड़ा हो!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 29 May 2019

चल रे मन उस गाँव

चल रे मन! उस गाँव, उसी पीपल की छाँव चल!

आकाश जहाँ, खुलते थे सर पर,
नित नवीन होकर, उदीयमान होते थे दिनकर,
कलरव करते विहग, उड़ते थे मिल कर,
दालान जहाँ, होता था अपना घर!
चल रे मन, चल उस गाँव चल......

धूप जहाँ, आती थी छन छनकर,
छाँव जहाँ, पीपल की मिल जाती थी अक्सर,
विहग के घर, होते थे पीपल के पेड़ों पर,
जहाँ पगडंडी, बनते थे राहों पर!
चल रे मन, चल उस गाँव चल......

लोग जहाँ, रहते थे मिल-जुल कर,
इक दूजे से परिहास, सभी करते थे जम कर,
जमघट मेलों के, जहाँ लगते थे अक्सर,
जहाँ प्रतिबंध, नहीं होते थे मन पर!
चल रे मन, चल उस गाँव चल......

जहाँ क्लेश-रहित, था वातावरण,
स्वच्छ पवन, जहाँ हर सुबह छू जाती थी तन,
तनिक न था, जहाँ हवाओं में प्रदूषण,
जहाँ सुमन, करते थे अभिवादन!
चल रे मन, चल उस गाँव चल......

उदीप्त जहाँ, होते थे मन के दीप,
प्रदीप्त घर को, कर जाते थे कुल के ही प्रदीप,
निष्काम कोई, जहाँ कहलाता था संदीप,
रात जहाँ, चराग रौशन थे घर-घर!
चल रे मन, चल उस गाँव चल......

चल रे मन! उस गाँव, उसी पीपल की छाँव चल!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Monday, 21 January 2019

सम्भल ऐ गमे-दिल

सम्भल ऐ गमे-दिल, न हो जिन्दगी से खफा!

चल कहीं निकल, न संताप में तू जल,
बन जा विहग, आकाश पे मचल,
छोड़ दे ये दायरे, उन सितारों के पास चल,
खुद को न यूँ, तू दिवानगी में जला!

सम्भल ऐ गमे-दिल, न हो जिन्दगी से खफा!

रात का प्रहर, चाँद विंहस रहा मचल,
हँस रही ये रात भी, गा रही गजल,
तू न मौन रह, गुनगुना ले संग तू भी चल,
घुट-कर न यूँ, जीवन के क्षण बिता!

सम्भल ऐ गमे-दिल, न हो जिन्दगी से खफा!

कम न होता यहाँ, जिन्दगी का आँचल,
छँट ही जाते हैं, गम के ये बादल,
बरस गए जरा, ये पल में हो जाएंगे विरल,
शुन्य में कहीं, यूँ खुद को ना भुला!

सम्भल ऐ गमे-दिल, न हो जिन्दगी से खफा!

Tuesday, 18 December 2018

अभिलाषा

अलसाई सी पलकों में, उम्मीदें कई लिए,
यूँ देखता है रोज, आईना मुझे....

अभिलाषा की, इक नई सूची लिए,
रोज ही जगती है सुबह,
आशाएँ, चल पड़ती हैं इक उम्मीद लिए...

अभिलाषाओं की, इस बिसात पर,
चाल चलती है जिन्दगी,
उम्मीदें, भटकाती हैं अजनबी राहों पर....

निकल पड़ते हैं, घौसलों से विहग,
धुंधलाए से आकाश में,
समयबद्ध, प्रवाह में डोलते हुए डगमग....

थक हार, फिर लौट आती है सांझ,
गिनता है रातों के तारे,
बांझ होती हुई, उम्मीदों की टोकरी लिए...

छद्म आत्म-विभोर कराते आकाश,
सीमाविहीन सी शून्यता,
गहराती सी, रिक्तता का देती है आभास....

यथार्थ के इस अन्तिम से छोर पर,
आईने व चेहरों के बीच,
अभिलाषाएँ, हावी हैं फिर से उम्मीद पर...

खामोश चेहरा लिए, बोलता हैं आईना,
यूँ टोकता है रोज, आईना मुझे.....

Sunday, 11 November 2018

खुद लिखती है लेखनी

मैं क्या लिखूं! खुद लिख पड़ती है लेखनी....

गीत-विहग उतरे जब द्वारे,
भीने गीतों के रस, कंठ में डारे,
तब बजते है, शब्दों के स्तम्भ,
सुर में ढ़लते हैं, शब्द-शब्द!

मैं क्या लिखूं! फिर खुद लिखती है लेखनी...

भीगी है जब-जब ये आँखें,
अश्रुपात कोरों से बरबस झांके,
तब डोलते हैं, शब्दों के स्तम्भ,
स्खलित होते हैं, शब्द-शब्द!

मैं क्या लिखूं! फिर खुद लिखती है लेखनी...

समुंदर की अधूरी कथाएं,
लहरें, तट तक कहने को आएं,
तब टूटते हैं, शब्दों के स्तम्भ,
बिखर जाते हैं, शब्द-शब्द!

मैं क्या लिखूं! फिर खुद लिखती है लेखनी...

Sunday, 29 May 2016

मधुमय मुक्ताकाश

जीवन को मधुमय मधुमास बन जाने दो....

करुणा के भावमय मुक्ताकाश पर,
स्नेह का असीम विस्तार हो जाने दो,
जहाँ मुक्त हो हृदय के कंपन,
करुण प्रेम का प्रगाढ़ आभाष हो जाने दो,

जीवन को मधुमय मधुमास बन जाने दो....

कल्पना के विचरते मुक्ताकाश पर,
मानस पटल के विहग को उड़ जाने दो,
जहाँ विचरती हों कल्पनाशीलता,
मन की आशाओं को पंख लग जाने दो,

जीवन को मधुमय मधुमास बन जाने दो....

अभिलाषा के अनंत मुक्ताकाश पर,
विपुल आकांक्षाओं को प्रबल हो जाने दो,
जहाँ आसक्ति अनुराग हो मन में,
अंतःकरण के प्रसून प्रष्फुटित हो जाने दो,

जीवन को मधुमय मधुमास बन जाने दो....