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Thursday, 4 March 2021

ठहर ऐ मन

ठहर, ऐ मन, मेरे संग यहीं,
तू यूँ ना भटक, कल्पनाओं में कहीं!

यूँ, न जा, दर-बदर,
पहर दोपहर, यूँ सपनों के घर,
जिद् ना कर,
तू ठहर,
मेरे आंगण यहीं!

ठहर, ऐ मन, मेरे संग यहीं,
तू यूँ ना भटक, कल्पनाओं में कहीं!

इक काँच का बना,
आहटों पर, टूटती हर कल्पना,
घड़ी दो घड़ी, 
आ इधर,
चैन पाएगा यहीं!

ठहर, ऐ मन, मेरे संग यहीं,
तू यूँ ना भटक, कल्पनाओं में कहीं!

वो तो, एक सागर,
सम्हल, तू ना भर पाएगा गागर,
नन्हा सा तू,
डूब कर,
रह जाएगा वहीं!

ठहर, ऐ मन, मेरे संग यहीं,
तू यूँ ना भटक, कल्पनाओं में कहीं!

कब बसा, ये शहर,
देख, टूटा ये कल्पनाओं का घर,
टूटा वो पल,
रख कर,
कुछ पाएगा नहीं!

ठहर, ऐ मन, मेरे संग यहीं,
तू यूँ ना भटक, कल्पनाओं में कहीं!

क्यूँ करे तू कल्पना, 
कहाँ, ये कब हो सका है अपना,
बन्जारा सा,
बन कर,
बस फिरेगा वहीं!

ठहर, ऐ मन, मेरे संग यहीं,
तू यूँ ना भटक, कल्पनाओं में कहीं!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 15 March 2018

इसी शहर से

ठहरकर इसी शहर से हम गुजर जाते हैं...

ये तमाम रास्ते, कहीं दूर शहर से जाते हैं...
पर मेरे वास्ते, ये बंद नजर आते है!
किसी मोहपाश में हम यहाँ बंधे जाते हैं,
यूं शहर की धूल में बिखर जाते हैं?

हम न शीशा कोई ,जो पल में टूट जाते हैं...
फिसलकर हाथ से जो छूट जाते हैं!
हैं वही सोना, जो तपकर निखर जाते हैं,
जलकर आग में भी सँवर जाते हैं!

शहर की शुष्क आवोहवा बदल जाते है...
यूं खुश्बू की तरह यहाँ बिखर जाते हैं!
गर्मियों में फुहार बनकर बरस जाते है,
हम शहर के रहगुजर बन जाते हैं!

ठहरकर इसी शहर से हम गुजर जाते हैं...
भले ही हमसफर न कोई हम पाते हैं!
यूं बार-बार इस दिल को हम समझाते हैं,
फिर न जाने हम खुद बहक जाते हैं?

ठहरकर इसी शहर से हम गुजर जाते हैं...