जुबां ये, बेजुबां सी हो चली...
अब तो जिंदगी, कैद सी लगने लगी,
अभी, इक खौफ से उबरे,
फिर, नई इक खौफ!
शेष कहने को है कितना, पर ये सपना!
सपनों तले, क्या उम्र ढ़ली!
जुबां ये, बेजुबां सी हो चली...
पहरे लगे हैं, साँसों की रफ्तार पर,
अवरुद्ध कैसी, सांसें यहाँ,
नया, ये खौफ कैसा!
इस खौफ की, अलग ही, पहचान अब!
पहरों तले, क्या उम्र ढ़ली!
जुबां ये, बेजुबां सी हो चली...
अलग सी ये दास्ताँ, इस दौर की,
बोझिल राह, हर भोर की,
खौफ में, सिमटे हुए,
गुजरते दिन की, अंधेरी सी, सांझ अब!
अंधेरों तले, क्या उम्र ढ़ली!
जुबां ये, बेजुबां सी हो चली...
चुपचाप, सिमटने लगी अब राहें,
बिन बात, अलग दो बाहें,
शून्य को, तकते नैन,
विवश हो एकांत जब, कहे क्या जुबां!
यूंही अकेले, क्या उम्र ढ़ली!
जुबां ये, बेजुबां सी हो चली...
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
------------------------------------------------------कोरोना - पार्ट 2....