लगे वो अपने से, या वो, अपने ही थे!
या, थे वो सपने!
गूंथे वो एहसास, बींधे से ये साँस,
छलकी सी ये आँखें,
जागे ये पल, जागी सी रातें,
बंधा ये आस,
खाली ये पल, ऐसे ही तो न थे!
लगे वो अपने से, या वो, अपने ही थे!
या, थे वो सपने!
ये दूरियां, पर है वो हर पल यहां,
बंधता यादों का शमां,
फैलता गहराता घेरता धुआं,
नीला आसमां,
स्वप्निल ये पल, ऐसे ही तो न थे!
लगे वो अपने से, या वो, अपने ही थे!
या, थे वो सपने!
तोड़ते नीरवता, गूंजते उनके रव,
स्वत्व को छोड़ता स्व,
हर तरफ वो, उनसे ही हर शै,
ये अपनत्व,
बंधते ये पल, ऐसे ही तो न थे!
लगे वो अपने से, या वो, अपने ही थे!
या, थे वो सपने!
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 18 जुलाई 2024 को लिंक की जाएगी ....
ReplyDeletehttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
!
सुन्दर सृजन
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ReplyDelete"लगे वो अपने से, या वो, अपने ही थे!
या, थे वो सपने!" - एक सम्वेदनशील रचना .. पर .. अपना लगना, अपना होना, सपना होना .. सब के सब स्व मन से उपजे भाव हैं .. वैसे तो ये अपना शरीर भी अपना नहीं है .. यह भी कुछ वर्षों का सपना ही है .. फिर किसी सामने वाले से अपना होने जाने का उत्तम विचार एक भ्रम ही है .. शायद ...
ReplyDelete"लगे वो अपने से, या वो, अपने ही थे!
या, थे वो सपने!" - एक सम्वेदनशील रचना .. पर .. अपना लगना, अपना होना, सपना होना .. सब के सब स्व मन से उपजे भाव हैं .. वैसे तो ये अपना शरीर भी अपना नहीं है .. यह भी कुछ वर्षों का सपना ही है .. फिर किसी सामने वाले से अपना होने जाने का उत्तम विचार एक भ्रम ही है .. शायद ...
स्व से ही प्रकटता है संसार, इसलिए अपना सा लगता है
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