Showing posts with label सफर. Show all posts
Showing posts with label सफर. Show all posts

Monday, 5 September 2022

सफर में


खत्म होता नहीं, ये सिलसिला,
बिछड़ा यहीं,
इस सफर में, जो भी मिला!

भींच लूं, कितनी भी, ये मुठ्ठियां,
समेट लूं, दोनों जहां,
फिर भी, यहां दामन, खाली ही मिला,
बिछड़ा यहीं, 
इस सफर में, जो भी मिला!

खत्म होता नहीं, ये सिलसिला....

फिर भी, थामे हाथ सब चल रहे,
बर्फ माफिक, गल रहे,
बूंद जैसा, वो फिसल कर, बह चला,
बिछड़ा यहीं, 
इस सफर में, जो भी मिला!

खत्म होता नहीं, ये सिलसिला....

खुश्बू, दो घड़ी ही दे सका फूल,
कर गया, कैसी भूल,
रंग देकर, बाग को,  वहीं मिट चला,
बिछड़ा यहीं, 
इस सफर में, जो भी मिला!

खत्म होता नहीं, ये सिलसिला....

बनता, फिर बिखरता, कारवां,
लेता, ठौर कोई नया,
होता, फिर शुरू इक सिलसिला,
बिछड़ा यहीं, 
इस सफर में, जो भी मिला!

खत्म होता नहीं, ये सिलसिला,
बिछड़ा यहीं, 
इस सफर में, जो भी मिला!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

फिक्र


फिक्र, उनकी ही फिर भी.....

यूं, बिछड़ कर, सदा जिक्र में जो रहे,
क्या हो, कल किसी राह में, अगर वो फिर मिले!
जग उठे, शायद, फिर वो ही अनबुने सपने,
जल उठे, फिर, अधबुझी सी वो शमां,
इक अंधेरी रात में!

फिक्र, उनकी ही फिर भी.....

जिक्र फिर, उनकी ही हो, हर घड़ी,
जल उठे, अंधेरों में, इक संग, करोड़ों फुलझड़ी,
जलती हर किरण, राहों में, उनको ही ढूंढे,
बस फिक्र ये ही, कि वो फिर ना रूठे,
यूं जरा सी बात में!

फिक्र, उनकी ही फिर भी.....

गुम है मगर, उन रास्तों का सफर,
न उन राहों का पता, न उन दरक्तों की है खबर,
धूमिल से हो चले, उन कदमों के निशान,
गहराते इस रात का, न कोई विहान,
न ही कोई साथ में!

फिक्र, उनकी ही फिर भी.....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday, 10 January 2022

इक जाम

जाने, ज़िन्दगी की, कब शाम हो जाए,
चलो ना, इक जाम हो जाए!

छलकने लगी हैं, किरणें सुबह की, नदी पर,
हँसने लगी, कुछ सजने लगी, जिन्दगी,
बादलों की ओट से, कुछ कहने लगी रौशनी,
सो चुका, अब अंधेरा,
छँट चला, निराशाओं का वो पहर,
दोपहर की धूप तक, बातें तमाम हो जाए,
चलो, इक जाम हो जाए!

सुन जरा, कलकल बहती नदी ने क्या कहा,
बहती रही मैं, उन अंधेरों के मध्य भी,
मचलकर, गाती रही, राह के ठोकरों संग भी,
निरन्तर, प्रवाह मेरा,
ले ही आया, आशाओं का शहर,
पहले, उन पर्वतों को इक सलाम हो जाए,
चलो, इक जाम हो जाए!

सुख-दुख तो हैं, दो किनारे इस ज़िन्दगी के,
बेफिकर, बस गीत गा तू बन्दगी के,
दोनों तरफ, छोड़ जाती इक निशानी जिंदगी,
रख कर, इक सवेरा,
देकर, उम्मीदों का ये नव-सफर,
कहती, फिर, सुहानी इक शाम हो जाए,
चलो, इक जाम हो जाए!

जाने, ज़िन्दगी की, कब शाम हो जाए,
चलो ना, इक जाम हो जाए!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 8 January 2022

अपनी ही धुन

बड़ा ही, संगदिल सा, ये काफिला,
अपनी ही धुन चला!

कोई रुख मोड़ दो, इस सफर का,
या छोड़ दो, ये काफिला,
पलकों तले, रुक ना जाए ये सफर,
खत्म हो सिलसिला!

अनसुने से, धड़कनों के, गीत कितने,
बाट जोहे, बैठे, मीत कितने,
किनारों पर, अनछुए से प्रशीत कितने,
उन सबको, पहले लूं बुला,
चले, फिर काफिला!

शायद, मुझको संजोए, यादों में कोई,
बैठी कहीं, ख्यालों में खोई,
बुलाए मुझको, हरपल सपनों में कोई,
मीत वो ही, कोई ढ़ूंढ़ ला,
बढ़े, फिर काफिला!

जरा मैं, समझ लूं, हवाओं के इशारे,
सुन लूं धड़कनों के गीत सारे,
गूंज कर वादियाँ, मुझको क्यूं पुकारे,
यूं, रह जाए न कोई गिला,
चले, फिर काफिला!

कोई रुख मोड़ दो, इस सफर का,
या छोड़ दो, ये काफिला,
कहीं अनमना, ना हो चले सफर,
खत्म हो सिलसिला!

बड़ा ही, संगदिल सा, ये काफिला,
अपनी ही धुन चला!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 9 July 2021

रुख मोड़ दो

कोई रुख मोड़ दो, इस सफर का,
या छोड़ दो, ये काफिला,
अनमना सा, हो चला, ये सिलसिला!

बेखबर, ये अनमना सा, अन्तहीन सफर,
हर तरफ, बस, एक ही मंज़र,
बेतहाशा भागते सब, पत्थरों के पथ पर,
परवाह, किसकी कौन करे?
पत्थरों से लोग हैं, वो जियें या मरे!
अनभिज्ञ सा, ये काफिला,
अपनी ही, पथ चला!

अनसुना कर चला, ये सफर, ये काफिला!

अनसुने से, धड़कनों के हैं, गीत कितने,
बाट जोहे, हैं बैठे, मीत कितने,
किनारों पर, अनछुए से प्रशीत कितने,
बेसुरे से, हो चले, संगीत सारे,
गूंज कर ये वादियाँ, किनको पुकारे!
संगदिल सा, ये काफिला,
अपनी ही, धुन चला!

कोई रुख मोड़ दो, इस सफर का,
या छोड़ दो, ये काफिला,
अनमना सा हो चला, ये सिलसिला!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 12 June 2021

प्रवाह में

उजली सी, राह में,
जिन्दगी के, इस प्रवाह में, 
बाकी रह गई,
इक अजनबी सी, 
चाह शायद!

है बेहद, अजीब सा मन!
हासिल है सब,
पर अजीज है, बस चाह वो,
है अजनबी,
पर है, खास वो,
दूर है,
पर है, पास वो,
ख्वाब है,
कर रहा, है बेताब वो,
कुछ फासलों से,
यूँ, गुजर चुके हैं, चाह शायद!

सफर में, साथ में,
वही तस्वीर लिए, हाथ में, 
बाकी रह गई,
इक अजनबी सी, 
चाह शायद!

मौन है वो, पर गौण नहीं!
ये तोलती है मन,
झकझोरकर, टटोलती है मन,
कभी, सुप्त वो,
है कभी, जीवन्त वो,
अन्तहीन सा,
प्रवाह, अनन्त वो,
आस-पास वो,
मन ही, किए वास वो,
कभी, आहटों से,
तोड़ती है मौन, चाह शायद!

ज्वलन्त रात में,
जलते वही हैं, चाह शायद!
बाकी रह गई,
कोई अजनबी सी,
चाह शायद!

अजनबी सी, इस राह में!
यूँ तो, मिला था,
कई अजनबी सी, चाह से,
कुछ, प्रबल हुए,
कुछ, बदल से गए,
कुछ, गुम हुए,
कुछ, पीछे ही पड़े,
रूबरू हो कर,
इस राह में,
कई अलविदा, कह गए,
अजनबी से कुछ,
अब भी बचे, चाह शायद!

मन की वादियों में,
वही ढूंढते हैं, राह शायद!
बाकी रह गई,
कोई अजनबी सी,
चाह शायद!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday, 7 June 2021

वो कौन था

वो, जाने कौन था, बड़ा ही मौन था!
पर, वो आँखें, कुछ बोलती थी!

शायद दूर था, उसकी आशाओं का घर!
बांध रखी थी, उम्मीदों की गठरियाँ,
और, ये सफर, काँटों भरा....
राहों में, वो ही कहीं, अब गौण था!
बड़ा ही मौन था!

शायद, धू-धू, सुलग रही थी, आग इक!
जल चुके थे, सारे सपनों के शहर,
और, धुँआ सा, उठता हुआ.....
उस धुँध में, खुद कहीं वो गौण था!
बड़ा ही मौन था!

शायद था थका, हताश अब भी न था!
वो इक परिंदा, था उम्मीदों से बंधा,
और, नीलाभ, तकता हुआ....
आकाश में, खुद कहीं वो गौण था!
बड़ा ही मौन था!

वो, जाने कौन था, बड़ा ही मौन था!
पर, वो आँखें, कुछ बोलती थी!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 12 May 2021

उनका ख्याल

समेट लूँ, उनका ख्याल कैसे....

समेट ले, कोई कैसे समुन्दर,
रोक लें कैसे, आती-जाती सी चंचल लहर,
दग्ध सा, मैं इक विरान किनारा,
उन्हीं लहरों से हारा!

समेट लूँ, उनका ख्याल कैसे....

यूँ तो रहे संग, सदियों मगर,
ज्यूँ, झौंके पवन के, बस गुजरते हों छूकर,
थका, मुग्ध सा, मैं तन्हा बंजारा,
उन्ही, झौकों से हारा!

समेट लूँ, उनका ख्याल कैसे....

अनगिनत, सितारे गगन पर,
चल दिए चाँद संग, इक सुनहरे सफर पर,
तकूँ, दुग्ध सा, मैं छलका नजारा,
उन्हीं नजारों से हारा!

समेट लूँ, उनका ख्याल कैसे....

कोई कैसे, समेट ले ये सफर,
गुजरती है, इक याद संग, जो इक उम्र भर,
स्निग्ध सा, मैं उस क्षण का मारा,
उन्हीं ख्यालों से हारा!

समेट लूँ, उनका ख्याल कैसे....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 13 April 2021

गैर लगे मन

दूर कहीं, तुम हो,
जैसे, चाँद कहीं, सफर में गुम हो!

गैर लगे, अपना ही मन,
हारे, हर क्षण,
बिसारे, राह निहारे,
करे क्या!
देखे, रुक-रुक वो!

दूर कहीं, तुम हो,
जैसे, चाँद कहीं, सफर में गुम हो!

तन्हा पल, काटे न कटे,
जागे, नैन थके,
भटके, रैन गुजारे,
करे क्या!
ताके, तेरा पथ वो!

दूर कहीं, तुम हो,
जैसे, चाँद कहीं, सफर में गुम हो!

इक बेचारा, तन्हा तारा,
गगन से, हारा,
पराया, जग सारा,
करे क्या! 
जागे, गुम-सुम वो!

दूर कहीं, तुम हो,
जैसे, चाँद कहीं, सफर में गुम हो!

संग-संग, तुम होते गर,
तन्हा ये अंबर,
रचा लेते, स्वयंवर,
करे क्या!
हारे, खुद से वो!

दूर कहीं, तुम हो,
जैसे, चाँद कहीं, सफर में गुम हो!


- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 11 April 2021

सफर

अंजान सी, राह ये, सफर अंजाना,
बस, चले जा रहे, बेखबर इन रास्तों पर,
दो घड़ी, कहाँ रुक गए!
कदम, दो चार पल, कहाँ थम गए!
ये किसने जाना!

जाना किधर, ये है किसको खबर,
कोई रह-गुजर, रोक ले, ये बाहें थामकर,
खोकर नेह में, रुक गए,
किसी की, स्नेह में, कहाँ झुक गए!
ये किसने जाना!

रोकती है राहें, छाँव, ये सर्द आहें,
पर जाना है मुझको, तू कितना भी चाहे,
भले हम, छाँव में सो गए,
यूँ कहीं ठहराव में, पल भर खो गए!
ये किसने जाना!

कोई पल न जाने, भिगो दे कहाँ, 
ये अँसुअन सी, नदी, ये बहता सा, शमाँ,
विह्वल, जो ये पल हो गए,
इक मझधार में, जाने कहाँ खो गए!
ये किसने जाना!
अंजान सी, राह ये, सफर अंजाना,
बस, चले जा रहे, बेखबर इन रास्तों पर,
दो घड़ी, कहाँ रुक गए!
कदम, दो चार पल, कहाँ थम गए!
ये किसने जाना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 28 August 2020

जिन्दगी

कुछ बारिश ही, बरसी थी ज्यादा!
भींगे थे, ऊड़ते सपनों के पर,
ऊँचे से, आसमां पर!
यूँ तो, हर तरफ, फैली थी विरानियाँ!
वियावान डगर, सूना सफर,
धूल से, उड़ते स्वप्न!

क॔पित था जरा, मन का ये शिला!
न था अनावृष्टि से अब गिला,
जागे थे, सारे सपन!
यूँ थी ये हकीकत, रहते ये कब तक!
क्या अतिवृष्टि हो तब तक?
क्षणिक थे वो राहत!

खिले हैं फूल तो, खिलेंगे शूल भी!
अंश भाग्य के, देंगे दंश भी,
प्रकृति के, ये क्रम!
यूँ अपनों में हम, यूँ अपनों का गम!
टूटते-छूटते, कितने अवलम्ब!
काल के, ये भ्रम!

राह अनवरत, चलती है ये सफर!
बिना रुके, चल तू राह पर,
कर न, तू फिकर!
तू कर ले कल्पना, बना ले अल्पना!
है ये जिन्दगी, इक साधना,
सत्य तू ये धारणा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 9 April 2020

दिशाहीन सफर

कर चुके बहुत, दिशाहीन सा ये सफर!

कम थे, बहुतेरे, सफर के सवेरे,
दिन के उजालों में, गहन मन के अंधेरे,
ठहरे समुन्दरों में, लहरों के थपेरे,
मुस्कुराहटों में, समाया डर,
चह-चहाहटों के, बेसुरे से होते स्वर,
खुशी की आहटों से, हैं बेखबर,
न थी सूनी, इतनी ये सफर!

चल चुके बहुत, अन्तहीन सा ये सफर!

होती रही, शून्य सी, चेतनाएँ,
हैं प्रभावी, काम, मोह, मद, लालसाएँ,
हैं, फिजाओं में घुली, वासनाएँ,
प्रगति के, ये कैसे हैं चरण?
छलते है जहाँ, मनुष्य के आचरण,
हैं राहें कर्म की, बातों से इतर,
दिशाहीन, कैसी ये सफर!

कर चुके बहुत, दिशाहीन सा ये सफर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 3 November 2019

पराई साँस

मन-मर्जी ये साँस की, वो चले या रुके!

हूँ सफर में, साँसों के शहर में!
इक, पराए से घर में!
पराई साँस है, जिन्दगी के दो-पहर में!
चल रहा हूँ, जैसे बे-सहारा,
दो साँसों का मारा,
पर भला, कब कहा, मैंने इसे!
तू साथ चल!

मन-मर्जी ये साँस की, वो चले या रुके!

बुलाऊँ क्यूँ, उसको सफर में!
अंजाने, इस डगर में!
पराया देह है, क्यूँ परूँ मैं इस नेह में!
बंध दो पल का, ये हमारा,
दो पल का नजारा,
टोक कर, कब कहा, मैने उसे,
तू साथ चल!

मन-मर्जी ये साँस की, वो चले या रुके!

चले वो, अपनी मर्जी के तले!
इक, अपनी ही धुन में!
अकारण प्रेम, पनपाता है वो मन में!
हूँ इस सफर का, मैं बंजारा,
दे रहा ये मौत पहरा,
इस प्रवाह को, मैने कब कहा,
तू साथ चल!

मन-मर्जी ये साँस की, वो चले या रुके!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Saturday, 7 September 2019

ठहरे क्षणों में

मिल जाऊँगा मैं, सफर के उसी मोड़ पर,
जिन्दगी के, उस दूसरे से छोड़ पर,
देखना तुम मुझे, बस राह थोड़ी मोड़ कर!

व्यस्त से क्षणों में, तमाम उलझनों में,
मुझको, भूल तो जाओगे तुम,
और कहीं, विलीन हो जाएंगे हम,
यादों के, इन मिटते घनों में,
उभर आएं, कभी गर टीस बनकर हम,
उकेरना फिर, तुम उन बादलों को,
मुड़ कर, पुकार लेना,
तार संवेदनाओं के, जरा सा जोड़ कर!

मिल जाऊँगा मैं, सफर के उसी मोड़ पर,
जिन्दगी के, उस दूसरे से छोड़ पर,
देखना तुम मुझे, बस राह थोड़ी मोड़ कर!

भूले-बिसरे क्षणों में, झांकता है कौन?
फुर्सत किसे है, ताकता है कौन?
सोच पर गिर जाते हैं, भरम के पर्दे!
पर मांगता हूँ, मैं वो ही यादें,
ठहर जाएँ, कहीं गर संवाद बन के हम,
कुरेदना फिर, तुम उन्हीं क्षणों को,
ठहर कर, पुकार लेना,
तार संवेदनाओं के, जरा सा जोड़ कर!

मिल जाऊँगा मैं, सफर के उसी मोड़ पर,
जिन्दगी के, उस दूसरे से छोड़ पर,
देखना तुम मुझे, बस राह थोड़ी मोड़ कर!

ठहरे क्षणों में, मैं रुका हूँ उन्ही वनों में,
गुम हैं जहाँ, जीवंत से कहकहे,
पर संग है मेरे, लम्हे कई बिखरे हुए,
लट घटाओं के, सँवरे हुए,
बरस जाएँ, कभी ये घटाएँ बूँदें बनकर,
घेर ले कभी, तुम्हें सदाएं बनकर,
भीग कर, पुकार लेना,
तार संवेदनाओं के, जरा सा जोड़ कर!

मिल जाऊँगा मैं, सफर के उसी मोड़ पर,
जिन्दगी के, उस दूसरे से छोड़ पर,
देखना तुम मुझे, बस राह थोड़ी मोड़ कर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Wednesday, 28 March 2018

भावनाओं के भँवर

ये आकर फसे हैं हम कहाँ.......
भावनाओं के भँवर में,
यातनाओं के इस सफर में,
रात मे या दोपहर में....

खुश कितने ही थे हम यहाँ......
प्रस्फुटित हुई जब भावना,
मोह वही दे रही ये प्रताड़ना,
मन के इस खंडहर में.....

कलपते रहे जब तक यहाँ......
पुलकित हुई ये भावना,
सैलाब है अब आँसुओं का,
हम फसे उसी भँवर में......

यातनाओं का ये कहर यहाँ....
देती रहेगी ये भावना,
मुखरित होती है ये और भी,
विछोह हो जब सफर मे......

ये विदाई के तमाम पल यहाँ....
भावनाए होती है जवाँ,
तब विलखते हैं हम यातना में,
खुशियों के इसी शहर में....

ये आकर फसे हैं हम कहाँ.......
भावनाओं के भँवर में,
यातनाओं के इस सफर में,
रात मे या दोपहर में....

Tuesday, 6 March 2018

इक परिक्रमा

कुछ वादों के इर्द-गिर्द, परिक्रमा करती ये जिन्दगी...

है कई सवाल, पर जवाब एक ही!
कई रास्तों पर सफर, बसर है बस वहीं!
थक गए अगर, मुड़ गए कदम वहीं,
नींद में, नाम वही लेती जिन्दगी!
अविराम परिक्रमा सी, ये इक बन्दगी!

कुछ वादों के इर्द-गिर्द, परिक्रमा करती ये जिन्दगी...

सौ-सौ शिकवे, शिकायतें उनसे ही,
मुहब्बत की हजारों, रवायतें उनसे ही,
हकीकत में ढलती, रवानी वही!
परिक्रमा करती, इक कहानी वहीं,
अहद-ए-वफा निभाती, ये इक बन्दगी!

कुछ वादों के इर्द-गिर्द, परिक्रमा करती ये जिन्दगी...

इक छोर है यहाँ, दूजा छोर कहीं
विश्वास के डोर की, बस धूरी है वही,
उसी धूरी के गिर्द, ये परिक्रमा,
ज्यूं तारों संग, नभ पर वो चन्द्रमा!
कोई प्रेमाकाश बनाती, ये इक बन्दगी!

कुछ वादों के इर्द-गिर्द, परिक्रमा करती ये जिन्दगी...

Thursday, 2 November 2017

हमसफर

इस राह की सफर के ऐ मेरे हमसफर,
ना खत्म हो कभी ये सफर, यूँ ही उम्र भर।

राह में गर काँटे तुमको मिले अगर,
शूल पथ में हो हजार, बिछे हों राह में पत्थर,
तुम राहों में चलना दामन मेरा थामकर,
खिल आएंगे काँटों में फूल, साथ तुम दो अगर।

इस राह की सफर के ऐ मेरे हमसफर,
ना खत्म हो कभी ये सफर, यूँ ही उम्र भर।

हो राहों में गर कहीं अंधेरा घना सा,
गर कोहरों में कहीं गुम हो जाए ये रास्ता,
ये दामन भरोसे से तुम थामे रखना,
जल उठेंगे सौ दिए, इन अंधेरों को चीरकर।

इस राह की सफर के ऐ मेरे हमसफर,
ना खत्म हो कभी ये सफर, यूँ ही उम्र भर।

हो कहीं, छोटा सा इक आशियाँ,
बसाएंगे वहीं अपना, हम सपनों का जहाँ,
बिछड़े ना कभी हम ऐ मेरे हमनवाँ,
आँगन में बस गूंजे खुशी, हो न गम का बसर।

इस राह की सफर के ऐ मेरे हमसफर,
ना खत्म हो कभी ये सफर, यूँ ही उम्र भर।

Tuesday, 27 September 2016

सफर

अंजाने से इस सफर की,
कौन जाने अनिश्चित सी मंजिल है किधर,
भीड़ मे जीवन के सफर की,
क्युँ तन्हा सा उपेक्षित ये मन है इधर,
फुर्सत किसे, सुने कौन किसी की,
चल रहे हम इस सफर में, पत्धरों का है ये शहर।

तलाश में सब मंजिलों की,
न कोई है यहाँ पर किसी का हमसफर,
सफर में हैं सबकी साँसें थकी,
ये रास्ते न जाने हमको लिए जा रहे हैं किधर,
थिरकते हैं हम, यहाँ धुन पर किसी की,
अंजाना सा इक शक्ल, तलाशती हैं सबकी नजर।

पड़ाव कैसी है यह उम्र की,
अभी अधूरा सा लगता है क्यूँ ये सफर,
लिए हसरतें निगाहें यार की,
ढूंढता है दिल हरपल बस वही इक नजर,
इन्तहाँ हो चुकी, अब तो तलाश की,
तन्हा ये सफर, काट लेंगे हम जीवन के रास्तों पर।

Thursday, 2 June 2016

चाहत की जिन्दगी

मुस्कुराहटों में गीत सी बजती है जिन्दगी,
उन नर्म होठों पे खिल के जब बिखरती है वो हँसी,
खिलखिलाहट में है उनकी नग्मों की रवानगी,
उन सुरमई आँखों में खुद ही कहीं तैरती है जिन्दगी।

दूरियों के एहसास अब दिलाती है जिन्दगी,
जेहन में अब तो बार-बार फिर उभरती है वो हँसी,
सजदा किए थे हमने जिन किनारों के कहीं,
कगार-ए-एहसास फिर वही अब मांगती है जिन्दगी।

बेकरारियों के दिए फिर जलाती है जिन्दगी,
कानों में इक आवाज सी बन के गूँजती है वो हँसी,
साज धड़कनों के मचल बज उठे फिर कहीं,
चाहतों का इक रंगीन सफर फिर चाहती है जिन्दगी।

Tuesday, 10 May 2016

रफ्ता रफ्ता वजूद

रफ्ता रफ्ता खो चुके हैं इस जहाँ की भीड़ में हम!

गुजर चुके है यहाँ कई महफिलों से हम,
खुद का पता ही कहीं अब भूल चुके हैं हम,
यूँ सफर तमाम कट गई है रफ्ता रफ्ता,
अब खुद का ही वजूद ढूंढ़ने में लगे हैं हम।

बड़ी ही हसीन शाम महफिलों के मगर,
अब दिल है मेरा खोया हुआ न जाने किधर,
यूँ वक्त तमाम कट गई हैं रफ्ता रफ्ता,
अब इस दिल का वजूद ढूंढ़ने में लगे हैं हम।

ये महफिलें है फकत यहाँ बेकाम की,
दिल की राहों से यहाँ दूर अब हो चले हैं हम,
यूँ उम्र तमाम कट गई है रफ्ता रफ्ता,
अब जिन्दगी का ही वजूद ढूंढ़ने में लगे हैं हम।

रफ्ता रफ्ता गुजर रहे हैं इन अंजान राहों से हम!