Showing posts with label प्रकृति. Show all posts
Showing posts with label प्रकृति. Show all posts

Thursday, 29 July 2021

जागती प्रकृति

वो, शून्य सा किनारा, स्तब्ध वो नजारा,
शायद, जाग रही हो प्रकृति,
वर्ना, ये पवन, न यूँ हमें छू लेती,
इक सदा, यूँ, हमें दे जाती!

निःशब्द कर गई, ठहरी सी झील कोई,
सदियों, कहीं हो जैसे खोई,
पथराई सी, डबडबाई, वो पलकें,
बोलती, कुछ, हल्के-हल्के!

वो शिखर! पर्वतों के हैं, या कोई योगी,
खुद में डूबा, तप में खोया,
वो तपस्वी, ज्यूँ है, साधना में रत,
युगों-युगों, यूँ ही, अनवरत!

हल्की-हल्की सी, झूलती, वो डालियाँ,
फूलों संग, झूमती वादियाँ,
बह के आते, वो, बहके से पवन,
बहक जाए, क्यूँ न ये मन!

बे-आवाज, गहराता कौन सा ये राज!
जाने, कौन सा है ये साज,
बरबस उधर, यूँ, खींचता है मौन,
इक सदा, यूँ देता है कौन!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 26 March 2021

फागुनी बयार

संग तुम्हारे, सिमट आए ये रंग सारे!
है तुम्हीं से, फागुनी बयार!

कल तक न थी, ऐसी ये बयार,
गुमसुम सी, थी पवन,
न ही, रंगों में थे ये निखार,
ले आए हो, तुम्हीं, 
फागुनी सी, ये बयार!

संग तुम्हारे, निखर आए ये रंग सारे!
है तुम्हीं से, फागुनी बयार!

जीवंत हो उठी, सारी कल्पना,
यूँ, प्रकृति का जागना,
जैसे, टूटी हो कोई साधना,
पी चुकी हो, भंग,
सतरंगी सी, ये बयार!

संग तुम्हारे, बिखर आए ये रंग सारे!
है तुम्हीं से, फागुनी बयार!

तुम हो साथ, रंगों की है बात,
हर ओर, ये गीत-नाद,
मोहक, सिंदूरी सी ये फाग,
कर गई है, विभोर,
अलसाई सी, ये बयार!

संग तुम्हारे, उभर आए ये रंग सारे!
है तुम्हीं से, फागुनी बयार!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 9 February 2021

खोखली प्रगति

विध्वंस रचा हमने, यह नहीं कोई निर्माण!
आधार-विहीन प्रगति पर, ऐ मानव!
मत कर, तू अभिमान!

प्रलय, ले आई है, भविष्य की झांकी,
त्रिनेत्र, अभी खुला है हल्का सा,
महाप्रलय, बड़ी है बाकी!
प्रगति का, कैसा यह सोपान?
चित्कार, कर रही प्रकृति,
बैठे, हम अंजान!
यह पीड़ जरा, पहले तू पहचान,
अवशेषों के, इस पथ पर, ऐ मानव!
मत कर, तू अभिमान!

विध्वंस रचा हमने, यह नहीं कोई निर्माण!

तेरी ही संतति, कल हँसे न तुझ पर!
छींटे कसे न, पीढियाँ तुझ पर,
कर नवप्रयान की तैयारी,
दे संतति को, इक नवविहान!
फिर पुकारती है, प्रकृति,
बन मत, अंजान!
ये हरीतिमा, यूँ ना हो लहुलुहान,
रक्तिम सी इस प्रगति पर, ऐ मानव!
मत कर, तू अभिमान!

विध्वंस रचा हमने, यह नहीं कोई निर्माण!
आधार-विहीन प्रगति पर, ऐ मानव!
मत कर, तू अभिमान!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)
------------------------------------------------------
(दिनांक 07.02.2021 को उत्तराखंड में आई भीषण प्राकृतिक त्रासदी से प्रभावित)

Monday, 30 March 2020

हे मेरे ईश्वर

आशा हमें, है विश्वास तुम पर,
कि तुझको है खबर, तू ही रखता नजर,
समग्र, सृष्टि पर,
हे मेरे ईश्वर!

तूने ही बनाए, सितारे ये सागर,
छलका है तुझसे, मेरे मन का ये गागर,
अंधेरे बड़े हैं, तू कर दे उजागर,
अपनी, कृपा कर,
हे मेरे ईश्वर!

तुझ ही से, खिले ये फूल सारे,
बनाए है तुमने ही, प्रकृति के ये नजारे,
मुरझा गए हैं, तु वृष्टि जरा कर,
इतनी, दया कर,
हे मेरे ईश्वर!

विपदा बड़ी, संकट की घड़ी,
कोई बाधा विकट सी, सामने है खड़ी,
मुश्किल ये घड़ी, भव-पार कर,
विपदा, जरा हर,
हे मेरे ईश्वर!

निर्मात्री तुम, तुम ही संहारक,
तुम ही विनाशक, तुम ही कष्ट-हारक,
तेरे विधान का ही, है ये असर,
निर्माण, अब कर,
हे मेरे ईश्वर!

आशा हमें, है विश्वास तुम पर,
कि तुझको है खबर, तू ही रखता नजर,
समग्र, सृष्टि पर,
हे मेरे ईश्वर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 22 June 2019

प्रभा-लेखन

है यह, नव-प्रभात का स्पंदन!
या है यह, प्रकृति का, इक सर्वश्रेष्ठ लेखन!
या, खुद रचकर, इक नव-संस्करण,
प्रकृति, करती है विमोचन!

यूँ, रचती है प्रकृति, हर क्षण इक रचना,
सर्वश्रेष्ठ, सर्वदा देती है वो अपना,
थोड़ा सा आवर्तन, अप्रत्याशित सा परिवर्तन,
कर कोई, श्रृंगार अनुपम,
ले आती है नित्य, नव-प्रभात का संस्करण!

कलियों की आहट में, होती है इक लय,
डाली पर प्रस्फुट, होते हैं किसलय,
बूँदों पर ढ़लती किरणें, ले नए रंगों के गहने,
छम-छम करती, पायल,
उतरती है प्रभात, कितने आभूषण पहने!

किलकारी करती, भोर लेती है जन्म,
नर्तक भौंड़े, कर उठते हैं गुंजन,
कुहुकती कोयल, छुप-छुप करती है चारण,
संसृति के, हर स्पंदन से,
फूट पड़ती है, इसी प्रकृति का उच्चारण!

किरणों के घूँघट, ओढ़ आती है पर्वत,
लिख जाती है, पीत रंग में चाहत,
अलौकिक सी वो आभा, दे जाती है राहत,
मंत्रमुग्ध, हो उठता है मन,
बढ़ाता है प्रलोभन, भोर का संस्करण!

है यह, नव-प्रभात का स्पंदन!
या है यह, प्रकृति का, इक सर्वश्रेष्ठ लेखन!
या, खुद रचकर, इक नव-संस्करण,
प्रकृति, करती है विमोचन!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Sunday, 1 April 2018

बिखरी लाली

चलों चुन लाएं, क्षितिज से वो बिखरी लाली.....

श्रृंगकिरणों ने पट खोले हैं,
घूंधट के पट नटखट नभ ने खोले हैं,
बिखर गई है नभ पर लाली,
निखर उठी है क्षितिज की आभा,
निस्तेज हुए है अंधियारे,
वो चमक रही किरणों की बाली!

चलों चुन लाएं, क्षितिज से वो बिखरी लाली.....

श्रृंगार कर रही है प्रकृति,
किरणों की आभा पर झूमती संसृति,
मोहक रंगो संग हो ली,
सिंदूरी स्वप्न के ख्वाब नए लेकर,
नव उमंग नव प्राण लेकर,
खेलती नित नव रंगो की नव होली!

चलों चुन लाएं, क्षितिज से वो बिखरी लाली.....

खेलती है लहरों पर किरणें,
या लहरों से कुछ बोलती हैं किरणें!
आ सुन ले इनकी बोली,
झिलमिल रंगों की ये बारात लेकर,
मीठी सी ये बात लेकर,
चल उस ओर चलें संग आलि!

चलों चुन लाएं, क्षितिज से वो बिखरी लाली.....

Monday, 29 January 2018

सृजन

शायद अब हो पूरा, प्रकृति का यह श्रृंगार अधूरा!

एकत्र हुई है सब कलियाँ,
चटक रंगों से करती रंगरलियाँ,
डाल-डाल खिल आई नव-कोपल,
खिलते फूलों के चेहरे हैं चंचल,
सब पात-पात झूमे हैं,
कलियों के चेहरे भँवरों ने चूमे हैं,
लताओं के लट यूँ बिखरे हैं,
ज्यूँ नार-नवेली ने लट खोले हैं,
रंगीन धरा, अंग-अंग में श्रृंगार भरा...

शायद अब हो पूरा, प्रकृति का यह श्रृंगार अधूरा!

झूम-झूम हो रही मतवाली,
गुलमोहर, अमलतास की डाली,
खुश्बू भर आई गुलाब, चम्पा और बेली,
गीत बसंत के कूक रही वो कोयल,
पपीहा अपनी धुन में पागल,
रह रह गाती बस ..पी कहाँ, पी कहाँ!
मुग्ध संसृति है इनकी तान से,
सृजन का है सुन्दर नव-विहान ये,
मुखरित धरा, कण-कण में लाड़ भरा...

शायद अब हो पूरा, प्रकृति का यह श्रृंगार अधूरा!

हैं दलदल में खिले कमल,
जल में बिखरे हैं शतधा शतदल,
कलरव क्रीड़ा करते झूम रहे है जलचर,
जैसे मना रहे उत्सव सब मिलकर,
झिलमिल करती वो किरणें,
ठहरी झील की चंचल सतह पर,
थिरक रही बूँद-बूँद बस इठलाकर,
मुग्ध धरा, अंग-प्रत्यंग में उन्माद भरा......

शायद अब हो पूरा, प्रकृति का यह श्रृंगार अधूरा!

Thursday, 23 November 2017

डोल गया मन

फिर क्या था, डोल गया, कुछ बोल गया ये मन.....

उफक पर
सर रखकर 
इठलाई रवि किरण,
झील में 
तैरते फाहों पर, 
आई रख कर चरण,
आह, उस सौन्दर्य का 
क्या करुँ वर्णन
पल भर को
मूँद गए मेरे मुग्ध नयन....

फिर क्या था, डोल गया, कुछ बोल गया ये मन.....

उफक पर
श्रृंगार कर गया कोई,
नैनों में काजल
मस्तक पर
लालिमा सी फैली
सिंदूरी रंग
उफक पर भर गया कोई,
रौशन मुख
पीत वस्त्र
चमकीले आभूषण
मन हर गए श्वेत वर्ण...

फिर क्या था, डोल गया, कुछ बोल गया ये मन.....

उफक पर
तैरते से तल पर
जैसे हो
तैरते से भ्रम
कौन जाने
जल में है कुंभ या
है कुंभ में जल,
घड़ा जल में 
या है जल घड़े में
असमंजस में
भ्रम की स्थिति में रहे हम...

फिर क्या था, डोल गया, कुछ बोल गया ये मन.....

Saturday, 19 March 2016

झील का कोई समुंदर नहीं

कहते हैं कि झील का कोई समुंदर नही होता!
मैं कहता हूँ कि झील सा सुन्दर कोई समुन्दर नही होता!

अपनी ही स्थिरता, विराम, ठहराव है उस झील का,
आभा अद्भुद, छटा निराली, चारो तरफ हरियाली,
प्रकृति की प्रतिबिम्ब को खुद में लपेटे हुए,
अपने आप में पूरी पूर्णता समेटे हुए झील का किनारा।

प्यार है मुझको उस ठहरे हुए झील से,
रमणीक लगती मन को सुन्दरता तन की उसके।

कमल कितने ही जीवन के खिलते हैं इसकी जल में,
शान्त लगती ये जितनी उतनी ही प्रखर तेज उसके,
मौन आहट में उसकी स्वर छुपते हैं जीवन के,
बात अपने मन की कहने को ये आतुर नही समुन्दर से।

झील का अपना ही मन, जो आकर मिलती है मेरे मन से।

Tuesday, 16 February 2016

बसंत ने ली अंगड़ाई

अंजुरी भर भर अाम रसीली मंजराई,
वसुधा के कणकण पर छाई तरुनाई,
स्वागत है बसंत ने ली फिर अंगड़ाई।

रूप अतिरंजित कली कली मुस्काई,
प्रस्फुटित कलियों के सम्पुट मदमाई,
स्वागत है बसंत ने ली फिर अंगड़ाई।

कूक कोयल की संगीत नई भर लाई,
मंत्रमुग्ध होकर भौंरे भन-भन बौराए,
स्वागत है बसंत ने ली फिर अंगड़ाई।

Thursday, 14 January 2016

स्वागत प्रभात का

स्याह रातों की खामोशी को स्वर दे गया वो फिर,
कोलाहल मची सृष्टि में, उसके स्वागत को फिर।

खामोश सृष्टि लगी विहसने सुन जन-जन के गान,
पंछियों ने कलरव कर छे़ड़ दिए है सप्ससुरी तान।

वो कौन रात्रि मे कुंजपत्तियों को बूंदों से धो गया,
स्वागत की तैयारी मे वसुधा को नव रूप दे गया।

पूर्ण सृष्टि का श्रृंगार करने सूर्य क्षितिज पर आया,
स्वर्निम आभा से अपनी मनभावन रंग बिखेर गया।

नभ के चेहरे मले गुलाल, गिरि मस्तक भी मधुमायी,
सागर जल हुए स्वर्निम, प्रकृति नव वधु सी मुस्काई।

Tuesday, 29 December 2015

दृश्य विहंगम

दृश्य विहंगम समक्ष आँखों के,
आभा प्रकृति की अति निराली,
उपवन ने छेड़े है राग मधुर से,
मचल उठे प्राण तुझ संग अालि।

अरुणिमा यूँ बिखरी नभ पर,
फूलों के चेहरे हो रहे है प्रखर,
राग प्रकृति संग खग के मुखर,
मुरझाए निशि के कर्कश स्वर।

शिखर हिमकण इठलाते झिलमिल,
पात ओस की बूँदों के मुख गए खिल,
कोयल ने छे़ड़ी रागिणी अति कोमल, 
आलि संग हंदय हो गए हैं आकुल।

Saturday, 26 December 2015

किरणों ने खोले हैं घूंघट


किरणों ने फिर खोले है घूंघट,
                   तिमिर तिरोहित बादलों के,
कलुषित रजनी हुआ तिरोहित,
                   संग ऊर्जामयी उजालों के।

अनुराग रंजित प्रबल रवि ने,
                    छेड़ी फिर सप्तसुरी रागिणी,
दूर हुआ अवसाद प्राणों का,
                    पुलकित हुई रंजित मन यामिनी।

ज्योतिर्मय हुआ ज्योतिहीन जन,
                    मिला विश्व को जन-लोचन तारा,
अवसाद मिटे हुआ जड़ता विलीन,
                    मिला मानवता को नव-जीवन धारा।