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Sunday, 29 January 2023

छलकी बदरी


छलकी क्यूं बदरी,
इक बूंद गिरी, या दुःख की जलधि!
समझ सके ना हम!

भीगे सब पात, यूं जागी रात,
हुई सजल, हर बात,
क्या उपवन, क्या मरुवन सा ये आंगन!
नैन भिगोए, क्यूं दुल्हन!
कह ना सके हम!

अंतः थामे बरखा संग बिजली,
गोद लिए, चंचल बदरी,
भर लाते, मन के अन्दर, सागर कितने,
अंसुवन के, गागर कितने,
कह ना सके हम!

फैलाए, अंधियारा इक दामन,
गहराते, वो काले घन,
घबराते, या, छम-छम गीत कोई गाते,
व्याकुल, बदरा ही जाने,
कह ना सके हम!

छलकी क्यूं बदरी,
इक बूंद गिरी, या दुःख की जलधि!
समझ सके ना हम!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 4 March 2021

ठहर ऐ मन

ठहर, ऐ मन, मेरे संग यहीं,
तू यूँ ना भटक, कल्पनाओं में कहीं!

यूँ, न जा, दर-बदर,
पहर दोपहर, यूँ सपनों के घर,
जिद् ना कर,
तू ठहर,
मेरे आंगण यहीं!

ठहर, ऐ मन, मेरे संग यहीं,
तू यूँ ना भटक, कल्पनाओं में कहीं!

इक काँच का बना,
आहटों पर, टूटती हर कल्पना,
घड़ी दो घड़ी, 
आ इधर,
चैन पाएगा यहीं!

ठहर, ऐ मन, मेरे संग यहीं,
तू यूँ ना भटक, कल्पनाओं में कहीं!

वो तो, एक सागर,
सम्हल, तू ना भर पाएगा गागर,
नन्हा सा तू,
डूब कर,
रह जाएगा वहीं!

ठहर, ऐ मन, मेरे संग यहीं,
तू यूँ ना भटक, कल्पनाओं में कहीं!

कब बसा, ये शहर,
देख, टूटा ये कल्पनाओं का घर,
टूटा वो पल,
रख कर,
कुछ पाएगा नहीं!

ठहर, ऐ मन, मेरे संग यहीं,
तू यूँ ना भटक, कल्पनाओं में कहीं!

क्यूँ करे तू कल्पना, 
कहाँ, ये कब हो सका है अपना,
बन्जारा सा,
बन कर,
बस फिरेगा वहीं!

ठहर, ऐ मन, मेरे संग यहीं,
तू यूँ ना भटक, कल्पनाओं में कहीं!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)