बांकी है हिस्से में, अभी कितने और बसंत....
हो जब तक इस धरा पर तुम,
यौवन है, बदली सी है, सावन है अनन्त,
ना ही मेरा होना है अन्त,
आएंगे हिस्से में मेरे,
अनगिनत कितने ही और बसंत......
शीतल, निर्झर सरिता सी तुम,
धार है, प्रवाह है तुझमें जीवन पर्यन्त,
है तुझसे ही सारे स्पन्दन,
हिस्से में अब हैं मेरे,
कलकल बहते कितने ही बसंत.....
यूं जाते हो मुझको छूकर तुम,
ज्यूं बरखा हो, या बहती सी कोई पवन,
छू जाती हो जैसे किरण,
सासों के घेरे में मेरे,
एहसासों के कितने ही हैं बसंत.....
हर मौसम ही, खिलते हो तुम,
पतझड़ में, लेकर आते हो नवजीवन,
जगाते हो निष्प्राण मन,
संग सदा तुम मेरे,
हरपल देखे है कितने ही बसंत....
निश्छल स्निग्ध आकाश तुम,
जब तक है, तेरी इन सायों का ये घन,
कभी न होगा मेरा अन्त,
उतरेगे मन में मेरे,
सदाबहार होते कितने ही बसंत....
बांकी है हिस्से में मेरे, अभी कितने और बसंत....
हो जब तक इस धरा पर तुम,
यौवन है, बदली सी है, सावन है अनन्त,
ना ही मेरा होना है अन्त,
आएंगे हिस्से में मेरे,
अनगिनत कितने ही और बसंत......
शीतल, निर्झर सरिता सी तुम,
धार है, प्रवाह है तुझमें जीवन पर्यन्त,
है तुझसे ही सारे स्पन्दन,
हिस्से में अब हैं मेरे,
कलकल बहते कितने ही बसंत.....
यूं जाते हो मुझको छूकर तुम,
ज्यूं बरखा हो, या बहती सी कोई पवन,
छू जाती हो जैसे किरण,
सासों के घेरे में मेरे,
एहसासों के कितने ही हैं बसंत.....
हर मौसम ही, खिलते हो तुम,
पतझड़ में, लेकर आते हो नवजीवन,
जगाते हो निष्प्राण मन,
संग सदा तुम मेरे,
हरपल देखे है कितने ही बसंत....
निश्छल स्निग्ध आकाश तुम,
जब तक है, तेरी इन सायों का ये घन,
कभी न होगा मेरा अन्त,
उतरेगे मन में मेरे,
सदाबहार होते कितने ही बसंत....
बांकी है हिस्से में मेरे, अभी कितने और बसंत....
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