Wednesday, 1 October 2025

अनुरूप

मन चाहे, अनुरूप तेरे ढ़ल जाऊं, 
और, गीत वही दोहराऊं!

इक मैं ही हूं, जब तेरी हर आशाओं में,
मूरत मेरी ही सजती, जब, तेरे मन की गांवों में,
भिन्न भला, तुझसे कैसे रह पाऊं,
क्यूं और कहीं, ठाव बसाऊं!

मन चाहे, अनुरूप तेरे ढ़ल जाऊं...

सपने, जो तुम बुनती हो मुझको लेकर,
रंग नए नित भरती हो, इस मन की चौखट पर,
हृदय, उस धड़कन की बन जाऊं,
कहीं दूर भला, कैसे रह पाऊं!

मन चाहे, अनुरूप तेरे ढ़ल जाऊं...

बहती, छल-छल, तेरे नैनों की, सरिता,
गढ़ती, पल-पल, छलकी सी अनबुझ कविता,
यूं कल-कल, सरिता में बह जाऊं,
कविता, नित वो ही दोहराऊं!

मन चाहे, अनुरूप तेरे ढ़ल जाऊं...

मुझ बिन, अधूरी सी, है तेरी हर बात, 
अधूरी सी, हर तस्वीर, अधूरे, तेरे हर जज्बात,
संग कहीं, जज्बातों में, बह जाऊं,
संग उन तस्वीरों में ढल जाऊं!

मन चाहे, अनुरूप तेरे ढ़ल जाऊं...
और, गीत वही दोहराऊं!

Thursday, 25 September 2025

व्यतीत

अतीत बन, ढ़ला जाता हूं....

व्यतीत, हुआ जाता हूं, पल-पल,
अतीत, हुआ जाता हूं,
फलक पर, उगता था, तारों सा रातों में,
कल तक था, सबकी आंखों में,
अब, प्रतीत हुआ जाता हूं! 

अतीत बन, ढ़ला जाता हूं....

कल, ये परछाईं भी संग छोड़ेगी,
हर पहलू मुंह मोड़ेगी,
सायों सा संग था, खनकता वो कल था,
सर्दीली राहों में, वो संबल था,
अब, प्रशीत हुआ जाता हूं!

अतीत बन, ढ़ला जाता हूं....

जाते लम्हे, फिर लौट ना आयेंगे,
कैसे अतीत लौटाएंगे,
लम्हे जो जीवंत थे, लगते वो अनन्त थे,
अंत वहीं, वो उस पल का था,
इक गीत सा ढ़ला जाता हूं!

अतीत बन, ढ़ला जाता हूं....

छिन जाएंगे, शेष बचे ये पहचान,
होगी शक्ल ये अंजान,
आ घेरेंगी शिकन, शख्त हो चलेंगे पहरे,
कल तक, धड़कन में कंपन था,
अब, प्रतीक बना जाता हूं!

अतीत बन, ढ़ला जाता हूं....

क्षण, ज्यूं क्षणभंगुर, हुआ व्यतीत,
क्षण यूं ही बना अतीत,
फलक पर, वो तारा ही कल ओझल हो,
ये आंखें सबकी भी बोझिल हों,
यूंही, प्रतीत हुआ जाता हूं! 

अतीत बन, ढ़ला जाता हूं....

Sunday, 21 September 2025

अचानक

न रोकिए, अचानक ही होने दीजिए!

धुआं, खुद ही छट जाएगा,
हट जायेगा, धुंध, 
रख कर, खुद को अलग,
इस आग को, होने दीजिए, स्वतः सुलग,
फूटेगी इक रोशनी,
अचानक ही, सब होगा स्पष्ट...

न रोकिए, अचानक ही होने दीजिए! 

स्वतः, जम जाते हैं कोहरे,
कोहरों का क्या?
उमड़ते रहते हैं ये बादल,
बूंदें स्वतः ही संघनित होती है हवाओं में,
सुलगेगी जब आग,
अचानक ही, सब होगा स्पष्ट...

न रोकिए, अचानक ही होने दीजिए! 

धुंधली ना हो जाए यकीन, 
जरा दो भींगने,
विश्वास की सूखी जमीं,
बरसने दो बादलों को, हट जाने दो नमीं,
उभरने दो आकाश,
अचानक ही, सब होगा स्पष्ट...

न रोकिए, अचानक ही होने दीजिए! 

कभी, मन को भी कुरेदिए,
ये परतें उकेरिए,
दबी मिलेंगी, कई चाहतें,
उभर ही उठेंगी, कोमल पलों की आहटें,
बज उठेगा संगीत,
अचानक ही, सब होगा स्पष्ट...

न रोकिए, अचानक ही होने दीजिए! 

Monday, 8 September 2025

चुप जो हुए तुम

चुप जो हो गए, तुम...
खो गए रास्ते, शब्द वो अनकहे हो गए गुम!

रही अधूरी ही, बातें कई,
पलकें खुली, गुजरी न रातें कई,
मन ही रही, मन की कही,
बुनकर, एक खामोशी,
छोड़ गए तुम!

चुप जो हो गए, तुम...
खो गए रास्ते, शब्द वो अनकहे हो गए गुम!

पंछी, करे क्या कलरव!
तन्हा, उन शब्दों को कौन दे रव!
ढ़ले अब, एकाकी ये शब,
चुनकर, रास्ते अलग,
गुम हुए तुम!

चुप जो हो गए, तुम...
खो गए रास्ते, शब्द वो अनकहे हो गए गुम!

शायद, मिल भी जाओ!
हैं जो बातें अधूरी, फिर सुनाओ!
फिर, ये चूड़ियाँ खनकाओ,
यहीं, रख कर जिन्हें,
भूल गए तुम!

चुप जो हो गए, तुम...
खो गए रास्ते, शब्द वो अनकहे हो गए गुम!

Saturday, 6 September 2025

शुक्रिया पाठकगण - 500000 + Pageview

500000 (+) पेज व्यू - शुक्रिया पाठकगण


माननीय पाठकगण,

अब तक 500000 (पांच लाख) से अधिक PAGEVIEW देकर सतत लेखन हेतु प्रेरित करने के लिए कविता "जीवन कलश" के समस्त पाठक-गणों का शुक्रिया व अभिवादन।

कामना है कि जीवन एक यात्रा के समान आपके साथ यूं ही बीतता रहे....
हमारे इस ब्लॉग पर बारंबार पधारने और आपकी बहुमूल्य प्रतिक्रिया देने हेतु हार्दिक आभार।  आपके सतत् सहयोग, उत्साहवर्धन व प्रेरणा के बिना यह संभव न हो पाता।

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आभार - REFERRING SITES






समस्त Referring साइट्स एवं विश्व भर के पाठकों का अभिवादन।।।।

कोटिशः धन्यवाद, नमन व आभार।

Thursday, 4 September 2025

आत्मश्लाघा

कर, स्मृतियों को, आत्म-साथ, 
मुग्ध होते थे, पल सारे,
कुंठित मन, अब इन विस्मृतियों से हारे,
हुई स्याह, वो, गलियां!

शायद, धूमिल हो रही स्मृतियाँ,
पसर गईं, स्याह परतें,
मुकर गई, स्मृतियों में लिपटी वो गलियां,
बिखर गई, विस्मृतियाँ!

खुल कर, बिखरे, बुने जो धागे,
नैन उनींदें, अब जागे,
बिखरती, आत्मश्लाघा में पिरोई लड़ियां,
पसरती, ये विस्मृतियाँ!

अब उलझाता, मन को, ये द्वंद्व,
बोझिल सा, हर छंद,
उकेर दूं स्याह परतें, उकेरूँ विस्मृतियाँ,
उकेर दूं, विसंगतियां!

शायद, पुनः, मुखर हो स्मृतियाँ,
आत्मश्लाघित दुनियां,
पुनः कर पाऊं, आत्म-साथ उन को ही,
पुनः रौशन हो गलियां!

Monday, 1 September 2025

अनवरत प्रवाह

अनवरत प्रवाह को, कब किसी ने कहा,
तू साथ चल!

है जीवन, तो है ये चंचलता,
शाश्वत है, जीवंतता,
खुद को ये बुनता,
स्वतः ही, उठता इक लहर सा,
स्वयं, प्रवाह बन चलता,
उफनती मझधार में,
ये ही संबल!

अनवरत प्रवाह को, कब किसी ने कहा,
तू साथ चल!

गुदगुदाती, बहती ये पवन,
यूं, रोक लेते कदम,
यूं, छू लेते बदन,
सरकती, यूं जमीं कदमों तले,
सोए, एहसासों को लगे,
ज्यूं, संग कोई चले,
और दे संबल!

अनवरत प्रवाह को, कब किसी ने कहा,
तू साथ चल!

बिन पूछे, उभर आते रंग,
खींच ले जाते, संग,
वो चटकते अंग,
लहराती, झूमती सी ये वादियां,
मुखर होती ये कलियां,
पंछियों के कलरव,
मीठे हलचल!

अनवरत प्रवाह को, कब किसी ने कहा,
तू साथ चल!

Wednesday, 27 August 2025

अब जो हुआ


अब जो हुआ, अब न वो फिर होगा....

इन संवेदनाओं को अब, सहेजना होगा,
ढ़ाल कर, कहीं चेतनाओं में,
मूर्त कल्पनाओं में,
भरकर अल्पनाओं में, रखना होगा!

अब जो हुआ, अब न वो फिर होगा....

पल जो हुए कल, रुलाएंगी वो ही कल,
जागते वो ही पल, होंगे मूर्त,
जगाएंगे, व्यर्थ में,
अब जो हैं ये पल, उन्हें सीना होगा!

अब जो हुआ, अब न वो फिर होगा....

अब बिंब हो उठी हैं, समस्त असंवेदना,
सुसुप्त सी हो चली, चेतना,
सहेजे, कौन भला,
अब जो ढ़ल रहा, ये पल न रुकेगा!

अब जो हुआ, अब न वो फिर होगा....

बिखेरेंगे न ये रंग, वेदनाओं के आंगन,
दोहराएंगे, न ये गीत कोई,
अनसुना, सब कहा,
लौट कर, फिर न अब दोहराएगा!

अब जो हुआ, अब न वो फिर होगा....

Tuesday, 19 August 2025

शुक्र है...

शुक्र है, चलो, आए तो तुम!

यूं तो, लगता था,
तृण-विहीन सा है, तेरे एहसासों का वन,
बंजर सा मन,
लताएं, उग ही न पाते हों जिन पर,
जमीं ऐसी कोई!
पर, शुक्र है, उग तो आए एहसास,
इस राह में, 
इक बहार बन, छाए तो तुम!

शुक्र है, चलो, आए तो तुम!

यूं, बोल पड़ी, सदी,
जग उठी, दफ्न हो चली, कहानियां कई,
संघनित हो बूंदें, 
बिखर गईं, ठूंठ हो चली शाख पर,
झूमती पात पर,
बहक उठे, फिर वो सारे जज्बात,
इक एहसास,
या ख्याल बन, छाए तो तुम!

शुक्र है, चलो, आए तो तुम!

यूं दे गया, फिर कोई सदा,
ज्यूं अचानक ही मिला, मंजिलों का पता,
पुकारती, दो बाहें,
यूं, प्रशस्त कर गई, विलुप्त सी राहें,
उभरी, वही नदी,
समेट चली थी जो, सदियां कई,
इस धुंध में,
इक सदा बन, छाए तो तुम!

शुक्र है, चलो, आए तो तुम!

Thursday, 14 August 2025

ताना

कभी-कभी, खुल जाते वक्त के तहखाने...

यूं ही, छिड़ जाते, बिसरे कई तराने,
शिकायतें अनगिनत पलों के, अंतहीन से ताने,
कर भी ना पाऊं, अब उनको अनसुना,
समझ भी न पाऊं, क्यूं उसने बूना!

उधेड़-बुन इक, फिर, बुनता ये मन,
वक्त के, किस पहलू से, थी मेरी क्या अनबन!
छूआ ही कब, मैने, संवेदनाओं के तार,
बीते वो पल, हैं क्यूं इतने बेजार!

अनकही, रह गई मेरी ही अनसुनी,
शिकायतें, एकाकी से, इस मन की ही थी दूनी,
शब्दहीन ही रह गए थे, वो शिकवा सारे,
गवाह अब भी, वो गगन के तारे!

ठहरे कुछ पल, चुभ जाते कांटों से,
बनकर कुछ बूंदें, जब-तब, बह आते आंखों से,
चलता कब वश, जब करते वो बेवश,
खींच ले जाते, उसी ओर बरवस!

मन कब चाहे, फिर, उस ओर जाना,
कंपित-गुंजित पल में, जी कब चाहे, मर जाना,
ठहरा, इक दरिया सा, पर वो ही पल,
संग रहता, एक साया सा हरपल!

काश! दफन हो जाते, सारे अफसाने,
फिर कभी ना खुलते, वक्त के वो बंद तहखाने,
संतप्त रह पाती, सोई मेरी संवेदना,
उधेड़-बुन, न बुनती कोई वेदना!

कभी-कभी, खुल जाते वक्त के तहखाने...

Sunday, 10 August 2025

छल

क्षण भर जो भाया, उस क्षण ही मन जी पाया,
पाने को तो, जीवन भर कितना पाया,
शेष क्षण, बस सूना ही पाया!

गुंजन, कंपन, सिहरन, तड़पन भरा वो आंगन,
सुने क्षण में, विरह भरा वो आलिंगन, 
कितना कुछ, मन भर लाया!

ये दामन, कितना भरा-भरा, हर ओर हरा-हरा,
नैनों में, अब भी, सावन सा नीर भरा,
शायद, वो ही क्षण गहराया!

जो छलता ना वो क्षण, यूं पिघलता ना ये क्षण,
न जलता ये मन, न होता धुआं-धुआं,
न होता, एकाकी इक छाया!

आकुल ही रहा, व्याकुल भटकता ये आकाश,
लिए हल पल, अबुझ बूंदों की प्यास,
वहीं, क्षितिज पर उतर आया!

क्षण वो ही इक भाया, उस क्षण ने ही तड़पाया,
रंग, उस क्षितिज का, जब भी गहराया,
नैनों में, वो क्षण उभर आया!

क्षण भर जो भाया, उस क्षण ही मन जी पाया,
पाने को तो, जीवन भर कितना पाया,
शेष क्षण, बस सूना ही पाया!

Monday, 4 August 2025

मां

कौन सा वो जहां, वो कौन सी क्षितिज,
खोई मां कहां?

जली, इक चिता,
उस रोज, भस्मीभूत हुई थी वो काया,
उठ चला,
मां का, सरमाया!

पर, बिंबित रही,
नैनों में अंकित, करुणामय रूप वही,
पास सदा,
उसका ही, साया!

शेष, बचे वे स्पर्श,
सारे संदर्भ, सारे सारगर्भित आदर्श,
प्राण अंश,
देती, इक छाया!

पर वे शब्द कहां,
नि:स्तब्ध करते, निश्छल वे नैन कहां,
लुप्त हुआ,
जो भी था पाया!

एकाकी, थी वो,
झेले पति-प्रलाप, सहे दंश सदियों,
वही दुख,
बांट, न पाया!

ले भी ना सका,
ममता के, सुखमय अंतिम वे क्षण,
न सानिध्य,
ही, निभा पाया!

वक्त ही, रूठा,
छांव मेरा, वक्त ने ही, मुझसे लूटा,
सोचूं बैठा,
मंदिर, क्यूं टूटा!

दो पल ही सही, 
ले चल मुझे ओ गगन,ओ क्षितिज,
देखूं जरा,
है कैसी मां वहां!

कौन सा वो जहां, वो कौन सी क्षितिज,
खोई मां कहां?

Sunday, 3 August 2025

जीवन-शंख

गूंज उठी, कहीं इक शंख,
बिखेर गई, हवाओं में अनगिनत तरंग,
उठा, मृत-मन में,  उन्माद सा,
जागी, तन में, इक सिहरन,
जागे, मृत-प्राण,
इक, नव-जीवन का उन्वान!

जीवन, ज्यूं विहीन पंख,
हर ओर धुआं, विलीन राहें, मन-मलंग,
इक गुंजन का, विस्तार उठा,
पंख लिए, ये प्राण उठा,
इक, नव-विहान,
महकी पवन, चहका प्राण!

मृत सी, लगती वो शंख,
पर सिमेटे, विस्तृत, विविध, रंग-उमंग,
अन्तस्थ, अनंत जीवन-शय,
अन्तः, गाता इक हृदय,
जागा, इक प्राण,
सोए, हर मन का विहान!

कुछ हम गूंजे, शंख सा,
तुम दो, खाली पन्नों को, इक रंग सा,
भर दो, वादी में इक लय,
सुने क्षण में इक सुर,
वाणी में, तान,
नव-आशा का, उत्थान!

Tuesday, 20 May 2025

India - From Anonymous


INDIA!!!!!!!

The world doesn’t know what to do with India.
We don’t fit their neat little boxes. We’re not white.
We’re not monotheistic.
We’re not ex-colonizers or submissive ex-colonized.
We are something they can’t decode.

We are too many things at once—ancient and modern, spiritual and scientific, emotional and logical.
We believe in gods and particles, karma and quantum.
We’re chaos that somehow moves forward.
That bothers them.

Because we aren’t supposed to succeed.

We don’t speak with one voice. We speak in thousands.
Our system isn’t clean. It’s noisy. It debates. It screams. But it works—because we’ve lived through worse and survived.
When we rise, they frown.
When we achieve, they doubt.
Because they still see us the way they chose to see us long ago—untrained, uncouth, and scattered.

But we’ve always known how to turn our mess into movement.
They don’t get that a billion people don’t need a single script.
They fear our success because it didn’t come from their textbooks, their aid, or their approval.

We remember being ruled, but we were never truly conquered.
We adapted, absorbed, transformed—but never disappeared.
And that is unsettling for those who thought we would.

India rising doesn’t fit their world order.
Because we didn’t wait for permission.
We didn’t rise from imitation—we rose from memory, from contradiction, from sheer force of will.

And that’s why they don’t celebrate our rise.
They resist it.
Because it wasn’t supposed to happen.

- From Someone Unknown 
  (An Indian)

Monday, 17 March 2025

घुलते पल

सिमटा सा, लगता ये पल,
हो उठता मन, विकल,
विलंबित होते पल, गूंजे हर पल,
आलाप, उस पल का, 
ठहरा-ठहरा सा!

विस्तार लेता, समय का आंगन,
आतुर हो, थामे हर दामन,
फिक्र कहां, देखें लम्हों को मुड़ कर,
क्या बीती, किसके मन पर,
बह जाए, इन्हीं लहरों पर,
हर मंजर, 
रह जाए, बस कंकड़, 
बिखरा-बिखरा सा!

लगता ये पल, सिमटा सा,
किंतु, कंपित हर पल, 
अवलंबित हर पल, बीते पल पर,
मुखड़ा, हर इस पल का, 
टुकड़ा-टुकड़ा सा!

गुजरे वो कल, वो यादों के क्षण,
हर पल भिगोए, ये दामन,
जगाए कभी, नींद से झकझोर कर,
रख दें, टुकड़ों को जोड़कर,
उन्हीं लहरों को, मोड़कर,
लाए इधर,
भिगोए, जमीं ये बंजर,
रुखरा-रुखरा सा!

सिमटा सा, कहता ये पल,
चल, यादों से, निकल,
गुंजित वो पल, कर न दे विकल,
लम्हा, हर उस पल का, 
ठहरा-ठहरा सा!

Friday, 24 January 2025

माँ अब कहां

माँ सा, वो रूप अब कहां!
गुम हो चली, दृष्टि ममत्व भरी,
खामोश, वृष्टि सरस भरी,
इक कुनकुनी सी, 
वो, नर्म धूप अब कहां!

वो क्षितिज, खामोश सा,
अब ना, रंग कोई बिखराएगा,
गीत ना, कोई गाएगा,
खोई, मध्य कहीं उन तारों के,
सलोनी, वो रूप कहां!

गहरी है, कितनी ये रात,
जैसे, हर ओर, बिछी बिसात,
धुआं सा, हर तरफ,
प्रशस्त, कहां अब कोई पथ,
राहें, रौशन अब कहां!
हम, उन नैनों के तारे,
कौन दिशा, हम तुम्हें पुकारें,
अनसुनी, हर आवाज,
कौन सुने, टूटे मन के साज,
ममता की छांव कहां!

टटोल ले जो मन को,
पढ़ ले, इस अन्तःकरण को,
जान ले, सब अनकहा,
समझ ले, मन का हर गढा,
ऐसा कोई भान कहां!

जग देता ढ़ाढ़स झूठा,
मन कहता, मुझसे रब रूठा,
क्रूर बना, यह काल,
अनुत्तरित, मेरा हर सवाल,
वश में यह पल कहां!

वश चलता, छीन लेता,
इन हाथों से, पल बींध देता,
रख लेता, "माँ" को,
बदले में, सब कुछ दे देता,
पर ये, आसान कहां!

माँ सा, वो रूप अब कहां!
गुम हो चली, दृष्टि ममत्व भरी,
खामोश, वृष्टि सरस भरी,
इक कुनकुनी सी, 
वो, नर्म धूप अब कहां!

माँ को नमन.....