रातों की गहराई में!
जब ये सृष्टि सारी, ढ़ँक जाती है,
प्रयत्न करता हूँ फिर मैं भी,
खुद को ढ़ँक लेने की,
जीवन के कड़वे सच से,
मुँह मोड़ लेने की,
दिन सा मैं भी,
अंधियारों में छुप जाता हूँ,
संज्ञाहीन बन जाता हूँ,
बिछ जाती है रातों की चादर,
सत्य, जरा ढ़ँक जाता है,
पर, अन्दर,
फूलती-चलती है साँसें,
गहराता है सत्य,
जग उठती है, ये शुन्य मति,
टूटती है संज्ञाहीनता,
भान सा होता है,
दूर क्षितिज पे कहीं,
फूटती है रौशनी,
सत्य, भला कब सोता है,
रातों की गहराई में!
गहराते अंधियारे में!
सन्नाटों के, बढ़ते शोर-शराबे में,
सत्य, कहाँ घबराता है,
हरपल अडिग,
अनवरत संघर्षरत,
कर देता है,
अंधियारे को नतमस्तक,
खुल जाते हैं चौंधकर,
मेरे दो पलक,
विस्मयकारी यह सत्य,
सोचता है मन,
क्या,
मुँह मोड़ लेना,
ही है
जीवन?
जलता-बुझता है क्षितिज,
आजीवन!
नित ले आती है,
नई प्रभा,
चकाचौंध आभा,
जग पड़ती है, सोई संज्ञा,
रातों की गहराई में!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)